ज़ख्म / भाग- 6 / जितेंद्र विसारिया
हर रोज की भाँति गढ़ी आज भी साँझ के सिंदूर में नहाकर रात की माँद में समाने लगी थी। रामबख्स की मड़ैया से लेकर गढ़ी की गुर्ज तक सभी निःशंक थे। किसी को जरा सी भी शंका न थी कि कोई मुगल इस तरह अचानक आकर उन्हें तहस-नहस कर डालेंगे। गढ़ गोपाचल पर किया खाँ गुंग के शासक बनते ही रियासत के अन्य छोटे राजा और गढ़ीदार, लगानदाता बनकर उसी तरह निश्चिंत हो गए थे जैसे जंगल राज्य में शेर से पशु-पंछी। भय और आशकाएँ तो जिसमें बनी रहती हैं पर यह किसी ने नहीं सोचा था कि आज की रात पूरी गढ़ी के लिए काल रात्रि बन कर आएगी।
हर रोज की नाईं सभी अपने काम धंधों से निपट कर ब्यालू करने, गाय गोरुओं को छोड़ने-बाँधने और उनका दूध दुहकर तचाने-जमाने से लेकर बहुओं द्वारा सासों के पाँव दबाकर लड़िका-बिटियों को सुलाने और जुनैया के छुपने तक सेज पर पिया के आने और उनसे गलबहियाँ डालने की आशा में, सारे कार्य व्यापार बड़ी शीघ्रता और प्रसन्नता से चल रहे थे। थोड़ी बहुत चिंता थी तो कुँवर के रूठ कर डाँग में जाने और उनके साथ गए अपने परिजनों के न आने की, पर उसकी फिक्र में किसी के चूल्हे न सुलगे हों ऐसा भी नहीं था। देर-अवेर तो होती ही रहती है।
रामदेई ने रोटी करके तो धर ली थी। पर गाँव बाहर परबहारी मड़ैया में, आज उसे न जाने क्यों अकुलाहट हो रही थी। वह बैचेन सी मड़ैया से निकल कर आँगन में पहुँची तो उसे एकाएक सुधि आई कि नीम पर टँगे तीतुर तो आज भूखे-प्यासे ही रह गए हैं। वह दौड़कर मड़ैया से एक दिए में पानी भर लाई और पिंजरे में धर दिया था, पर भूख से व्याकुल उन तीतरों में से किसी एक ने भी पानी में चोंच नहीं डाली। तब वह हैरान हो उठी - 'हाय दइया...।' वह किसी की भूख नहीं देख सकती थी। कुछ सोचने के बाद लकुटिया लेकर घर के पिछवाड़े खड़े मेहँदी के पेड़ से सटी वामी से, तीतरों का आहार दीमक की मिट्टी और दीम लेने निकल पड़ी थी। ...यद्यपि साँप का भय था पर साहस भी कम नहीं; खुरपी न मिलने पर घर में पड़ी एक पुरानी कटार ही हाथ में थी।
आँगन से पौर में होते हुए जैसे ही उसने घर के बाहर सैर में पाँव रखा, तो उसके हाथों के सुआ उड़ गए। सामने पश्चिम दिशा से सैकड़ों मशाल लिए हथियारबंद सैनिक हाथ में नंगी तलवारें लिए, घोड़ों पर सवार उसी दिशा में चले आ रहे हैं। मशालों की लौ से चौंधियाई आँखें जब तक बचाव का मार्ग देखतीं उससे पहले ही प्रथम शिकार पर व्याधों के अचूक लक्ष्यबेध की भाँति, निरीह रामदेई पर एक साथ कई निशाने सध चुके थे। उसके हाथ की अँगुलियों में फँसी कटार पर, उसकी मुट्ठियाँ भिंची की भिंची रह गई और देखते ही देखते वे सैकड़ों सवार, उसके ऊपर से गुजरते ग्रहण की भाँति सारी गढ़ी पर छा गए थे...।
गढ़ी का फाटक खुला हुआ था। पहरेदार और लठैत गाँजे की दम लगाते हुए, सँझोती गाने में मग्न थे। उन्हें उसी अवस्था में धर लिया गया। रानी के द्वारा अन्न ग्रहण न करने पर महल में रसोई ऐसी ही धरी थी। बूढ़े राजा हरी सिंह पवैया जू के आग्रह पर अनमनी कुँवरि बेटी बाई, गढ़ी में महल के आँगन के बीचों-बीच तुलसी के चौंरा पर दिया धरने आईं हुई थीं; जिससे सभी न सही कोई तो भोजन करे...। पर आँगन तक आते-आते उसके पाँव जकड़कर रह गए, गढ़ी पर प्रलय के मेघ जो उमड़ आए थे। हाथों से आरती का दिया छूट पड़ा। बदहवास कुँवरि जैसे ही अपना सिर फरिया से ढाँकते हुए चीखकर महल की ओर मुड़ी, वैसे ही एक विशेष सैनिक के निर्देश पर कई सैनिकों ने उसे अपनी गिरफ्त में ले लिया था। अचानक हमले से असावधान रहे गढ़ी के सैनिकों, लठैतों और गढ़ीदारों से लड़ते-झगड़ते वे आतताई; गढ़ी के बाहर होने लगे थे। यद्यपि गढ़ी से उन्हें भारी प्रतिरोध मिलने उठा थे, पर उनका भी उत्साह कम न था। एक राष्ट्रीय सम्राट का सिपाही होना, उन्हें दुगना उत्साह पहुँचा रहा था।
आक्रमणकारियों ने बेटीबाई को उठाकर एक डोले में रख लिया था। ...गढ़ी के सैनिक, लठैत नौकर-चाकर, हलवाहे आदि पवैयाओं की आन-वान-शान बचाने में अपना जी जान लगाए दे रहे थे; फिर भी पराजय का सर्प लोटता-पीटता, उन्हीं के पाले में रेंगता आ रहा था। सत्तर बर्ष के बूढ़े राजा हरीसिंह पवैया भी नंगी तलवार लेकर अपनी नयन-तारा को बचाने के लिए बैरियों के दल में पिल पड़े थे। परंतु कुछ देर की लड़ाई में ही उनकी साँस उखड़ने लगी और रात के उस अँधेरे में जूझती तलवारों और मशालों के लुके-छपे प्रकाश में, अचानक एक मुगल सैनिक की तीक्ष्ण तलवार ने उन्हें भी धराशायी कर दिखाया था। युद्ध में राजा के खेत रहने पर भी कोई हिम्मत नहीं हार रहा था, परंतु वर्षों से जंग खाए हथियार; निरंतर तेज होते कमान-बान बंदूक, तेग-तलवार भाले और नेजों के आगे भोंथरे सिद्ध हो रहे थे।
डोला गढ़ी के फाटक के बाहर हो चुका था। गढ़ी के भीतर महल में चीख पुकार और तेज हो गई थी। राजा के मरते न मरते महल की रानियों, कुँवरियों एवं अन्य गणमान्य स्त्रियों ने, गढ़ी की पश्चिमी गुर्ज के नीचे निरंतर दहकते जौहरकुंड (गुहीसर में यह जौहर कुंड गढ़ी के भीतर उत्तरी कोने में आज भी अपनी जीर्णशीर्ण अवस्था में अवस्थित है।) में अपने प्राणाहूत करना प्रारंभ कर दिया था।
बैरियों से अपने कौमार्य और सतीत्व भंग होने का डर उन पर इस कदर हावी था, कि उन्हें शीघ्रातिशीघ्र मरने के अलावा और कुछ सूझ ही नहीं रहा था। कुछ तो जौहर कुंड तक न जाते हुए फाटक से बीस गज पहले बने खुले मुँह के कुएँ में, छज्जों-अटारियों से कूद-कूद कर अपने प्राण देने लगी थीं। ...पूर्णरूप से टूट चुकी गढ़ी में मुगल सैनिक मारकाट मचाते हुए निर्द्वंद्व भाव से लूट-पाट, आगजनी, हत्या, बलात्कार आदि की कींच में धँस पड़े थे। तभी, बाज की भाँति कुँवर जोरावर अपने साथियों के संग उन पर टूट पड़े थे।
...जिन्होंने कभी गढ़ी में पाँव नहीं दिया था; कुँवर जोरवार के वे दलित-पिछड़े साथी, झपट-झपटकर गुर्जो-अटरियों, महलों-मंदिरों में से बीन-बीन कर मुगलों का सफाया करने में लग गए थे। कुछेक देर में उन आक्रमणकारियों का जन्नत की हूरों द्वारा सशरीर स्वर्ग ले जाने का ख्वाब ही भले बाकी रहा हो; परंतु घर जाकर लूट में प्राप्त हार-हमेल झूमर-चंद्रहार और चंपाकली अपनी बीवियों को अपने हाथों से पहनाए जाने का स्वप्न, पूर्ण रूप से धूल धूसरित हो गया था।
कुँवर बेहाल थे। उन्हें अपने घर का कोई भी खास सदस्य दिखाई नहीं दे रहा था। मार काट मचाते हुए जब वे महल की ओर मुड़े, तो आँगन में मशाल के मद्धिम प्रकाश में पूजा की थाली, दीपक और कुछ टूटी हुई चूड़ियों को देखकर, वे पल भर में ही ताड़ गए। कलेजे में जोर का धक्का लगा। आँख से आँसुओं की जगह खून उतर आया। तभी उनकी दृष्टि तुलसी चौरा के बगल में दोनों बाजुओं रहित परकटे पंछी सा पड़ा उनका खास चाकर खल्ली दिखाई दिया, जो उन्हें देख अपनी डिढ़कार छोड़कर रो पड़ा था। कुँवर के पूछते न पूछते उसने गढ़ी का सारा हाल बता दिया। ...कुँवर जोरावर उन्हीं पाँव सबको साथ लेते न लेते, गढ़ी से नीचे गाँव की ओर कुँवरि के डोले के पीछे दौड़ पड़े थे। डोला अभी गाँव से बाहर नहीं निकल पाया था...।
अलबरूनी और अन्य विदेशी यात्रियों के आँखों देखे से भी आगे; गढ़ गोपांचल के इस गाँव की जनता, अपने-अपने तरीके से आक्रमणकारियों से लोहा ले रही थी। जिसमें उन्हें विजयाकांक्षा बहुत महँगी पड़ रही थी। ...कुँवर जोरावर ने घोड़े की बाग उधर ही मोड़ दी थी। सबके साथ हथियारबंद रामबख्स भी हल्ला बोलता कुँवर के पीछे हो गया था। कुँवर भीड़ को चीरते गाँव बाहर रामदेई की मड़ैया से आगे बढ़कर खार के पार खैरे पर जा चढ़े थे, जहाँ कुँवरि के डोले को लेकर मुगलों और गाँव वालों में भयंकर मारकाट और छीना झपटी मची हुई थी। कुँवर एक बार फिर प्राण-पण से अपनी बहन कुँवरि बेटी बाई की रक्षा के लिए जूझ पड़े थे।