ज़मीन का आदमी / राजनारायण बोहरे
प्रातः के ग्यारह बजे थे।
उनका अंदाजा था कि कलेक्टर से तत्काल मुलाकात हो जाएगी, लेकिन उन्हे निराशा हाथ लगी। निज सचिव ने बताया कि कलेक्टर सुबह से ही बिजी हैं, जापान से कुछ व्यापारियों के मंडल आए हैं, उनके साथ कलेक्टर की दो मीटिंग हो चुकीं, अभी तीन और होना है। इसलिए वे चाहें तो ख़ास लोगों के वास्त बनाए गए प्रतीक्षा कक्ष में इंतजार कर सकते हेैं। उन्होने हामी भर ली, तो उसने बगल में बना वह ख़ास कमरा खोला और उन्हे बाइज़्ज़त वहाँ ले जा कर बैठा दिया।
उन्होने वहाँ रखी कागज की पर्ची पर अपने टेड़े-मेड़े खुसकतों में अपना नाम लिखा-
संपत प्रसाद
जिला पंचायत अध्यक्ष
(दर्जा राज्य मंत्री)
कलेक्टर के सहायक ने बड़े आदर के साथ उनसे वह पर्ची ग्रहण की, फिर अनुमति लेकर बाहर चला गया।
वे फिर मन की गुफा में फिसलते चले गए. कल रात से यही तो हो रहा है, ...अपनी किसी प्रिय फ़िल्म की तरह वे बार-बार शुरू से अपनी कहानी आरंभ करते हैं और हवाओं में तैरते हुए कहाँ से कहाँ जा पहुंचते हैं। जाने क्या तलाश है उन्हे, जो मिल नहीं पा रहा है।
अब फिर से उनके सामने पचास साल पुराना मंजर था।
तब से बीस साल के युवा थे।
सन् ब्यालीस का आंदोलन चल रहा था उन दिनों। देश पर अंग्रेजों का राज था।
सुराजी लोग गाँव-गाँव जाकर जनजागरण कर रहे थे। इसी सिलसिले में एक जत्था उनके गाँव में आया। घंटे भर रूके वे लोग, फिर अगले गावं जाने वाले थे कि अचानक मौसम बिगड़ा, हवायें चलीं, प्रचण्ड आंधी तूफान छा गया आसमान पर, सो उन लोगों का पूरा दिन गाँव में बीता।
संपत ने दिन भर उन लोगों की आवभगत की। चौपाल पर बैठकर सुराजियों ने जब गुलामी, आजादी और अहिँसा आंदोलन का मतलब समझाते हुये अंग्रेजों के अत्याचार बयान किए तो गाँव के युवाओं की भुजा फड़क उठी थी। संपत की भी।
...और सहसा संपत के जीवन मंे समाज सेवा या कहें कि देश सेवा का सूत्रपात हो गया था। दूसरे लोगों के साथ उन्होने कई बार हड़तालें की, जेल की हवा खाई और एकाध बार पुलिस के मुंदी चोट वाले डण्डे भी।
"बब्बा पानी लो!" कलेक्टर का चपरासी पानी लेकर हाजिर था। गिलास उठाते उनके मुंह से निकला, "खुशी रहो भैया!"
चपरासी के मंुह पर हल्के से बिस्मय का भाव था, दूसरा गिलास सामने के टेबिल पर रख कर वह बाहर चला गया और दरवाजा भी उढ़का दिया उसने। वे फिर अपने भीतर सरक आये थे, ...आखिर देश स्वतंत्र हुआ। उस रात उनके घर दीवाली मनी थी। देहरी, मुड़ेर और चौंतरे पर तेल के दिये आधी रात तक जलते रहे थे, गाँव भर के गम्मतया उनके यहाँ हाजिर थे-देश भक्ति के तराने गाते हुऐं। आधी रात को उन्होने चौपाल पर तिरंगा फहराया था, मौजूद लोगों ने जोर से नारा लगाया-'जै ऽ-ऽ ऽ ऽ हिन्द!'
सन् पचास से देश का अपना कानून लागू हुआ।
पार्टी की तरफ से विधान सभा के चुनाव में रामरूप प्रत्याशी बने और जब वे संपत के गाँव मंे आये, तो संपतप्रसाद ने अपने आसपास के पन्द्रह गाँवों में अपनी पार्टी को वोट दिलाने का आश्वासन दे डाला। उन्होने यह जिम्मेदारी निभाई भी। वोट वाले दिन उन गाँवों के अधिकांश वोट रामरूप की पेटी में डलवाने के बाद ही भोजन किया।
उन गॉवों से रामरूप को भारी बहुमत मिला। रामरूप विधायक चुन लिये गये। उनकी पारखी नजर ने संपतप्रसाद की प्रतिभा को पहचान लिया था। क्योंकि शपथ लेने गये तो अपने साथ संपतप्रसाद को भी राजधानी ले गये थे वे। उन्होने भाई जैसा नेह दिया संपत प्रसाद को। ऐसा नेह देखकर संपतप्रसाद निहाल हो उठे। उसी नेह का नतीजा था कि वे पार्टी के अठन्निया मैम्बर हो गये। गाँव में रामरूप के राजदूत बन कर रहने लगे वे।
जीवन चलने लगा।
समय बीतता गया।
जमाना बदलता चला गया। संपतप्रसाद ने दस्तखत करने के अलावा कुछ न सीखा और चालीस बरस बीत गये। इस बीच राजनीति में बहुत कुछ घटा, लोग कहाँ के कहाँ पहुंच गए. ...पर संपतप्रसाद पूरी तरह ग्रामीण के ग्रामीण बने रहे। गाँव से बाहर घुटन होती थी उन्हे। रात कितनी भी हो जाए, वे गाँव में ही जाकर सोते थे रोज।
आर्थिक स्रोत सीमित थे सो गाँव में ंरहना मजबूरी थी उनकी। इस चक्कर में उनके बच्चे ज़्यादा नहीं पढ़-लिख पाए और छोटी अवस्था में ही ब्याह दिए गए. फिर बच्चे भी हो गये उनके और कम उमर में संपतप्रसाद को बब्बा कहने वाले आंगन में खेलने लगे। वे खुद कोई दूसरा काम धंधा नहीं सीख पाए, खेती पर आश्रित बने रहे सदा। अब भी 'राजनीति' उनका पहला और आखिरी शौक था। गाँव में जब भी कोई नेता आता उनकी व्यस्तता देखते बनती, ...मैदान में फर्स बिछाने से लेकर फूलमालाऐं पहनाने और पहला भाशण देने तक का जिम्मा संपत का ही रहता। बड़े नेताओं के साथ दो पल मंच पर बैठने के सुख के बदले जीवन के सारे सुख तुच्छ लगते थे उन्हे, सो इन दो पल के लिए अपना पूरा जीवन ही अपनी पारटी को अर्पण कर दिया उन्होने। कोई भी चुनाव होता, वे ज़्यादा से ज़्यादा वोट अपनी पेटी में डलवाने को आमादा रहते, चाहे 'कुछ भी' क्यों न हो जाये, ...हाँ चाहे 'कुछ भी' ! यह 'कुछ भी' उन्होने तब सीखा जब देश में दीगर पार्टियों का उदय हुआ और हरेक चुनाव में दर्जन भर से ज़्यादा उम्मीदवार ताल ठोंकते नजर आने लगे और ऐसे में हाथ जोड़ने से नहीं हाथ-पांव तोड़ने या वूथ कब्जियाने से ही जीतना संभव था, सो बरसों यह भी किया संपतप्रसाद ने। उनके खिलाफ कुछ पुलिस मामले भी बने, लेकिन रामरूप ने सब निपटवा दिए और संपतप्रसाद बेखौफ होते चले गए.
"बब्बा, तीसरी मीटिंग निपट गई है, बस्स कुछ देर और..." कलेकटर का पीए चाय लेकर खुद हाजिर था।
उन्होने मुसकराते हुए कप लिया और उसमें रखी चाय पर नजर फेंकी। सुनहरे रंग के गाढ़े से द्रव पदार्थ पर हल्के सुनहरे रंग की मलाई-सी जमी थी, कलेक्टर की पसंद की खास चाय थी यह! हमेशा की तरह उन्होने अपनी तर्जनी से चाय के उपर जम आई मलाई को एक तरफ किया और प्लेट में आधा कप चाय उड़ेल कर कप टेबिल पर रखा और दांये हाथ से प्लेट उठा कर पूरे इत्मीनान से चाय का घूंट भरा। चाय सचमुच बेहद स्वादिश्ट थी।
सहसा उन्हे याद आया...उन दिनों देश में दलितों की अपनी पार्टी बनी थी। पार्टी के प्रदेश महासचिव हरलाल माते अपनी पार्टी की तरफ से दूत बन कर उन्हे बुलाने आये थेे, बोले थे, 'इस सड़ी-गली पार्टी की गुलामी छोडे़ा दादा और दलितों की अपनी पार्टी में शामिल हो जाओ, जो माँगो वह पाओगे-आने वाला जमाना अपनी पार्टी का होगा।'
वे टालने लगे तो हरलाल बोले, 'एक बात पूछें। सच्ची बताओ, इतने दिन सेवा करी...आखिर क्या मिला इस पार्टी से तुम्हे?'
हरलाल तो चले गये थे लेकिन वे रात भर द्वंद्व में फंसे रहे और बुदबुदाते रहे थे-'कैसा बेतुका सवाल पूछा हरलाल ने कि क्या मिला हमे इस पार्टी से?' अरे भैया, पार्टी में कोई इसलिए थोड़ी न जाता है कि उसके बदले में कुछ माँगे'मन के किसी कोने से आवाज आई, सवाल तो अच्छा था, हमने कुछ भी तो नहीं पाया, ... बिन मोल बिक गए, सुराजियों की सिखाई उसूलों की गांठ बांध के बैठे रहे। लिहाज में किसी से कुछ न कहा, पदों पर बैठे लोगों ने कुछ किया नहीं उनकी खातिर ...और अपने मोड़ी-मोड़ा तरसा लिए हमने पाई-पाई को।' ...सहसा वे चेते थेे, 'रूपया-पैसा सब कुछ नहीं होता जिंदगानी में, रुपया तो रंडिया भी कमा लेती हैं, अटारियाँ तो मुर्दो के लिए भी बड़ी उम्दा बन जाती हैं, हमारे पास धन दौलत नहीं ंतो क्या इज्जत तो है। इतने बरसों में अगर हमारी कोई पहचान बनी है, तो इस पार्टी की बदौलत ही तो बनी है। पार्टी के बिना क्या औकात थी हमारी? कौन जानता था? गाँव में रह रहे बिरादरी के तमाम लोग आज जहाँ के तहाँ हैं और वे विधायक के खासुलखास माने जाते हैं, ये पहचान, ये रूतबा पार्टी ने ही दिया है उन्हे।'
' जिंदगी भर की आस्था को ऐसे न छोड़ सकेंगे वे, कहाँ नई पार्टी में फिर से सबसे
जान-पहचान बनाते फिरंेगे, ...इतने साल की मेहनत ऐसे नहीं मेटेंगे! ' उन्होने तय कर लिया उस रात सुबह तक जागकर और वे अपनी पार्टी में ही बने रहे, हरलाल की पार्टी में नहीं गये।
...दुबारा विधानसभा चुनाव हुये। प्रदेश में दलितों की पार्टी ने चालीस सीटें जीतीं और सच में उनकी ताकत ऐसी थी कि बिना उनकी सहमति के किसी की सरकार न बन पाये! उस रात पहली दफा संपतप्रसाद को अपने निर्णय पर पछतावा हुआ। दलितों की पार्टी सरकार में सम्मिलित हुई और हरलाल की पार्टी के तमाम लोग सरकार में मंत्री बने।
उनके विधानसभा क्षेत्र में भी दलित पार्टी का झण्डा फहरा उठा। हरलाल की पार्टी के उम्मीदवार से रामरूप नाम मात्र के वोटों से हारे। संपतप्रसाद की तो हालत और ज़्यादा खराब थी, उधर हरलाल हँसी उड़ा रहे थे और इधर। अब रामरूप ने उनसे बाकायदा एक दूरी-सी बना ली थी। वे न तो आत्मीयता से बतियाते, न सेवा का कोई मौका देते। ...फिर उनके पास पार्टी का दूत बनकर आया था हरलाल और कहने लगा था, ' बब्बा तिहारी पार्टी तो गई जाने किते? खेल खतम है गओ अब। छोड़ो जो डूबतो जहाज, आप भी तो जानत हो कै, या तो हम बढ़ रहे हैं, कै वे मंदिर वाले, तुम बीच बारों की तो दशा खराब है गई है अब। यूपी और विहार में चौथे नम्बर पर हो और दक्षिण भारत में पाटी को कछू नम्बरई नहीं है। पार्टी छोड़ के आय जाओ, हमारे हिना, अगले चुनाव में मंत्री बनके रहोगे!
उस दिन भी वे हरलाल को हँस कर टाल गये।
उनमें बदलाव आना सरल न था।
घर में भी पैंतालीस बरसों में ज़्यादा कुछ न बदला। खेती से जो थोड़ा-मोड़ा अनाज आ जाता तो उसी में वे रूखा-सूखा खा कर अपना और बच्चों का गुजारा करते। सिर्फ़ वक्त-ज़रूरत के लिए एक जोड़ी खादी के उजले से धोती कुर्ता वे संभाल कर रखते थे। बाद में जेठा लड़का नवल जब कुछ बड़ा हुआ तो शहर चला गया, वहाँ वह खुद ही लेबर सप्लाई की ठेेकेदारी करने लगा था। घर में थोड़ा बहुत धन आने लगा। उन्ही दिनों उन लोगों ने कहीं से लाकर एक देशी कुत्ता पाला था गाँव के अपने घर में। वह कुत्ता रूखी-सूखी खाकर भी तगड़ा बना रहता और रात को खूब भौंकता भी था। उसका नाम रखा गया-मोती!
नवल षहर आता तो गाहे-बगाहे रामरूप की कोठी पर चला जाता, रामरूप जाने क्यों उससे बड़े प्रेम से बोलते-बतियाते। घर लौट कर नवल उन्हे राजनीतिक सलाह देने लगता, तो वे रामरूप के सिखाये पूत को ताकते रह जाते-मेरे बेटे को काहे भढ़का रहे हैं रामरूप!
दिन किसी तरह कट ही नहीं रहे थे कि अचानक काम दिख गया। रेडियो पर आतीं, शाम सात बजे की खबरों से पता लगा कि मुख्यमंत्री ने प्रदेश में पंचायत चुनाव की घोशणा कर दी है। संपतप्रसाद को लगा, चलो कुछ करने-धरने को मिलेगा, उकता गए बिना काम-धाम के. पता लगा रामरूप राजधानी में है, कल लौटेेंगे।
रामरूप राजधानी से लौटे तो उनका चेहरा उतरा था।
बंगले पर दूसरों के साथ संपतप्रसाद भी थे। सबने पूछा-क्या हुआ भाया?
लेकिन रामरूप अक्क-न-बक्क!
बात अगले दिन खुली कि कल राजधानी में परची उठाई गईं है और इस जिले का पंचायत अध्यक्ष पद दलित जाति के लिये आरक्षित हो गया है। यही उनकी चिन्ता का कारण है कि किसे अध्यक्ष बनायें वे, सब तो उनके सामने बौने हैं।
मौजूद लोगों ने रामरूप के गुट के तमाम नये पुराने लोगों के नाम उठाये, हरेक के नाम पर रामरूप ने मुंह बनाया। उनके नाम का जिक्र आया तो वे हँस कर टाल गए 'बुढ़ापे में संपत का बनेंगे राज्यमंत्री? किसी नये और जवान आदमी का नाम बताओ!'
संपतप्रसाद तमतमा उठे, यानी ज़िन्दगी अकारथ गई उनकी, बूढ़े हो गये तो सेना के घोड़े तोे नहीं हो गये कि गोली मार दी जाये।
अगले दिन से आसपास के तमाम गाँवो के बुजुर्गों, पार्टी के छुटभैयेे नेताओं ने संपतप्रसाद का खाना-पीना हराम कर दिया और उनकोे इस पद के लिए अपनी उम्मीदवारी पेश करने के लिए इतना उकसाया कि मजबूर हो कर झिझकते हुए उन्होने इस बाबत तीसरे दिन सबके सामने रामरूप से बात की। रामरूप बौखला उठे और संपत को बुरी तरह फटकार दिया-'अपनी औकात देखो संपतिया। इस कुर्सी पर तुम कैसे बैठ सकते हो? पढ़े न लिखे, न कोई अनुभव-अटकल है! कैसे संभाल पाओगे? फिजूल सपने मत देखो...तुम तो मैम्बर-फैम्बर ही बने रहो।'
वे आवेश में उठे और तुरंत ही चले आये। अगले दिन अपने लोगों की एक बैठक बुलाई और चुनाव लड़ने की बात कही, तो तमाम लोग उनकी हिम्मत बंधाने लगे। जिले भर से उन्हें समर्थन मिल रहा था। उन्होने कमर कस ली। अपनी औकात दिखाना थी उन्हे अब रामरूप को!
रामरूप घाघ नेता थे। उन्होने संपतप्रसाद को मात देने के लिए खूब सोच-विचार करके अपना मोहरा खड़ा किया-उनका मोहरा था, संपतप्रसाद का बेटा नवल।
नाम सुना तो गश-सा आ गया संपतप्रसाद को, नवल को क्या सूझी बैठे-ठाले? रामरूप के भड़काने में आ गया बेवकूफ! क्या अपने ही बेटे के खिलाफ चुनाव लड़ेंगे वे? भाशण देना पड़ा तो क्या बोलेंगे वे इस लोंडे के खिलाफ? ...अब क्या करें? सहसा विचार आया-घर बैठ जायें! ...वे जीतें या उनका बेटा, बात तो एक ही है न!
...सहसा उन्हे लगा कि दोनों में से एक का जीतनां एक बात नहीं है, नवल नहीं जानता कि उनके पीछे खड़ा रामरूप क्या चीज है, संपतप्रसाद इस मामले में अनुभवी हैं।
अब वे चुनाव ज़रूर लड़ेंगे। उन्होने तय कर लिया था।
"बब्बा, कलेक्टर आपसे बात करना चाह रहे हैं..." पीए फिर कमरे में घुसा।
उन्होने फोन उठाया, दूसरी ओर कलेक्टर थे-"सौरी सर, मैं बहुत ज़रूरी मीटिंग में फंसा हूँ, इसलिए आपको इंतजार करना पड़ रहा है। अर्जेण्ट काम हो तो पहले आपसे मिल लूं...?"
"नही, ... हम फुरसत में बैठे हैं, आप आराम से काम निबटाओ." उन्होने कलेक्टर को आश्वस्त किया और फोन रख दिया।
पी ए जानता था, उन्हे बीड़ी वाले तम्बाखू की सुर्ती बेहद पसंद है। वह भी इसी किस्म का जर्दा खाता था जिसका गवाह थे उसके कालोंच लिए हरे से दांत, बिना पूछे ही उसने जर्दा मलना शुरू कर दिया। बड़ी देर तक दोनों हथेलियांे के बीच तम्बाखू रगड़ते रहने के बाद उसने एक कोने में जाकर 'फट्ट-फट्ट' के स्वर के साथ तम्बाखू की धूल झटकारी और उसमें लांेंग मिला कर पूरे अदब के साथ उनके सामने सुर्ती पेश की।
झिझकते हुए उन्होने तम्बाखू उठाया और मुंह में रख कर दांयी ओर रख कर उसका रस चूसने लगे, मुंह तीखे स्वाद की लार से भर गया था। पी ए वापस चला गया। वे फिर अकेले थे।
चुनाव का परचा भर के घर लौटे तो देखा नवल अपनी माँ के पास बैठा है, पत्नी का चेहरा गहरे तनाव में हैं और नवल उसके कान से मंुंह लगाए जाने क्या बतियाये जा रहा है। उन्हे देखकर वह उठा और झुक कर पांव छू लिये। हँसते हुए वे बोले, 'विजयी होओ, तो कह नहीं सकता, हाँ यह कह सकता हूँ कि चुनाव का नतीजा न्याय के पक्ष में निकले।'
'बब्बा, मैं आपको समझाने आया हूँं कि आपने ज़िन्दगी भर राजनीति करी है, राजनीति से पेट भर गया होगा अब तो आपका। चौथेपन में हो फिर भी चुनाव में प्राण फंसाये हो। आप बैठ जाओगे तो मैं ज़रूर चुनाव जीत जाऊंगा...बाकी के उम्मीदवार बहुत कच्चे है।' नवल पूरे आत्म विश्वास से अपने पिता को मशवरा दे रहा था।
'हर नई पीड़ी ऐसा ही मानती है लला कि पुरानी पीड़ी का जमाना खत्म हो गया और ये लोग जाने कब तक कुर्सी से चिपके रहंेगे। लेकिन हमारे साथ ऐसा नहीं है, मैं पहली दफा किसी बड़ी कुर्सी की आस में चुनाव लड़ रहा हूँ। रामरूप ने भेजा होगा तुम्हे? बड़े चतुर आदमी हैं वे, सोचते होंगे कि बेटे की ममता संपतप्रसाद को तोड़ देगी और उनके बेैठते ही मैं नवल को जिला प्रधान बनवा कर कठपुतली की तरह नचाऊंगा। " एक पल रूके संपतप्रसाद फिर हँस कर बोले,' कितने में सौदा हुआ तुम्हारा? क्या देंगे रामरूप जी तुमको कठपुुतली बनने के बदले! '
'तुम तो बिना सौदे के ही उनकी गुलामी करते रहे बब्बा, हम तो कुछ न कुछ ले ही पड़ेंगे। ...वैसे नई स्कारपियो आ रही है, हमारे प्रचार के वास्ते। अगर जीत गये तो वे हमे ही बख्श देंगे। पूरे दस लाख की ए-सी वाली गाड़ी है।'
हँसे संपत प्रसाद, ' पानी से नहीं चलती कहीं की गाड़ी! वे तुम्हे गाड़ी देंगे तो उसे चलाने के लिए डीजल-पेेटोल खरीदने की दम है तुम्हारी जेब में।
'जो गाड़ी देंगे वे ही इंतजाम करेंगे, अबै से काहे चिन्ता करें अपुन। जो चोंच देगा, वह ही चुन देगा। तुम तो ये बताओे कै काहे के दम पर चुनाव लड़ रहे हो। न संग में चार जन हैं, न पैसा-धेला; अम्माँ के गहने-गुरिया गिरवी धरोगे क्या? कपड़ा के बैनर, कागज के पोस्टर, बिल्ला, जीपें, माईक ...कहाँ तक गिनाए अनगिन खर्चे हैं चुनाव में।'
'जिसके पास आदमी नहीं होता उसको पैसा की दरकार होतर है नवल। पैसा नहीं जीतता चुनाव, चुनाव तो पुराने रिश्ते जितवाते है यानी सुख-दुख में साथ देने के पुराने एहसान। रामरूप के लिए वोट माँगने का बहुत काम किया हमने...अब अपने लिए सही।' कह कर कंधे पर गमछा डाल कर संपतप्रसाद बाहर निकल गये।
नवल अपने पिता को देहाती, पिछलग्गू और गंवार मान रहा था, वे तो गहरे जानकार निकले इस चुनावी युद्ध के-यानी मुकाबला आसान नहीं होगा।
नवल ने जाने कैसे इस चुनाव में संपतप्रसाद की पत्नी मतलब अपनी अम्माँ को अपनी तरफ झुका लिया था और वह हर जगह रातदिन नवल के साथ घूमती फिर रही थी। यानी पत्नी भी उनके खिलाफ!
...चुनाव में संपतप्रसाद ने हमेशा की तरह रात-दिन एक कर दिये।
...और तब जबकि थककर बदन माटी-सा हो चुका था, सुस्ती आत्मा तक पर चढ़ गई थी, ...रिजल्ट खुला। चमत्कार! वे जीत गये। जिले का बच्चा-बच्चा खुश दिखा उन्हे। क्योंकि उनके कहे बिना ही कचहरी से निकले जुलूस में खूब आतिशबाजी हुई, बैण्ड बजे, मनों गुलाल ने आसमान में धूम मचा दी।
तब यह बंगला, एम्बेसेडर कार और भरपूूर स्टाफ दिया था, षासन ने। कलेक्टर ने उनसे आग्रह किया तो वे एक रात अपने गाँव की टॉली में गृहस्थी लादकर बंगले में ले आये थे।
उन दिनों यह बंगला खूब बड़ा लगता था उन्हें। बड़ा और अत्यंत भव्य। ऐसा भव्य कि इसकी भव्यता के नीचे वे स्वयं को दबा हुआ महसूस करते रहे थे कई दिन तक। उन सबका यहीं हाल था, पत्नी का भी और बच्चों का भी, सब परेशान थे, ऐसे मर्यादा से कसे रहन-सहन वाले इलाके में आकर। सबसे ज़्यादा परेशान तो कुत्ता मोती था, जो अब सिविल लाईन में आकर कुछ ज़्यादा ही उदास हो गया था। किसी को काट ना ले, इस कारण बंगले में उसे एक पट्टे से बांध कर रखा जाने लगा था। इस उदासी का यह असर हुआ कि मोती धीरे-धीरे भोंकना भी भूल गया।
फिर उन्हें धीरे-धीरे सब कुछ अच्छा लगने लगा था। रोज सुबह उनका निजसचिव उनसे हुकुम लेने आ जाता, वे सफेद उजले बगबगे धोती-कुर्ता और ऊंची नोकदार टोपी में सज कर बैठक में बैठ जाते तमाम अफसर-अहलकार उनके आगे पीछे चक्कर लगाते। जिला पंचायत की सभा में वे सदर की कुर्सी पर बैठ कर बैठक की गतिविधियों को बाल सुलभ कौतूहल से देखते। जिले के हर सरकारी कार्य में वे खास मेहमान होते थे। अंजाने और जाने-पहचाने हजारों लोग उन्हें आदर देने लगे थे। जब बाज़ार में निकलते या किसी शादी-ब्याह में पहुंचते तो हजारांे हाथ उनके प्रति नमस्कार के लिये उठते। वे खुद को कुछ खास मानने लगे। उनसे निकटता प्रदर्शित करने के वास्ते अधिकांश लोग उन्हे संपत प्रसाद नहीं बल्कि बब्बा कह कर बुलाने लगे थे, ऐसे वक्त वे तन जाते भीतर ही भीतर।
अपनी सरकारी कार का खूब उपयोग आरंभ कर दिया उन्होने।
वे जिले में खूब दौरे करते, हर गाँव में भरपूर मान पाते तो खुद की लोकप्रियता पर विश्वास-सा हो चला। मन का एक कोना, चुपचाप ही दूसरों से तुलना करता।
चपरासी आहिस्ता से भीतर दाखिल हुआ था और झुक कर पूछ रहा था, "गर्म मंगोड़े ले आयें बब्बा!"
"नहीं, कुछ नहीं चाहिए! चाय और तम्बाखू हो गये न।" चपरासी को तनिक संजीदा होते उन्होने मना किया और बाहर जाने का संकेत भी। सिटपिटाता चपरासी फुर्ती से बाहर था।
एक दिन अकस्मात रामरूप उनके दफ्तर में टपक बैठा और बडे़ लपक के गले मिला था, संपतप्रसाद भौंचक्के थे और रामरूप सहज। अब तक की गलतियाँ और लापरवाही एक क्षण में स्वीकार करलीं रामरूप ने। संपत भी ऐसे कड़क न थे और फिर जनम-जिंदगानी से उस परिवार से अपनापा था, सो सारे भेद और गिला-शिकवा खत्म हो गए तत्काल।
अगले दिन से वह रोज बंगले पर आने लगा और ज़िन्दगी भर से रामरूप को अपना मालिक मानने वाले अपने मन को फिर से रामरूप की इच्छाओं का गुलाम होते महसूसा उन्होने। अनजाने में ही संपतप्रसाद की एक-एक क्रिया पर रामरूप का नियंत्रंण होता चला गया। यहाँ तक कि उनके बगंले के दो कमरांे में रामरूप का निजी दफ्तर आकर जम गया, जहाँ वह नियमित रूप से सुबह-शाम बैठने भी लगा। उनकी गृहस्थी बाकी के दो कमरों में सिमट गई. बंगले की चहार-दिवारी के बडे़ गेट पर छोटा-सा एक बोर्ड लटक गया था-
बिना अनुमति प्रवेश वर्जित है।
इस सूचना-पटल ने अपने लोगांे से दूर कर दिया था उन्हें। गाँव के पुराने भाई-बंधु, बचपन के हितू और सखा अब बंगले में घुसने का साहस नहीं कर पाते थे। संपत एक तरह से रामरूप की कैद में हो गए थे। यह कैद बिला वजह गले पड़ गई थी उनके और इस कैद का ही परिणाम था कि उनके दस्तखतों से जिले भर में हजारांे हैण्डपंप लगे, सैकडा़ें सड़कें बनीं, पचासों पाठशालायें खुलीं और मास्टर से लेकर डॉक्टरों तक की अनगिन जगहें भरी गयी, लेकिन वे अपनी मर्जी का एक काम भी न कर सके. निज अपने गाँव में कोई एक बड़ी चीज न दे सके. अपने एक भी रिश्तेदार और गाँव वाले को किसी छोटे मोटे पद पर बहाल न कर सके. जबकि ऐन उनके सामने बैठ कर रामरूप का निजसचिव यानी पीए आसामी से सीधा सौदा तय कर लेता था-गाँव में सड़क बनवाने को जिला पंचायत के फण्ड से रुपया चाहिए? ...दो हजार लगेंगे! पुलिया के एक हजार, शिक्षाकर्मी पद पर बहाली के बीस हजार और डॉक्टर के लिए पचास हजार रूपये की रेट तय है। सबका एडबांस भुगतान चाहिए रामरूप के पीए को। संपत प्रसाद सूनी आँखों से देखते रहते, कुछ न कहते।
शुरू में लाल बत्ती की गाड़ी, बड़ा आलीशान बंगला, ऊंचे अहलदारों की तरफ से रोज की जा रही जी-हजूरी में ऐसे खोये रहे कि और कही ध्यान ही नहीं रहा उनका, बाद में सबसे पहले गाँव वालो ने दबे ढंके स्वरांे में उन्हे रोका, कि आपके नाम पर बहुत सारा रूप्या बटोरा जा रहा है। फिर इलाके के दीगर लोगों ने इशारा किया और अंत में बडे़ बेटे नवल और उसकी मॉ ने खुलकर टोकना शुरू किया तो उन्हें कुछ-कुछ समझ में आया।
अकेले में उन्होने यही सोचा कि इन तीन बरस की प्रधानी में क्या पाया उन्होने? कुछ भी तो नहीं! बल्कि जो पाया वह रामरूप ने ही पाया, घर भर गया उनका।
उस दिन तो वे डर से भीतर तक सिहर उठे, जिस दिन टी व्ही की एक चैनल ने पढ़ौस के जिले का व्यापक दौरा करके यह भण्डाफोड़ किया कि उस जिले में कार्यरत जिला प्रधान के कार्यकाल में जिले भर में जो ताल-तलैये बनीं, स्कूल खुले, सड़कंें बनीं, गरीबों के लिए इंदिरा कुटीर बनीं, वे सबकी सब बनने के छह महीने में ही धराशायी हो गयीं। ...वे अवाक रह गए, उन सबके ठेके रामरूप ने तय किये थे-अपने एक खास रिश्तेदार के नाम। संपत को काटो तो खून नहीं, खुद उनके जिले में यहीं हाल है, सारे ठेके रामरूप के रिश्तेदार के नाम हैं, कहीं यहाँ भी...सोचते उन्होने टेलीविजन पर निगाह गड़ा दीं। भण्डाफोड़ वाली समाचार कथा का दूसरा हिस्सा था, एक दूसरे जिले में दिल्ली के निर्माण मजदूरों की कंस्ट्रक्शन कंपनी 'कामगार कंस्ट्रक्शन' द्वारा बनाये गये वे भवन जो संपत के जिले की तुलना में कम लागत में ज़्यादा मजबूती से बनाये गये थे और एक बहु राश्टीय कंपनी ने जिनकी उमर सौ साल आंकी थी।
अपने भोलेपन के कारण छले गये वे। उन्होने रामरूप से कहा तो हँसी उड़ाने के अंदाज में रामरूप बोला-तुम पोंगा के पोंगा रहे संपत, अरे भले आदमी आगे तुम्हे सिर्फ़ वार्ड मेम्बरी का चुनाव थोड़ी लड़ना है, तुम तो एमेले; डण्स्ण्। ण्द्ध का चुनाव लड़ोगे, उसमें लाखों खर्च करना पड़ेगा तुम्हे, कहाँ से लाओंगे इतना रूपया। इसलिये ध्यान रखो कि जैसे भी हो खूब पैसा बनाओ.
एमेले के चुनाव की बात करके उनके मन की दुखती रग को छू लिया रामरूप ने। सो बब्बा चुप हो गये। उन्हे उस समय का क्या पता था कि बब्बा के एमेले बनने की महात्वकांक्षा से खुद रामरूप सबसे ज़्यादा नाराज है और फिर कमाते तो वे तब जब रामरूप मौका देता, उन्हे मौका ही कहाँ मिलने दे रहा था वह।
घर में एक दिन नवल ने फिर टोका तो बब्बा ने उन्हे बरज दिया कि राजनीति में ज़्यादा दखलंदाजी मती करो। हम ज़्यादा जानत हैं कि काम अच्छे है और की काम बुरो। एक रात नवल की माँ ने भी उन्हें रामरूप के बढ़ते जा रहे दखल बाबत उन्हें चेताया, 'तुम लाख कहो कि जिला पंचायत की गलत-सलत काम में तुम साफ-सुथरे हो, लेकिन मानेगा कौन तुम्हारी। सब मानते हैं कि रामरूप के हर काम में तुम्हारा भी हिस्सा है।'
उस बखत संपतप्रसाद ने उन्हे भी मना कर दिया, लेकिन जब पत्नी की बात पर ठण्डे मन से विचार किया तो लगा कि सच कहती है वह! अनायास ही उन्होंने पत्नी के बारे में सोचा कि कहने को ये औरत बिना पढ़ी लिखी ऐसी जनी मान्स है, जिसके बारे में रामायण में शबरी के बहाने से लिखा गया हैं-"अधम से अधम-अधम अति नारी, तिन मह मैं मति मंद गवारी" लेकिन उन्होंने अनुभव किया है कि यह दुनियादारी की बातें खूब समझती है। कल किसी ने पूछा कि रामरूपा के काम में तुम बराबर के साझीदार नहीं हो तो जांच काहे नहीं कराते? ...क्या जवाब देते फिरेंगे वे दूसरों को!
ठीक उसी क्षण से रामरूप के प्रति गहरी वितृश्णा हो आई थी उन्हें।
रामरूप ने अपने दुश्मनों को जिन षड़यंत्रो और झूठे प्रकरणो में फंसाया था, एक-एक करके बब्बा को सब याद आने लगे थे, लक्षमण बागला, रामचरण माते, चौधरी चंद्रभानसिंह जाने कितने कद्दावर नेता, जो आज कहीं के न बचे। मन के किसी कोने में ख्ुाद के विरूद्ध भी ऐसे किसी षड़यंत्र का हल्का-सा भय पैदा हुआ तो कुछ देर के लिये वे डर गये। जाने शाम तक कैसे उनमें आत्म विश्वास उभरा था कि वे अगली सुबह से बेधड़क होकर अपनी मर्जी से काम करने लगे थे।
लेकिन ऐसा एक सप्ताह तक ही तो चल पाया था। रामरूप ने पलट कर उन पर ऐसे वार किये कि वे सन्न रह गये थे। जिला पंचायत अध्यक्ष के सरकारी बंगले मंे एक प्रायवेट ठेकेदार के रहने का मुद्दा उठा कर उसने बब्बा के बड़े बेटे नवल को घर से बेदखल कराने का षडयंत्र रच डाला था। सरकारी एम्बेसेडर के निजी उपयोग के सैकडो़ प्रसंगो की सूची और उन ठेकों का विवरण जो उनके कार्यकाल मेे रामरूप के रिश्ते दार ने लिए तैयार कर के रामरूप ने कलेक्टर को सौंप दी थी-जिनका जवाब देना बड़ा कठिन लगा था, संपत को।
ऐसे में संपत ने तमाम विकल्पों पर विचार किया था-पार्टी के दूसरे गुटांे में जा मिलने से लेकर दलितांे की पार्टी में चले जाने तक की कल्पना की थी। पर हर विकल्प अधूरा-सा लग रहा था उन्हंे। अंत में वे इसी रास्ते पर वापस लौटे थे कि रामरूप से ही सुलह-सफाई कर ली जावे, तनाव और विरोध सदा से हानिप्रद रहा है।
एक बार वे फिर रामरूप के शरणागत हो गये थे लेकिन अब की बार उनके साथ युद्धबंदियांे-सा सलूक हुआ था। राजरूप तो चुप ही बैठा रहा था उस दिन, उसके चेले चमचे ही विश उगलते रहे थे। ऐसी-ऐसी शर्ते लाद दी गई थी उन पर कि जीना भी दूभर हो जाये, एमेले के लिये टिकट मागंना तो दूर की बात पार्टी के किसी भी अधिकारी से मिलने की मनाही कर दी गई उनसे। उनकी ऐम्बेसेडर उनका ड्राईवर, उनका पी.ए. अब रामरूप की कोठी पर रहने लगा था-वे सिर्फ़ रबर स्टांप बनकर रह गये थे।
हर रात वे आज की तरह जागते हुये काटते थे। आत्म विशलेशण करते हुये वे स्वयं से पूछने का यत्न करते रहते थे कि एक बार फिर से वे क्यों रामरूप के गुलाम हो गये? खुद ही जवाब देते-शायद इस राज्यमंत्री स्तर के पद के लिये या इन सुख-सुविधाओं और ताम-झामाँे के लिये; रामरूप की नमक-हलाली के लिये या खुद में अनायास उमड़ आये सत्ता प्रेम के लिये! ...जिससे ताजिंदगी वे और उनकी पीड़ी के दीगर लोग दूर-दूर रहे। हर रात जागते हुये प्रायः वे उन परिणामों पर भी गौर करते जो वे रामरूप की नाराजगी की वजह से भोग सकते थे।
खुद पर बड़ा ताज्जुब होता था उन्हें। उनका जन्म से जुड़ा दबंग रवैया जाने कहाँ चला गया था। ठसकेदार आवाज जाने कहाँ बिला गई थी।
"सचमुच आज की राजनीति उन पैसों के लिये कतई उपयुक्त नहीं बची है," यह जुमला हर बार उनके दिल और दिमाग पर छा जाता था।
महीना भर पहले प्रदेश भर में चर्चा उठी थी कि हर जिला पंचायत को दस-दस करोड़ रुपया दिया जा रहा है-जिला पंचायत के सभा कक्ष, कार्यालय भवन, जीप, जनपदों के कार्यालय और वाहनों के अलावा इंदिरा आवास योजना जैसी दर्जनों योजनाओं के लिये यह रूपया़ दिया जाना था। इस काम का जल्दी से जल्दी टैण्डर निकालकर काम शुरू होना था। शासन ने ऐसा बन्दोबस्त किया था कि पूरा दस करोड़ किसी एक ठेकेदार को सौंपा जाये जिससे जिले भर के सारे काम जल्दी से जल्दी हो सकें।
फिर क्या था, देश भर में हड़कंप मच गया। जाने कहाँ-कहाँ के किस-किस नस्ल के ठेकेदार अपनी ए.सी. गाड़ियों में बैठकर बब्बा के बंगले पर दुआ-सलाम करने आने लगे उधर रामरूप भी सो न रहा था, उसने जाने कब श्री कंस्ट्रक्शन प्रा। लि। नाम की कंपनी बना ली थी, जिसके निदेशकों में बब्बा के बेटे नवल का नाम भी शामिल था। एक दिन पता चला कि रामरूप की भी गिद्ध-नजर इसी दस करोड़ रूपये पर है तो उनका माथा ठनका था। घर पर नवल भी रामरूप के पक्ष में बोला था। वे समझ गये कि निदेशक मण्डल में शामिल होने की वजह से उरचन-खुरचन भी मिली तो चार-छह लाख रूपये से ज़्यादा ले पड़ेगा नवल। खुद के बेटे की कंपनी को ठेका देने के कारण कितनी बदनामी होगी उनकी।
उन्होने मन ही मन तय किया था कि चाहे दूसरी कोई कंपनी ठेका ले-ले वे श्री कंस्ट्रक्शन को ठेका नहीं लेने देंगे।
एक हफ्ता पहले शासन से दस करोड़ रुपया की स्वीकृति आ गई है और तभी से टेण्डर आना जारी हैं। नवल चाहता है इस काम का श्री कंस्ट्रक्शन कंपनी को ही ठेका मिल जाये,। पर वे न माने और उन्होने एक बड़े अखबार में विज्ञप्ति छपा दी है। दस करोड़ का टेण्डर कल खुल चुका है। वे सुखद अहसास से भरे थे कि सबसे कम कीमत का टेण्डर दिल्ली की कामगार कंस्ट्रक्शन का था। संपत मानते हैं कि यह रुपया उनके बाप का नहीं है, जो नाग-सा बैठकर वे उसकी रखवाली करें। न ही सरकारी पैसे का गबन रोकने का कोई ठेका उनके पास है, जो इस की रखवाली के लिए लट्ठ लिये घूमते रहें। पर सवाल है आटे में नमक और नमक में आटे का। आज जिले में किसी भी विभाग का ठेका क्यों न हो, रामरूप का उसमंे हिस्सा लाजिमी होगा। सड़क बनाना हो चाहे पुल, खदान का ठेका हो चाहे शराब का, हर जगह रामरूप का आदमी चिपका है और नमक में आटा मिलाया जा रहा है। शायद यही होती है नई राजनीति! उन्होने अनुभव किया, पूरे प्रदेश में आजकल यही फैशन तो चल पड़ा है।
मन ही मन हिसाब लगाया संपत ने, आज तीस मार्च है, कल ही रुपया ट्रांसफर कर देना पड़ेगा। नहीं तो पूरा रुपया वापस हो जायेगा। इकतीस मार्च तो सदैव से वित्तीय वर्श का अंतिम भुगतान दिन होता है। बीते हुये कल रामरूप उनके पास आया था और संपत की बेरूखी देख कर बड़ा नाराज हुआ था। वह उन्हंे सीधे स्वर में धमका गया है कि अगर यह दस करोड़ रूपये का ठेका उसकी कंपनी को न मिला, तो संपत के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पक्का। इधर टेण्डर छिनेगा उधर रामरूप आठ दिन के भीतर संपत को गद्दी से उतार फेंकेगा। अविश्वास प्रस्ताव पर दस में से आठ लोगों के दस्तखत कराके तैयार करा रखे हैं रामरूप ने।
सहसा उन्हे विचार आया, 'अगर बर्खाश्त कर दिये गये, तो कितनी बेइज्जती होगी उनकी!'
"क्या सचमुच इसे बेइज्जती कहेंगे...?" मन ही मन स्वयं से प्रश्न किया उन्होने और कल शाम से ही वे इस प्रश्न से लड़ रहे हैं। पूरी रात बीत चली है। इस रात में अपना सारा अतीत खंगाल डाला है उन्होने। कहीं कोई खोट, कोई ऐब नहीं मिला है, फिर भी उनकी सीट खतरे में हैं, यह देखकर वे बड़े बिस्मित हैं। लोकतंत्र की कुरूप हो चुकी इस शकल से डर-सा लगने लगा है उन्हे।
मुख्यमंत्री से इस समस्या का निदान पूछा था। तो उन्होने टके-सा उत्तर दे दिया था-"विधायक को मिला कर चलो।"
वे चौंके, 'क्या हो गया है हमारे लोकतंत्र को? कितना लुभावना और ताकतवर बना दिया है इन सबने विधायक को! दूसरे जनप्रतिनिधि बेकार हैं, सिर्फ़ विधायक है जनता का सच्चा नुमाइंदा? ...मुख्यमंत्री का, विधायक को मिला कर चलने का मशविरा है ये, या आदेश। झल्ला भी उठे-हर बात में विधायक! ...आखिर वे विधायक के गुलाम हैं क्या? देश के लिए अपना जीवन होम कर दिया उन्होने। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हैं वे, फिर भी उनका कोई मूल्य नहीं? ...सच तो यह है कि अपना मूल्य ही कहाँ समझ पाये वे ज़िन्दगी भर। बेकार के उसूलों से बंधे रहे।'
सोफा पर बैठे-बैठे उन्होने पहलू बदला-नवल सच कहता है, उसूलों के लिये फालतू ज़िन्दगी गंवा दी उन्होने।
पी ए ने दरवाजा खटकाया और नीची निगाह किए भीतर आया, तो उसे देख उन्हे अहसास हुआ कि चपरासी ने उनके तीखे तेवर के बारे में कुछ बता दिया है शायद, तभी अबकी बार यह आदमी ऐसी षराफत दिखा रहा है। अपनी हँसी होंठों ही होंठों में दबा कर उन्होने उसकी तरफ प्रश्नवाचक निगाहों से देखा। वह सचमुच सहमा हुआ था, "बब्बा, सारी मीटिंग निपट गई हैं। कलेक्टर साहब इस बखत राजधानी के अफसरों को जापानी दल के साथ हुई मीटिंग की जानकारी दे रहे हैं, बस्स इसके बाद आप..."
"ठीक है, वे फुरसत में हो जाये ंतो बुला लेना मुझे!"
सोफे की पुश्त से सिर टिकाते उन्हे उसूलों को लेकर उठाये गये नवल के सवालों ने फिर से घेर लिया था।
कल की रात कत्ल की रात थी।
उनका मन बड़ा विचलित था।
उनकी आँखों से नींद कोसों दूर थी। दिन में खूब रोशन और हवादार दिखता बंगले का खूब ऊँचा और बड़ा-सा कमरा अंधेरे में खूब डरावना और खाली-सा लग रहा था। एक अजीब-सी उदासी और घुटन सारे माहौल में व्याप्त थी। वे सांझ से ही तख्त पर पड़े-पड़े अलट-पलट रहे थे।
तब रात के बारह बज चुके थे, उन्होने करवट ली और सामने की दीवार को निर्पेक्ष भाव से टुकुर-टुकुर ताकने लगे थे।
दीवार पर ठीक सामने ही पारदर्शी पन्नी से मड़ा हुआ, एक बड़ा-सा फोटो टंगा था। फोटो में वे प्रदेश के मुख्यमंत्री की बगल में खड़े दिख रहे थे। मुख्यमंत्री अपना बायाँ हाथ उनके कंधे पर रखे थे और दांये हाथ को ऊँचा उठाकर हवा में लहराते हुए जनता का अभिवादन करते प्रतीत होते थे।
फोटो पर नजर गई तो उन क्षणों की याद करके वे अब भी पुलकित हो उठे। मुख्यमंत्री की गुलाबी, गदबदी और मजबूत हथेली अपने कंधे पर रखी महसूस की उन्होने।
ं याद आया था-बहुत पहले की बात है यह। तब वे नये-नये चुने गये थे। जिले के पंच-सरपंच सम्मेलन में मुख्यमंत्री खुद हेलीकॉप्टर (जिसे वे उडनखटोला कहते हैं) में बैठ कर आये थे। पंचायती-राज के प्रतीक के रूप में संपतप्रसाद को अपने पास खड़ा करके मुख्यमंत्री ने जनता से कहा था-असली जनतंत्र अब आया है! ये देखो, आपके बीच के संपतप्रसाद को हमने राज्यमंत्री का दर्जा दिया है। ये आपके जिला पंचायत अध्यक्ष हैं। आपकी जिला सरकार के मुखिया! इन्हें यहाँ इतना ऊँचा खड़ा देखके आज स्वर्ग में बैठे, बाबा साहब और गांधीजी को कितनी खुशी हो रही होगी।
तब संपतप्रसाद ने सोचा था कि स्वर्ग मंे बैठकर यह दृश्य देख रहे गान्ही जी और बाबा साहब की आँखें सचमुच आज जुड़ा गई हाँेगी। एक गरीब दलित किसान का खेतिहर बेटा मुख्यमंत्री के ढिंग खड़ा है, यह कोई छोटी बात थोड़ी है।
मगर मुख्यमंत्री को इतने दिन देखने के बाद उन्हें आज लगता है कि उस दिन मुख्यमंत्री ने किसी और की नहीं, स्वयं अपनी तारीफ की थी। उनके भाशण का छिपा हुआ आशय था-लो देख लो मुझे, मैं ही हूँ, इस जनतंत्री गंगा का भागीरथ। मैं ही तार सकता हूँ तुम्हें। मेरी ही बदौलत तमाम पिछड़े ओर दलित लोग अब सत्ता में सीधे-सीधे भागीदार हो रहे हैं। पंच-संरपंच, मेम्बर से लेकर जिला प्रधान तक सब कमाई की गंगा में हर-हर गंगे बोल रहे हैं। अब तो घर का चूल्हा फूँकती महिलाओं को भी दलितों की तरह हमने कुछ जगहें छोड़ दी हैं। महिलाऐं चाहें तो घर की चार-दीवारी लांघ के खुद राज कर सकती हैं। बाद में जाना संपत प्रसाद ने कि ऐसा करना मुख्यमंत्री की दया नहीं थी, संविधान का पालन करने की मजबूरी थी और इस मजबूरी को भी वे अपनी दया का दान सिद्ध कर रहे थे।
चित्र में मुख्यमंत्री मजाक-सा उड़ाते लग रहे थे, संपत और सुराजियों के पुराने वर्ग का, ...उनकी निरक्षरता का, ...भोले व्यक्तित्व का भी, ...बल्कि सच तो यह है कि पुराने सिद्धान्त वादियों और पुराने अठन्निया मैम्बरोेें की झूठी गर्व भावना का भी। इन नये नेताओं को पुराने लोग अप्रासंगिक ही तो लगने लगे हैं अब।
गाँव के गंवई लोगों की तरह बिना इस्तरी किये हुये खद्दर के मोटे कुर्ता पजामा पहनने वाले मुख्यमंत्री अपनी धज में कुछ अलग ही दिखते हैं। आम आदमी की बोली-बानी में भाशण देकर जनता को लुभाने का बड़ा हुनर है उनके पास। मुस्कराते हैं तो फूल झड़ते हैं, हँसते हैं तो धूप खिल उठती है। लेकिन इसी हँसी और मुस्कान में वे सबको उड़ा देते हैं। पहले ऐसे न थे। पर अब बडे़ घाघ हो गये है। अपने राजनीतिक गुरु को भी पटक्का दे दिया है उन्होने, लोकनीति और पिछड़ावर्ग-दलित चेतना का नया झुनझुना जनता के हाथ में देके.
संपत अनुभव करते हैं कि प्रदेश के सर्वेसर्वा होने की वजह से मुख्यमंत्री आज के सारे नेताओं के आदर्श बन चुके हैं। सहसा उन्होने सोचा कि इन नयों की तुलना में वे कहाँ खड़े़ हैं? जवाब मिला, पंक्ति के आखिरी हिस्से में हैं; बल्कि पंक्ति से बाहर ही निकल चुके हैं वे तो। काश! वे खुद को जमाने के मुताबिक बदल पाते, तो आज ये स्थिति नहीं आती कि...
याद आते ही उनके सीने की आग बढ़ उठी। लेटना मुहाल हो गया। वे उठे और पांव मंे चप्पल डाल के दरवाजे की ओर लपके.
प्रायः भद्र किस्म की चुप्पी में डूबे रहने वाले सिविल लाइन के इस क्षेत्र में उस वक्त पैना और धारदार सन्नाटा व्याप्त था। आसमान में काले घटाटोप बादल छाये हुये थे। कृश्ण पक्ष की काली अंधियारी रात को इन बादलों ने और घनी अंधेरी बना दिया था। वातावरण में उमस-सी थी। वे कुछ देर तक बरामदे में खड़े रहे फिर लॉन में उतर आये। सामने ही उनका प्यारा कुत्ता मोती था-जंजीर से बंधा, रिरयाता-सा। उन्होने गौर से देखा मोती बहुत कमजोर-सा दिखने लगा है इन दिनांे। उसके लिए जल्दी ही कुछ करने का प्रण-सा करते वे लॉन को रौंद कर बंगले की बाउंड्रीवाल में ठीक सामने बने चौडे़ जालीदार दरवाजे की ओर सरपट बढ़ लिये, जैसे कहीं जाने की जल्दी हो।
गेट में लगी सिटकनी को खोलने के लिये उनने ज्यों ही हाथ लगाया, हल्की-सी 'खट्' की ध्वनि ने सन्नाटे को भेद दिया। बंगले के पीछे से एक कड़क स्वर गूंजा-"हुकुम सदर!"
संपतराम ने हमशा की तरह 'हू कम्स देयर' के बिगड़े स्वरूप 'हुकुम सदर' पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की बल्कि धीमे से खांसते हुये संतरी को अपने होने का संकेत दिया और जोर से बोले-"कोऊ नहीं है लल्ला। परे रहो तुम तो।"
गेट में ताला लगा था, इसलिये दरवाजे के दांयीं ओर बने सीड़ीदार रास्ते पर चढ़ के संपतप्रसाद चहार दीवारी के बाहर निकल आये और दस कदम दूर जाकर खड़े हो गए; फिर अजीब-सी नजरों से अपने बंगले को ताकने लगे। बाउंड्रीवाल में बना दरवाजा, जालीदार किवाड़ और दोनों ओर बने सफेद खंबों के ऊपर लाल रंग में लिखा चमकता खुद का नाम खूब स्पश्ट और उजागर दिखा उन्हें-
संपत प्रसाद
जिला पंचायत अध्यक्ष
(दर्जा राज्य मंत्री)
वे मोह में डूबे से अपने नाम की इबारत को कुछ देर तक एकटक देखते रहे, फिर आगे बढ़े; और बड़े लाड़ से अपने नाम पर हाथ फेरने लगे। ...क्या पता कल क्या होगा? उनके मस्तिश्क में संदेह कोंधा। कल शायद...उनके नाम के नीचे ये पद और विभूशण नहीं लिखे जायेगें। बल्कि यूं कहें कि पद और विभूशणों के ऊपर शायद उनका नाम नहीं होगा। उन्होने किसी तरह खुद को संभाला। अपने होंठों को पूरी ताकत से कस लिया और वहाँ से हट आये। आहिस्ता-आहिस्ता चलते हुए वापस लॉन में आये, बैठक का दरवाजा खोला और फिर से उसी बिस्तर पर जा लेटे, जहाँ से अभी-अभी उठकर भागे थे।
वे चित्त लेट गये और छत को ताकने लगे। खुद को धिक्कारा, ...आदमी को ऐसा सीधा नहीं होना चाहिए कि दूसरे लोग उसे बुद्धू ही समझने लगें।
बाहर भोर हो चली थी।
पंछी चहचहाने लगे थे। उजास फूट रही थी।
यकायक वे उठे और बरामदे मंे चले आये। उन्हें देखकर मोती बड़े लाड़ से भोंका, भौं-भौं-भौं!
वे झुककर मोती के पास बैठ गये, उसका गला सहलाया और धीरे से उसका पट्टा खोल दिया ं
बड़ी अविश्वसनीय-सी निगाहों से मोती ने उन्हें देखा। अपने कान फटकारे। एक जोरदार अंगड़ाई ली। बब्बा की अनुभवी नजरों ने ताड़ लिया कि उसकी आँखोें मेें एक अजीब-सा अहसास था।
वे मुस्कराये। उठकर कुछ दूर खड़े हो गये। मोती ने एक और अंगड़ाई ली फिर फुर्ती से एक लम्बी छलांग लगाई और क्षण भर में चहारदीवारी पार करके सीधे सड़क पर जा पहुंचा। बब्बा की कौतूहल में डूबी निगाहें उसका पीछा कर रहीं थीं।
मोती ने एक क्षण मुड़कर बंगले को उदासीन भाव से ताका और दूसरे ही क्षण निर्मोही-सा हो कर वह गाँव की दिशा में दौड़ता चला गया।
इस कैदी को मुक्त करके बब्बा अपने मन को बड़ा खुला और हल्का-सा महसूस कर रहे थे। वे अपनी प्रातः क्रिया में व्यस्त हो गये।
निज सचिव आया तो उन्होने एक ज़रूरी पत्र की इबारत बोली, चौंकते सचिव ने नोट किया और बंगले पर लगे कम्प्युटर के प्रिंटर से दस मिनट बाद ही वह पत्र छाप कर वह उन्हे दे गया था। जाते समय बड़ा उदास था वह।
तब दो बज रहे थे, जब कलेक्टर ने उन्हे अपने चैम्बर में बुलाया।
कलेक्टर को पहले एक लिफापा दिया उन्होने। वह लिफापा खोल कर पढ़ते कलेक्टर के मुंह से निकला, "वाह, तो कल दे दिया आपने दस करोड़ का चैक उस कंपनी के लिए!"
"हाँ, उस कंपनी की चर्चा आपने भी तो सुनी होगी टेलीविजन पर।"
"अच्छा किया आपने" कहते कलेक्टर को उन्होने दूसरा पत्र सोंपा।
यह पत्र देखकर कलेक्टर अचंभित थे-"बब्बा, आप क्या कर रहे हो?"
हाथ के इशारे से संपत ने बरज दिया उन्हें और बिस्मित-सा खड़ा छोड़कर चैम्बर से बाहर निकल आये।
उन्हें पैदल चलते देख ड्राइवर दौड़ा आया "बब्बा, पैदल कहाँ चल दिये आप? हम गाड़ी ला रहे हैं।"
"न लला, हम पैदल जैहें। हमने इस्तीफा दे दिया है अबई हाल। खुशी रहो तुम।" एकक्षण रूक कर संपत ने ड्राइवर पर प्यार भरी नजर डाली और उसे भौंचक्का खड़ा छोड़कर चल पड़े।
सड़क पर चलते हुये उन्होने महसूस किया कि वे तो ज़मीन पर चलना भी भूल चले हैं। जबकि उन जैसे ज़मीन पर काम करने वाले आदमी के लिये तो ज़मीन से जुड़ा रहना उतना ही ज़रूरी है, जितना जिं़दा रहने के लिये हवा से जुड़ा रहना। ज़मीन ही तो उन जैसों की असली माँ है। सब की जड़ें ज़मीन मंे ही तो होती हैं। यह याद करते ही उनमें उछाह भर उठा। वे खरामा-खरामा चल पड़े।
अब ज़मीन पर पड़ता हर कदम उन्हें ताकत देता महसूस हो रहा था।