जहाज का पंछी / इलाचन्द्र जोशी
रचनाकार | इलाचन्द्र जोशी |
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प्रकाशक | लोकभारती प्रकाशन |
वर्ष | २००१ |
भाषा | हिन्दी |
विषय | |
विधा | |
पृष्ठ | 332 |
ISBN | |
विविध |
तो अन्त में मुझे इस गली में शरण मिली है-कलकत्ता महानगरी के इस नरक में, गन्दगी को भी गन्दा करने वाले इस घूरे में, सभ्य संसार की इस फैशन की रंगीनी के आवरण के भीतर मानव जगत् के मर्म में छिपे हुए इस कोढ़ केन्द्र में ! विश्वास मानिए, मैं केवल विवशता के कारण यहाँ आया हूँ, किसी प्रकार की ज्ञात या अज्ञात इच्छा या कुतूहल या जीवन की गन्दगी का ज्ञान प्राप्त करने की उत्सुकता से प्रेरित होकर नहीं। जीवन के विविध चक्करों में उलझनों और तरह-तरह के संघर्षों का सामना करने के बाद जब परिस्थितियों ने मुझे इस विराट् नगरी में लाकर पटक दिया, तब मुझे कहीं इतनी भी जगह सुलभ न हो सकी जितने में मैं दो हाथ और दो पाँव पसारकर लेट सकता और अपने पिछले सत्ताईस वर्षों के जीवन की थकान कुछ समय के लिए भुला सकता। इससे आप लोग यह अनुमान न लगाएँ कि मेरे लिए केवल लेटने योग्य जगह पा जाने की ही समस्या थी और पेट भरने की सारी व्यवस्था बिलकुल ठीक थी। नहीं, पेट भरने की भी तनिक-सी व्यवस्था मेरे लिए कहीं किसी भी रूप में नहीं थी।
पर, सच मानिए, कलकत्ते में पाँव रखते ही जिस चिन्ता ने सबसे पहले मेरे मन पर आघात किया, वह पेट से सम्बन्धित न होकर निवास से सम्बन्धित थी। ‘क्या खाऊँ यह प्रश्न मेरे मन में बाद में उठा; कहाँ जाऊँ, यह प्रश्न प्रधान बनकर पहले ही क्षण मेरी छाती पर चढ़कर बैठ गया। लगता था कि यदि कहीं लेटने भर को जगह पा जाऊं तो कई युगों तक बिना अन्न-जल लिये भी जी सकूँगा। इस विराट् नगर की बड़ी-बड़ी सड़कों को दोनों ओर से घेरे हुए जो बड़े-बड़े भवन, सौध-श्रेणियाँ और अट्टालिकाएँ खड़ी थीं, उनकी ईंट-ईंट के भीतर जैसे मनुष्य-रूपी असंख्य कीट भरे पड़े थे; पर उनमें मेरे और मेरे ही जैसे निःसंबल, जीवन-संघर्ष में थके-हारे युग युग से भटकते हुए पथिकों के लिए कहीं तिलभर भी स्थान नहीं था। कई दिनों पार्कों और फुटपाथों पर काल को काटता या धोखा देता रहा। सुबह से लेकर आधी रात तक का समय अधिकांशत: किसी पार्क में बिता देता और आधी रात के बाद जब पार्क का चौकीदार मुझे धक्का देकर जगाता तब बाहर निकलकर या तो किले के मैदान का आश्रय पकड़ता या किसी फुटपाथ की शरण जाता। जो दो रुपये किसी जुगत से मैंने बचा रखे थे वे भी जब दो-चार दिन तक दो जून चना चिउड़ा चबाने में समाप्त हो गए, तब पेट की ओर से भी बड़ी तीखी और मार्मिक शिकायतें मन के तारों के जरिये मेरे मष्तिस्क में पहुँचने लगीं। दृढ़ इच्छा शक्ति से उनका प्रतिरोध या अवज्ञा करने का प्रयत्न करता हुआ मैं निरन्तर इस चेष्टा में रहा कि कहीं किसी प्रकार की कोई नौकरी मिल जाय और दो रोटियों का ठिकाना लग जाय। पर चाहे मेरे संकोचशील, निष्प्रभाव और थकित व्यक्तित्व के कारण हो, चाहे युग की सामूहिक परिस्थितियों के कारण, मैं कहीं किसी भी प्रकार की सुविधा जुटा सकने में असमर्थ सिद्ध हुआ।
मेरी शारीरिक और मानसिक स्थिति दिन-पर दिन बिगड़ती चली गई। कालेज स्क्वायर के एक बेंच पर बैठा-बैठा मैं पास ही चना, चिउड़ा, मूँगफली और इसी तरह की दूसरी चीजों से सजे हुए खोमचों की ओर ललकती आँखों से देखता रहता। मुँह में पानी भर आता, पर आँखों का पानी सूख गया था, जैसे जीवन के अन्तहीन रेगिस्तान के भीतर दो अनादि और अतल धाराएँ सदा के लिए खो गई हों। इच्छा शक्ति धीरे ढीली पड़ती चली जा रही थी और सबसे बड़ा खतरा मुझे इस बात पर दिखाई देता था कि सबसे निकृ़ष्ट प्रकार की करुणा-आत्मकरुणा-जगा सकने की शक्ति और समर्थता तक मुझमें शेष नहीं रह गई थी। मन में बारबार यही निश्चय करता था कि अबकी जो भी व्यक्ति बेंच पर मेरी बगल में बैठेगा उसे अपनी सच्ची परिस्थिति बताकर, उसके भीतर करुणा जगाकर, कम से कम चना-चिउड़ा के लिए कुछ पैसे प्राप्त कर लूँगा। कभी पन्द्रह मिनट और कभी आधे घण्टे के अन्तर से एक नया आदमी आकर मेरी बगल में बैठता था। पर हर तरह कोशिश करने पर भी मेरे मन की बात मेरे ओठों तक आकर रह जाती। प्रत्येक बार मैं सोचता कि अगले व्यक्ति के आगे अपनी व्यथा की करुण-कथा अवश्य प्रकट करूँगा, पर हर बार जबान पर जैसे ताला लग जाता। मेरे मुँह से बात जो निकल नहीं पाती थी उसका एक कारण तो स्पष्ट ही मेरे भीतर युग-युगों से अवरुद्ध सांस्कृतिक संस्कार था। पर उसके अलावा एक और कारण भी था।
मैं प्रारम्भ से ही इस बात पर गौर कर रहा था कि जब कोई व्यक्ति-चाहे वह छात्र हो या अध्यापक, दफ्तर का बाबू हो या साधारण चपरासी-जब पार्क का पूरा चक्कर लगाने के बाद थककर और किसी दूसरे बेंच में जगह न देखकर, मेरी बगल में आकर बैठता तब मेरी ओर एक बार सरसरी दृष्टि से देखने के बाद तत्काल अपनी जेब को सम्भालते हुए सरककर बैठ जाता। मेरे सिर के रूखे-सूखे, अस्त-व्यस्त बाल, घनी घास से भरी क्यारियों की तरह दो गुलमुच्छे और उन गलमुच्छों के अगल-बगल और नीचे फैले हुए, एक हफ्ते से न छीले गए, फसल कटने के बाद शेष रह जाने वाले सूखे-खूँटों की तरह छितराए हुए दाढ़ी के बड़े बाल, क्षय रोग के रोगियों की तरह मुरझाया हुआ मेरा दुबला-पतला, धुले हुए कपड़ों की तरह रक्तहीन सफेद चेहरा, धँसी हुई (और सम्भवतः अप्राकृतिक से चमकती हुई) आँखें गढ़े पड़े हुए गाल और गालों की ओर ठुड्डी की उभरी हुई, नुकीली हड्डियाँ तिस पर कई दिनों से धुलने की सुविधा न होने से मैला कुर्ता और मैली ही धोती-ये सब उपकरण देखकर कोई भी व्यक्ति स्वभावतः मुझसे सावधान रहना चाहेगा, यह मैं पहले ही से जानता था।
इसलिए इस बात से मुझे दुःख नहीं होता था। फिर भी इसका असर इतना तो पड़ता ही था कि कुछ प्रार्थना करने के सम्बन्ध में मेरा रहा-सहा साहस भी जाता रहता था। इसके अतिरिक्त, बाद में इस बात की एक और प्रतिक्रिया मेरे मन पर अपना प्रभाव छोड़ने लगी, जिसकी कल्पना-मात्र से मैं बाद में आतंकित हो उठता। जब मेरा हुलिया देखकर मेरी बगल में बैठने वाले एक-एक करके प्रायः सभी व्यक्ति मुझ पर पेशेवर गुण्डा या गिरहकट होने का सन्देह करने लगे तब अपनी उस हताश स्थिति में उन लोगों के मन की भावना का छुतहा प्रभाव मुझ पर इस रूप में पड़ने लगा कि बीच-बीच में कुछ क्षणों के लिए मैं सचमुच तिरछी दृष्टि से (हाथ से नहीं) पास वाले की जेब की जाँच करने लगता।
एक बार कालेज स्क्वायर के एक बेंच में प्रायः बाईस-तेईस वर्ष के दो समवयसी से लगने वाले लड़के (सम्भवतः छात्र) मेरी बगल में इतमीनान से बैठ गए-दूसरे व्यक्तियों की तरह शंका से मुझसे अलग हटकर, दबकर, सरककर नहीं बैठे। दोनों ने एक बार सरसरी दृष्टि से मेरी ओर देखा। लगा कि मेरे सम्बन्ध में कुछ कुतूहल उनके मन में जगा। पर उन्होंने न कुछ पूछा, न मैं कुछ बोला। थोड़ी देर बाद बगल वाले लड़के ने, जिसका चेहरा गोल था, रंग साँवला था और जो काफी स्वस्थ और तगड़ा दिखाई देता था, मेरी ओर पीठ फेर ली और वह अपने साथी के बँगला में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर बातें करने लगा। बात बढ़ते-बढ़ते गरमागरम बहस में परिणित हो गई। प्रश्न बहुत फैलने के बाद अन्त में कटकर, छटकर, सिमटकर इस बात पर केन्द्रित हो गया कि क्या चीन और अमेरिका के बीच कभी किसी बात पर समझौता हो सकेगा। जो लड़का मेरी बगल में मेरी ओर पीठ करके बैठा हुआ था वह एकएक शब्द बल्कि अक्षर-पर पूरा जोर देते हुए कहा था कि ‘‘ऐसा कभी हो नहीं सकता। अमेरिका ‘फ्री वर्ल्ड’ से सम्बन्ध रखता है-उसका नेतृत्व करता है, जबकि चीन मानव-जीवन को पग-पग पर तरह-तरह के बन्धनों में उलझाए रखना चाहता है। अमेरिका मुक्ति का उपासक है, चीन बन्धनों का प्रतिष्ठाता।
दोनों के आदर्शों में मूलगत वैषम्य है। इसलिए कभी दोनों के बीच समझौता नहीं हो सकता।’’ दूसरा लड़का कह रहा था, ‘‘सामूहिक मानवीय आदर्शों के बीच इतनी बड़ी खाईं अणु-युग से अधिक समय तक रह रही ही नहीं सकती। इसलिए चीन, रूस और अमेरिका को एक दूसरे के निकट सम्पर्क में आना ही होगा-चाहे संघर्ष द्वारा हो, चाहे समझौते द्वारा। और मुक्ति और बन्धन के बारे में तुमने जो बात कही है उससे जाहिर है कि वास्तविकता के सम्बन्ध में तुम्हारा ज्ञान कितना छिछला और कृत्रिम है। आज मानव-जीवन में स्वतन्त्रता कहीं किसी भी रूप में विद्यमान नहीं है। आज मानवता के सारे तन्त्र, मन्त्र और यन्त्र स्वतन्त्रता को इस पृथ्वी पर से एकदम मिटा देने के लिए बाजी लगाए बैठे हैं। कहीं स्वतन्त्रता छिपे तौर पर, बदले हुए भेष में टिकी न रह जाय, इस आशंका से उसे डराने और भगाने के लिए सभी प्रयत्न किये जा रहे हैं। हाइड्रोजन बम के परीक्षणों द्वारा उसे आतंकित किया जा रहा है। कहीं पृथ्वी के उस पार किसी ग्रह से उड़कर मुक्ति पृथ्वी का आश्रय ग्रहण न कर ले, इस भय से सभी महासागरों के चारों ओर कड़ी निगरानी रखी जा रही है।’’ ‘‘तुम्हारा यह व्यंग्य साफ ही अमेरिका के प्रति है,’ पहला लड़का बोला, ‘‘अभी तुमने ठीक से अमेरिका का उद्देश्य समझा नहीं है।’’
‘‘और तुम्हीं ने रूस का उद्देश्य कहाँ समझा है ?’’ दूसरे लड़कों ने कहा। ‘‘मैं अमेरिकी सभ्यता का उपासक नहीं हूँ, पर चीनी और रुसी सभ्यता से उसे बेहतर मानता हूँ,’’ पहला लड़का कुछ उत्तेजित होकर बोला। ‘‘मैं चीनी और रूसी सभ्यता का उपासक नहीं हूँ, पर अमेरिकी सभ्यता से उसे बेहतर मानता हूँ’’, दूसरे लड़के ने उसी लहजे में उत्तर दिया। ‘‘अमेरिका यह चाहता है कि...’’ चीन यह चाहता है कि....’’
बहस ने बढ़ते-बढ़ते ऐसा गरम रूप धारण कर लिया कि दोनों लड़के-जो स्पष्ट ही घनिष्ट मित्र लगते थे-व्यक्तिगत स्तर पर उतर आए और एक दूसरे के प्रति मार्मिक व्यंग्य कसने लगे। एक कहता था, ‘‘तुम दुम कटे सोशलिस्ट हो।’’ दूसरा मेरी बगल वाला लड़का कहता था, ‘‘तुम परकटे कम्युनिस्ट हो।’’ मेरी बगल वाला व्यक्ति लड़का उत्तेजित होने के कारण इस तरह उछल-उछलकर बातें कर रहा था कि उसके कुर्ते की जेब में रखा हुआ काले रंग का बटुआ धीरे-धीरे बाहर की ओर निकलता चला आ रहा था। अन्त में यहाँ तक बात आई कि बटुआ पूरे का पूरा बाहर निकलकर बेंच पर आ गिरा-उसकी पीठ और मेरे हाथ के बीच में। मैं यद्यपि भरसक उनकी बहस में विघ्न डालना नहीं चाहता था। (क्योंकि मुझे उनकी बातों में बड़ा रस मिल रहा था, यहाँ तक कि मैं अपनी भूख-वेदना को भी बहुत कुछ भूल-सा गया था) तथापि जब उस लड़के का बटुआ मेरे हाथ के पास आ गिरा तब मैं न रह सका। भयभीत होकर मैंने चिल्लाना शुरू किया, ‘‘तनिक इस ओर भी देखिए महाशय, आपका बटुआ गिर गया है।’’
लड़के ने पीछे की ओर मुड़कर देखा और घबराहट के स्वर में बोला,‘‘कहाँ है ?’’ और अपनी जेब में हाथ डालने लगा। मैंने नीचे से उठाकर उसके हाथ में बटुआ थमाते हुए कहा, ‘‘यह है।’’ लड़के ने मुझे धन्यवाद दिया, पर धन्यवाद देते हुए उसने एक बार गौर से मेरी ओर देखा। देखते ही उसकी आँखों में शंकित भाव साफ झलकने लगा। कुछ देर तक वह उसी शंकित दृष्टि से मेरी ओर एकटक देखता रहा। बड़ा ही भय उत्पन्न करने वाली थी उसकी वह सन्देह व्यंग्य और घृणा भरी दृष्टि। और फिर मेरे सामने ही उसने बटुए को खोलकर, नोटों को निकालकर गिनना शुरू कर दिया, जिससे यह स्पष्ट हो गया कि उसे केवल मेरी नीयत पर ही सन्देह नहीं है, बल्कि उसने मुझे पेशेवर गिरहकट मान ही लिया है। उसका साथी भी मेरे ‘व्यक्तित्व’ में दिलचस्पी लेने लगा और एक बार स्थिर दृष्टि से मेरी ओर देखकर उसने अपने साथी से पूछा, ‘‘क्या बात है ? ठीक तो है सब ?’’
‘‘हाँ ठीक ही है,’’ पहला लड़का बोला, ‘‘केवल एक रुपये का हिसाब नहीं मिल रहा है।’’ ‘‘अरे तब कोई बात नहीं, ‘‘दूसरे लड़कों ने कहा, ‘‘कहीं खर्च हो गया होगा बाद में याद आ जाएगा।’’ पहले लड़के ने बटुआ बन्द करके फिर एक बार उसी व्यंग्य सन्देह और घृणा भरी दृष्टि से मेरी ओर देखते हुए, बटुआ दूसरी तरफ वाली जेब में रख लिया। उसकी उस दृष्टि से मैं इस कदर कट गया कि रह न सका। जिस बात को मुँह से निकालने का साहस इतने दिनों तक किसी के आगे नहीं कर पाया था, वह सत्य होने पर भी बरबस जैसे एक व्यंग्य के रूप में मेरे मुँह से निकल पड़ी- ‘महाशय जी, इस तरह घूर क्या रहे हैं ? साफ कहिए कि बटुआ मिलने की खुशी में आप मुझे ‘चना-चूर’ नहीं खिलाना चाहते !’’ ‘‘हा: हा: हा: !’’ एक विकट ठहाका मारते हुए वह लड़का अपने साथी का हाथ पकड़ता हुआ उठा और बोला, ‘‘उठो यहाँ से चलें।’’
दूसरा लड़का मेरी ओर जिज्ञासा-भरी दृष्टि से देखता हुआ धीरे से उठा। उसकी आँखों में व्यंग्य की अपेक्षा समवेदना का भाव अधिक स्पष्टता से झलक रहा था। उसने अपने साथी से कहा, ‘‘अपने बटुए से एक रुपया निकालकर उसे दे दो।’’ ‘‘क्या बात करते हो ? पागल हुए हो क्या ? अरे वह नम्बरी गुण्डा है। उसके चेहरे से तुमने नहीं पहचाना ? मैं तो पहली ही नजर में भाँप गया था। तुम क्या यह समझते हो कि बटुआ यों ही गिर गया था ?’’ वह ऐसे साफ शब्दों में और ऊँची आवाज में बोल रहा था कि अगल-बगल के बेंचों में बैठ हुए लोग भी दिलचस्पी लेते हुए-से जान पड़े।
‘मुझे इस बात से कोई बहस नहीं है।’’ दूसरा लड़का कुछ खीझकर बोला, ‘‘तुम अगर अपनी तरफ से रुपया नहीं देना चाहते तो मुझे एक रुपया उधार दो। मैं कल तुम्हें दे दूँगा।’’ ‘‘अरे हटाओ भी ! तुम गलत ढंग के भावुक आदमी हो। मैं तुम्हें एक क्या दस रुपये उधार देने को तैयार हूँ, पर यहाँ और इस समय नहीं। आगे चलो मेरे साथ।’’ यह कहकर वह बलपूर्वक अपने साथी को घसीटता हुआ-सा ले गया। मैं एक लम्बी साँस खींचकर वहीं बैठा रहा। सब कुछ सुनने और समझने के बाद मुझे इस बात पर आश्चर्य होने लगा कि उस लड़के ने मुझे सन्देह में पीटा क्यों नहीं।
कुछ देर तक मैं सूने भाव से एकदम जड़ और निश्चेष्ट मन-स्थिति में उसी तरह बैठा रहा। धीरे धीरे मेरा भूख से थकित शरीर अवश होता चला जा रहा था। बैठने की शक्ति मुझमें नहीं रह गई थी। बेंच खाली पड़ा था। मैं लेटने ही जा रहा था कि सहसा सामने बाईं ओर से वही साँवले रंग और गोलाकार चेहरे वाला, मोटा-सा लड़का आता हुआ दिखाई दिया। उसके साथ इस बार उसका साथी दूसरा लड़का नहीं था। उसके पीछे-पीछे पुलिस का एक आदमी चला आ रहा था। मेरे पास आते ही वह लड़का ठहर गया और मेरी ओर संकेत करते हुए पुलिस वाले से बोला, ‘‘यही है। मेरी जेब से बटुआ निकालकर गायब कर लेना चाहता था।’’ तत्काल आठ-दस आदमी इकट्ठा हो गए। भीड़ में से एक आदमी बोला, ‘‘मैं भी कई दिन से इस आदमी को ‘मार्क कर रहा हूँ। पहले दिन देखते ही मैं समझ गया था कि यह घिसा हुआ गिरहकट है। क्या जमाना आया है ! इन चोट्टों की संख्या दिन-पर-दिन बढ़ती चली जा रही है। सालों ने अच्छे आराम का पेशा अख्तियार किया है।’’
मेरी दिल की धड़कन बेतरह बढ़ गई थी और पाँव बरबस थरथरा रहे थे। पुलिस का आदमी कुछ देर तक अपनी छोटी-सी आँखों से, बड़ी ही क्रूर दृष्टि मेरी ओर एकटक देखता रहा। उसके बाद क्रोध और अधिकार से भरी भारी आवाज में बोला, ‘‘मैं इसे जानता हूँ। रात में कभी पार्क में और कभी फुटपाथ पर लेटा रहता है। पक्का दस नम्बरी है। क्यों बे, क्या हाल है ? चल उठ !’’ कहकर उसने मेरा दायाँ हाथ पकड़कर खींचकर मुझे उठाया। उसके बाद उसने उसी गोल मुँह वाले लड़के से कहा, ‘‘आपको भी रपट लिखाने के लिए मेरे साथ थाने में चलना होगा।’’ ‘‘थाने में ? रिपोर्ट लिखाने के लिए ? मैं थानेवाने कहीं नहीं जाऊँगा। मैंने तुम्हें बता और दिखा दिया और गवाही भी दिला दी। अब तुम्हारा काम है, चाहे थाने ले जाओ, चाहे उठाकर यहीं तालाब में फेंक दो। थाने में जाऊँ उल्टे मैं ? अरे बाबा, मैं बाज आया !’’
‘‘यह कैसे हो सकता है, साहब !’’ मेरा हाथ कसकर पकड़े हुए पुलिस वाला, जो स्पष्ट ही मिर्जापुरी लगता था, उस लड़के से बोला, ‘‘बिना रपट लिखाए कैसे काम चलेगा ? आप चलते क्यों नहीं मेरे साथ थाने में ? आप डरते काहे को हैं ?’’ ‘‘अरे बाबा, न, न ! मैं थाने किसी भी हालत में नहीं जाऊँगा। मेरे चौदह पुश्तों में कभी कोई थाने नहीं गया, आज मैं जाऊँ ? न, यह कभी सम्भव नहीं हो सकता।’’ अपने भय को परिहास का रूप देते हुए लड़के अच्छे कौतुक का अनुभव करते हुए हँस पड़े।
पुलिस वाला खीझ उठा। सम्भवतः आज मैं ही उसका शिकार था और उसी को हाथ से फिसलते देखकर वह सचमुच चिन्तित हो उठा। रिपोर्ट लिखाने से एक अच्छा-खासा ‘केस’ उसके ‘क्रेडिट’ में जुड़ जाता। नहीं तो बिना सबूत के कितने ही ‘गिरहकट’ प्रतिदिन पकड़े, हवालात में बन्द किये और छो़डे जाते थे। ऐसे मामले पुलिस की नौकरी के हिसाब-खाते में-तरक्की की रिपोर्ट में-शायद नहीं जोड़े जाते थे। जब वह लड़के को ‘रपट’ लिखाने के लिए किसी तरह भी राजी न कर सका तब हताश मनःस्थिति में मुझे बुरी तरह घसीटता हुआ पार्क के बाहर ले गया। कुछ दूर आगे ले जाकर एक धक्का देकर उसने मुझे छोड़ दिया। इस धक्के से मैं कई कदम आगे फुटपाथ पर एक पुस्तकों की दुकान के नीचे, बड़े जोरों से औंधा गिरा, दाँतों से ओठ कट जाने से मुँह से खून गिरने लगा, केवल इतना ही मुझे याद है। उसके बाद जाहिर है कि मैं बेहोश हो गया हूँगा, क्योंकि उसके बाद उस दिन की कोई स्मृति मुझे नहीं है।
जब होश आया तब प्रारम्भिक कुछ क्षणों तक मुझे लगा कि मैं सपना देख रहा हूँ। मुझे अपने चारों ओर पलंग ही पलंग दिखाई दिये। प्रत्येक पलंग पर कोई न कोई आदमी लेटा हुआ था। मैंने आँखों को दोनों हाथों से अच्छी तरह मला और अर्द्धचेतना की-सी अवस्था में यह सोचने का प्रयत्न करने लगा कि वह कौन स्थान हो सकता है, जहाँ मैं लेटा हूँ। मन और मस्तिष्क दोनों ऐसे दुर्बल हो गये थे कि ठीक से कुछ सोच ही नहीं पाता था। दो-तीन मिनट बीतने पर मैं यह अनुमान लगा पाया कि मैं एक अस्पताल में हूँ। एक नर्स आई। उसने मेरी नाड़ी देखी,तापमान लिया और रक्तचाप मालूम किया। उसके बाद वह एक खुराक दवा मुझे पिला गई।
अस्पताल के जिस कमरे में मैं लेटा हुआ था वह स्पष्ट ही जनरल वार्ड था। यह अनुभूति मुझे बहुत ही सुखद लगी कि मैं एक पलंग पर लेटा हूँ, फुटपाथ पर या बेंच पर नहीं। मुझे एक गिलास दूध पिलाया गया और दोपहर को हल्का खाना भी दिया गया। मैंने दूध भी बड़े ही स्वाद से पिया और खाना भी बड़ी ही तृप्ति से खाया। मुझे लगा कि पुलिस वाले का धक्का देना मेरे लिए बड़ा ही वरदान सिद्ध हुआ, नहीं तो मुझे कहाँ सोने को पलंग मिलता, पीने को दूध मिलता (फिर चाहे उसमें आधे से अधिक पानी ही क्यों न मिला हुआ हो) और खाने को ‘वेजिटेबल सूप’ और खिचड़ी मिलती ! जाहिर है कि यह मेरे ऊपरी मन की प्रतिक्रिया थी। मेरी आत्मरक्षा की भावना मेरे भीतर मन की तीखी पीड़ा को उस समय बिल्कुल दबाए रखना चाहती थी। अपनी तत्कालीन विवश परिस्थिति के गलत मूल्यांकन से उत्पन्न, सामाजिक अत्याचार के कारण खरोचें गए नासूर को काटती कँटीली अनुभूति को मैं जान-बूझकर उभाड़ना नहीं चाहता था। मैं जानता था कि यदि मेरी तत्कालीन निपट दुर्बल शारीरिक स्थिति में भीतर की वह गहरी मर्म पीड़ा कहीं उमड़ उठी तो मैं फिर बेहोश हो जाऊँगा सम्भवतः मेरी मृत्यु ही हो जायेगी।
तीन चार दिन बाद मुझे लगा कि मेरे शरीर में और मन में कुछ बल का संचार हो रहा है। एक मीठी-मादकता भरी आशावादिता एक मोहक गुलाबी नशे की तरह मेरे मन में और प्राणों में छाने लगी। अस्पताल का सारा वातावरण, जो साधारण और स्वाभाविक परिस्थिति में किसी स्वस्थ और प्रसन्न व्यक्ति के अन्तर में भी उदासी की सीलन भर देता और निराशा और निरुत्साह की भावना जगाता है, मेरी आँखों के आगे निराले,सुनहरे स्वप्न के से रूप में भासमान होने लगा। मनुष्य के प्रति मनुष्य की सहज समवेदना और सहानुभूति के अस्तित्व पर से मेरा जो विश्वास उठने लगा था सामूहिक पीड़ा के उस वातावरण में फिर से मेरे मन में नये रूप में जमने लगा। मुझे लगा कि जितने भी मरीज उस वार्ड में भरती हुए हैं वे सब अपनी अपनी पीड़ा से विकल होने पर भी एक दूसरे का हाल जानने और अपने-अपने अनुभवों का दृष्टान्त देकर परस्पर दिलासे की बातें कहने के लिए उत्सुक हैं। विशेषकर वे रोगी, जो अपनी पीड़ा की प्रारम्भिक परिस्थितियों से कुछ उबर चुके थे, अपने अपने पड़ोसी रोगियों के मन के तारों को छूने, उनके हृदय के अधिक से अधिक निकट पारस्परिक स्नेहालाप मेरे मन को एक अपूर्व सुखद अनुभूति से गुदगुदा देता था। जब कोई नर्स आकर किसी मरीज को दवा देती हुई अपनी सारी व्यस्तता के बीच में उससे एक भी स्नेह-भरा शब्द बोल देती तो मेरा हृदय गद्गद हो उठता था।
जब कोई डॉक्टर किसी निराश रोगी को तनिक भी आश्वासन देता तब मेरा अन्तर व्यक्तिगत कृतज्ञता की-सी अनुभूति से पुलकित हो उठता। किसी अस्पताल में भरती होने का वह मेरे लिए पहला ही अवसर नहीं था। मैं जानता था कि इस देश में बल्कि केवल ‘आफिशियल ड्यूटी’ बजाने के उद्देश्य से मशीन की तरह मरीजों को देखते हैं और उनके प्रति मशीन की तरह ही रुखा और निर्मम उदासीन व्यवहार दिखाते हैं। किसी सरकारी दफ्तर का कर्मचारियों की तरह कायदे और कानून की कड़ी पाबन्दी के अतिरिक्त और कोई दूसरी भावना उन्हें परिचालित नहीं करती, पर अपनी इस बार की मनःस्थिति में मैं उन लोगों के ‘कायदे और कानून’ द्वारा परिचालित व्यवहार की उपेक्षा जान-बूझकर करता हुआ केवल उन विरले क्षणों के स्वागत की प्रतीक्षा में रहता जब उनके किसी एक आध शब्द से या मुख के किसी भाव से उनके भीतर का सच्चा मनुष्य बोल उठता था।
मेरे मन के भीतर एक अजीब परिवर्तन हो रहा था। इसका बाहरी कारण तो स्पष्ट ही यह था कि बहुत दिनों बाद मुझे वास्तविक अर्थ में आराम करने का अवसर मिला था; मेरे तन के साथ ही मेरे मन को भी भरपूर आराम मिल रहा था। पर केवल इतने ही कारण से मेरे मन का परिप्रेक्षण आमूल बदला हो, ऐसा मैं नहीं मानता। न जाने कौन-सा रहस्यमयी विषैल, मार्मिक और मारक अनुभवों के कारण मेरे भीतर जो कुण्ठा, पराजय और कटुता की भावनाएँ कुछ समय से घर करने लगीं थीं वे एक अत्यन्त तुच्छ कारण से बादल की ही तरह फटकर साफ हो गईं। अपने बचपन के दुखी जीवन में भी अज्ञात आशा और अकारण उल्लास की जो सहज अनुभूतियाँ उषा के प्रथम प्रकाश की तरह मेरे अन्तर्मन को पुलक से व्याकुल किया करती थीं वे किसी रहस्यमय कारण से, सहसा मन के अतल से, उभरकर अस्पताल के उस उदास वातावरण को एक अजीब-सी मोहक रंगीनी प्रदान करने लगीं।
मुझे, जाने क्यों, बचपन की वे विजन दुपहरियाँ याद आने लगीं जब पिड़कियों और वन-कपोतों के विह्वल और करुण कूजन से जीवन में सर्वत्र एक अलस मीठी उदासी छायी हुई मालूम होती थी और उसी मीठी उदासी के वायु से भी झीने वातावरण में, बीजाणु रूप में, भावी जीवन के सहस्रों अस्पष्ट सुनहले स्वप्न तैरते हुए-से लगते थे और शतशत रूप रेखाहीन, अजानित उन्नताकांक्षाएँ प्राणों को गुदगुदाती रहती थीं। मेरे वे स्वप्न कभी चरितार्थ नहीं हुए। जिन-जिन विविध क्षेत्रों में मैंने सच्ची लगन से काम किया, वहाँ मैं ठोकरें खाता और ठुकराता जाता रहा। तुच्छ व्यक्तिगत स्वार्थों को तिलांजलि देता हुआ, सामाजिक, राष्ट्रीय और सामूहिक हित को ध्यान में रखकर, अपनी सीमित समर्थता से भरसक ईमानदारी को अपनाता हुआ, विघ्नों और अवरोधों से निरन्तर लड़ता हुआ, मैं जिन नये-नये पथों, नये-नये मोड़ों पर कदम बढ़ाता चला गया वहाँ मैंने सामूहिक विरोध और प्रतिरोध ही पाया। मैं मानता हूँ कि मेरे शत्रुओं ने भी कभी कोई सन्देह प्रकट किया। पर बराबर मेरी गति और प्रगति को रोकने के लिए गुप्त संगठन और सम्मिलित षड्यंत्र होते रहे जीवन-संबंधी अपने लम्बे अनुभवों के दौरान मैं बहुत दिनों तक समझ न पाया कि मेरे उद्देश्यों से जब किसी को कोई विरोध नहीं है, मेरी ईमानदारी पर किसी को कोई सन्देह नहीं है, तब भी मेरे विरुद्ध सम्मिलित गुप्त षड्यंत्र-केवल किसी एक विशेष क्षेत्र में नहीं, बल्कि सभी क्षेत्रों में-क्यों रचे जाते हैं। अन्त में जब लगातार दो तीन घटनाएँ ऐसी घटीं जिन्होंने मनुष्य-स्वभाव की अन्तरीण और आधारभूत महत्ता और उदारता के प्रति मेरे विश्वास को जड़ से हिलाना आरम्भ कर दिया, तब मेरी भटकी और भरमायी हुई दृष्टि कुछ ठिकाने आ लगी।
तब यह पुराना तथ्य मेरे आगे पहली बार नये रूप में उद्घाटित हुआ कि मेरी ईमानदारी ही मेरा सबसे बड़ा शत्रु है। उन घटनाओं का उल्लेख आगे अवसर आने पर करूँगा। यहाँ पर केवल इतना ही संकेत कर देना चाहता हूँ कि मेरे बचपन के उन सुनहले स्वप्नों के पूर्णतया कुचले जाने और घनिष्ट से घनिष्ट व्यक्तियों से भी असहानुभूति धोखा और विश्वासघात पाने पर भी मैं न तो कभी अपनी स्वभावगत ईमानदारी के लिए पछताया और न मनुष्य पर से मेरा विश्वास कभी हटा। अपनी चरम दुर्गति की परिस्थिति में भी, जब मैं भूखा रहकर पार्कों या फुटपाथों पर रातें बिता रहा था, तब मेरा ऊपरी मन बहुत पीड़ित होने, खीझने और विद्रोही हो उठने पर भी, मेरे मन के भी मन के नीचे आशा की चिनगारियाँ विद्यमान थीं, बुझ नहीं गई थीं। क्यों नहीं बुझ गयीं, इसका कारण मैं ठीक से बता नहीं सकता। अपने स्वभाव की विचित्रता को ही मैं इसका प्रधान कारण मानता हूँ।
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