ज़रूरत / ज़ाकिर अली 'रजनीश'
कंप्यूटरीकृत हॉल-नुमा प्रयोगशाला के एक कोने में दो जोड़ी आँखें लगातार एक स्क्रीन पर जमी हुई थीं। उस सुपर कंप्यूटर की अंतर्निहित शक्ति अपने बगल में स्थित एक सतरंगे ग्लोब-नुमा मशीन की जाँच करने में व्यस्त थी। लगभग आठ फिट व्यास का वह सतरंगा ग्लोब अपने गर्भ में अनंत संभावनाएँ छिपाए हुए था। उन्हीं संभावनाओं की तह तक पहुँचने में व्यस्त था सुपर कंप्यूटर।
परिणाम की प्रतीक्षा में गड्ढे में धँसी जा रही वे दो जोड़ी आँखें आकाश की तरह शांत थीं। अबाध गति से धड़कते हृदय और अनियंत्रित गति से चलती साँसें भी उनकी एकाग्रता को भंग करने में समर्थ न हो सकी थीं। “देखा विजय, हम जीत गए।” अगले ही क्षण प्रोफ़ेसर यासीन ने हाल की निस्तब्धता तार–तार कर दी, “समय की अबाध गति पर हमारे 'समय-यान' ने विजय हासिल कर ली। अब हम समय की सीमा को चीरकर किसी भी काल, किसी भी समय में बड़ी आसानी से जा सकते हैं।”
वर्षों की शरीर झुलसा देने वाली कठिन तपस्या के फल को प्राप्त होने से प्रोफ़ेसर के सूख चुके शरीर में चमक आ गई थी। इस महान सफलता से उत्पन्न प्रसन्नता को वे सँभाल नहीं पा रहे थे।
“मुबारक हो सर, आज आपकी वर्षों की मेहनत सफल हो गई। आपका यह आविष्कार निःसंदेह मानव कल्याण में उपयोगी सिद्ध होगा।” प्रोफ़ेसर के सहायक विजय ने भी अपनी भावनाओं पर लगाम लगाना उचित न समझा।
“धन्यवाद विजय, पर ये मत भूलो कि इस महान सफलता में तुम्हारा भी बराबर का योगदान है।”
“ये तो आपका बड़प्पन है सर, वर्ना मैं क्या और मेरा. . .।” विजय अपने आप पर ही हँस पड़ा।
एक बार फिर प्रोफ़ेसर यासीन अपने सहयोगी विजय के साथ अपनी यात्रा की तैयारी में व्यस्त हो गए। एक ऐसी यात्रा, जो वर्तमान से भविष्य की ओर जाती थी। एक खूबसूरत कल्पना, जो हक़ीक़त में बदलने जा रही थी और जुड़ने वाला था मानवीय उपलब्धियों के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय।
वातावरणीय परिवर्तनों को ध्यान में रखते हुए प्रोफ़ेसर ने एक विशेष प्रकार की स्वनिर्मित पोशाक पहन ली थी। अब वे किसी अंतरिक्ष यात्री की भाँति लग रहे थे, जो किसी नवीन ग्रह की खोज में अनंत आकाशगंगा में प्रवेश करने वाला हो।
उस आठ फ़ुटे सतरंगे समययान में जैसे ही प्रोफ़ेसर ने कदम रखा, उनका शरीर रोमांचित हो उठा। अंदर पहुँचते ही उन्होंने कंप्यूटर को ऑन कर दिया। आहिस्ते से समय-यान धरती से आधा फिट की ऊँचाई पर उठा और उसका सतरंगा आवरण तेज़ी से घूमने लगा। सतरंगी पट्टियाँ धीरे–धीरे मिलकर सफेद हुईं और फिर अदृश्य। पर अंदर सब कुछ स्थिर था। घूम रहा था तो सिर्फ़ समय–चक्र, बड़ी तेज़ी से आगे की ओर। 2000-2050-2100-2300. . .सब कुछ पीछे छूटता जा रहा था। पीछे और पीछे, तेज़, बहुत तेज़, समय से भी तेज़।
कंप्यूटर द्वारा पूर्व निर्धारित समय चक्र 2500 ईस्वी पर पहुँच कर थम गया। प्रोफ़ेसर ने कलाई घड़ी पर नज़र दौड़ाई। शाम के पाँच बजकर 25 मिनट 40 सेकेंड। यानि कि मात्र दस सेकेंड में ही 1900 से 2500 की यात्रा संपन्न। अनायास ही उनके चेहरे पर मुस्कान की रेखाएँ उभर आईं। उन्होंने कंप्यूटर को ऑफ किया और उत्साह भरे कदमों से दरवाज़े की ओर बढ़ चले।
पर यह क्या? समय-यान के बाहर का दृश्य देखते ही वे बिलकुल अवाक रह गए। मुस्कान की रेखाओं की जगह चेहरे पर बल पड़ गए। आँखें फटी की फटी रह गईं और मन आशंकाओं के सागर में डूबने–उतराने लगा।
बाहर सिर्फ़ रेत ही रेत थी, अंगारों की तरह दहकती हुई रेत। आगे–पीछे, दाएँ–बाएँ जिधर भी दृष्टि जाती, रेत ही रेत नज़र आती। पेड़–पौधे तो दूर हरी घास का भी कहीं कोई नामो–निशान तक नहीं।
सूरज की असहनीय गर्मी और आक्सीजन की कमी से एक–एक क्षण उन्हें भारी लगने लगा। उन्हें लगा कि वे पृथ्वी पर न होकर जैसे चंद्रमा या फिर सौरमंडल के किसी अन्य ग्रह पर आ पहुँचे हो, जहाँ दूर–दूर तक जीवन का कोई चिन्ह मौजूद नहीं। फ़ेस मास्क चढ़ाने के बाद वे अपनी बूढ़ी किंतु अनुभवी नज़रों से दूर क्षितिज के पास कुछ तलाशने लगे।
दिल्ली जैसे प्रतिष्ठित शहर के अतिव्यस्ततम इलाके करोलबाग में रहने वाले प्रोफ़ेसर यासीन निःसंदेह आज भी करोलबाग में ही खड़े थे। पर यह करोलबाग 1900 का न होकर 2500 ईस्वी का था। और इन दोनों के बीच जीवन और मृत्यु जितना ही फासला था। जीवन के समस्त लक्षणों से रहित धरती अपनी बरबादी की तस्वीर चलचित्र के समान बयाँ कर रही थी। पर इस महाविनाश का ज़िम्मेदार कौन है? प्रकृति या स्वयं मनुष्य? इस सवाल का जवाब खोज पाने में पूर्णत: अक्षम थे प्रोफ़ेसर यासीन।
अचानक उन्हें सामने एक चमकती हुई चीज़ नज़र आई। वह वस्तु उड़न-तश्तरी की भाँति आसमान से उतरी और धूल के बवंडरों को चीरती हुई धरती में समा गई।
आशा और जीवन की मिली–जुली इस छोटी-सी किरण ने प्रोफ़ेसर का उत्साह वापस ला दिया। वे तेज़ी से उस स्थान की ओर चल पड़े। अपने वंशजों से मिलने की उत्सुकता ने उनके शरीर में अद्भुत शक्ति का संचार कर दिया और क्षण प्रतिक्षण उनके पैरों की गति बढ़ती चली गई।
उम्र के इस ढलवा मोड़ पर वे जितनी तेज़ दौड़े, उतनी तेज़ तो शायद वे कभी अपनी युवावस्था में भी न दौड़े होंगे। उनकी त्वचा ने शरीर के तापमान को नियंत्रित रखने के प्रयास में ढेर सारा पसीना उलीच दिया। होंठ प्यास के कारण सूख गए, साँसें धौंकनी की तरह चलने लगी, दिल जेट इंजन की तरह धड़कने लगा। पर वे दौड़ते ही रहे, समस्त शारीरिक बाधाओं को पार करते हुए, उस अनजान स्थान तक जल्द से जल्द पहुँच जाने के प्रयास में।
लक्ष्य पर टिकी निगाहें अचानक बीच में उभर आई पारदर्शी काँच की दीवार देख नहीं पाईं और प्रोफ़ेसर उससे टकरा गए। अत्यधिक श्रम से थक चुका उनका शरीर अनियंत्रित होकर ज़मीन पर गिर पड़ा। तभी प्रोफ़ेसर को एहसास हुआ कि धरती की वह सतह, जिस पर वे गिरे हैं, किसी धातु की बनी है।
अचानक एंबुलेंस जैसी ध्वनि वातावरण में गूँजने लगी। प्रोफ़ेसर यासीन जब तक कुछ समझते, काँच के पारदर्शी केबिन में घिर चुके थे। सूर्य की तपन के कारण बाहर लपटें-सी उठती हुई प्रतीत हो रही थीं। उन्हीं लपटों के बीच दूर खड़ा था समय-यान, जिसे प्रोफ़ेसर बेबस निगाहों से देखे जा रहे थे।
तभी केबिन में चारों ओर से लाल प्रकाश फूटने लगा। प्रोफ़ेसर यासीन भी उस लाली में ऐसे समाए कि वे स्वयं ही लाल हो गए। वह लाली जब छँटी, तो उन्होंने स्वयं को एक जेल-नुमा पिंजरे के अंदर पाया। सहसा पिंजरे के बाहर एक आदमकद रोबो प्रकट हुआ। उसने प्रोफ़ेसर की ओर अपनी दाहिनी उँगली उठाई। लाल प्रकाश की एक तेज़ धार प्रोफ़ेसर पर पड़ी और वे पुन: किसी अन्य स्थान के लिए ट्रांसमिट कर दिए गए।
“क्या आपके यहाँ मेहमानों का इसी प्रकार से स्वागत किया जाता है?” अगले दृश्य जगत में पहुँचते ही प्रोफ़ेसर यासीन जीवित व्यक्तियों को देखकर ज़ोर से चीखे। उन्होंने अपना मास्क पहले ही उतार लिया था। देखने में वह स्थान किसी न्यायालय के समान ही प्रतीत हो रहा था। सामने एक ऊँची कुर्सी पर जज, अगल–बगल वकील, पीछे दर्शक और मुल्जिम के कटघरे में खड़े स्वयं प्रोफ़ेसर यासीन। यह देखकर स्वयं प्रोफ़ेसर भी हैरान थे कि वहाँ मौजूद सभी व्यक्ति धूप की तरह पीली चमड़ी वाले थे। उनके बाल भूरे तथा आँखें नीली थीं। यह बदलाव शायद वातावरणीय परिवर्तन का ही परिणाम था।
“कौन मेहमान? किसका मेहमान प्रोफ़ेसर यासीन?” कहते हुए वकील व्यंग्यपूर्वक मुस्कराया।
वकील को अपना नाम लेता देखकर प्रोफ़ेसर हैरान रह गए। वे अपने मनोभावों को नियंत्रित करते हुए बोले, “मैं और कौन?”
“आप?” वकील का हँसना बदस्तूर जारी था।
वकील की हँसी सुनकर प्रोफ़ेसर चिड़चिड़ा गए, “मैं आपके पूर्वज की हैसियत से सन 1900 से आप लोगों के लिए दोस्ती का पैगाम लाया हूँ। तो क्या मैं आप लोगों का मेहमान नहीं हुआ?” “पीठ पर छुरा भोंकने वाले लोग दोस्त नहीं कहलाते।” वकील गरज उठा, “आप लोगों ने तो अपने वंशजों के लिए जीतेजी कब्र तैयार कर दी।. . .आज हम लोग उन्हीं कब्रों में जीने के लिए अभिशप्त हैं। क्या यही है आपकी दोस्ती का तोहफ़ा?”
“मैं कुछ समझा नहीं।” प्रोफ़ेसर के चेहरे पर आश्चर्य के भाव उग आए।
“इस समय आप जिस अदालत में खड़े हैं, वह ज़मीन से दस फिट नीचे की सतह पर बनी हुई है।” वकील ने कहना शुरू किया, “प्रदूषण, आक्सीजन की कमी और सूर्य की अल्ट्रावायलेट रेज़ से बचने के लिए इसके सिवा हमारे पास कोई चारा नहीं था। आज पृथ्वी पर वृक्षों का नामोनिशान मिट चुका है, ओज़ोन की छतरी विलीन हो चुकी है, समुद्रों का जल स्तर बेतहाशा बढ़ गया है और आँधी तूफ़ान तो धरती की ऊपरी सतह पर दैनिक कर्म बन गया है।”
प्रोफ़ेसर यासीन यंत्रवत खड़े थे और वकील बोले जा रहा था, “ये सब पर्यावरण छेड़छाड़ और वृक्षों के विनाश का परिणाम है। आज हम लोग न ज़्यादा हँस सकते हैं और न ज़्यादा बोल सकते हैं। कृत्रिम आक्सीजन के सहारे हम ज़िंदा तो हैं, पर एक मशीन बन कर रह गए हैं।. . .और हमारी इस ज़िंदगी के ज़िम्मेदार आप हैं, आपके समकालीन लोग हैं। आप लोगों ने अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए पेड़ों का नाश कर दिया, धरती को नंगा कर दिया। आप अपराधी हैं अपराधी। ऐसे अपराधी, जिसने समस्त मानवता का खून किया है। आपको सज़ा मिलनी ही चाहिए, सख़्त से सख़्त सज़ा मिलनी चाहिए।”
कहते–कहते वकील का चेहरा क्रोध से लाल पड़ गया। वह बुरी तरह से हाँफने लगा। अवश्य ही यह ऑक्सीजन की कमी का परिणाम था। यह देखकर स्वयं प्रोफ़ेसर यासीन भी आश्चर्यचकित हुए बिना न रह सके।
“मानवीय अधिकारों की रक्षक यह अदालत मुल्ज़िम को अपराधी मानते हुए उसके लिए सजाए मौत का हुक्म सुनाती है।” जज की गंभीर आवाज़ हॉल में गूँज उठी।
प्रोफ़ेसर कोई प्रतिवाद न कर सके। जैसे कि उनके बोलने की क्षमता ही समाप्त हो गई हो। उनका मस्तिष्क संज्ञाशून्य हो गया और मन अपराधबोध की सरिता में डूबता चला गया।
जल्लाद रूपी रोबो के शरीर से निकली लाल किरणों ने प्रोफ़ेसर को अंतिम बार ट्रांसमिट किया। जब उन्हें होश आया, तो उन्होंने स्वयं को ब्लैकहोल की संवृत्त कक्षा में घूमते हुए पाया, जिसकी परिधि धीरे–धीरे कम होते हुए उसके केंद्र की ओर जाती थी।
शरीर को अणुओं–परमाणुओं के रूप में विघटित कर देने वाले भावी विस्फोट के बारे में सोचकर ही प्रोफ़ेसर के मुँह से भय मिश्रित चीख निकल गई। डर के कारण उनकी आँखें अपने आप ही बंद हो गयी थीं।
लेकिन जब उनकी आँख खुली, तो न ही वहाँ अंतरिक्ष था और न ही ब्लैकहोल। वे अपनी प्रयोगशाला में आराम कुर्सी पर बैठे थे। उसी कुर्सी पर बैठे–बैठे ही वे स्वप्न देख रहे थे। पास में ही समय-यान खड़ा था, जो कि अपने आरंभिक चरण में था।
“सर, समयचक्र की रूपरेखा तैयार हो गई है आप आकर चेक कर लीजिए।” ये आवाज़ उनके सहायक विजय की थी।
“नहीं विजय, अभी हमें समयचक्र नहीं, बल्कि अपने समय को देखना है। अन्यथा सारा संसार जीते-जी कब्र में दफन हो जाएगा और फिर सावन के अंधे को भी हरियाली नसीब नहीं हो पाएगी।” कहते हुए प्रोफ़ेसर यासीन दरवाज़े की तरफ़ बढ़ गए।
प्रोफ़ेसर का सहायक विजय आश्चर्यपूर्वक उन्हें जाते हुए देख रहा था। क्योंकि अन्य लोगों की तरह उसे भी वास्तविक ज़रूरत का एहसास नहीं हो पा रहा था।