ज़िन्दगी मेल / हरिओम

Gadya Kosh से
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ये मौसम पिछले मौसमों से अलग नहीं था. राशन की दूकानों पर पहले जैसी लम्बी कतारें थीं. डीज़ल-पेट्रोल और घरेलू गैस की क़ीमतों में एक बार फिर इज़ाफ़ा हुआ था. देश में यह सच के तमाशों और ख़बरों के अकाल का दौर था. टेलिविज़न चैनलों पर रियालिटी शोज़ और घर बैठे करोड़ों कमाने का लोभ परोसने वाले कार्यक्रमों की भरमार थी. देश की बड़ी पंचायतें और हुक्मरान अवाम की सुरक्षा को लेकर ख़ासे फ़िक्रमंद और परेशान थे इसलिए सरहदों पर सेना और मुल्क़ के भीतर पुलिस शोर-शराबा करने वालों, क़ानून-व्यवस्था की दुहाई देने वालों और पंचायती फ़रमानों का विरोध करने वालों की ज़बान गोली-बारूद, लाठी-डंडों और मुक़दमों की मार से बंद करने पर तुली हुई थी. अदालतों का काम क़ानून के मुताबिक बदस्तूर जारी था. रोज़-रोज़ बदलते नज़ारों से नज़र कुछ ऐसी हो चली थी कि ज़मीन काली और आसमान सफ़ेद दीख रहा था. वैसे ऋतुओं के लिहाज़ से यह सर्दियों का मौसम था और आम आदमी अपने सपनों और हसरतों की ज़िन्दगी मेल पर सवार हमेशा की तरह झकपक अपनी मंज़िल की तरफ़ भागा जा रहा था. और मैं, मैं तो सिर्फ़ देख ही सकता था न!..... नहीं, शायद मैं आपको भी अपने साथ इस मंज़र में कुछ हद तक शरीक़ कर सकता हूँ. अगर आप बुरा न मानें, तक़ल्लुफ़ न करें और मेरी इस हिमाक़त के लिए मुझे माफ़ करें........ख़ैर....

दिल्ली की सड़कों पर छोटी-बड़ी गाड़ियों का काफ़िला एक दूसरे को काटते, बचते-बचाते रेंग रहा था. वक़्त कुछ इतना गड्डमड्ड था कि शाम और रात का फ़र्क़ मुश्किल था. गाड़ियों से निकलने वाले धुँए और आँखों में चुभते कार्बन-कणों के कारण ये मुश्किल और बढ़ी जा रही थी. आसमान पीली-सफेद रोशनी और काले धुँए में घुल बदरंग हो रहा था. सूरज को डूबे हुए शायद देर हो चुकी थी. वैसे भी जाड़ों के दिन अँगड़ाई लेते निकल जाते हैं. दिल्ली जैसे शहरों में ज़िन्दगी की तेज़ रफ़्तार अगर कहीं सुस्त पड़ती है तो इन सड़कों पर ही या फिर शायद उन बस्तियों में जिनसे ये शहर दिन में भी आँखें चुराते हैं. रास्ता उतना लंबा कतई नहीं था जितना ट्रैफिक और लोगों से पटी सड़कों से गुज़रते हुए लग रहा था. मेरी कार का ड्राईवर लगातार वक़्त की कमी और बेसलीक़ा ट्रैफिक के बारे में बोले जा रहा था. वह बीच-बीच में कहता- ‘थोड़ी देर पहले निकलना चाहिये था.’ या ‘सर! ये साले आटो भी ट्रक की तरह चलाते हैं.’ या ‘ हरामियों को दुबई जाने की जल्दी है.’.... उसके इन जुमलों से न तो रास्ता छोटा हो रहा था और न ही ट्रेन छूटने की मुसीबत का एहसास. आटोचालकों की टेढ़ी चाल उसकी खीज और बढ़ा रही थी. यह शहर का वह इलाक़ा था जहाँ, ‘ दूकानों और घनी आबादी के बीच से सड़कें गुज़रती हैं’ या कह सकते हैं, ‘ जहाँ सड़कों पर ही लोगबाग आबाद हैं.’ सड़क पर एक साथ इक्के,जुगाड़,मोटर,ट्रक,ठेले,रिक्शे और राहगीर आ-जा रहे थे. ऐसे में वक़्त की कमी ड्राइवर को लगातार परेशान कर रही थी. फिर भी उसे भरोसा था कि वह मुझे ट्रेन पकड़ा सकेगा. उसने अचानक गाड़ी एक सकरे रास्ते पर मोड़ दी. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था. शुक़्र है उसे कुछ आड़े-तिरछे भीतरी रास्ते पता थे जिनसे होकर वह ठीक रेलवे स्टेशन के सामने निकला था. और वो भी ट्रेन छूटने के ठीक समय. अपना बैग उठाने के साथ ही मैंने ड्राइवर का मेहनताना और शुक्राना दोनों अदा किया. फिर गाड़ी का प्लेटफार्म पता करते और यात्रियों की भारी भींड़ को चीरते हुए एक लगभग नाउम्मीद भरी लम्बी दौड़ लगाने के बाद बड़ी मुश्क़िल से ट्रेन का पिछला डिब्बा पकड़ में आया और मैंने ख़ुद को सामान के साथ करीब-करीब डिब्बे में झोक दिया था. इस बीच मैंने बहुत तेज़ दौड़ लगाई थी और न जाने कितने लोगों से टकराया था. न पलटकर देखने का वक़्त था और न टकराने वाले व्यक्ति से अफ़सोस ज़ाहिर करने का. रेलवे प्लेटफार्म अक्सर अपने देश के बारे में मेरी समझ को और बेहतर करते रहे हैं लेकिन इस बार इंसानों के एक ठहरे हुए हुजूम से मैं बिना कुछ हासिल किये गुज़र गया था जैसे....

बहरहाल यह जनरल डिब्बा था जिसमें गुमनाम हैसियत और वजूद वाले लोग सफ़र किया करते थे. सीढ़ियों से डिब्बे के भीतर आने में मुझे थोड़ा वक़्त लगा. सांसें अभी भी उखड़ी हुई थीं. मैं अपने चारों तरफ़ लोगों के शरीर और उनकी उलझी हुई सांसों का स्पर्श महसूस कर सकता था. मैंने अपनी जगह खड़े-खड़े ही ख़ुद को व्यवस्थित किया.

मैंने एक नज़र में ही देख लिया था कि अगले स्टेशन तक बैठने की जगह के बारे में सोचना बहुत ज़्यादा उम्मीद बाँधना होता. सभी सीटें ठसाठस भरी हुई थीं. फर्श भी खाली नहीं था. वहाँ भी लोग पसरे हुए थे. कुछ अपने थैलों, गमछों आदि पर उकड़ू बैठे थे तो कुछ पालथी में. सामान रखने के लिये बने रैक भी झोलों, पन्नियों, बैगों, अटैचियों, गठरियों और बेडौल बंडलों से ठसे पड़े थे. मेरे सामने वाला एक बाथरूम गत्तों और भारी बंडलों से उकता रहा था और उसमें कमसकम पाँच लोग घुसे हुए थे. पूरे डिब्बे में हवा का एक ही झोका रहा होगा जिसमें दुनिया की सारी गंधें समाई हुई थीं. नाक को कभी-कभार ही अपना काम इतनी सावधानी से करना पड़ता है. इस मामले में आँख का अभ्यास अधिक होता है. इस डिब्बे में आँख और कान दोनों को अपना काम करने में खासा मशक्कत करनी पड़ रही थी. एक छोटा दुधमुँहा बच्चा माँ की गोद में ज़ोर-ज़ोर से रो रहा था और माँ बार-बार बेबस बगल में सटे अपने पति और उसके पिता को घूर रही थी जो उसे चुप कराने के लिये ऊपर रैक से अपना झोला निकालने की रह-रहकर जद्दोजहद कर रहा था. वह पैरों पर उचकता फिर कामयाब न हो पाने पर बच्चे को पुचकारने लगता. सीट पर इतनी जगह न थी कि उसपर पाँव टेक वह झोले तक पहुँचता. लगभग दस मिनट बाद वह अपने झोले से दूध की बोतल और निप्पल-गिलास निकालने में कामयाब हुआ. इस दौरान तमाम यात्रियों- ख़ासकर जिनके सामान वहाँ ठुसे हुए थे- की बेचैन निगाहें रैक की ओर ही लगी रहीं. बगल की सीट पर एक बूढ़ी औरत एक नौजवान लड़की और उससे थोड़ी कम उम्र के एक लड़के के बीच बैठी थी. लड़की का चेहरा साफ दिखाई नहीं दे रहा था लेकिन लड़का बात-बेबात मुस्कुराकर सफ़र को खुशहाल बना रहा था. मैं ठीक दरवाज़े पर अटका बीच-बीच में लड़की का चेहरा देखने की नाकाम कोशिश कर रहा था. एक आदमी फर्श पर मेरी टाँगों के करीब चिथड़ों में लिपटा लगातार अपने घुटनों मे सिर दिये बैठा था. वह बीच-बीच में सिर ऊपर उठाता था और अपने आसपास के यात्रियों को बुझी हुई नज़रों से देखता था.वह कुछ बीमार लग रहा था या फिर उसका कुछ सामान कहीं खो गया था या शायद वह ग़लत ट्रेन पर चढ़ गया था या फिर कुछ और ...अब जो भी रहा हो जब किसी को मतलब नहीं तो मुझे क्योंकर चिंता होने लगी. एक चीज़ मैंने ज़रूर साफ तौर पर ग़ौर की थी कि डिब्बे में स्त्रियों और बुज़ुर्गों की तादाद बहुत कम थी. बाक़ी जो था उसे ठीक-ठीक देख पाना उतना आसान न था. जो दिख रहा था वो था बस कुछ टाँगें, कुछ हाथ, कुछ कंधे और मफ़लर-कंटोप से ढके-मुंदे ढेर सारे सिर. लोग अपने में सिमटे हुए ट्रेन की रफ्तार के साथ हिल रहे थे. रफ्तार के साथ ठंडे लोहे की टक्कर से निकलने वाली आवाज़ों के साथ खिड़कियों और दरवाज़ों की दराज़ों से छनकर आने वाली सर्द हवा जुगलबंदी कर रही थी और कहीं न कहीं भीतर की गंध को बाहर की गंध से मिला रही थी.अगर सर्दियाँ न होतीं तो डिब्बे में आक्सीज़न की भी कमी होती. अगर ऐसा होता तो भी क्या होता. ज़िन्दगी मेल भला कब रुकती है.......

गाड़ी पूरी गति से मंज़िल की ओर भागी जा रही थी लेकिन मेरे लिये जैसे वक़्त थमा हुआ था. मैंने सुबह से अबतक के हालात पर एक बार फिर स्मृति दौड़ाई और फिर वक़्त काटने के तरीक़ों की तलाश में खो गया. अपने डिब्बे तक पहुँचने की अड़चनों के बारे में सोचा फिर बेफ़िक्री ओढ़ने की कोशिश में होठों पर थोड़ी मुसकान खींच लाया लेकिन महौल ज़्यादा देर अपने भीतर डूबने की इजाज़त नहीं देता था. वक़्त काटना वाक़ई मुश्किल हो रहा था. थोड़ी देर बाद मैंने सोचा, ‘क्यों न ये गिना जाय कि इस डिब्बे में कितने लोग सवार हैं.’ चार-पाँच दफ़ा कोशिश करने के बाद मैं कामयाब रहा. फिर मैंने स्त्री-पुरुष, बड़े-बच्चों और खड़े-बैठों की अलग शुमारी की. यहाँ तक कि सामानों की भी इसी तरह फ़ेहरिश्त तैयार की... और फिर इस सबसे ऊबकर एक-एक चेहरे को ग़ौर से देखने लगा. थोड़ी देर में ही इस डिब्बे की डेमोग्राफ़ी पर चर्चा के लिये मैं दिमाग़ी तौर पर पूरी तरह से तैयार था बशर्ते कोई इस बारे में मुझसे बात करने को तैयार हो. आलम यह था कि चंद इशारों के अलावा और किसी तरीक़े से कोई किसी से मुख़ातिब न था सिवाय कुछ लड़्कों के.

डिब्बे में तक़रीबन बारह-पंद्रह लड़कों का एक झुंड था जिसपर बोगी में चढ़ते ही निगाह गई थी. वे बंदरों की तरह सीटों के ऊपर से कूदते-फांदते बार-बार इधर-उधर आ-जा रहे थे. अस्लम, दानिश, शावेज़, फरीद, फ़ाकिर, अफ़रोज़ जैसे नामों वाले ये लड़के सफ़र के इस रंग से पूरी तौर पर वाक़िफ़ और बेपरवाह लग रहे थे. दिल्ली छूटने के साथ ही उनमें से दो-तीन लड़कों ने रेक्ज़ीन के बैग से सस्ती व्हिस्की के एक-एककर दो क्वार्टर्स निकाले और पहले से ही रखे प्लास्टिक ग्लासों में डाल धीरे-धीरे हलक़ में उड़ेल लिया. विह्स्की की तल्ख़ी को काटने के लिए उनके पास दालमोठ का पैकेट भी था. शायद यह सरदी से निपटने का बरसों से आज़माया हुआ उनका आसान नुस्खा था. मैं उनके काफी पास था. मैंने डिब्बे की बारीक़ रोशनी में व्हिस्की की बोतलों पर छपा हुआ ब्रांड देखने की कोशिश की थी किंतु उससे पहले ही वे छनाक की आवाज़ के साथ दरवाज़े से बाहर फेकी जा चुकी थीं. दरवाज़ा खुलने के साथ ही हवा का बेहद सर्द झोका सबकी हाड़ कंपाता बोगी में घुस आया था. मेरे पैरों के पास घुटनों में सिर दिये बैठे आदमी ने एक बार फिर अपना सिर उठाकर मेरी ओर देखा- जैसे दरवाज़ा खोलकर एक बार फिर मैंने उसे तंग किया हो. मैंने निर्दोष होने जैसा भाव दिखाया. वह कुछ बुदबुद करता हुआ फिर अपने घुटनों में खो गया. मेरा मन हुआ उसी से कुछ बात करूँ लेकिन वह मुझसे ही नहीं पूरे माहौल से उदासीन बना रहा. रह-रहकर जब वह निगाह उठाता तो लगता जैसे उसकी तक़लीफ़ों का गुनाह डिब्बे में मौजूद एक-एक यात्री के सिर है.... बहरहाल व्हिस्की ख़त्म करने के बाद उनमें से एक ने अपनी ठिठुरी उँगलियों को होठों से छुआते हुए अपने साथी को इशारा किया. थोड़ी देर में ही बीड़ी का एक बंडल उनकी तरफ उछल आया था. बगल अपनी गोल के बाहर के एक यात्री से उसने माचिस ली और मेरे हिस्से का डिब्बा जल्दी ही तंबाकू के गर्म धुँए और उनके ठहाकों से भर गया. वे सब लगातार एक दूसरे को पुकार रहे थे. संबोधन में दोस्ताना अल्फ़ाज़- साले, हरामी, कमीने, बहनच.. आसानी से इधर-उधर हो रहे थे. उनके रिश्ते में एक तरल बेतक़ल्लुफ़ी बह रही थी जो बिना कुछ बोले भी लगातार अपना एहसास करा रही थी. एक चाय-समोसे, बिस्कुट-पानी और गुटखा-पाउच वाला भी डिब्बे में आ गया था जो थोड़े मुनाफ़े के लिये शायद रोज़ ही ये सफ़र करता रहा होगा. उससे ये लड़के लगातार चाय-समोसे और पानी की बोतलें मँगा रहे थे. वह इस टोली का परिचित लग रहा था. डिब्बे में पूरी मस्ती के साथ ये झुंड अपना वक़्त काट रहा था. दूसरे यात्री इनकी हरक़तों पर सिर्फ नज़रें उठाकर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे. वे अपना सफ़र बग़ैर झिकझिक पूरा करना चाहते थे. मैं भी कई बार बस बोलते-बोलते रह गया. उनकी तादाद इससे ज़्यादा की इजाज़त भी नहीं देती थी. यूँ भी मुझे बस अगले स्टेशन का इंतज़ार था. मेरे पाँव दुख रहे थे. मैंने पैरों की अदला-बदली की और फिर एक सीट की पीठ से कमर टेक खड़ा हो गया. मेरे ठीक सामने वाली सीट के कोने में धँसे एक भारी-भरकम आदमी ने मंकी-टोप से अपना मुँह निकालते हुए पूरे माहौल पर एक अलसाई नज़र डाली फिर खुद से कुछ खुसफुसाते हुए सिर दूसरी ओर लुढ़का दिया. हमें सुनाई दिया- “ ये साले हमेशा झुंड में क्यों चलते हैं.” भीड़ और रफ़्तार के झमेले में फँस ये शब्द वहाँ तक नहीं जा सके जहाँ के लिये बोले गये थे. लड़कों का झुंड यूँ भी अपने आप में मशगूल था.

उन सभी के पास मोबाईल फोन थे जो एक साथ कई तरह के इस्तेमाल में लाये जा सकते थे. यह हमारी तरह उन लड़कों को भी मालूम रहा होगा सो एक लड़के ने अपने फोन पर एक विडियो क्लिप चालू कर दी थी. उसने थोड़ी देर अकेले उसका मज़ा लूटा और फिर डिब्बे में घूम-घूम कर उसे अपने साथियों को दिखाने लगा. पुरानी फिल्म का गाने सुनाई दे रहे थे- ‘बहुत देर से दर पे आँखें लगी थीं, हुज़ूर आते-आते बहुत देर कर दी’ ‘ये गोटेदार लहंगा निकलूँ जब डार के, छुरियाँ चल जायें मेरी मतवाली चाल पे’ ‘ गोरकी पतरकी रे मारे गुलेलवा जियरा उड़ि-उड़ि जाय ’.और भी कुछ गाने. अब ठीक से याद नहीं लेकिन बारी-बारी से ऐसे कई गानों के बोल डिब्बे के हलके शोर का हिस्सा बने. गाने में नया कुछ नहीं था. शायद विडियो में कुछ नया रहा हो. उसे देखने वाले चेहरों की मुस्कान इस तरफ इशारा कर रही थी. मुझे ताज़्ज़ुब सिर्फ़ इस बात का हो रहा था कि हमारे दौर की नौजवान पीढ़ी जब अल्ताफ़ रज़ा, अदनान सामी और हिमेश रेशमिया में अपनी ज़िन्दगी का संगीत ढूँढ रही है, ऐसे वक़्त में ये लड़के पुराने फ़िल्मी गानों को मोबाइल में लिये घूम रहे हैं. लड़कों की आपसी चुहल और चकल्लस का ये सिलसिला कुछ देर चलता रहा और बरबस ही डिब्बे के सभी यात्रियों का ध्यान उस ओर लगा रहा.

कुछ देर में यह लड़का इस क़वायद से खुद ही ऊब गया जैसे. वह बूढ़ी औरत वाली सीट की पीठ पर चढ़कर बैठ गया. थोड़ी देर तक वह अपने इस नए आसन का आनंद उठाता हुए मोबाइल से खेलता रहा... फिर उसने अपने पाँव औरत के सिर के ऊपर से सामने वाली सीट के ऊपर टिकाना चाहा. साफ तौर पर वहाँ बैठना बेतुका था लेकिन ऐसी तमाम बेतुकी हरक़तें ये लड़के अबतक सरेआम कर चुके थे और किसी ने टोका-टाकी नहीं की थी. उसका मोबाइल अभी भी चालू था और वह मानीख़ेज़ इशारों में अपने दोस्तों से मुख़ातिब था. हाँ गाना एक बार फिर बदल गया था..अँखियों से गोली मारे लड़की कमाल.. वहाँ बैठने की वजह वो लड़की थी जो सब समझते हुए भी कुछ बोलने की हालत में नहीं थी. तमाम यात्रियों ने उसे ऐसा करते हुए देखा लेकिन किसी ने कुछ नहीं कहा. हालांकि साथ बैठे हुए नये लड़के ने अपनी भोली मुस्कान के साथ उस लड़के को ये बताने की कोशिश की कि वहाँ बैठने की कोई जगह नहीं है और इससे उस बूढ़ी औरत और साथ बैठी लड़की को परेशानी होगी. लेकिन लड़के ने उलटे उसे क्लिप दिखानी शुरू कर दी. बूढ़ी औरत ने पहले उसे देर तक घूरा. फिर हाथ के इशारे से उसे उतरने को कहा. फिर साफ़ ज़बान में मना किया.लड़के ने सबकुछ अनदेखा-अनसुना करते हुए उसे भी विडियो दिखानी चाही. थोड़ी देर सब्र करने के बाद बूढ़ी ने ज़ोर का शोर मचाया. इस शोर से उस भारी-भरकम आदमी ने अपना सिर दुबारा खोल से बाहर निकाल लड़के को घूरा. इस बीच दो-चार सीट आगे बैठी एक और महिला ने तेज़ आवाज़ में लड़के को वहाँ से तुरंत उतरने को कहा. डिब्बे का नज़ारा बदल चुका था. पहले तो लड़के ने अम्मा-चाची कहकर बूढ़ी औरत को शांत करना चाहा लेकिन बुढ़िया के शोर से सामने वाली सीट पर उठ खड़ी हुई औरत के तेवरों के आगे उसे वहाँ से उतरना ही पड़ा. तब उस जवान लड़की का मुस्कराता सांवला चेहरा पहली दफ़ा मुझे दिखाई दिया था.वह खुद इस वाक़ये का मज़ा ले रही थी. वह लगातार उस लड़के को देखकर हँसे जा रही थी.उसके सिर से दुपट्टा सरक गया था और उसके गालों के गड्ढे दिखाई पड़ रहे थे. गंवई पैमाने के लिहाज़ से वह एक सुंदर लड़की थी. इस बीच उस झुंड के सबसे सीनियर लगने वाले लड़के- अस्लम भाई ने ज़ोर से नाम लेकर फटकारते हुए उस लड़के को शराफ़त से रहने का पाठ पढ़ाया था. अस्लम यात्रा की शुरुआत से लेकर अबतक मेरी याद में पहली बार कुछ बोला था अन्यथा अबतक वह बींड़ी के गहरे कशों के बीच व्हिस्की के स्वाद और सुरूर का मज़ा लेते हुए सफ़र ख़त्म होने के इंतेज़ार में डूबा हुआ था. अस्लम की फटकार सुनकर शावेज़ सकपका गया था.

इस पूरे वाक़ये से नाराज़ उस भारी भरकम आदमी ने डिब्बे में देर तक एक नाखुश निगाह डाली फिर मेरी तरफ़ देखकर पूछा-

“आप भी इनके साथ हैं क्या?”

मेरे ‘न’ में सिर हिलाने पर वह थोड़ा सहज हुआ-

“भाई साहब! ये अपना ही देश है जिसमें इन लोगों को कुछ भी करने की छूट है.”

वह पूरी तरह से जाग गया था.

मैंने अपने शरीर का काफी बोझ उसकी सीट की पीठ पर डाल रखा था. उसकी बात समझने का इशारा मैंने सिर हिलाकर किया.

थोड़ी देर इधर-उधर देखने के बाद उसने अपना नाम बताया और मेरा नाम जानना चाहा.

मैंने मुस्कराते हुए कहा-“ आपकी तरह एक मुसाफ़िर हूँ.”

उसने दूसरा सवाल किया-“ कहाँ तक जाओगे?”

मैंने कुछ सोचने के बाद कहा- “जहाँ तक ये गाड़ी जयेगी.”

उसने पहली बार बड़े ग़ौर से मुझे देखा-“आज़मगढ़!”

उसकी आवाज़ में ऐसी हैरानी थी जैसे वह किसी और मुल्क़ का हिस्सा हो.

मैने उस हैरानी की वजह पकड़ ली थी लेकिन उसे सहज करने के लिहाज़ से पूछ लिया- “भाई! ये ट्रेन वहीं जा रही है न!”

उसने सीधा सिर हिलाया. लगा जैसे कुछ असहज हो गया था.

मैं उसके चेहरे को लगातार देखता रहा. कुछ देर बाद अपने ऊपर उड़ रहे धुँए को फूक मारकर उड़ाते हुए शिथिल शब्दों में कहा-“फिर तो आपको बहुत कष्ट बर्दाश्त करना पड़ेगा.”

मुझे बात समझ में नहीं आई तो उसने साफ़ किया-“ये सब भी वहीं जायेंगे.”

और उसने एक हिक़ारत भरी निगाह उन लड़कों पर डाली.

मैं पूछ बैठा-“आपको कैसे पता?”

वह अजीब तरह से मुसकराया- “और जायेंगे भी कहाँ भाई साहब!” वह जैसे कोई गूढ़ संदेश मुझ तक पहुँचाना चाहता था लेकिन मेरी नासमझी के चलते लाचार था...ट्रेन अचानक खटर-पटर की तेज़ आवाज़ के साथ हिचकोले लेने लगी थी. वह आदमी बिना अपनी लाचारी मुझपर और ज़ाहिर किए जल्दी ही फिर अपनी खोल में उतर सोने का नाटक करने लगा. मुझे उसमें दिलचस्पी हो चली थी लेकिन शायद मुझमें उसकी दिलचस्पी ख़त्म हो चुकी थी.

इधर ट्रेन अँधेरे में कहीं थम गई थी. बहुत कोशिश करने के बाद भी ये पता नहीं चल पा रहा था कि हम दिल्ली से कितना आगे निकल आये हैं. यात्रियों ने अपनी-अपनी पोटलियाँ खोल गुझियाँ, नमकीन, पराठे, आलू, चने-चबेने निकाल ठंड और भूख से मुक़ाबला शुरू कर दिया था. ये लड़के लगातार बीड़ी फूंक रहे थे और पाउच-गुटखा फांक रहे थे. इस बार मेरी कोशिश कामयाब रही थी. वे दिलबाग़ ब्रांड के पाउच और रानी ब्रांड बीड़ी के बंडल थे. लड़के ज़ोर का कश लेने के बाद धुँए को मस्त अन्दाज़ में एक दूसरे की ओर उछाल रहे थे. मेरी तरह शायद तमाम यात्री यह जानना चाह रहे थे कि लड़कों का वह झुंड कहाँ जा रहा था. उन सबने सस्ती जींस और जैकट्स पहन रखी थीं. कईयों ने सर्दी से बचाने वाले कनपट्टे लपेट रखे थे. उँगलियों में लोहे और पीतल के गोल छल्ले थे. बाक़ी ज़रदे और बीड़ी की उनके पास कोई कमी न लगती थी. व्हिस्की भले ही ख़त्म हो चुकी थी. बूढ़ी औरत की झिड़की और अस्लम भाई की फटकार खाने के बाद शावेज़ मेरे पास आकर चुपचाप फर्श पर बैठ गया था. वह शायद ख़ुद को शांत और सहज कर रहा था. आख़िर मैंने ही उससे जानना चाहा कि वे सब कहाँ जा रहे हैं.

उसने सीधा जवाब न देकर कहा-‘तुम आज जा रहे हो. दुबारा एक महीना या और बाद इस डिब्बे में आओगे. लेकिन हमें कल फिर इसी ट्रेन से वापस आना है.’ मुझे जवाब बेतुका लगा था.

उसने दरवाज़ा खोल काले आसमान की ओर मुँह करके ज़ोर से थूका और बदहवास हवाओं से देर तक अपने चेहरे को भिगोता रहा.

मैं चाहता था वह कुछ और बोले लेकिन उसने मुझमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.

मैंने कोशिश की-“इस डिब्बे में टी.टी. नहीं आता.”

उसने मेरी तरफ़ यूँ देखा जैसे मैं किसी दूसरे ग्रह का आदमी था.

मेरी निगाहों में सवाल अटका देख उसने जैसे खुद से कहा-“ ऐसी तक़दीर सिर्फ़ अपनी ही है. मामू इधर क्या झक मारने आयेगा भाई जान. वह अपनी सीट पर दारू मारकर सीटी बजा रहा होगा.” अपने इस अंदाज़-ए-बयाँ पर वह ख़ुद ही मुस्करा उठा. मैं भी उसकी हँसी में शामिल हुआ.

कुछ देर में उसने अपनी तरफ़ से जोड़ा- “कभी-कभार कोई मामू इधर आ टपकता है.”

मैंने हुँकारी भरी- “ फिर.”

उसने कहा- “ फिर क्या. एक दिलबाग , एक रानी या एक समोसे और थोड़ी चिरौरी में मामला फिट हो जाता है.”

थोड़ी देर बाद ही अचानक उन लड़कों में हलचल शुरू हो गई. अस्लम भाई ने सबको कमांड दिया और लड़के गत्तों और पालीथीन के बंडलों को घसीटकर दरवाज़ों की ओर टिकाने लगे. इस बीच मेरी तरह तमाम यात्रियों को अपने बैठने, सिमटने और टेकने की पोज़ीशन बदलनी पड़ी. बाथरूम और रैकों से भी बंडल निकल आये और प्लेटफार्म की तरफ़ खुलने वाले दरवाज़ों के पास छ्ल्ले लग गये.

एक लड़का..शायद दानिश या शायद अफ़रोज़- छल्लों के ऊपर बैठ बड़ी शान के साथ सर्द से सिहरती आवाज़ में ज़ोर-ज़ोर से गाने लगा- जीना यहाँ, मरना यहाँ.. मेरे नैना सावन-भादों... तुम तो ठहरे परदेसी साथ क्या निभाओगे...ये दिल दीवाना, दीवाना है ये दिल..पप्पू कांट डांस साला... और भी तमाम गीतों के मुखड़े और एकाध अंतरे ठहर-ठहर कर उसने गाये. कई गाने वह पूरा गा जाता और कई सिर्फ़ छेड़कर ट्रैक बदल देता. उसने कुछ ग़ैर फ़िल्मी गीत भी मस्त अन्दाज़ में गाये. मुझे सिर्फ़ एक लाइन ही याद रह गई है..बलमां बड़ा नादान..मोरी क़दर न जाने..

उसके एक साथी ने उसे ‘जिस गली में तेरा घर न हो बालमां’ गाने को कहा तो उसने यह कहते हुए इंकार कर दिया कि- “मैं तो साल्ला हर गली से गुज़रता हूँ चाहे बालमां हो या न हो. और न गुज़रूँ तो रात की रोटी का जुगाड़ क्या तेरी ख़ाला करेंगी?”

मैने उसकी थोड़ी तारीफ़ की तो वह बेलाग हँसा.

चाय-समोसे वाला अपना हिसाब माँगने अस्लम की तरफ आ रहा था. उसके कुल पैसठ रुपये हुए थे. अस्लम ने अपने हिस्से का बीस- चार समोसे और एक पानी- उसे थमाते हुए बाक़ी फ़रीद और शावेज़ से लेने को कहा. शावेज़ काफी देर बाद कुछ बोला था-‘ अमां! कहाँ पैतीस का पैतालीस ठोक रहे हो..कुछ हिसाब भी याद रखा करो राजा..! तक़दीर वैसे ही चिड़ी की तिग्गी हुई पड़ी है, ऊपर से तुम भी लूटने पे आमादा हो.’ यह कहते हुए उसने पैतीस उसकी तरफ बढ़ाये. चायवाले ने उँगलियों की पोरें दिखा खीस निपोरी और पैसे ले लिये. इस पर दानिश या शायद अफ़रोज़ ने एक बिल्कुल ताज़ा नग़्मा छेड़ दिया- “ सखी सैयां तो बहुतै कमात हैं...मँहगाई डायन खाये जात हैं....खाये जात हैं.” इस तराने पर तमाम यात्रियों की निगाहें उसकी तरफ़ उठ आईं. यहाँ तक कि उस भारी-भरकम आदमी ने भी कंटोप से एक बार फिर अपना सिर बाहर निकाल उसकी तरफ़ देखा.

एक जगह ट्रेन थोड़ा धीमी हुई तो अस्लम अपने बाक़ी साथियों को मामू पर निगाह रखने को कह उतरकर पिछले डिब्बे में चढ़ गया. मेरी टांगों के पास घुटनों में सिर दिये बैठे आदमी ने भी उठने की अधूरी कोशिश की लेकिन ट्रेन ने फिर रफ़्तार पकड़ ली थी और वह फिर अत्मलीन हो गया. इस लड़के को अलमस्त गाते हुए देख शायद फ़रीद ने कहा था-‘ बेटा बीवी अच्छी मिल गई है इसलिए तराने छेड़ लो ’.

लड़के ने छूटते ही जवाब दिया था-‘ अच्छी मिली होती यार तो ये बंदा बिगड़ता ही क्यों!

फिर थोड़ा रुककर कहा- अब अच्छी मिली हो ससुरी या बुरी, ज़िन्दगी तो चल ही रही है धकापेल.” फ़रीद ने ठठाकर हँसते हुए जोड़ा- बस इसी तरह मामू का करम बना रहे..’


अलीगढ़ जंक्शन का प्लेटफार्म जैसे ही करीब आया, पहले से ही तैयार लड़कों ने सामानों का एक-एक बंडल चलती ट्रेन से नीचे फेकना शुरू किया. थोड़ी देर में डिब्बे का आधा सामान खाली हो चुका था. अब जाकर पता चला था कि पिछले डिब्बे में भी ऐसे ही सामान ठुसा हुआ था और अस्लम उसे ढकेलने के लिए ही चलती ट्रेन से कूदकर पिछले डिब्बे में गया था. क्या पता पिछले डिब्बे में भी इनके कुछ साथी रहे हों. न जाने क्यूँ इस बीच मैं यह भूल चुका था कि मुझे दरअस्ल अगले स्टेशन पर इस डिब्बे से उतरकर अपने डिब्बे में जाना था.. और इस बीच उनकी आपसी बातचीत और चुहलबाज़ी से मैं जान चुका था कि वे सब दिल्ली से होजरी और सिले-सिलाये कपड़ों के बंडल जनरल बोगियों में लादकर अलीगढ़ लाते हैं और फुटपाथ पर बेचने का धंधा करते हैं. और ज़ाहिर था कि इस धंधे में वे ज़्यादा से ज़्यादा बचत करना चाहते हैं. चलती गाड़ी से सामान फेककर वे टैक्स की चोरी करते हैं...और मामू रेलवे, पुलिस और टैक्स महकमे के वे हाकिम लोग थे जो इस धंधे में कहीं न कहीं उनके मददगार थे.

गाड़ी धीमी होती जा रही थी. अँधेरे में वे अपने सामान फेकते जा रहे थे और चलती ट्रैन से एक-एककर डिब्बे से बाहर भी कूदते जा रहे थे. वे कूट भाषा में भी कुछ बोल रहे थे जो मेरी समझ में तो कतई नहीं आ रहा था. थोड़ी देर के लिए तो डिब्बे में पूरी तरह अफ़रा-तफ़री थी. इस बीच घुटनों में सिर दिये बैठा आदमी पहली बार बिल्कुल मेरे करीब आ खड़ा हुआ था या शायद उसे मजबूरन खड़ा होना पड़ा था. उस कंपकंपा देने वाली सर्दी में भी उसका बदन तप रहा था. मैं महसूस कर सकता था कि उसे बुख़ार है. मैंने ख़ुद को उससे थोड़ा अलगाया और जल्दी से जल्दी उस डिब्बे से उतरने की तैय्यारी में लग गया. प्लेटफार्म अब साफ नज़र आने लगा था. जंक्शन की पीली रोशनी में बाहर की ज़िन्दगी दिखाई देने लगी थी. लोग तेज़ी के साथ ट्रैन पर चढ़ने-उतरने में लगे थे. नये यात्रियों के लिए एक नया सफ़र शुरू होने वाला था और पुराने यात्रियों के लिए मंज़िल का इंतज़ार वही पहले जैसा सर्द और बेचैन. जंक्शन पर गाड़ी रुकते ही मैंने अपना बैग उठाया और उस डिब्बे से उतरकर अपने एयरकंडीशन्ड डिब्बे की ओर बढ़ चला. और इधर सामानों से खाली हुए बाथरूम में कुछ यात्रियों ने अपनी चादर डाल बचे हुए सफ़र को थोड़ा आरामदायक बना लिया था..