ज़ख्म / भाग- 1 / जितेंद्र विसारिया
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सम्राट अकबर के धाय भाई आधम खान और उसके सहयोगी पीर मुहम्मद द्वारा मालवा विजित कर लिया गया है। सदैव सुरा-सुंदरी और संगीत के रस विलास मे डूबा रहने वाला वहाँ का अत्याचारी शासक बाजबहादुर फरार हो चुका है। और शेष रह गया है - अकबर के नुमाइंदों के अमानवीय अत्याचार सहता नाशाद मांडवगढ़।
पीर मुहम्मद के एक पोशीदा पत्र द्वारा अकबर की धाय माँ और आधम खान की माँ-माहम अनगा अपने बेटे द्वारा मालवा में हो रही मन-मानियों पर परदा डालने के लिए गुप्त रूप से आगरा छोड़कर मालवा में विराजमान है।
दिन भर प्रत्यक्षदर्शी राजदारों और महल में शेष रहे दास-दासियों, कनीजों और नपुंसकों को किसी भी वक्त आगरा से आ धमकने वाले शहंशाह अकबर के आगे जुबान न खोलने या हमेशा के लिए उन्हें मौत की गहरी नींद सुलाने का हुक्म देते-देते, माहम जीनत-महल के एक कक्ष में आधम खान के पास आ लेटी है।
मालवा की रिआया के बगावती रुख और उसके बेटे द्वारा उन पर ढाये जुल्मों की दास्तान सुन-सुनकर माहम, भकबावली हो गई है। उसे दीवान पर लेटे-लेटे भी नींद नहीं आ रही थी। तभी शांत महल की खामोशी तोड़ता पीर मुहम्मद उनके बीच उपस्थित होता है।
बिना सिजदा-कोर्निश जड़ाऊ तख्त से नीचे दीवाल के सहारे पड़ी मसनद पर, पीर मुहम्मद का यों चुपचाप आकर बैठ जाना माहम अनगा को अंदर तक हिला गया। ...उसे लगा जैसे - हजरत मूसा की पवित्र राह रोकने गई फराओं की सेना को लाल सागर की विकराल लहारों ने निगल लिया है और उन्हीं में से बचा कोई भाग्यशाली सैनिक अपनी तबाही का पैगाम लेकर यहाँ आ बैठा है...। माहम पसीने से तरबतर रेशमी दामन को शानों से खींचकर, सिर ढाँपते हुए उठ बैठी - 'तुम बोलते क्यों नहीं; यूँ खामोश क्यूँ हो पीर मुहम्मद... आखिर बात क्या हुई?'
- 'अब बात मुझसे ही पूछी जा रही है... मैंने तो पहले ही आगाह किया था आपके लाड़ले को कि चंद हाथियों से काम चलने वाला नहीं, हमें रिवायत के मुताबिक हरम में लूट का माल भी भेजना चाहिए था... अब भुगतो, आलमपनाह बहाना-ए-शिकार मालवा आ रहे हैं...?'
- 'या...अल्ला-ह..।' पीर मुहम्मद द्वारा गर्दन उठाकर उसी भावावेश में हाजिर जवाब होते ही माहम; उसके उत्तर में छुपे जाने पहचाने भय से खौफजदा होकर अंदर तक हिल गई थी। वह इस सब की जड़ शराब में धुत् पास लेटे आधम को झिंझोड़ते हुए कोसने लगी थी - 'आ-धम तुमने अच्छा नहीं किया; बेगुनाह कैदियों, मासूम मर्द-औरतों और बच्चों को कत्ल करवा कर...। और तो और... तुमने हाथ में कुरान-ए-पाक लेकर रहम की भीख माँगते शेख-उलेमाओं तक को नहीं बख्शा...। अच्छा हुआ मैं यहाँ आ गई, वरना...।'
- 'वरना क्या अम्मी... वो आलमपनाह है तो हम उसके पनाहगार नहीं, दूध भाई हैं...। हमारा भी वजूद है। ...तुम सोच रहीं हो मैने उनका कत्ल कर बुरा किया है, ये तुम्हारी भूल है। ...जरा सोचो, अगर मैं इस जंग में मात खा जाता या खेत रहता; तो क्या ये सब खुशियाँ मनाने की जगह मेरे लिए मर्सिया गा रहे होते...? शहंशाह, सल्तनत और तख्तो-ताज बदलते हैं... लेकिन हमारे दिलो-दिमाग पर हर वक्त हुकूमत करने वाले; ये शेख-उलेमा क्यों नहीं बदलते? क्यों - हमें अपने जा-ल...?'
- 'चटा-क।' अपने जवान बेटे के बगावती बुलंद लफ्जों को सुनकर, माहम बेकाबू हो गई; तैश में आकर उसने आधम की कनपटी पर एक जोरदार तमाचा रसीद कर दिया था। ठीक उसी वक्त हाथ में सुराही और नक्कासीदार सोने के गिलास में पीर मुहम्मद के लिए पानी लेकर आ रही कोई कनीज इस प्रकरण को देखकर अपने को सँभाल सकने में असमर्थ; दहलीज पर पाँव रखते ही हाथ से गिलास छोड़ बैठी, जिसने फर्श पर गिरकर 'उस' आवाज को और दुगना कर दिया था।
यह आवाज अभी थमी भी नहीं थी कि दो शाही सैनिक, मुगलिया ठाठ-बाठ में अपनी जूतियों, जिरह-बख्तर से रगड़ खाकर आवाज करती तलवारों और हाथ के भालों की रगड़ से मिली जुली आवाजें करते; शांत महल की अशांत खामोशी को भंग कर देते हैं। उन सैनिकों में मनसबदार जैसा लगने वाला एक भद्र युवक माहम को कोर्निश कर पीर मुहम्मद के बगल में पड़ी मसनद पर अभी बैठ भी नहीं पाया था कि उसके साथ आए एक अजनबी सैनिक को देख, माहम ने उस पर सवालों झड़ी लगा दी थी - 'अब तुम किस बला का पैगाम लेकर आए हो अलीकुली खान..., तुम्हारे साथ ये सिपाही कौन है?'
- 'दाई अम्मी! ये हारुन है, हमारा साथी...।' वह अचानक किए सवाल पर झेंप गया था।'
- 'मुगल या पठान तो नहीं लगता...?'
- 'हाँ...।'
- 'राजपूत भी नही...?'
- 'जी...!'
- 'फिर फौज में भर्ती कैसे-हुआ ?...'
- '...बहुत लंबी-दास्तान है।'
- 'सुनना चाहूँगी...।'
- 'पर आपका वक्त जाया होगा...?'
- 'उसकी फिक्र मत करो...; तुम मनसबदार-हमारी नेक-नीयती का फायदा उठाकर, हुनरमंद सिपाहियों की जगह बेअक्ल लोगों और घोड़ों की जगह मरियल टट्टुओं की गिनती भी करवा देते हो।'
- 'दाई अम्मी, हम पर ये झूठा इल्जाम है... हारुन को तो खुद जिल्लेइलाही ने फौज में भर्ती करने का हुक्म दिया था।'
- 'अच्छा... तो हम भी सुनें इस अदने से सिपाही की दास्तान-ए-हकीकत, जिससे शादमान होकर आलमपनाह ने इसे फौज में भर्ती करने का हुक्म दिया...।' माहम बंदर की बला तबेले के सिर मढ़कर खामोश हो गई थी। अलीकुली खान के पास भाला लेकर सावधान की मुद्रा में खड़े हारुन को ऐसी हमलावाराना स्थिति का तजुर्बा नहीं था। पर वह सहना जानता था। उसने निगाह भरकर अलीकुली खान को देखा; और उसके एक इशारे पर गर्दन झुकाए, दीवाल के सहारे वहीं बैठ गया था। पर इन सबका आदी अलीकुली बिना असहज हुए; हारुन से पूर्व में सुनी उसकी आपबीती अपने लफ्जों में सुनाने के लिए, गला खखार कर दाड़ी पर हाथ फेरते हुए आगे बढ़ा - 'आज से तीन चार साल पहले-ये सिपाही रियासत-ए-ग्वालियर की गढ़ी गुहीसर (वर्तमान म.प्र. के भिंड जिले का ग्वालियर से लगा एक ऐतिहासिक दक्षिणी सीमांत गाँव।) के एक गढ़ीदार का एक मामूली सा हलवाहा था। मुफलिसी का बोझ और सूद की रकम में इसे गिरवी रखकर इसके अम्मी-अब्बा, बचपन में ही दुनिया से रुखसत हो गए थे। ...जब ये किसी काम का हुआ तो उस गढ़ीदार के हल की मूँठ इसके हाथ में थी। ...अपने साथ के बीसियों हलवाहों की तरह यह भी गढ़ीदार को अपना खुदा और उसके खेतों में रोयेंदार फसल उगाना अपनी किस्मत का खेल मानकर, सुकून? से जिंदगी बसर कर रहा था। पर...।'
- 'पर क्याऽ... मैं सब कुछ सुन सकती हूँ?' सहसा बीच में ही सिर झुकाकर चुप हुए अली कुली खान की ओर आँखें गढ़ाते हुए, माहम ने हुक्म दिया।
- 'बात ये है - धाय अम्मीऽ...। शायद आपको मालूम भी न हो... हिंदुओं मेंऽ - !'
- 'कहो-कहो-आगे बढ़ोऽ...।' फिर से कुछ ठहरे अलीकुली को माहम ने जब आगे बढ़ने का आदेश दिया, तो वह कुछ साहस करके फिर आगे बढ़ा - 'हिंदुओं में बेवा औरत का दूसरा निकाह नहीं होता। ...वे या तो अपने शौहर की मैय्यत के साथ जिंदा जल जाती हैं, या ता-उम्र सफेद लबादा ओढ़े बाप, भाई या ससुर के यहाँ फकीराना अंदाज में अपनी जवानी काट देती हैं। ...अब हर कोई इतना उसूलों का पाबंद नहीं होता कि अपनी जिस्मानी भूख दबाए उम्र भर पाकीजा बना रहे...।'
- '...!' माहम ने कुछ देर के लिए फिर चुप हुए अलीकुली को अपना हाथ और सिर एक लय में ऊपर उठाकर, आगे बोलने की मौन स्वीकृति दे दी थी। माहम का संकेत पाकर अलीकुली खान ने एक ठंडी आह भरी और एक नए साहस के साथ आगे बढ़ा, जैसे वह दास्तान-ए-अमीर हम्जा सुना रहा हो - 'ऐसा ही एक हादसा उस गढ़ीदार की बहन के साथ हुआ। ...जवानी की दहलीज पर पाँव रखते ही एक जंग में उसका शौहर मारा गया। सती न होने से खाविंद की मौत का जिम्मेवार उसकी बदकिस्मती बताकर, ससुराल के धक्कों ने उसे भाइयों के घर ला पटका। जहाँ भाभियों के तानों के बीच सब कुछ सुनते-सहते उसने अपने को पूजा पाठ में भी खपाना चाहा, पर बात बनी नहीं। ...प्यास किसी चश्में की तलाश में लगातार भटक रही थी।
तब जाने-अनजाने अपने हार-खेत का काम करने वाले इस साँवले-सलोने नौजवान में, उस लड़की को अपनी मंजिल दिखाई दी। और... धीरे-धीरे यह भी मुहब्बत की पाकीजगी में डूबकर अपने और उसके बीच के जमीनी फर्क को झुठलाने की कोशिश में आ गया था। ...लेकिन जिस कौम में इसकी जात वालों से गुलामी करवाने के अलावा उन्हें छूना तो दूर; उनके साये से भी गुरेज की जाती हो, वहाँ मुहब्बत परवान कैसे चढ़ सकती थी। हम इसका अंदाज लगा ही सकते हैं। ...एक दिन अलस्सुबाह जब यह गढ़ी से हल लेकर खेतों पर निकल गया। तब आँखों में नफरत के शोले और हाथ में नंगी तलवार लेकर उस लड़की का भाई इसके पीछे-पीछे खेतों पर जा पहुँचा...।'
- 'फिर क्या हुआ...?' अचानक बीच में ही रुक गए खान को देखकर हारुन और कुछ-कुछ मदहोश आधम खान के अलावा, सबके मुँह से यह सवाल उठ खड़ा हुआ। धीरे-धीरे सबकी जिज्ञासा इस दास्तान-ए-हकीकत में बढ़ती ही जा रही थी। और इस कथा का नायक खामोश नीची निगाह किए; अपनी हर-रोज की देखी-भाली तलवार को मूठ के बल पकड़े; अपनी झेंप मिटाने के लिए, उसे बड़े गौर से देखे जा रहा था। बाकी सब उसके किस्से में मशग़ूल...। खान ने एक कनीज के हाथ से पानी मँगाकर पिया और आगे बढ़ा। यह उस किस्से का ही असर था कि अलीकुली को पानी लेकर आई वह ढीठ कनीज; धूल खाए न खाए गुलदानों को साफ करने के बहाने, वहीं ठिठक कर रह गई थी। खान धाराप्रवाह आगे बढ़ा जा रहा था - 'फिर क्या था... एक भरसक वार उस शैतान ने हल चलाते इस बेचारे हारुन की पीठ पर किया...। वह तो खुदा का शुक्र था कि ये हाथ में बैलों को हाँकने की पनैठी लिए था।... जैसे ही इसने बैल हाँकने के लिए पनैठी पीछे फटकारी तो उस जालिम की तलवार का वार; चमड़ा बँधी बाँस की उस मजबूत लकड़ी के दो टुकड़े करता, पीठ पर जा फिसला। ...अपने ऊपर अचानक हुए हमले से घबड़ाकर ये वहाँ से भाग खड़ा हुआ। ...और भागते हुए भी उस मादरजात ने इस पर शमशीर फेंक कर मारी; जो इसकी पीठ पर एक गहरा 'जख्म' पैदा करती, वहीं गिर पड़ी। पर उस जल्लाद के हाथ इसकी मौत नहीं लिखी थी... और ये वहाँ से बचता बचाता भाग खड़ा हुआ..।
- 'क्या यह सब हकीकत है...?' अबकी माहम की सवालिया निगाहें, अलीकुली खान की जगह हारुन के चेहरे पर जा टिकी थीं। वह बड़ी-सूनी निगाह से महल के बाएँ दरवाजे के ऊपर लगे शिकार-चित्र पर अपनी दृष्टि गड़ाए हुए था। जिसमें हाथी पर सवार कोई राजा अपने फौज-फाँटे के साथ, एक चीते का शिकार कर रहा है। राजा का लंबा भाला चीते की गर्दन को बेधे हुए है और घुटनों के बल हुए-हाथी ने अपनी सूँड़ में उसकी कमर लपेट ली है। रंग-बिरंगे वस्त्रों में सजे-धजे राजा के नौकर-चाकर भी अपने-अपने भाला-बर्छियों से उस पर वार कर रहे हैं। दो शिकारी कुत्ते भी उस घायल चीते पर चढ़-चढ़ बैठ रहे हैं। ...इस आखेट-चित्र को देखकर हारुन अपने किशोर जीवन की वास्तविकता और इस तस्वीर की रंगीनियों से समानता करता, अपने गाँव, गढ़ी गुहीसर की यादों में खो गया था। जब वह अन्य बेगारियों के साथ अपने झबरा और मुतिया कुत्ते को लेकर; फटे-पुराने कपड़ों में नंगे-पाँव, गढ़ीदार के छोटे भाई और अपने वर्तमान शत्रु कुँवर राय बेहंडल के साथ झिलमिल (गुहीसर से नीचे उत्तर से दक्षिण की ओर बहने वाली एक वर्षाकालीन नदी, जिसका मनोरम उद्गम बेहट से पूर्व में है।) के किनारे डाँग में शिकार करवाने जाता था।
उसे अपने यथार्थ और इस चित्र में धरती-आसमान का अंतर नजर आ रहा था। वह इस सबसे बेखबर अपनी तुलना उस चित्र से करता न जाने कब का अपनी बूढ़ी आजी के मुँह से सुने झिलमिला जोगी के किस्से और उसी के नाम से मेल खाती झिलमिल नदी के किनारे-किनारे, डाँग में लियो-लियो... पकरो-मारो... ये गयो-ये गयो की आवाज के साथ हाँका लगाता, अपनी किशोर स्मृतियों में गोता लगाने लगा था। उसकी ये तंद्रा एकाएक तब भंग हुई, जब माहम के साथ-साथ सबकी सवालिया नजरे उसकी पीठ से जा टकराई। अलीकुली खान की कुहनी के इशारे ने जब उसे सबकी ओर मोड़ा, तो वह चकित-भीता हिरण की मानिंद अकबका कर गया था। माहम ने जब यह सवाल पुनः दोहराया तो हारुन ने स्वीकृति में अपनी गर्दन हिलाकर, एक बार फिर अपना सिर झुका लिया। हारुन की मौन स्वीकृति से सहमत माहम ने अलीकुली खान से फिर आगे बढ़ने को कहा...। सम्राट के आगमन की गुप्त सूचना उसके मन में हौल पैदा किए जा रही थी।
खान एक नए जोश के साथ फिर आगे बढ़ा - 'सुबह से लेकर लौट सुबह तक ये भूखा-प्यासा न जाने किस उम्मीद में, वहीं एक ज्वार के खेत में पड़ा रहा। दिन चढ़े जब गढ़ी से डाँग की ओर जा रहे चरवाहों के मुँह से उसने ये सुना, कि - 'हरना कुँवरि गनेश को बावड़ी में पटक कर फरार हो गया है।' ...जिसने कभी उसे फूलों की छड़ी से भी न छुआ हो, उसी के सिर खून का इल्जाम...? फिर तो इसके सीने में बदले की आग भड़क उठी; सारी गढ़ी को तबाह करने की मन में ठानकर ये चश्में, दरिया, सहरा, पर्वत पार करता; चंबल के बीहड़ों में जाकर, बागियों के गिरोह में शामिल हो गया था। ...उसी दरमियान मैं किया खाँ गुंग के साथ, सुहेल अफगन पर फतह पाने रियासत-ए-ग्वालियर गया हुआ था। हमने बमुश्किल हिंदुस्तान के सबसे मजबूत किलों में से एक किला-ए-ग्वालियर पर जीत हासिल की और फतह का पैगाम लेकर; पाँच सवारों के साथ खुशी से झूमता, आलमपनाह के हुजूर में आगरा लौट रहा था।
अटेरगढ़ से आगे दरिया-ए-चंबल पार करना होता है। ...तब हमें जरा भी गुमान नहीं था कि बुखारा से बंगाल तक अपनी फतह का परचम लहराने वाली मुगलिया फौजों के खौफ से नावाकिफ कोई बागी, हम पर कातिलाना हमला भी कर सकते हैं। ...मैं जैसे ही नदी पार पहुँचा, अचानक दरिया के किनारे खड़े हींस-करील बबूल और पीलुओं की झाड़ियों से भाला, बर्छी, कांता, बल्लम, धारिया, पथरकला और कड़ाबीन लिए, बड़ी-बड़ी मूँछों वाले खूँख्वार बागी हम पर टूट पड़े। जब तक हम सँभल पाते तब तक उन बागियों ने...।' - 'बागी-ही क्यों..., लुटेरे या डाकू नहीं?' पीर मुहम्मद ने आशंका जताई।
- 'हम उन्हें, दोनों नाम से नवाज सकते है। ...दरअसल हैं वो बागी ही।'
- 'वो कैसे...।'
- 'कई सौ साल पहले ये लोग देहली के आसपास रहते थे। हर-हमेशः हमलावरों की आमद और अपनी दुख्तरों-बीबियों के चेहरे पर छाए रहने वाले खौफ-ए-अस्मत (अस्मत लुट जाने का भय।) से तंग आकर, ये लोग; दिल्ली से चलकर आगरा से नीचे चंबल-यमुना के दोआब में जाकर बस गए हैं।
वहाँ की आबोहवा में पलकर अब वे इतने खूँख्वार गए हैं कि जब कभी हमारी फौजें रसद लेकर उधर से गुजरती हैं; तो वे गुरिल्लाओं की मानिंद अचानक जंगल-झाड़ियों से निकलकर, मारकाट और लूट-पाट मचाते वापस उन्हीं बीहड़ों में छुप जाते हैं। उनसे से किसी सुल्तान ने आज तक जजिया और खिराज नहीं वसूल पाया। (ब्रिटिश गजेटियर वोल्यूम - डी. एल.' ड्रेक बुक मेन्स आई.सी.एस.।)
- 'बड़े ही-शातिर हैं...।' माहम ने एक लंबी साँस खींची।
- '...और उस दिन हम भी उनके शिकार हो गए होते... जब तक हम सँभलते तब तक उन्होंने हमारे चार साथी सवार काटकर चंबल में बहा दिए थे। उनके अरबी, इराकी और कुम्मैती घोड़े, ढाल-तलवारें और तोड़दार बंदूकें; जिन्हें आलमपनाह ने खुद अपनी देखरेख में फतहउल्ला खाँ शिरांजी से बनवाया था, वो सब उनसे एक-एक कर छीन ली गईं। ...सौ का सुल्तान क्या करता। बहादुरी वहाँ काम नहीं दे रही थी। ...मैं भी कई चोट खाया बेदम होकर घोड़े की पीठ पर चिपका, खुद को बचता-बचाता वहाँ भाग निकला।'
- 'किस्सा-हारुन का चल रहा था और तुम अपना सुनाने लगे। ...जब यह बागियों में शामिल हो गया था... फिर इससे तुम्हारा साथ कैसे हुआ? कैसे यह फौज में आया? जल्दी बताकर इसे यहीं खत्म करो...।'
- 'वहीऽ तो बता रहा हूँ दाई अम्मी, तफसील से सुन लीजिएगा; ये किस्सा-ए-हकीकत किसी तिलस्मी दास्तान से कम नहीं है...।' लगातार बेचैन माहम की अधीर-जिज्ञासा शांत करता अलीकुली, शीघ्र ही फिर आगे बढ़ा - 'घोड़े की पीठ से चिपका मैं ज्यादा देर तक अपने को होशो-हवास में न रख सका और एक जगह बेदम होकर गिर पड़ा। बहुत देर बाद होश आने पर जब मेरी आँख खुली तो एक सुनसान जगह पर किसी दरख्त की छाँव में हारुन को अपना तीमारदार बना पाया।'
- 'अभी तुम ही ने कहा था कि ये - बागियों के गिरोह में शामिल हो गया था, फिर ये तुम्हारा जख्म सहलाने वाला-कैसे हुआ? ...पीर मुहम्मद ने सशंक हो कर कहा।
- 'वही तो सुनते जाइए मेरे आका - । सब्र बहुत बड़ी चीज है, गौर फरमाएँ...।' पीर-मुहम्मद की जिज्ञासाओं पर विराम लगाता अली कुली खान फिर आगे बढ़ा :
- 'हम पर हमला करने वाले बागी और उनके सरगना को यह पक्का यकीन हो गया था कि मैं बचूँगा नहीं; इसलिए उन्होंने इस नौसिखिए बागी को हमारे पीछे दौड़ा दिया, जो हमारी खोज लेता आखिरकार उस जगह तक पहुँच ही गया जहाँ मैं एक झाड़ी के पास बेहोश पड़ा था।
वहाँ मेरा वफादार घोड़ा अपने बदन की छाया किए खड़ा बार-बार मुझे सूँघे जा रहा था! उसने जब किसी अजनबी को तलवार लिए अपनी ओर आते देखा, तो दो-दो पैर होकर हिनहिनाता इस पर टूट पड़ा...। पर हमारा हारुन भी कम चालाक नहीं है, इसने घोड़े का मकसद समझकर अपनी तलवार फेंक दी और पुचकारते हुए जल्दी ही उसे अपने यकीन में ले लिया... तो घोड़ा भी मुझसे परे हट गया था। ...अब इसे हारुन की बेवशी कहें या खुदा का शुक्र कि जब यह हमारे करीब पहुँचा, तो यह अपने मुखिया का हुक्म भूल हमारी जख्मी हालत देखकर हिल गया। ...दूसरे यह उस गिरोह से भी अलग होना चाहता था, क्योंकि उस गिरोह का सरदार इसके गढ़ीदार का रिश्तेदार निकल आया था। हालाँकि इसके फरारी की दर-हकीकत उस पर जाहिर नहीं हुई थी, पर एक जाना-पहचाना खौफ इसके पैर वहाँ टिकने नहीं दे रहा था। जब यह हमारे पास आया तो इसे किसी तरह उनके बीच से निकल भागने का मौका हाथ लग गया था। ...इसने अपनी छोटी सी मसक से पानी लेकर मेरे मुँह पर छिड़का, घाव साफ किए और अपने साफे से पट्टी फाड़कर रिसते जख्मों पर बाँधा, तो जरा सी देर में हमारी बेहोशी जाती रही। आँखें खोलने के बाद जब तक मैं इसकी नेक-नीयती का शुक्रगुजार होता, तब तक इसने हमें हमारे घोड़े पर बिठाकर, लगाम ढीली करते हुए ऐड़ लगा दी - 'बोलो-कितै... चलेंऽ...?'
- '...!...!!...!!!' अलीकुली द्वारा हारुन की बोली का ज्यौं का त्यौं सटीक अभिनय, एक बार सबके साथ-साथ हारुन का भी हँसा गया था। पर सबसे अलहदा उसकी हँसी में उसके दो आँसू भी आकर शामिल हो गए थे, जिन पर किसी और की निगाह न पड़ पाई थी। ...यद्यपि अलीकुली की बातों से कहीं नहीं झलक रहा था कि उसने सबके सामने उसे तमाशाई ढंग से पेश किया है, पर न जाने क्यों उसे रोना आ रहा था। दुखद जीवन की घटनाओं का पुनर्वर्णन उतना ही कष्टकारी होता है, जितना वक्त की हवा खाकर भर गए किसी गहरे जख्म को दुबारा नश्तर से कुरेदना!
...और इन सबसे अनजान अलीकुली खान अपनी रौ में आगे बढ़ा जा रहा था -'इस तरह मेरे बताए रास्ते पर भूख-प्यास से बेजान हम और हारुन दो दिन का सफर तय करके, आलमपनाह के हुजूर में आगरा पहुँचे। वहाँ शहंशाह ने एक साथ दो-दो खुशियों से सादमान होकर; इसे रौज-ए-मुनव्वरा जनाब सुल्तानुल मुर्शिदीन, गौसुल इस्लाम वल्मुस्लिमीन मुहम्मद गौसुल सक्लैन (1483-1563 : मध्यकालीन प्रसिद्ध सूफी संत, जिनका अकबर द्वारा बनवाया गया भव्य मकबरा ग्वालियर में आज भी हजीरा पर स्थित है।) की नजर-ए-इनायत मानकर, मुझे 500 का मनसबदार बनाकर कुछ दिनों बाद कासिम अली के साथ वापस किला-ए-ग्वालियर भेज दिया था। जहाँ मुझे हर जुमेरात, शहर काजी के संग उनकी खानकाह पर जाकर सल्तनत की सलामती की दुआ करने के साथ-साथ रात को बनाया मीठा हलुआ सुबह लोगों में बाँटने की भी हिदायत दी थी ('कुल्लियाते ग्वालियरी' पृ. 1) ... और ...।'
- 'और मुझे अरबी-फारसी सीखने की शर्त पर, एक अदना सा सिपाही बना दिया।'
बहुत देर बाद किंतु अचानक हँसते हुए हारुन ने खान से अपनी बात छीनकर कथांत कर डाला था। सब हारुन के इस नए रूप पर और उसे अपने साहस पर आश्चर्य हो रहा था। पीर मुहम्मद को कहीं न कहीं यह बात चुभ गई, फिर भी वह अपने को संयमित कर के बोला - 'शुक्र मनाओ मियाँ, खान की वजह से तुम एक अच्छे खासे आदमी बन गए हो? वरना कोई हिंदू तो क्या - किसी-हिंदुस्तानी मुसलमान को भी फौज के करीब तक नही फटकने दिया जाता था..., अब तोऽ?'
- 'अब तो - हिंदू भी शहंशाह के साले बन-बनकर, ऊँचे-ऊँचे ओहदे हथिया उठे हैं...!' अब तक खामोश किंतु भरे बैठे आधम ने जब अपनी जुबान का यह तीर छोड़ा; तो सबको एक करारा झटका लगा, चोट किसी को भी नहीं...? यद्धपि यह नीम सच्चाई थी, फिर भी माहम अनगा जो आधम खान की माँ होने के साथ-साथ अकबर की धाय माँ भी थी, उसे ये लफ्ज नागवार गुजरे।
- 'गुस्ताखी की भी हद होती है आधमखान! मैं शहंशाह की शान के खिलाफ जाने वाले किसी भी लफ्ज को नहीं सुनना चाहूँगी!! ...तुम्हारा मकसद क्या है अली कुली खान? उसे बता कर हमें कुछ देर के लिए - तन्हा छोड़ दो!!!'
- 'हमारा मकसद वजीर-ए-सल्तनत से है...।'
- 'मैं - उसकी माँ हूँऽ...।' माहम ने प्रतिवाद किया।
- 'तो आप भी सुनिए, हम वजीर-ए-सल्तनत की राय लेकर, गढ़ी गुहीसर पर हमला बोलने जा रहे हैं। जहाँ से हमारे दो मकसद पूरे होंगे; पहला, वजीर-ए-सल्तनत के लिए - शीरीं, जुलैखा और लैला से भी खूबसूरत उस गढ़ीदार की लड़की बेटीबाई का 'डोला'। दूसरा; हारुन के दिल में वर्षों से लगी अदावत की आग भी ठंडा करना है...। ये-कुछ ही दिन पहले, 'तकिया' (मध्यकालीन मुस्लिम शासकों के सूफी और फकीरों के रूप में छद्मभेषधारी गुप्तचर, जिनका मुख्य कार्य भिक्षुक के रूप में सम्राट अथवा सामंतों के हरम के लिए सुंदर स्त्रियों की ताक-झाँक और सूचना पहुँचाना था।) के खुफिया लिबास में वहाँ की सारी दर हकीकत जान आया हैं।'
- 'ऐसा हरगिज नहीं होगा!'
- 'ऐसा क्यूँ नहीं होगा - ? आधम चीख पड़ा था।
- 'क्यूँकि हम शाही वफादार हैं।...'
- 'मैं वफादारी और गुलामी को-एक-ही-सिक्के-के दो-पहलूऽ मानता हूँ -।... जरा मर्जी के खिलाफ कदम गए, तो बख्शा नहीं जाता। ...खानखाना तो पीछे रहे, इस हारुन को ही लीजिए... ये उस गढ़ीदार का गुलाम ही नहीं, वफादार भी था। ...क्या-क्या नहीं करता होगा यह उसके लिए; पर जरा सी एक भूल का नतीजा आपके सामने है? ...हमने भी जरा सा लूट का माल क्या रख लियाऽ, आलपनाह हमें सबक सिखाने यहाँ आ रहे हैं? ...अलीऽ कुलीखा-न; तुम एक हजार हथियारबंद सिपाही लेकर हारुन के साथ गुहीसर जाऽओ..., हमें हर हाल में बेटीबाई और बेटीबाई का डोलाऽ चाहिए...!! इसके एवज में तुम्हारा खुम्स (गैर मुस्लिम राज्यों पर किए आक्रमण से प्राप्त लूट के माल पर सैनिकों और सामंतों से लिया जाने वाला एक कर।) मुआफ किया जाएगा!!!'
- 'आऽधम! तुम सब पागल हो गए हो इस नौजवान के पीछे; दाढ़ियों के नीचे कहीं दीन नहीऽ दब जाते? ...जब ये अपनी गढ़ी और गाँव जलता देखेगा तो...?'
- 'मैंऽ सिर्फ एक ही कदम बढ़ा रहा हूँ, - खिलाफत में! ...तुम मुझे कैसे मुआफ कराओगी उस मुहम्मद जलालुद्दीन अकबर से; जो तुम्हारा दूध पीकर बड़ा हुआ है!! ...यऽही तुम्हारी जिंदगी भर की वफादारी का सुबूत होगा!!! इस बीच हारुन भी खिसियाना सा अलीकुली खान के पीछे हो लिया था। बैरम खान जैसे स्वामिभक्त संरक्षक को बड़े ही ऐयाराना तरीके से अपने रास्ते से हटाकर, अकबर को अपने प्रभाव में लेने वाली माहम अनगा; आज अपने ही बेटे का तीखा तेवर और बगावती चेहरा देख, बेबस आँखें फाड़ती बैठी रह गई थी। महल के बाहर डंके की पहली चोट लगने के बाद; दूसरी और तीसरी चोट के अंतराल में, अस्तबल से घोड़ों पर पाखर (युद्ध के समय घोड़ों पर सुरक्षा के लिए डाला जाने वाला मजबूत आवरण - झूलें।) डालने, जीन कसने और उनके पुट्ठे ठोकने की आवाजें आने लगीं थीं।
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