ज़मीन / गरिमा संजय दुबे
रामेश्वर जी मुँह अँधेरे ही उठने के आदि, उठते ही सबसे पहले अपने भूरू और शेरू, चंगु मंगू, हीरा–मोती (बैल) , धनिया। गौरी, चंपा, चमेली, (गायो) का मुँह देखते और उन्हें प्यार से सहलाते मानो उन्हें भी नींद से जगा रहे हो। जैसे कोईं माँ अपने सोये लाल को दुलार कर जगा रही हो। शौच, स्नान, पूजा, पाठ से निवृत हो चाय पानी पी कर चार दश्मियाँ, जो उनकी धर्मपत्नी बड़े जतन से दूध का मोयन दे कर बनाती हैं, ले कर चल पड़ते हैं अपने खेतों की और।
अच्छी खासी शहर से लगे गाँव की ज़मीन और पुश्तेनी घर, यही तो धन दौलत है उनकी, "बेटियों का बियाह, रसम रिवाज़ बेटे की पढ़ाई का ख़र्चा सब इस धरती मैया कि बदोलत तो हुआ है" जे ज़मीन तो हमारी माँ है"—सबसे यही कहते रहते थे रामेश्वर जी। जब घर से निकलते तो सूरज उगने को होता, उसकी लाल-लाल रंगत, जब फसलों की हरी पीली रंगत से मिलती है तो मानो सारा जग इन्द्रधनुषी हो उठता है। यह द्रश्य देख कर रामजी काका, जी हाँ गाँव के लोग उन्हें इसी नाम से पुकारते हैं, का मन झूम उठता और शरीर में अजीब-सी फुर्ती महसूस होने लगती, गुनगुनाते, झूमते अपनी मस्ती में मिलने वाले लोगों को राम-राम करते वे अपने खेतों की तरफ़ चलते जाते, रास्ता कब कट जाता, पता ही नहीं चलता। खेत पहुँच कर दोनों हाथों से माटी का स्पर्श कर धरती मैया को प्रणाम करते, फिर अपने कामगारों को हांक लगाते " का—हो—रमेश, पप्पू, राजू, हो कई भाई"? मालिक की आवाज़ सुन सब दौड़े चले आते-" राम-राम काका कभी देर नि होई तमारे आने में, हमारे देर भले हूई जाय"सब हँसते हुए काका को उलाहना देते। काका हँस कर कहते–" किसान हूँ खेत से ज़्यादा देर दूर किस तन रइ सकू बोलो"? सब कहते _" सच्ची बात बोली काका"। फिर सारा दिन खेती की देखभाल, फ़सल, पानी, बिजली मोटर, खाद, बीज की ज़रूरतों और उनसे जुड़ी समस्याओं के निराकरण में बीत जाता। कब कौन-सी फ़सल लेनी है, कब निंदाई गुड़ाई, बूआई करना है, कब खाद देना, कब कीटनाशक दवा का छिड़काव करना है इस सब का उनका नैसर्गिक ज्ञान, उन्हें और भी सम्माननीय बना देता। गाँव के आधिकारिक सलाहकार है रामजी काका। गोधुली बेला में लड़कों को निर्देश दे कर घर को चल देते, गाँव की चौपाल पर साथियों के साथ गप शप और दिन भर की बातें। शाम होते ही आँगन में खटिया डाल कर तारों भरे आसमान को निहारते हुए विविध भारती पर समाचार और गाने सुनना उन्हें बेहद पसंद है। कहने को तो घर में टी.वी है, पर उस पर उनकी धर्म पत्नी का अधिकार है। वे भुनभुनाते–" कईं मालम इन नकली, झगड़ा फसाद वाली
नौटंकी होन में इन औरतां के कईं मजो आये"। समाचार और मोहल्ले के दोस्तों के साथ क्रिकेट मैच देखने के अलावा वे टी. वी. पर और कोईं कार्यक्रम देखना पसंद नहीं करते। दिनभर की थकान के बाद जो गहरी नींद उन्हें आती वह बिरलों को ही नसीब होती है। ' गहरी नींद कर्मठता, पुरुषार्थ का पुरस्कार है" वे सोचते और दिनभर के लिए ईश्वर को धन्यवाद देकर सो जाते।
परिवर्तन संसार का नियम है और इन दिनों जिस तेजी से बदलाव हो रहे थे उन्हें लेकर रामजी काका बड़े चिंतित थे। बढ़ता हुआ शहर बड़ी तेजी से आस पास की अन्नपूर्णा, सोना उगलने वाली ज़मीनों को खाता जा रहा था। विकास के नाम पर हरी भरी ज़मीन का स्थान कांक्रीट के जंगल लेते जा रहे थे। उनके कुछ नाते रिश्तेदारों ने अपनी-अपनी ज़मीन बड़े ऊँचे दामों पर बेच कर शहर में व्यवसाय शुरू कर दिया है, बड़े-बड़े घर बना लिए, गाड़ियों में घूमने लगे हैं। पर रामजी काका किसी और ही मिट्टी के बने थे। वे जब कभी बिकी हुई ज़मीन पर मशीनों को चलते हुए उस ज़मीन का उजड़ा हुआ रूप देखते तो उनका मन भर आता। उन्हें लगता मानो किसी सुहागन की माँग से उसका सिन्दूर छीन लिया गया हो। वह लुटी पीटी ज़मीन उन्हें विधवा का-सा मातम मनाती हुई लगती और वे दु: खी हो जाते। वे सोचने लगते "हरियाली से ज़्यादा ख़ुशबू आजकल हरा नोट होन की हुई गई है, तभी तो हर कोईं हरियाली की सोचे बगैर हरा पैसा कि तरफ़ भागी रियो हे"। उन्हें समझ ही नहीं आता था कि सारी ज़मीन ख़त्म हो जायेगी तो इंसान अनाज कहाँ उगाएगा?
उनके बेटे की पढ़ाई पूरी हो गई थी, शहर से एग्रीकल्चरल इंजीनियरिंग कर वह वापस गाँव आ गया था। सुबह-सुबह जब रामजी काका खेत पर जा रहे होते तब साहबजादे सो रहे होते। रामजी काका कहते "शहर जई के तो जल्दी उठनो तो शिव भुलिज गयो है"। खेती बाड़ी में भी उसकी कोईं रुचि नहीं रही वह इसे गवांरों का काम समझने लगा है।
रामजी काका के मित्र संतोष जी की बेटी की शहर में शादी का बुलावा आया था। शादी के दो दिन पहले ही वे उनके यहाँ पहुँच गए। "बचपन के मित्र को देख संतोषजी की आँखें भर आई कहने लगे-" रामू जब से हम शेर आया तम तो हमारे भुलिज गया "रामजी काका मुस्कुरा दिए। खेती बाड़ी बेच कर मिलने वाले पैसे से बड़ी शान हो गई थी उनकी। बड़ा पक्का घर, गाड़ियाँ, गहनों से लदी बहू बेटियाँ सब कुछ लक-दक। रामजी काका तो बहुत प्रभावित नहीं थे, पर उनका बेटा शिव ख़ासा प्रभावित दिख रहा था। रात को संतोष काका ने रामजी काका को अपने पास ही रोक लिया। तब रामजी काका ने पुछा-" भैया केसो लगी रियो हे शेर में? संतोष काका बोले "भिया लगनो कईं हे, शेर की बात अलग हे, सब पैसा कि माया हे, केवा के तो सब सुख हे, पण गाँव-सी हवा, मिट्टी की खुशबु, खुलो आसमान, उगतो सूरज याँ नी दिखे, बस एकज रंग दिखेधूसर धूल और धुंआ को। रामू थारे तो पतो हे में कित्तो तगड़ो थो, धूल मिट्टी में सदा काम करवा वाला हम किसान कदी खांसी भी नि अई, ने याँ म्हारे दमो हुई गयो ने और भी कईं बीमारी होन हुई गी। कुआ का ठंडा पानी से जो प्यास बुझे व फ्रिज का पानी से नी बुझे, आठ-आठ दस दस रोटी खाने वालों में, अब याँ भूकज नी लगे, दवाई खाई-खाई के भूख बड़ानी पड़े, पेड़ का नीचे पत्थर पर कईं भी नींद अई जाती थी, याँ नींद नी आये भाई, थारे मालम चिड़िया कौआ भी नी दिखे शराध पक्ष में भी नी" , फिर फीकी हंसी हँस बोले "याँ इंसान भी नज़र नी आये सब मशीन हुई गिया"। रामजी काका संतोष जी का दर्द भली भांति समझते थे। वे ज़मीन बेचना नहीं चाहते थे पर लडकों के आगे एक नहीं चली और ज़मीन बेच दी गई। खैर शादी धूम धाम से संपन्न हुई रामजी काका अपने गाँव वापस, अजीब-सा सुकून मिला वापस आ कर। पर उनका बेटा वापस आ कर भी वापस नहीं आया था, उसके दिमाग़ में कुछ चल रहा था। आख़िर वही हुआ जिसकी रामजी काका को आशंका थी। आजकल शिव दिनरात ही रामजी काका के पीछे पड़ा रहता " कईं दादा आपके भी जमाना का साथ बदलनो चिये, आज कल तकनीक को जमानों हे ने आप कां याँ गोबर मिट्टी में लगिया हो, अपन भी ज़मीन बेचीं के ने बिजनेस शुरू करी दां।
रामजी काका बोले "बेटा दूर का ढोल सुहाना होए, बिज़नस करवा वाला से पूछ के कित्ता पापड़ बेलना पड़े"।
पर शिव कहा मानने वाला था, बोला "तो याँ कईं कम पापड बेलना पड़े, कदी पानी नी, तो कदी बिजली नी, कदी ख़ूब बारिश, तो कदी बिजली, ओला, हवा आंधी से फ़सल बर्बाद हुई जाये, ने कदी बची जाए तो क़ीमत इत्ती कम मिले कि साल भर को मुनाफो शून्य, किसान बापड़ो जा को तां, बाक़ी सब मस्ती मारे पर तम हो कि सुनोज नी"।
रामजी काका कहते-"बेटा बात तो थारी ठीक हे पण तू पड़ी लिखी के आयो हे, नई तकनीक से खेती करांगा तो याँ भी ख़ूब मुनाफो हे, तू बस थोड़ो सबर रख"। लेकिन शिव पर तो मानो ज़मीन बेचने का नशा-सा हुआ छाया था। रामजी काका के लाख समझाने पर भी आजकल वह दिनरात सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगा कर अपनी ज़मीन की क़ीमत पता करने में लगा हुआ था। उसे ये तो पता था कि नई-नई कॉलोनी, सड़के, पूल, फेक्ट्रियाँ और नई-नई कम्पनियाँ आ रही है शहर में सो सरकार ज़मीने माँग रही है और ऊंची कीमते भी दे रही है।
इधर भोले भाले रामजी काका समझ ही नहीं पा रहे थे कि क्या विकास सिर्फ़ तकनीक से होने से ही दुनिया चल पाएगी? जंगल, जल, ज़मीन के बिना इंसान जिन्दा कैसे रहेगा? अपने बचपन के संस्कार उन्हें याद आने लगे जब उनके स्कूल के माड़साब ने उन्हें एक पहेली पूछी थी। वह पहेली थी "अगर घास नहीं होगी तो शेर खायेगा क्या?" तब सारे बच्चे मुँह पर हाथ रख हंसने लगे थे और सोचने लगे थे कि माड़साब को इतना भी नहीं पता कि शेर घास नहीं खाता है। तब उस धीर गंभीर गुरु ने जीवन का एक गूढ़ रहस्य खेल-खेल में ही समझा दिया था कि शेर घास नहीं खाता पर घास खाने वाले जानवर खा कर ज़िन्दा रहता है। इस तरह इस संसार में सब एक दूसरे से जुड़े हैं, एक पर आने वाला संकट दुसरे के अस्तित्व पर संकट लाएगा ही। नदियों, पेड़ो। सूर्य चन्द्रमा कि पूजा करती माँ ने भी उन्हें प्रकृति के साथ मनुष्य के रिश्तो को समझाया था, पर आश्चर्य की आज कल के पढ़े लिखे समझदार (?) लोग इस बात को समझ ही नहीं पा रहे हैं कि एक के बिना दूजे का क्या अस्तित्व? सोचते-सोचते उन्हें नींद लग गई, उन्हें क्या पता था कि अगली सुबह उनसे उनका सब कुछ छिन जाने वाला है।
शिव न मानने की क़सम खा चूका था, अब उसने आखरी दाव चला-
"दादा तम नी मानिया तो हूँ घर छोड़ी के चल्यो जाऊंगा"। रामजी काका और उनकी पत्नी धर्म संकट में ज़मीन को संभाले या बेटे को। पत्नी रोती हुई बोली-"एकज छोरो हे अपणों वी भी साथ नी रेगो तो ज़मीन को कईं करोगा" , अपणा जावा का बाद तो यूँभी ज़मीन बिकिज जाएगी, अबिज क्यों नी बेचीं दो "निर्जीव ज़मीन से भी कईं इत्तो मोह"। रामजी काका ने कातर दृष्टि से अपनी अर्धांगिनी की तरफ़ देखा, सावित्री जी उनसे आँखे नहीं मिला पांई, क्योकि वे जानती थीं कि रामजी काका के लिए ज़मीन, निर्जीव टुकड़ा नहीं थी। वे जानती थीं कि ज़मीन उनकी माँ, उनका बेटा, उनका सब कुछ है, पर बेटे की जीद के आगे दोनों की एक नहीं चली। फिर मन को थोडा-सा संतोष दिया कि-अब कब तक ज़ोर मारुंगों शरीर भी साथ नी दे" , तो बड़ी कठिनाई से हाँ बोल पाए। शिव को तो मानो मुहँ माँगी मुराद मिल गई। ताबड़ तोड़ अपने दोस्त की मदद से सौदा पक्का कर दिया। सरकार की योजनाओ में काम में आने वाली ज़मीन थी, इसलिए क़ीमत भी करोड़ो में मिलने वाली थी। शिव तो मानो आसमान में उड़ रहा था क्या-क्या सपने सोच लिए उसने अब सब को पूरा करने का वक़्त आ गया था, सबसे पहले पक्का आलिशान घर, फर्नीचर, गाड़ी नई-नई चीजे जो उसे शहर में आकर्षित करती थी सब खरीद कर एक शानदार ज़िन्दगी जिऊँगा।
इधर रामजी काका अगली सुबह जब उठे तो अपनी रोज़ की आदत के मुताबिक सुबह-सुबह खेत पर जाने के लिए तैयार होते समय सोचने लगे, "आज सावित्री उठी नी अभी तक" पास जा कर सावित्री को उठाते हुए बोले "सावित्री कईं तबीयत ठीक नी आज नाश्तो नी बनायो"। सावित्री जी उठ कर बोली "अबे कां जाओ, तम भूली गया ज़मीन तो बिकी गी नी"। रामजी काका धम्म से बैठ गए और अपने भारी हाथों से अपनी पगड़ी उतारते हुए सोचने लगे कि "इत्ती बड़ी बात कसे भूली गयो? बरसो एक दिनचर्या का पालन करने वाला शरीर और मन अभ्यस्त-सा अपनी आदत दोहराता है और वही काका के साथ हुआ उनका मन और शरीर अभी भी इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे कि अब वे किसान नहीं रहे। शिव आधी नींद में से उनके उस उदास चेहरे को देख कर दु: खी हो गया। रामजी काका अनमने से दिन भर इधर उधर भटकते रहे। क्या करे बिन ज़मीन किसान जैसे बिन जल मछली, माटी की गंध और स्पर्श के बिना, गोबर और गाय-बैल के बिना ख़ूब आरामदायक जीवन उन्हें वह सुख नहीं दे पायेगा जो खेत में बढ़ती फ़सल को देख कर मिलता था। घूम कर खेतों तक हो आये सोचा माँ को आखिरी प्रणाम कर लूँ। ज़मीन को छूते ही रो पड़े, पर उनके आंसू समझने के लिए उनकी चिरसंगिनी धरती माँ के सिवा वहाँ और कोईं नहीं था, वह भी उदास-सी नज़र आ रही थी, अपनी ज़मीन के हरे रंग से भूरे रंग में बदलने की कल्पना मात्र से काका सिहर उठे। तभी अचानक कुछ निश्चय कर उठ खड़े हुए और सीधे शिव को लेकर ज़मीन अधिग्रहण अधिकारी से मिलने पहुँचे। वहा पहुँचते ही उन्होंने अधिकारी से कहा _" साब हम अपना सौदा केंसिल करना चाहते है"। शिव पर तो मानो वज्रपात हुआ, पर वहाँ वह कुछ बोल नहीं पाया, अधिकारी ने उन्हें गहरी दृष्टी से देखते हुए कहा " पर मैंने तो फाइल आगे बढ़ा दी है, आपके मना करने से अब फ़ैसला बदला नहीं जा सकता"। शिव ने राहत की सांस ली। पर रामजी काका रुआंसे से हो कर बोले " ऐसा मत बोलो साब, कोईं न कोईं रास्ता तो होगा जिससे ये फाइल रूक सके"। वे अनुनय भरे स्वर में फिर से बोले " हम आपकी तरह ज़्यादा पढ़े लिखे नहीं है साब, आप जेसो शायद नी सोच पाए पर आप मारी बात भी समझो ये धरती हमारी माँ है, ये शिव केवे है कि ज़मीन हमें देती क्या है, पर साब अपनी माँ के बीमार होने पर कई हम अपनी माँ को बेच दे, कभी नुक़सान तो कभी नफा यो तो हर काम का उसूल है, नुक़सान के डर से हम काम करना तो नहीं छोड़ देते, फिर खेती कैसे बेच दे? साब इस धरती की गोद में हमारा जीवन बिता है, इसकी मिटटी हमें माँ की गोद-सा सुकून देती है, बढ़ती फ़सल हमें बड़ी होती औलाद-सी ख़ुशी देती है,। हम जानते है सड़के, पुल, इमारते फेक्ट्रियाँ सब की ज़रूरत है, पर हम एक बात जानते है साब इंसान सब बना सकता है, ज़मीन नहीं, ज़मीन ही नहीं रहेगी तो हम और आप कैसे रहेंगे साब"कहते कहते रामजी काका फफक-फफक कर रो पड़े। हाथ जोड़ कर कहने लगे-" हमें हमारी ज़मीन वापस दे दीजिये साब, हम ज़मीन के बिना नहीं रह सकते इसी मिटटी में पले बढ़े, इसी मिटटी की गोद में सो जाए जब चाहे जो करे शिव पर हमसे हमारी माँ मत छीनिए"। अधिकारी ने कहा " आप अपनी ज़मीन का कुछ हिस्सा तो बेच ही सकते है, वैसे भी आपके बेटे ने पूरी ज़मीन का नहीं एक छोटे से बंजर हिस्से को बेचने का सौदा किया है। "
रामजी काका कि आँखों में ख़ुशी व गर्व से आंसू आ गए प्रेम और कृतज्ञता से बोले "क्यों रे शिव तूने म्हारे या बात क्यों नि बताई और थारो मन केसे बदलियो तू तो सारी ज़मीन बेचने वालो तो"। शिव ने पिता का हाथ-हाथ में लेकर कहा-"में कईं नी जानू दादा कि ज़मीन तमारा लिए कईं हे, आज तक हमारी सारी ज़रूरत इनी ज़मीन ने ही तो पूरी की हे तो हम इसके किस्तन छोड़ दा। फिर अधिकारी कि तरफ़ पलट कर बोला" बढ़ती ज़रूरतों के लिए पैसा चाहिए, खेती को आधुनिक बनाने के लिए भी, इसलिए हम एक छोटा हिस्सा बेचना चाहते है। माना कि विकास के लिए ज़मीन भी चाहिए लेकिन हम सब मिल कर सारी ज़रूरतों के लिए अगर ज़मीन को ही खाने लगे तो एक दिन यही ज़मीन हमें निगल लेगी। और हम क्या शहर में पढ़ लिख कर अपने आपको बेवकूफ साबित कर देते? हमें नए तरीके से जीना भी है, आगे भी बढना है, पर विनाश को बुलावा देकर नहीं। हम इसी धरती मैया को और उपजाऊ बना के भी पैसा कमा सकते है"।
रामजी काका गद-गद हो गए भावातिरेक से मूँह से बोल नहीं फूट रहे थे, पर मन ही मन सोचने लगे कि विकास की हर योजना अपनी जड़ों से जुड़कर आगे बड़े तो कभी कोईं असंतुलन ही न हो। शिव ने रामजी काका के चरण छुए और रामजी काका ने उसे गले से लगा कर कहा "तने तो म्हारो उत्साह बड़ई दियो, अब देख दोई बाप बेटा मिली के गाँव के स्वर्ग बनाई दांगा"। वहीँ उन दोनों की बातें सुन कर प्रोढ़ ज़मीन अधिग्रहण अधिकारी की आँखें नम हो गई और ख़ुशी-ख़ुशी घर लौटते पिता पुत्र ने उन्हें गाँधी जी के विकास मॉडल की याद दिला दी।