ज़िन्दगी हसीन है…! / लिअनीद अन्द्रयेइफ़ / अल्पना दाश
क्या आप कभी क़ब्रिस्तान में गए हैं ?
धरती के इन हरे-भरे, शान्त और बाड़ों से घेरकर अलग किए गए कोनों में एक बहुत ही अजीब और भयानक कविता छिपी होती है। ये जगहें जितनी छोटी होती हैं उतनी ही पिपासु भी और अपने भीतर इनसानों को समो लेने के लिए हमेशा आतुर रहती हैं।
इन क़ब्रिस्तानों में रोज़ नए से नए लोग पहुँचते हैं और हमेशा के लिए वहीं रह जाते हैं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि अपनी ज़िन्दगी जीता हुआ एक पूरा का पूरा शहर वहाँ पहुँच चुका है। लेकिन रोज़ ही नए बच्चे पैदा होते हैं और वे एक निश्चित समय-सीमा के बाद क़ब्रिस्तान के निवासी बनने के लिए लाइन में लग जाते हैं और अपनी बारी का इन्तज़ार करने लगते हैं। पिपासु क़ब्रिस्तान जस के तस वहीं बने रहते हैं और उनकी प्यास और आतुरता बढ़ती ही जाती है। क़ब्रिस्तानों की हवा में एक बेचैन ख़ामोशी बसी होती है। इन जगहों पर लगे पेड़ों की सरसराहट के बावजूद वहाँ खोया-खोया-सा शोकाकुल सन्नाटा छाया होता है। ये पेड़ उन लोगों के सन्ताप के चश्मदीद गवाह होते हैं जो अपने सगे-सम्बन्धियों को दफ़नाने के लिए वहाँ आते हैं और सिर ऊपर करके ईश्वर को अपनी व्यथा सुनाते हैं। वहाँ लगे सफ़ेद रूसी भुर्ज के पेड़ों की आँखें इन लोगों से मिलकर और इनकी व्यथा देखकर आँसुओं से भर जाती हैं। इनकी हरी-भरी डालियाँ मौन धारण किए अपना दुख और शोक हवा को सुनाती हैं और उनकी कोमल पत्तियाँ उन लोगों को भुला नहीं पाती हैं।
क़ब्रिस्तान में पहुँचने के बाद मौन आपको भी अपनी गिरफ़्त में ले लेता है और आप चुपचाप अपने विचारों में डूबे हुए क़ब्रों के बीच चलते रहते हैं। वहाँ के सन्नाटे में आपके कान भी प्रियजनों के बिछोह की वजह से निकली आहों-कराहों और सुबकियों की धीमी गूँज सुनने लगते हैं और आपकी नज़रें कभी क़ब्रों पर लगी भव्य शिलाओं पर, तो कभी लकड़ी के बेहद मामूली-से सलीबों पर ठहर जाती हैं। इन ख़ामोश क़ब्रों में जो लोग दफ़्न हैं, उन्होंने अपनी सारी ज़िन्दगी बड़ी सादगी से और गुमनामी में बिताई थी। वे इस दुनिया के आम लोगों की भीड़ का एक हिस्सा भर थे। क़ब्रों के बीच टहलते हुए आप उनपर लगी तख़्तियों को पढ़ने लगते हैं। कुछ इबारतें तो इतनी भावपूर्ण होती हैं कि उनको पढ़कर आप वहाँ दफ़्न लोगों की ज़िन्दगी के बारे में तरह-तरह के अन्दाज़ लगाने लगते हैं। आप कल्पना करने लगते हैं कि अपनी जवानी के दिनों में वे किस तरह हँसी-ख़ुशी से भरा जीवन बिताते होंगे। आपके मन में उनका एक चित्र उतरने लगता है। आप ऐसे ज़िन्दादिल और बातूनी आदमियों के रूप में उनकी कल्पना करने लगते हैं, जिन्हें पूरा भरोसा था कि जीवन अनन्त है और जिन्होंने कभी मृत्यु के अस्तित्व को स्वीकार तक नहीं किया । लेकिन जब मौत आई तो उन्होंने मौत को गले लगा लिया।
मेरे मन में एक सवाल अक्सर उठता है — क्या व्यथा के ताप को सिर्फ़ क़ब्रिस्तान में ही महसूस किया जा सकता है? क्या इसके लिए सिर्फ़ इतना ही काफ़ी नहीं कि अँधेरा आप को चारों तरफ़ से घेर ले और वह दिन के शोर को भी पूरी तरह से निगल ले?
इस दुनिया में हज़ारों क़ब्रें ऐसी हैं, जिनपर शानदार स्मारक लगे हुए हैं। इन भव्य स्मारकों की जगमगाहट देखकर आश्चर्य होता है। उनके आसपास ऐसी अनगिनत क़ब्रें भी हैं, जो गुमनाम और ख़ामोश हैं।
तो क्या मौत और क़ब्रिस्तान का एहसास करने के लिए रात के अँधेरे का होना ज़रूरी है ? क्या इस तरह का एहसास दिन में नहीं किया जा सकता ? दिन में, जो परेशानियों, हंगामों और बुराइयों से भरा होता है ?
कभी अपनी आत्मा के भीतर झाँककर देखिए। तब वक़्त दिन का हो या रात का, आप वहाँ भी ज़रूर एक क़ब्रिस्तान पाएँगे; एक छोटा-सा क़ब्रिस्तान, जो आपके भीतर उतर चुका है और बहुतों को निगल चुका है और आगे भी निगलने को तैयार है। आपको अपने मन में एक धीमी और उदास फुसफुसाहट सुनाई देगी। यह उन गहरी आहों की प्रतिध्वनि है, जो आपके मन से तब निकली थीं, जब आपने अपने किसी प्रियजन को दफ़नाया था। आप तब उसको दफ़ना तो रहे थे, लेकिन उस वक़्त तक उसके लिए आपका प्यार कम न हो पाया था और न ही आप उसे इतनी जल्दी भुला पाए थे।अपने मन के भीतरी क़ब्रिस्तान में आपको वे समाधि-लेख भी नज़र आएँगे, जिनपर लिखे हुए शब्द आपके आँसुओं से धुलकर कुछ-कुछ मिट चुके हैं।आपके मन में बुराई से भरे टीलों जैसी कुछ छोटी-छोटी ऐसी ख़ामोश क़ब्रें भी हैं, जिनके अन्दर आपके जीवन के कुछ ऐसे रहस्य दफ़्न हैं, जिन्हें आप दूसरों से साझा नहीं करना चाहते। मुमकिन है कि ये रहस्य ही आपके अन्तर्मन के सबसे ख़ूबसूरत पल रहे हों…।
परन्तु मैं आपको अपने अन्तर्मन में झाँकने को क्यों कह रहा हूँ ! अपने मन के क़ब्रिस्तान में आपने वैसे भी कितनी ही बार झाँका होगा। हो सकता है कि आप कल ही अपने किसी क़रीबी स्वर्गवासी मित्र को याद करके रोए हों; हो सकता है कि कल ही आपने अपने किसी ऐसे प्रियजन का अन्तिम संस्कार किया हो, जो कष्ट भोगते हुए लम्बे समय तक बीमार रहा होगा और जिसको दुनिया ने उसके जीते जी ही भुला दिया होगा।
क़ब्रिस्तान में लोहे की जाली से घिरी क़ब्र के संगमरमरी वज़नी पत्थर के नीचे दो बहनें गहरी नींद में सो रही हैं। प्रीति और आस्था नामक ये दोनों बहनें बेहद ख़ूबसूरत और भली हुआ करती थीं। उनकी आँखों में तेज़ चमक थी और उनके नाज़ुक और गोरे हाथों में अद्भुत शक्ति थी।
उन कोमल हाथों ने प्यास से जलते कितने ही होंठों को बड़े स्नेह से शीतल जल पिलाया था और भूखों को खाना खिलाया था। इन्हीं हाथों ने बेहद सावधानी के साथ कितने ही घायलों के घावों पर मलहम लगाई थी और उनकी देखभाल की थी।
इन बहनों की भी आख़िरकार मौत हो गई। इनकी समाधि पर लिखा है — अचानक सर्द हवाओं ने उन्हें घेर लिया, जिन्हें वे दोनों बरदाश्त नहीं कर पाईं और उनकी मौत हो गई।
और वह अगली क़ब्र प्रतिभा की है, जिस पर लगा सलीब अब तिरछा हो चुका है। कभी वह कितनी चुस्त और ख़ुशमिजाज़ हुआ करती थी ! वह चारों ओर अपना सिक्का जमाना चाहती थी और उसे पूरा विश्वास था कि एक दिन वह पूरी दुनिया पर छा जाएगी।
लेकिन वह भी चुपचाप एक दिन मर गई। किसी को उसकी मौत की ख़बर तक न हुई। उससे पहले वह बाहर निकली थी, लोगों से बातचीत करने और उनके बीच रहने के लिए। लेकिन जब किसी ने उसकी तरफ़ ध्यान तक न दिया तो लम्बे समय तक भटकने के बाद वह निराश होकर वापस लौट आई।अपने प्रति लोगों की इस उदासीनता से वह बुरी तरह से टूट चुकी थी। वह काफ़ी देर तक रोती रही और देर तक कुछ कहने की कोशिश करती रही। लेकिन आख़िरकार वह बिना कुछ कहे इस दुनिया से विदा हो गई।
इस क़ब्र के बाद आगे कुछ छोटे-छोटे टीले-से बने हैं। कौन दफ़्न है इन टीलों में ? ये किनकी क़ब्रें हैं ?
अरे हाँ, ये क़ब्रें उन नन्हे बच्चों की हैं, जो अपनी चंचलता से दुनिया को मोह लेते हैं। ये दुनिया की वे शरारती उम्मीदें थीं, जिनकी बदौलत लोगों में हमेशा ख़ुशी और आशाओं का संचार होता है और यह दुनिया लोगों को अपनी-सी लगती है। लेकिन वे सभी उम्मीदें धीरे-धीरे इन क़ब्रों में दफ़्न होती गईं।
ये वही उम्मीदें थीं, जिनके सहारे लोग हँसी-ख़ुशी से जी रहे थे ! परन्तु अब वे उम्मीदें यहाँ क़ब्रिस्तान में दफ़्न हैं। उनके चारों ओर सन्नाटा छाया है। गहरा और भारी सन्नाटा। और वहाँ लगे भुर्ज के पेड़ों की पत्तियाँ इन टीलों के ऊपर उदासी से सरसरा रही हैं।
कितना अच्छा होता अगर इन क़ब्रों में दफ़्न ये सभी लोग आज फिर से हमारे बीच होते ! ये उदास क़ब्रें फट जातीं और उनपर बने ये भारी-भारी स्मारक ढह जाते ! और लोहे की जालियों के पीछे बन्द ये सारे मृतक अपनी-अपनी क़ब्रों से उठकर हमारे साथ आ जाते !
ऐ दुनिया के लोगो ! तुमसे इतनी ही गुज़ारिश है कि इन क़ब्रों में दफ़्न सभी लोगों को कम-से-कम एक दिन के लिए या एक पल के लिए ही सही, उनकी क़ब्रों से बाहर आने दो। तुम्हारे बोझ से क़ब्रों के नीचे अँधेरे में उनका दम घुट रहा है !
तुम्हारा ख़याल है कि वे मर चुके हैं ? नहीं ! ऐसा बिलकुल नहीं है ! वे ज़िन्दा हैं, पर वे चुप हैं ! हमारी-तुम्हारी तरह वे इन क़ब्रों में भी ज़िन्दा हैं।
अपनी-अपनी क़ब्रों से बाहर आकर इन लोगों को भी खुली हवा में सांस लेने दो और दुनिया के ऊपर छाए आकाश की नीलिमा देखने दो। वे, जिन्हें तुमने वसन्त की गरमाहट से महरूम कर रखा है, उन्हें भी बहारों के इस मौसम की मादकता और दीवानगी को महसूस करने दो।
अभी आपने प्रतिभा की क़ब्र देखी थी। वह मेरी ही प्रतिभा थी। अब उससे भी मेरी गुज़ारिश है कि वह क़ब्र की नींद से जागे और फिर से मेरे पास वापिस लौट आए !
आओ-आओ, प्रतिभा रानी ! कितनी देर सोईं तुम। तुमको इस तरह आँखें मलते हुए देखकर मुझे हँसी आ रही है। क्या तुम्हारी आँखें भी सूरज की तेज़ रोशनी से चुँधिया रही हैं ? अरे, यह क्या, तुम हँस रही हो ? ठीक है, हँसो, हँसो। ख़ूब हँसो ! क्योंकि आजकल लोगों ने हँसना कम कर दिया है। तुम्हारे साथ-साथ अब मैं भी हँसूँगा।
वह देखो, ऊपर आकाश में देखो, पंछी उड़ रहा है। चलो, हम भी उसके साथ-साथ उड़ें। क़ब्र में पड़े-पड़े कितनी आलसी हो गई हो तुम ! और तुम्हारी आँखों के पपोटे कितने भारी हो गए हैं? कितनी बदसूरत लग रही हो तुम ! तुम्हारी आँखें कितनी उदास हैं ! और इनमें यह डर की छाया कैसी ? क्या यह क़ब्र के अँधेरे की छाया है ? अरे, नहीं-नहीं, रोओ नहीं तुम। मैं तुमसे कह रहा हूँ न, रोओ मत।
मरकर जो दोबारा जी उठे, उनके लिए ज़िन्दगी कितनी हसीन होती है !
और तुम, मेरी नन्ही-नन्ही आशाओ और उम्मीदो ! कितनी ख़ूबसूरत हो तुम ! कितने प्यारे चेहरे हैं तुम्हारे ! अमाँ, प्यारे गब्दू ! तू कौन है ? यहाँ कहाँ से आ गया ? मैं तो तुझे जानता नहीं। पहचान नहीं पाया तुझे। और तू हँस किस बात पर रहा है ? मुझे हैरानी है कि तू उस अँधेरे में रहा किस तरह ? ज़मीन के नीचे दफ़्न होने के बाद भी नहीं डरा ? अरे बच्चो, इसे परेशान नहीं करो !
और तू ? छुटकी ! रंग-बिरंगी तितली ! नाज़ुक और कमज़ोर, लेकिन कितनी हसीन है ! बच्चो, तुम इसके साथ भी कोई छेड़छाड़ न करो — देखते नहीं यह कितनी छोटी और कोमल है ? तुम सब इस दुनिया में ही रहो — और मुझे ठगने की कोशिश न करो। क्या तुम नहीं जानते कि मैं भी लम्बे समय तक ज़मीन के भीतर बन्द रह चुका हूँ। दुनिया वालों ने मुझे भी दफ़ना दिया था और जबसे मुझे यह नई ज़िन्दगी मिली है, यहाँ की धूप और हवा से मेरा सर चकराने लगा है। फिर भी कितना ख़ुश हूँ मैं ! यह नई ज़िन्दगी पाकर।
अरे वाह ! ये दोनों कौन हैं ? ये तो प्रीति और आस्था हैं ! कैसी हो, भई तुम ? कब छूटीं ज़मीन की क़ैद से ? लाओ, मैं तुम्हारे कोमल हाथ चूम लूँ, प्यारी बहनो। मुझे पता है कि तुम्हारी मंज़िल किधर है ? अपने हलके और फुर्तीले क़दमों से तुम कहाँ जाओगी और जहाँ से भी तुम गुज़रोगी, वहाँ ख़ूबसूरत ख़ुशबूदार फूल उग आएँगे। क्या, तुम दोनों मुझे अपने साथ ले जाना चाहती हो ? ठीक है, चलो।
अरे, यह देखो, यह कौन घूम रहा है ? यह तो हमारी प्रतिभा रानी है। सबके साथ यह भी मस्ती कर रही है। बहुत दिनों बाद क़ब्र से निकलकर आई है न, इसलिए आसमान में टहलते बादलों को ताक रही है। अब तुम सब एकसाथ यहाँ आ जाओ ! ओ गब्दू, अरी ओ तितली ! ऐ प्रीति, ऐ आस्था, तुम सब भी यहाँ आओ।
लेकिन रुको ज़रा, यह कैसी आवाज़ है !…
यह कैसी रुन-झुन है, यह कैसी धुन है ! यह कैसा गीत है, यह कैसा संगीत है ! अरे भई गब्दू, चिल्ला मत ! सुन, ज़रा ध्यान से सुन। मुझे भी सुनने दे, क्या सुरीली है धुन ! क्या लय है, क्या गति है ! क्या ताल है, क्या तान है ! इस गान की अपनी शान है ! इसमें खुशी भी है और दुख भी। ये जीवन का ज्ञान है…!
…. अरे, अब डरने की क्या बात है ! नई ज़िन्दगी हमारे साथ है !
यह ज़िन्दगी अब ज़मीन नहीं, यह ज़िन्दगी नई और हसीन है !
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अल्पना दाश
भाषा एवं पाठ सम्पादन : अनिल जनविजय
मूल रूसी भाषा में इस कहानी का नाम है —’प्रिक्रासना झीज़्न द्ल्या वसक्रेसशिख़’ (Леонид Андреев — Прекрасна жизнь для воскресших)