ज़ख्म़ / असगर वज़ाहत

Gadya Kosh से
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बदलते हुए मौसमों की तरह राजधानी में साम्प्रदायिक दंगों का भी मौसम आता है। फर्क इतना है कि दूसरे मौसमों के आने-जाने के बारे में जैसे स्पष्ट अनुमान लगाये जा सकते हैं वैसे अनुमान साम्प्रदायिक दंगों के मामले में नहीं लगते। फिर भी पूरा शहर यह मानने लगा है कि साम्प्रदायिक दंगा भी मौसमों की तरह निश्चित रूप से आता है। बात इतनी सहज-साधारण बना दी गयी है कि साम्प्रदायिक दंगों की खबरें लोग इसी तरह सुनते हैं जैसे 'गर्मी बहुत बढ़ गयी है` या 'अबकी पानी बहुत बरसा` जैसी खबरें सुनी जाती हैं। दंगों की खबर सुनकर बस इतना ही होता है कि शहर का एक हिस्सा 'कर्फ़्यूग्रस्त` हो जाता है। लोग रास्ते बदल लेते हैं। इस थोड़ी-सी असुविधा पर मन-ही-मन कभी-कभी खीज जाते हैं, उसी तरह जैसे बेतरह गर्मी पर या लगातार पानी बरसने पर कोफ़्त होती है। शहर के सारे काम यानी उद्योग, व्यापार, शिक्षण, सरकारी काम-काज सब सामान्य ढंग से चलता रहता है। मंत्रिमंडल की बैठकें होती हैं। संसद के अधिवेशन होते हैं। विरोधी दलों के धरने होते हैं। प्रधानमंत्री विदेश यात्राओं पर आते हैं, मंत्री उद्घाटन करते हैं, प्रेमी प्रेम करते हैं, चोर चोरी करते हैं। अखबार वाले भी दंगे की खबरों में कोई नया या चटपटापन नहीं पाते और प्राय: हाशिए पर ही छाप देते हैं। हां, मरने वालों की संख्या अगर बढ़ जाती है तो मोटे टाइप में खबर छपती है, नहीं तो सामान्य।

यह भी एक स्वस्थ परंपरा-सी बन गयी है कि साम्प्रदायिक दंगा हो जाने पर शहर में 'साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलन` होता है। सम्मेलन के आयोजकों तथा समर्थकों के बीच अक्सर इस बात पर बहस हो जाती है कि दंगा होने के तुरंत बात न करके सम्मेलन इतनी देर में क्यों किया गया। इस इलज़ाम का जवाब आयोजकों के पास होता है। वे कहते हैं कि प्रजातांत्रिक तरीके से काम करने में समय लगता है क्योंकि किसी वामपंथी पार्टी का प्रान्तीय कमेटी सम्मेलन करने का सुझाव राष्ट्रीय कमेटी को देती है। राष्ट्रीय कमेटी एक तदर्थ समिति बना देती है ताकि सम्मेलन की रूपरेखा तैयार की जा सके। तदर्थ समिति अपने सुझाव देने में कुछ समय लगाती है। उसके बाद उसकी सिफारिशें राष्ट्रीय कमेटी में जाती हैं। राष्ट्रीय कमेटी में उन पर चर्चा होती है और एक नया कमेटी बनायी जाती है जिसका काम सम्मेलन के स्वरूप के अनुसार कार्य करना होता है। अगर राय यह बनती है कि साम्प्रदायिकता जैसे गंभीर मसले पर होने वाले सम्मेलन में सभी वामपंथी लोकतांत्रिक शक्तियों को एक मंच पर लाया जाये, तो दूसरे दलों से बातचीत होती है। दूसरे दल भी जनतांत्रिक तरीके से अपने शामिल होने के बारे में निर्णय लेते हैं। उसके बाद यह कोशिश की जाती है कि 'साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलन` में साम्प्रदायिक सद्भाव बनाने के लिए नामी हिंदी, मुसलमान, सिख नागरिकों का होना भी जरूरी है। उनके नाम सभी दल जनतांत्रिक तरीके से तय करते हैं। अच्छी बात है कि शहर में ऐसे नामी हिंदी, मुस्लिम, सिख नागरिक हैं जो इस काम के लिए तैयार हो जाते हैं। उन नागरिकों की एक सूची है, उदाहरण के लिए भारतीय वायुसेना से अवकाशप्राप्त एक लेफ़्टीनेंट जनरल हैं, जो सिख हैं, राजधानी के एक अल्पसंख्यकनुमा विश्वविद्यालय के उप-कुलपति मुसलमान हैं तथा विदेश सेवा से अवकाश-प्राप्त एक राजदूत हिंदू हैं, इसी तरह के कुछ और नाम भी हैं। ये सब भले लोग हैं, समाज और प्रेस में उनका बड़ा सम्मान है। पढ़े-लिखे और बड़े-बड़े पदों पर आसीन या अवकाशप्राप्त। उनके सेकुलर होने में किसी को कोई शक नहीं हो सकता। और वे हमेशा इस तरह के साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलनों में आने पर तैयार हो जाते हैं।


एक दिन सो कर उठा और हस्बे-दस्तूर आंखें मलता हुआ अखबार उठाने बालकनी पर आया तो हैडिंग थी 'पुरानी दिल्ली में दंगा हो गया। तीन मारे गये। बीस घायल। दस की हालत गंभीर। पचास लाख की सम्पत्ति नष्ट हो गयी।` पूरी खबर पढ़ी तो पता चला कि दंगा कस्माबपुरे में भी हुआ है। कस्माबपुरे का ख्याल आते ही मुख्तार का ख्याल आ गया। वह वहीं रहता था। अपने ही शहर का था। सिलाई का काम करता था कनाट प्लेस की एक दुकान में। अब सवाल ये था कि मुख्तार से कैसे 'कान्टैक्ट` हो। कोई रास्ता नहीं था, न फोन, न कर्फ़्यूपास और न कुछ और।


मुख्तार और मैं, जैसा कि मैं लिख चुका हूं, एक ही शहर के हैं। मुख्तार दर्जा आठ तक इस्लामिया स्कूल में पढ़ा था और फिर अपने पुश्तैनी सिलाई के धंधे में लग गया था। मैं उससे बहुत बाद में मिला था। उस वक्त जब मैं हिंदी में एम.ए. करने के बाद बेकारी और नौकरी की तलाश से तंग आकर अपने शहर में रहने लगा था। वहां मेरे एक रिश्तेदार, जिन्हें हम सब हैदर हथियार कहा करते थे, आवारगी करते थे। आवारगी का मतलब कोई गलत न लीजिएगा, मतलब ये कि बेकार थे। इंटर में कई बार फेल हो चुके थे और उनका शहर में जनसम्पर्क अच्छा था। तो उन्होंने मेरी मुलाकात मुख्तार से कराई थी। पहली, दूसरी और तीसरी मुलाकात में वह कुछ नहीं बोला था। शहर का मुख्य सड़क पर सिलाई की एक दुकान में वह काम करता था और शाम को हम लोग उसकी दुकान पर बैठा करते थे। दुकान का मालिक बफाती भाई मालदार और बाल-बच्चेदार आदमी था। वह शाम के सात बजते ही दुकान की चाबी मुख्तार को सौंपकर और भैंसे का गोश्त लेकर घर चला जाता था। उसके बाद वह दुकान मुख्तार की होती थी। एक दिन अचानक हैदर हथियार ने यह राज खोला कि मुख्तार भी 'बिरादर` है। 'बिरादर` का मतलब भाई होता है, लेकिन हमारी जुबान में 'बिरादर` का मतलब था जो आदमी शराब पीता हो।

शुरू-शुरू में मुख्तार का मुझसे जो डर था वह दो-चार बार साथ पीने से खत्म हो गया था। और मुझे ये जानकर बड़ी हैरत हुई थी कि वह अपने समाज और उसकी समस्याओं में रुचि रखता है। वह उर्दू का अखबार बराबर पढ़ता था। खबरें ही नहीं, खबरों का विश्लेषण भी करता था और उसका मुख्य विषय हिन्दू मुस्लिम साम्प्रदायिकता थी। जब मैं उससे मिला तब, अगर बहुत सीधी जुबान से कहें तो वह पक्का मुस्लिम साम्प्रदायिक था। शराब पीकर जब वह खुलता था तो शेर की तरह दहाड़ने लगता था। उसका चेहरा लाल हो जाता था। वह हाथ हिला-हिलाकर इतनी कड़वी बातें करता था कि मेरा जैसा धैर्यवान न होता तो कब की लड़ाई हो गयी होती। लेकिन मैं अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में रहने और और वहां 'स्टूडेंट्स फेडरेशन` की राजनीति करने के कारण थोड़ा पक चुका था। मुझे मालूम था कि भावुकता और आक्रोश का जवाब केवल प्रेम और तर्क से दिया जा सकता है। वह मुहम्मद अली जिन्ना का भक्त था। श्रद्धावश उनका नाम नहीं लेता था। बल्कि उन्हें 'कायदे आजम` कहता था। उसे मुस्लिम लीग से बेपनाह हमदर्दी थी और वह पाकिस्तान के बनने और द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को बिलकुल सही मानता था। पाकिस्तान के इस्लामी मुल्क होने पर वह गर्व करता था और पाकिस्तान को श्रेष्ठ मानता था।

मुझे याद है कि एक दिन उसकी दुकान में मैं, हैदर हथियार और उमाशंकर बैठे थे। शाम हो चुकी थी। दुकान के मालिक बफाती भाई जा चुके थे। कड़कड़ाते जाड़ों के दिन थे। बिजली चली गयी थी। दुकान में एक लैंप जल रहा था, उसकी रोशनी में मुख्तार मशीन की तेजी से एक पैंट सी रहा था। अर्जेन्ट काम था। लैम्प की रोशनी की वजह से सामने वाली दीवार पर उसके सिर की परछाईं एक बड़े आकार में हिल रही थी। मशीन चलने की आवाज से पूरी दुकान थर्रा रही थी। हम तीनों मुख्तार के काम खत्म होने का इंतजार कर रहे थे। प्रोग्राम यह था कि उसके बाद 'चुस्की` लगाई जायेगी। आधे घंटे बाद काम खत्म हो गया और चार 'चार की प्यालियां` लेकर हम बैठ गये। बातचीत घूम-फिर कर पाकिस्तान पर आ गई। हस्बे दस्तूर मुख्तार पाकिस्तान की तारीफ करने लगा। 'कायदे आजम` की बुद्धिमानी के गीत गाने लगा। उमाशंकर से उसका कोई पर्दा न था, क्योंकि दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते थे। कुछ देर बाद मौका देखकर मैंने कहा, 'ये बताओ मुख्तार, जिन्ना ने पाकिस्तान क्यों बनवाया?'

'इसलिए कि मुसलमान वहां रहेंगे,' वह बोला। 'मुसलमान तो यहां भी रहते हैं।' 'लेकिन वो इस्लामी मुल्क है।' 'तुम पाकिस्तान तो गये हो?' 'हां, गया हूं।'

'वहां और यहां क्या फर्क है?' 'बहुत बड़ा फर्क है।' 'क्या फर्क है?' 'वो इस्लामी मुल्क है।'

'ठीक है, लेकिन ये बताओ कि वहां गरीबों-अमीरों में वैसा ही फर्क नहीं है जैसा यहां है? क्या वहां रिश्वत नहीं चलती? क्या वहां भाई-भतीजावाद नहीं है? क्या वहां पंजाबी-सिंधी और मोहाजिर 'लीजिंग` नहीं है? क्या पुलिस लोगों को फंसाकर पैसा नहीं वसूलती?' मुख्तार चुप हो गया। उमांशकर बोले, 'हां, बताओ. . .अब चुप काहे हो गये?' मुख्तार ने कहा, 'हां, ये सब तो वहां भी है लेकिन है तो इस्लामी मुल्क।'

'यार, वहां डिक्टेटरशिप है, इस्लाम तो बादशाहत तक के खिलाफ है, तो वो कैसा इस्लामी मुल्क हुआ?' 'अमें छोड़ो. . .क्या औरतें वहां पर्दा करती हैं? बैंक तो वहां भी ब्याज लेते-देते होंगे. . .फिर काहे की इस्लामी मुल्क।' उमाशंकर ने कहा।

'भइया, इस्लाम 'मसावात` सिखाता है. . .मतलब बराबरी, तुमने पाकिस्तान में बराबरी देखी?' मुख्तार थोड़ी देर के लिए चुप हो गया। फिर अचानक फट पड़ा, 'और वहां क्या है मुसलमानों के लिए? इलाहाबाद, अलीगढ़, मेरठ, मुरादाबाद, दिल्ली, भिवण्डी- कितने नाम गिनाऊँ. . .मुसलमानों की जान इस तरह ली जाती है जैसे कीड़े-मकोड़े हों।'

'हां, तुम ठीक कहते हो।' 'मैं कहता हूं ये फसाद क्यों होते हैं?' 'भाई मेरे, फसाद होते नहीं, कराये जाते हैं।' 'कराये जाते हैं?' 'हां भाई, अब तो बात जग जाहिर है।'

'कौन कराते हैं?' 'जिन्हें उससे फायदा होता है।' 'किन्हें उससे फायदा होता है?' 'वो लोग जो मजहब के नाम पर वोट मांगते हैं। वो लोग जो मजहब के नाम पर नेतागिरी करते हैं।

'कैसे?' 'देखो, जरा सिर्फ तसव्वुर करो कि हिंदुस्तान में हिंदुओं, मुसलमानों के बीच कोई झगड़ा नहीं है। कोई बाबरी मस्जिद नहीं है। कोई राम-जन्मभूमि नहीं है। सब प्यार से रहते हैं, तो भाई, ऐसा हालत में मुस्लिम लीग या आर.एस.एस. के नेताओं के पास कौन जायेगा? उनका तो वजूद ही खत्म हो जायेगा। इस तरह समझ लो कि किसी शहर में कोई डॉक्टर है जो सिर्फ कान का इलाज करता है और पूरे शहर में सब लोगों के कान ठीक हो जाते हैं। किसी को कान की कोई तकलीफ नहीं है, तो डॉक्टर को अपना पेशा छोड़ना पड़ेगा या शहर छोड़ना पड़ेगा।'

वह चुप हो गया। शायद वह अपना जवाब सोच रहा था। मैंने फिर कहा, 'और फिरकापरस्ती से उन लोगों को भी फायदा होता है जो इस देश की सरकार चला रहे हैं।' 'कैसे?'

'अगर तुम्हारे दो पड़ोसी आपस में लड़ रहे हैं, एक-दूसरे के पक्के दुश्मन हैं, तो तुम्हें उन दोनों से कोई खतरा नहीं हो सकता. . .उसी तरह हिंदू और मुसलमान आपस में ही लड़ते रहे तो सरकार से क्या लड़ेंगे? क्या कहेंगे कि हमारा ये हक है, हमारा वो हक है तो तीसरा फायदा उन लोगों को पहुंचता है जिनका कारोबार उसकी वजह से तरक्की करता है। अलीगढ़ में फसाद, भिवण्डी में फसाद इसकी मिसालें हैं।'

ये तो शुरुआत थी। धीरे-धीरे ऐसा होने लगा कि हम लोग जब भी मिलते थे, बातचीत इन्हीं बातों पर होती। चाय का होटल हो या शहर के बाहर सड़क के किनारे कोई वीरान-सी पुलिया- बहस शुरू हो जाया करती थी। बहस भी अजब चीज है। अगर सामने वाले को बीच बहस में लग गया कि आप उसे जाहिल समझते हैं, उसका मजाक उड़ा रहे हैं, उसे कम पढ़ा-लिखा मान रहे हैं, तो बहस कका कभी कोई अंत नहीं होता।

उस जमाने में मुख्तार उर्दू के अखबारों और रिसालों का बड़ा भयंकर पाठक था। शहर में आने वाला शायद ही ऐसा कोई उर्दू अखबार, रिसाला, डाइजेस्ट हो जो वह न पढ़ता हो। इतना ज्यादा पढ़ने की वजह से उसे घटनायें, तिथियां और बयान इस कदर याद हो जाते थे कि बहस में उन्हें बड़े आत्मविश्वास के साथ 'कोट` करता रहता था। एक दिन उसने मुझे उर्दू के कुछ रिसालों और अखबारों का एक पुलिंदा दिया और कहा कि इन्हें पढ़कर आओ तो बहस हो। उर्दू में सामान्यत: जो राजनीतिक पर्चे छपते हैं, उनके बारे में मुझे हल्का-सा इल्म था। लेकिन मुख्तार के दिये रिसाले जब ध्यान से पढ़े तो भौंचक्का रह गया। इन परचों में मुसलमानों के साथ होने वाली ज्यादतियों को इतने भयावह और करुण ढंग से पेश किया गया था कि साधारण पाठक पर उनका क्या असर होगा, यह सोचकर डर गया। मिसाल के तौर पर इस तरह के शीर्षक थे 'मुसलमानों के खून से होली खेली गयी` या 'भारत में मुसलमान होना गुनाह है` या 'क्या भारत के सभी मुसलमानों को हिंदू बनाया जायेगा` या 'तीन हजार मस्जिदें, मन्दिरबना ली गयी हैं।` उत्तेजित करने वाले शीर्षकों के नीचे खबरें लिखने का जो ढंग था वह भी बड़ा भावुक और लोगों को मरने-मारने या सिर फोड़ लेने पर मजबूर करने वाला था।

वह दो-चार दिन बाद मिला तो बड़ा उतावला हो रहा था। बातचीत करने के लिए बोला, 'तुमने पढ़ लिये सब अखबार?' 'हां, पढ़ लिये।'

'क्या राय है. . .अब तो पता चला कि भारत में मुसलमानों के साथ क्या होता है। हमारी जान-माल, इज्जत-आबरू कुछ भी महफूज़ नहीं है।' 'हां, वो तो तुम ठीक कहते हो. . .लेकिन एक बात ये बताओ कि तुमने जो रिसाले दिये हैं वो फिरकापरस्ती को दूर करने, उसे खत्म करने के बारे में कभी कुछ नहीं लिखते?'

'क्या मतलब?' वह चौंक गया। 'देखो, मैं मानता हूं मुसलमानों के साथ ज्यादती होती है, दंगों में सबसे ज्यादा वही मारे जाते हैं। पी.ए.सी. भी उन्हें मारती है और हिंदू भी मारते हैं। मुसलमान भी मारते हैं हिंदुओं को। ऐसा नहीं है कि वे चुप बैठे रहते हों. . .।'

'हां, तो कब तक बैठे रहे? क्यों न मारें?' वह तड़पकर बोला। 'ठीक है तो वो तुम्हें मारें तुम उनको मारो. . .फिर ये रोना-धोना कैसा?' 'क्या मतलब है तुम्हारा?' 'मेरा मतलब है इसी तरह मारकाट होती रही तो क्या फिरकापरस्ती खत्म हो जायेगी?' 'नहीं, नहीं खत्म होगी।'

'और तुम चाहते हो, फिरकापरस्ती खत्म हो जाये?' 'हां।' 'तो ये अखबार, जो तुमने दिये, क्यों नहीं लिखते कि फिरकापरस्ती कैसे खत्म की जा सकती है?'

'ये अखबार क्यों नहीं चाहते होंगे कि फिरकापरस्ती खत्म हो?' 'ये तो वही अखबार वाले बता सकते हैं। जहां तक मैं समझता हूं ये अखबार बिकते ही इसलिए हैं कि इनमें दंगों की भयानक दर्दनाक और बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गयी तस्वीरें होती हैं। अगर दंगे न होंगे तो ये अखबार कितने बिकेंगे।'

मेरी इस बात पर वह बिगड़ गया। उसका कहना था कि ये कैसे हो सकता है कि मुसलमानों के इतने हमदर्द अखबार ये नहीं चाहते कि दंगे रुकें, मुसलमान चैन से रहें, हिंदू-मुस्लिम इत्तिहाद बने।

कुछ महीनों की लगातार बातचीत के बाद हम लोगों के बीच कुछ बुनियादी बातें साफ हो चुकी थीं। उसे सबसे बड़ी दिलचस्पी इस बात में पैदा हो गयी थी कि दंगे कैसे रोके जा सकते हैं। हम दोनों ये जानते थे कि दंगे पुलिस, पी.ए.सी. प्रशासन नहीं रोक सकता। दंगे साम्प्रदायिक पार्टियां भी नहीं रोक सकतीं, क्योंकि वे तो दंगों पर ही जीवित हैं। दंगों को अगर रोक सकते हैं तो सिर्फ लोग रोक सकते हैं।

'लेकिन लोग तो दंगे के जमाने में घरों में छिपकर बैठ जाते हैं।' उसने कहा। 'हां, लोग इसलिए छिपकर बैठ जाते हैं क्योंकि दंगा करने वालों के मुकाबले वो मुत्तहिद नहीं हैं. . .अकेला महसूस करते हैं अपने को. . .और अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता। जबकि दंगा करने वो 'आरगेनाइज` होते हैं. . .लेकिन जरूरी ये है कि दंगों के खिलाफ जिन लोगों को संगठित किया जाये उनमें हिंदू-मुसलमान दोनों हों. . .और उनके ख्यालात इस बारे में साफ हों।'

'लेकिन ये काम करेगा कौन?' 'हम ही लोग, और कौन?' 'लेकिन कैसे?'

'अरे भाई, लोगों से बातचीत करके. . .मीटिंगें करके. . .उनको बता-समझाकर . . .मैं कहता हूं शहर में हिंदू-मुसलमानों का अगर दो सौ ऐसे लोगों का ग्रुप बन जाये जो जान पर खेलकर भी दंगा रोकने की हिम्मत रखते हों तो दंगा करने वालों की हिम्मत परस्त हो जायेगी। तुम्हें मालूम होगा कि दंगा करने वाले बुजदिल होते हैं। वो किसी 'ताकत` से नहीं लड़ सकते। अकेले-दुकेले को मार सकते हैं, आग लगा सकते हैं, औरतों के साथ बलात्कार कर सकते हैं, लेकिन अगर उन्हें पता चल जाये कि सामने ऐसे लोग है। जो बराबर की ताकत रखते हैं, उनमें हिंदू भी हैं और मुसलमान भी, तो दंगाई सिर पर पैर रखकर भाग जायेंगे।'

वह मेरी बात से सहमत था और हम अगले कदम पर गौर करने की स्थिति में आ गये थे। मुख्तार इस सिलसिले में कुछ नौजवानों से मिला भी था।

कुछ साल के बाद हम दिल्ली में फिर साथ हो गये। मैं दिल्ली में धंधा कर रहा था और वह कनाट प्लेस की एक दुकान में काम करने लगा था और जब दिल्ली में दंगा हुआ और ये पता चला कि कस्साबपुरा भी बुरी तरह प्रभाव में है तो मुझे मुख्तार की फिक्र हो गयी। दूसरी तरफ मुख्तार के साथ जो कुछ घटा वह कुछ इस तरह था।. . .शाम का छ: बजा था। वह मशीन पर झुका काम कर रहा था। दुकान मालिक सरदारजी ने उसे खबर दी कि दंगा हो गया है और उसे जल्दी-से-जल्दी घर पहुंच जाना चाहिए।

पहाड़गंज में बस रोक दी गयी थी। क्योंकि आगे दंगा हो रहा था। पुलिस किसी को आगे जाने भी नहीं दे रही थी। मुख्तार ने मुख्य सड़क छोड़ दी और गलियों और पिछले रास्तों से आगे बढ़ने लगा। गलियां तक सुनसान थीं। पानी के नलों पर जहां इस वक्त चांव-चांव हुआ करती थी, सिर्फ पानी गिरने की आवाज आ रही थी। जब गलियों में लोग नहीं होते तो कुत्ते ही दिखाई देते हैं। कुत्ते ही थे। वह बचता-बचाता इस तरह आगे बढ़ता रहा कि अपने मोहल्ले तक पहुंच जाये। कभी-कभार और कोई घबराया परेशान-सा आदमी लंबे-लंबे कदम उठाता इधर से उधर जाता दिखाई पड़ जाता। एक अजीब भयानक तनाव था जैसे ये इमारतें बारूद की बनी हुई हों और ये सब अचानक एक साथ फट जायेंगे। दूर से पुलिस गाड़ियों से सायरन की आवाजें भी आ रही थीं। कस्साबपुरे की तरफ से हल्का-हल्का धुआं आसमान में फैल रहा था। न जाने कौन जल रहा होगा, न जाने कितने लोगों के लिए संसार खत्म हो गया होगा। न जाने जलने वालों में कितने बच्चे, कितनी औरतें होंगी। उनकी क्या गलती होगी? उसने सोचा अचानक एक बंद दरवाजे के पीछे से किसी औरत की पंजाबी में कांपती हुई आवाज गली तक आ गयी। वह पंजाबी बोल नहीं पाता था लेकिन समझ लेता था। और कह रही थी, बबलू अभी तक नहीं लौटा। मुख्तार ने सोचा, उसके बच्चे भी घर के दरवाजे पर खड़े झिर्रियों से बाहर झांक रहे होंगे। शाहिदा उसकी सलामती के लिए नमाज पढ़ रही होगी। भइया छत पर खड़े गली में दूर तक देखने की कोशिश कर रहे होंगे। छत पर खड़े एक-दो और लोगों से पूछ लेते होंगे कि मुख्तार तो नहीं दिखाई दे रहा है। उसके दिमाग में जितनी तेजी से ये ख्याल आ रहे थे उतनी तेज उसकी रफ़्तार होती जाती थी। सामने पीपल के पेड़ से कस्साबपुरा शुरू होता है और पीपल का पेड़ सामने ही है। अचानक भागता हुआ कोई आदमी हाथ में कनस्तर लिये गली में आया और मुख्तार को देखकर एक पतली गली में घुस गया। अब मुख्तार को हल्का-हल्का शोर भी सुनाई पड़ रहा था। पीपल के पेड़ के बाद खतरा न होगा, क्योंकि यहां से मुसलमानों की आबादी शुरू होती थी। ये सोचकर मुख्तार ने दौड़ना शुरू कर दिया। पीपल के पेड़ के पास पहुंचकर मुड़ा और उसी वक्त हवा में उड़ती कोई चीज उसके सिर से टकराई और उसे लगा कि सिर आग हो गया है। दहकता हुआ अंगारा। उसने दोनों हाथों से सिर पकड़ लिया और भागता रहा। उसे ये समझने में देर नहीं लगी कि एसिड का बल्ब उसके सिर पर मारा गया है। सर की आग लगातार बढ़ती जा रही थी और वह भागता जा रहा था। उसे लगा कि वह जल्दी ही घर न पहुंच गया तो गली में गिरकर बेहोश हो जायेगा और वहां गिरने का नतीजा उसकी लाश पुलिस ही उठाएगी। दोनों बच्चों के चेहरे उसकी नजरों में घूम गये।

दंगा खत्म होने के बाद मैं मुख्तार को देखने गया। उसके बाल भूरे जैसे हो गये थे और लगातार गिरते थे। सिर की खाल बुरी तरह जल गयी थी और ज़ख्म़ हो गये थे। एसिड का बल्ब लगने के बराबर ही भयानक दुर्घटना ये हुई थी कि जब वह घर पहुंचा था तो उसे पानी से सिर नहीं धोने दिया गया था। सबने कहा था कि पानी मत डालो। पानी डालने से बहुत गड़बड़ हो जायेगी। और वह खुद ऐसी हालत में नहीं था कि कोई फैसला कर सकता। आठ दिन कर्फ्यू चला था और जब वह डॉक्टर के पास गया था तो डॉक्टर ने उसे बताया था कि अगर वह फौरन सिर धी लेता तो इतने गहरे ज़ख्म़ न होते।

दंगे के बाद साम्प्रदायिक सद्भावना स्थापित करने के लिए सम्मेलन किये जाने की कड़ी में इन दंगों में तीन महीने बाद सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में मैंने सोचा मुख्तार को ले चलना चाहिए। उसे एक दिन की छुट्टी करनी पड़ी और हम दोनों राजधानी की वास्तविक राजधानी- यानी राजधानी का वह हिस्सा जहां चौड़ी साफ सड़कें, सायादार पेड़, चमचमाते हुए फुटपाथ, उंचे-उंचे बिजली के खम्बे और चिकनी-चिकनी इमारते हैं और वैसे ही चिकने-चिकने लोग हैं। मुख्तार भव्य इमारत में घुसने से पहले कुछ हिचकिचाया, लेकिन मेरे बहादुरी से आगे बढ़ते रहने की वजह से उसमें कुछ हिम्मत आ गयी और हम अंदर आ गये। अंदर काफी चहल-पहल थी। विश्वविद्यालयों के छात्र, अध्यापक, संस्थानों के विद्वान, बड़े सरकारी अधिकारी, दफ़्तरों में काम करने वाले लोग, सभी थे। उनमें से अधिकतर चेहरे देखे हुए थे। वे सब वामपंथी राजनीति या उसके जन-संगठनों में काम करने वाले लोग थे। कहां कलाकार, लेखक, बुद्धिजीवी, पत्रकार, रंगकर्मी और संगीतज्ञ भी थे। पूरी भीड़ में मुख्तार जैसे शायद ही चन्द रहे हों या न रहे हों, कहा नहीं जा सकता।

अंदर मंच पर बड़ा-सा बैनर लगा हुआ था। इस पर अंग्रेजी, हिंदी और उर्दू में 'साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलन` लिखा था। मुझे याद आया कि वही बैनर है जो चार साल पहले हुए भयानक दंगों के बाद किये गये सम्मेलन में लगाया गया था। बैनर पर तारीखों की जगह पर सफेद कागज चिपकाकर नयी तारीखें लिख दी गयी थीं। मंच पर जो लोग बैठे थे वे भी वही थे जो पिछले और उससे पहले हुए साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलनों में मंच पर बैठे हुए थे। सम्मेलन होने की जगह भी वही थी। आयोजक भी वही थे। मुझे याद आया। पिछले सम्मेलन के एक आयोजक से सम्मेलन के बाद मेरी कुछ बातचीत हुई थी और मैंने कहा था कि दिल्ली के सर्वथा भद्र इलाके में सम्मेलन करने तथा ऐसे लोगों को ही सम्मेलन में बुलाने का क्या फायदा है जो शत-प्रतिशत हमारे विचारों से सहमत हैं। इस पर आयोजक ने कहा था कि सम्मेलन मजदूर बस्तियों, घनी आबादियों तथा उपनगरीय बस्तियों में भी होंगे। लेकिन मुझे याद नहीं कि उसके बाद ऐसा हुआ हो।

हाल में सीट पर बैठकर मुख्तार ने मुझसे यही बात कही। वह बोला 'इनमें तो हिंदु भी हैं और मुसलमान भी।' मैंने कहा, 'हां!'

वह बोला, 'अगर ये सम्मेलन कस्साबपुरा में करते तो अच्छा था। वहां के मुसलमान ये मानते ही नहीं कि कोई हिंदू उनसे हमदर्दी रख सकता है।'

'वहां भी करेंगे. . .लेकिन अभी नहीं।' तभी कार्यवाही शुरू हो चुकी थी। संयोजक ने बात शुरू करते हुए साम्प्रदायिक शक्तियों की बढ़ती हुई ताकत तथा उसके खतरों की ओर संकेत किया। यह भी कहा कि जब तक साम्प्रदायिकता को समाप्त नहीं किया जायेगा तब तक जनवारी शक्तियां मजबूत नहीं हो सकतीं। उन्होंने यह आश्वासन भी दिया कि अब सब संगठित होकर साम्प्रदायिक रूपी दैत्य से लडेंगे। इस पर लोगों ने जोर की तालियां बजायीं और सबसे पहले अल्पसंख्यकों के विश्वविद्यालय के उप-कुलपति को बोलने के लिए आमंत्रित किया। उप-कुलपति आई.ए.एस. सर्विसेज में थे। भारत सरकार के उंचे ओहदों पर रहे थे। लंबा प्रशासनिक अनुभव था। उनकी पत्नी हिंदू थी। उनकी एक लड़की ने हिंदू लड़के से विवाह किया था। लड़के की पत्नी अमरीकन थी। उप-कुलपति के प्रगतिशील और धर्म निरपेक्ष होने में कोई संदेह न था। वे एक ईमानदार और प्रगतिशील व्यक्ति के रूप में सम्मानित थे। उन्होंने अपने भाषण में बहुत विद्वत्तापूर्ण ढंग से साम्प्रदायिकता की समस्या का विश्लेषण किया। उसके खतरनाक परिणामों की ओर संकेत किये और लोगों को इस चुनौती से निपटने को कहा। कोई बीस मिनट तक बोलकर वे बैठ गये। तालियां बजीं।

मुख्तार ने मुझसे कहा, 'प्रोफेसर साहब की समझ तो बहुत सही है।' 'हां, समझ तो उन सब लोगों की बिलकुल सही है जो यहां मौजूद हैं।' 'तो फिर?'

तब तक दूसरे वक्ता बोलने लगे थे। ये एक सरदार जी थे। उनकी उम्र अच्छी-खासी थी। स्वतंत्रता सेनानी थे और दसियों साल पहले पंजाब सरकार में मंत्री रह चुके थे। उन्होंने अपने बचपन, अपने गांव और अपने हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख दोस्तों के संस्मरण सुनाये। उनके भाषण के दौरान लगभग लगातार तालियां बजती रहीं। फिर उन्होंने दिल्ली के हालिया दंगों पर बोलना शुरू किया।

मुख्तार ने मेरे कान में कहा, 'सरदार जी दंगा कराने वालों के नाम क्यों नहीं ले रहे हैं? बच्चा-बच्चा जानता है दंगा किसने कराया था।' मैंने कहा, 'बचपने वाली बातें न करो। दंगा कराने वालों के नाम ले दिये तो वे लोग इन पर मुकदमा ठोक देंगे।'

'तो मुकदमे के डर से सच बात न कही जाये?' 'तुम आदर्शवादी हो। आइडियलिस्ट. . .।' 'ये क्या होता है?' मुख्तार बोला। 'अरे यार, इसका मकसद दंगा कराने वालों के नाम गिनाना तो है नहीं।' 'फिर क्या मकसद है इनका?' 'बताना कि फिरकापरस्ती कितनी खराब चीज है और उसके कितने बुरे नतीजे होते हैं।' 'ये बात तो यहां बैठे सभी लोग मानते हैं। जब ही तो तालियां बजा रहे हैं।' 'तो तुम क्या चाहते हो?'

'ये दंगा करने वालों के नाम बतायें।' मुख्तार की आवाज तेज हो गई। वह अपना सिर खुजलाने लगा। 'नाम बताने से क्या फायदा होगा?' 'न बताने से क्या फायदा होगा?'

स्वतंत्रता सेनानी का भाषण जारी था। वे कुछ किये जाने पर बोल रहे थे। इस पर जोर दे रहे थे कि इस लड़ाई को गलियों और खेतों में लड़ने की जरूरत है। स्वतंत्रता सेनानी के बाद एक लेखक को बोलने के लिए बुलाया गया। लेखक ने साम्प्रदायिकता के विरोध में लेखकों को एकजुट होकर संघर्ष करने की बात उठाई। 'तुम मुझ एक बात बताओ,' मुख्तार ने पूछा। 'क्या?'

'जब दंगा होता है तो ये सब लोग क्या करते हैं?' मैं जलकर बोला, 'अखबार पढ़ते हैं, घर में रहते हैं और क्या करेंगे?' 'तब तो इस जुबानी जमा-खर्च का फायदा क्या है?' 'बहुत फायदा है, बताओ?' 'भाई, एक माहौल बनता है, फिरकापरस्ती के खिलाफ।'

'किन लोगों में? इन्हीं में जो पहले से ही फिरकापरस्ती के खिलाफ हैं? तुम्हें मालूम है दंगों के बाद सबसे पहले हमारे मोहल्ले में कौन आये थे?' 'कौन?'

'तबलीगी जमात और जमाते-इस्लामी के लोग. . .उन्होंने लोगों को आटा-दाल, चावल बांटा था, उन्होंने दवाएं भी दी थीं। उन्होंने कर्फ्यू पास भी बनवाये थे।' 'तो उनके इस काम से तुम समझते हो कि वे फिरकापरस्ती के खिलाफ हैं।' 'हों या न हों, दिल कौन जीतेगा. . .वही जो मुसीबत के वक्त हमारे काम आये या जो. . .' मैं उसकी बात काटकर बोला, 'खैर बाद में बात करेंगे, अभी सुनने दो।' कुछ देर बाद मैंने उससे कहा, 'बात ये है यार कि इन लोगों के पास इतनी ताकत नहीं है कि दंगों के वक्त बस्तियों में जायें।'

'इनके पास उतनी ताकत नहीं है और जमाते इस्लामी के पास है?' मैं उस वक्त उसके इस सवाल का जवाब न दे पाया। मैंने अपनी पहली ही बात जारी रखी, 'जब इनके पास ज्यादा ताकत आ जायेगी तब ये दंगाग्रस्त इलाकों में जा सकेंगे, काम कर सकेंगे।' 'उतनी ताकत कैसे आयेगी?'

'जब ये वहां काम करेंगे।' 'पर अभी तुमने कहा कि इनके पास उतनी ताकत ही नहीं है कि वहां जा सकें. . .फिर काम कैसे करेंगे?' 'तुम कहना क्या चाहते हो?' 'मतलब यह है कि इनके पास इतनी ताकत नहीं है कि ये दंगे क बाद या दंगे के वक्त उन बस्तियों में जा सकें जहां दंगा होता है, और ताकत इनके पास उसी वक्त आयेगी जब ये वहां जाकर काम करेंगे. . .और जा सकते नहीं।'

'यार, हर वक्त दंगा थोड़ी होता रहता है, जब दंगा नहीं होता तब जायेंगे।' 'अच्छा ये बताओ, जमाते इस्लामी के मुकाबले इन लोगों को कमजोर कैसे मान रहे हो. . .इनके तो एम.पी. हैं, दो तीन सूबों में इनकी सरकारें हैं, जबकि जमाते इस्लामी का तो एक एम.पी. भी नहीं।' मैं बिगड़कर बोला, 'तो तुम ये साबित करना चाहते हो कि ये झूठे, पाखंडी, कामचोर और बेईमान लोग हैं?'

'नहीं, नहीं, ये तो मैंने बिलकुल नहीं कहा!' वह बोला। 'तुम्हारी बात से मतलब तो यही निकलता है।' 'नही, मेरा ये मानना नहीं है।' मैं धीरे-धीरे उसे समझाने लगा, 'यार, बात दरअसल ये है कि हम लोग खुद मानते हैं कि काम जितनी तेजी से होना चाहिए, नहीं हो रहा है। धीरे-धीरे हो रहा है, लेकिन पक्के तरीके से हो रहा है। उसमें टाइम तो लगता ही है।' 'तुम ये मानते होगे कि फिरकापरस्ती बढ़ रही है।' 'हां।'

'तो ये धीरे-धीरे जो काम हो रहा है उनका कोई असर नहीं दिखाई पड़ रहा है, हां फिरकापरस्ती जरूरी दिन दूनी रात चौगुनी स्पीड से बढ़ रही है।' 'अभी बाहर निकलकर बात करते हैं।' मैंने उसे चुप करा दिया।

इस बीच चाय सर्व की गयी। आखिरी वक्ता ने समय बहुत जो जाने और सारी बातें कह दी गयी हैं, आदि-आदि कहकर अपना भाषण समाप्त कर दिया। हम दोनों थोड़ा पहले ही बाहर निकल आये। सड़क पर साथ-साथ चलते हुए वह बोला, 'कोई ऐलान तो किसी को करना चाहिए था।' 'कैसा ऐलान?'

'मतलब ये है कि अब ये किया जायेगा, ये होगा।' 'अरे भाई, कहा तो गया कि जनता के पास जायेंगे, उसे संगठित और शिक्षित किया जायेगा।' 'कोई और ऐलान भी कर सकते थे।' 'क्या ऐलान?'

'प्रोफेसर साहब कह सकते थे कि अगर फिर दिल्ली में दंगा हुआ तो वे भूख हड़ताल पर बैठ जायेंगे। राइटर जो थे वो कहते कि फिर दंगा हुआ तो वे अपनी पद्मश्री लौटा देंगे। स्वतंत्रता सेनानी अपना ताम्रपत्र लौटाने की धमकी देते।' उसकी बात में मेरा मन खिन्न हो गया और मैं चलते-चलते रुक गया। मैंने उससे पूछा, 'ये बताओ, तुम्हें इतनी जल्दी, इतनी हड़बड़ी क्यों है?' वह मेरे आगे झुका। कुछ बोला नहीं। उसने अपने सिर के बाल हटाये। मेरे सामने लाल-लाल जख्म थे जिसे ताजा खून रिस रहा था।