ज़िन्दगी / अशोक भाटिया
मेरा दोस्त उदय इसी गली में रहता था। कॉलेज के दिनों में मैं अक्सर उसके घर आया करता। एक बार वह किसी भावना की दुनिया में खो गया था। उसने बताया कि सुधा की आँखों के नूर ने उसके मन की झील में उतरकर हलचल मचा दी है। वह अब सपनों में डूबा रहता। तब मुझे लगा कि ज़िन्दगी प्यार की तरह सुंदर और मुलायम, सपनों की तरह मोहक और भावुक चीज़ होती है, जिसे गाया जाता है ...
बाद में नौकरी मिलने पर उदय कहीं दूर चला गया था। कुछ समय बाद उस गली के बाहर सड़क-किनारे एक ठेला-मजदूर ने अपनी झोपडी खड़ी कर ली थी।
मैं रोज़ उधर से गुज़रा करता। कई बार मैंने देखा कि शाम को वह मजदूर अपने कठोर हाथ हिलाता, धीरे-धीरे अपनी झोपडी की तरफ बढ़ रहा होता। उसके दोनों नंगे बच्चे अलुमीनियम की खाली पतीली के पास बैठकर टुकुर-टुकुर अपने बाप को देखते। उनकी माँ की सूनी आँखें समझ जातीं कि चूल्हे की तरह आज भी उन्हें बुझे रहना है। तब मुझे लगा कि ज़िन्दगी किसी मजदूर के हाथों-सी कठोर और भूखे बच्चे के पेट – सी खाली होती है। ज़िन्दगी माँ की आँखों –सी सूनी, कपड़ों-सी फटी-मैली, दिख रहे बदन-सी नंगी और बेबस होती है, जिसे ठेले की तरह खींचा जाता है।
क्या होती है ज़िन्दगी? मैं सोचता रहा, सोचता रहा। आखिर एक दिन मुझे उदय मिल गया। मैंने उसे मजदूर की बात बताई।
उसने कहा, ”ज़िन्दगी इसके अलावा भी बहुत कुछ होती है।”
मैंने पूछा,”क्या वह मजदूर भी यह बात जानता है ?”