ज़ाद का मैदान / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल
ज़ाद जाने वाली सड़क पर एक यात्री पास के गाँव में रहने वाले एक आदमी से मिला। लम्बे-चौड़े एक खुले मैदान की ओर इशारा करके उसने पूछा, "क्या यह वही मैदान नहीं है जहाँ राजा आलम ने अपने दुश्मनों को धूल चटाई थी?"
ग्रामवासी ने उत्तर दिया, "युद्ध का मैदान तो यह कभी नहीं रहा। इस मैदान में कभी महान ज़ाद शहर हुआ करता था। वह जलकर राख हो गया। लेकिन अब यह एक अच्छा मैदान है। नहीं?"
इतनी बात करके दोनों अपने-अपने रास्ते चले गए।
आधे मील से भी कम चलने पर यात्री दूसरे ग्रामवासी से मिला। पुन: मैदान की ओर इशारा करके उसने पूछा, "तो यह है वो मैदान जहाँ किसी ज़माने में ज़ाद शहर हुआ करता था?"
दूसरा ग्रामवासी बोला, "इस जगह पर कभी कोई नगर नहीं रहा। लेकिन किसी ज़माने में एक मठ यहाँ जरूर था। दक्षिण देश के लोगों ने उसे नष्ट कर दिया।"
इसके थोड़ी ही देर बाद यात्री उस सड़क पर एक तीसरे आदमी से मिला। उस विस्तृत मैदान की ओर इशारा करते हुए उसने उससे पूछा, "क्या यही वह जगह है जहाँ किसी समय एक महान मठ हुआ करता था?"
आदमी बोला, "इसके आसपास भी कभी कोई मठ नहीं रहा। हमारे दादे-परदादे बताते थे कि कोई तारा टूटकर इस मैदान में गिरा था।"
हैरान यात्री आगे बढ़ा। उसे एक बूढ़ा आदमी मिला। उसने उसका अभिवादन किया और पूछा, "सर, इस रास्ते पर मैं आसपास के तीन लोगों से मिला हूँ। तीनों से मैंने इस मैदान के बारे में पूछा और हर आदमी ने पहले वाले की बात को गलत बताते हुए नई बात मुझे बताई।"
इस पर बूढ़े ने अपना सिर उठाया और बोला, "दोस्त, इन लोगों में हर आदमी ने वही बात तुम्हें बताई जो घटित हुई। लेकिन हममें से कुछ ही लोग ऐसे होते हैं जो भिन्न यथार्थों को जोड़कर सत्य तक पहुँच पाते हैं।"