ज़ाबाली कथा और सामूहिक अवचेतन / जयप्रकाश चौकसे

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ज़ाबाली कथा और सामूहिक अवचेतन
प्रकाशन तिथि :21 जुलाई 2016


ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म 'सत्यकाम' संभवत: भ्रष्टाचार पर प्रदर्शित पहली फिल्म थी। ज्ञातव्य है कि फिल्म का नाम ज़ाबाली की कथा से प्रेरित है, जो सेविका है और गर्भवती होेने पर बच्चे को पिता का नाम नहीं दे सकती थी, अत: उसने उसका नाम सत्यकाम रखा, जो अपने अवैध होने से परिचित है और कालांतर में अत्यंत विद्वान सिद्ध हुआ। मुखर्जी मोशाय के नायक का जन्म भी कुछ इसी तरह का है और वह आश्रम में पला है। अपनी योग्यता से वह आला अफसर बनता है और रिश्वत लेने से इनकार करता है। उसे अनेक जगह तबादला भुगतने पड़ते हंै। वह टस से मस नहीं होता। फिल्म में उसे कैंसर हो जाता है और फिल्मकार का संकेत है कि भ्रष्टाचार लाइलाज कैंसर है। हाल में एक आला अफसर रिश्वत लेते रंगे हाथों पकड़ा गया। अभी खबर प्रसारित हुई है कि इस भ्रष्ट अफसर की पत्नी और पुत्री ने आत्महत्या कर ली। जब इसी तरह परिवार के सदस्य भ्रष्टाचार की रकम से खरीदी वस्तुओं का बहिष्कार करेंगे तब यह संभव है कि भ्रष्ट व्यक्ति रिश्वत लेना बंद कर दे। असुरक्षा के भाव से भ्रष्ट व्यक्ति प्राय: यह कहता है कि वह परिवार की सुरक्षा व सुखद भविष्य के लिए रिश्वत लेता है। दरअसल, भ्रष्टाचार के विरुद्ध हर परिवार को अपनों के खिलाफ खड़ा होना होगा और इस तरह का 'गृहयुद्ध' ही समाज को बचा सकता है। इस गंभीर समस्या की जड़ में तो नैतिक मूल्यों का पतन है।

यह अजीब लगता है कि गांधीजी के नेतृत्व में आम लोगों ने हुकूमते बरतानिया के खिलाफ लड़ाई लड़ी परंतु स्वतंत्र होते ही हम भ्रष्ट हो गए तो क्या भ्रष्ट आचरण ही हमारा मूल स्वभाव है और करिश्माई गांधी की लहर में इतनी बड़ी लड़ाई लड़ पाए? हमारी अवतार अवधारणा का भी प्रभाव है कि हम हमेशा आशा करते हैं कि घने अंधकार के समय कोई अवतरित होगा और हमारी लड़ाई लड़ते समय वह मर भी सकता है तो हम शोकमग्न हो जाएंगे थोड़े समय के लिए। गणतंत्र व्यवस्था अवतार के दम पर नहीं वरन हर व्यक्ति की नैतिकता पर आधारित है। इसमें एक नायक से काम नहीं चलता, सभी को जागते रहना होता है। करिश्मे प्रतिदिन नहीं घटते। हमारे न्यायालय और तमाम सरकारी दफ्तरों में दीवार पर 'सत्यमेव जयते' अंकित है परंतु सत्य का निर्वाह हम नहीं कर पाते। हमें आसान रास्ते पर चलना पसंद है। सुविधाएं हमारे विचार केंद्र में स्थापित हैं। यह कुछ अजीब लगता है कि धर्मेंद्र जैसे बड़े सितारे द्वारा अभिनीत 'सत्यकाम' बॉक्स ऑफिस पर असफल रही और इस तरह की फिल्में प्राय: असफल रही हैं परंतु कुंदन शाह की व्यंग्य फिल्म 'जाने भी दो यारो' सफल रही अर्थात हास्य की चाशनी के बिना हम कड़वाहट को पसंद नहीं करते। जीवन खुशहाल सप्ताहांत नहीं है। चीनी में लिपटी कुनाइन ही हम खा सकते हैं। दिमागी फितूर के कारण स्वयं को रोगी समझने वाले मरीज को डॉक्टर चीनी से भरी कैप्सूल दे देता है, जिसमें कोई औषधि नहीं होती। इसे प्लेसेबो कहते हैं। दवाएं इतनी कारगर होती हैं, क्योंकि दिमाग में यह विश्वास कि हम रामबाण औषधि ले रहे हैं, रोग से लड़ने की ताकत देता है। अचूक औषधि को रामबाण कहना भी हमारी मायथोलॉजी से ग्रसित होने का ही संकेत है।

मायथोलॉजी में अनेक कथाएं केवल इसलिए गढ़ी गई हैं कि मनोरंजन के माध्यम से नैतिकता का पाठ पढ़ाया जा सके परंतु हम कथा की रोचकता और मनोरंजन तत्व को ग्रहण कर लेते हैं और उसमें निहित नैतिकता के पाठ की अवहेलना करते हैं, इसलिए भारत कथावाचकों और श्रोताओं का अनंत देश माना जाता है। हम चाशनी चूसकर उसके साथ जुड़ी कड़वी सच्चाई थूक देते हैं। ज्ञातव्य है कि अनेक जानवर भोजन को तत्काल हड़प लेते हैं, जिसके छिन जाने का उन्हें भय होता है। इस तरह भोजन गटक जाने के बाद जानवर सुरक्षित स्थान पर बैठकर खाए हुए भोजन को पुन: अपने मुंह तक लाकर खूब चबाता है। इस प्रक्रिया को जुगाली कहते हैं। ठीक इसी तरह हम जुगाली केवल कौतुक और मनोरंजन हेतु करते हैं तथा सार को ग्रहण ही नहीं करते। सत्य को ग्रहण ही नहीं करते। सत्य को तो हम कल्पनात्मक फिल्म तक में सहन नहीं कर पाते। मसाला फिल्में हमारे स्वभाव का प्रतिनिधित्व करती हैं।