जांबाजों की जबर्दस्त प्रेम-कथा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 20 जुलाई 2013
विगत दशक में भारतीय सिनेमा को छद्म देशप्रेम और थोथी नारेबाजी से मुक्ति मिली है और देशप्रेम की असली फिल्में नए तकनीकी मुहावरों में अभिव्यक्त हुई हैं और ये शृंखला है- 'लगान', 'रंग दे बसंती', 'ए वेडनेसडे', 'पानसिंह तोमर', 'कहानी', 'भाग मिल्खा भाग' और अब निखिल आडवाणी की 'डी डे'। इसके प्रोमो और प्रचार से यह अपराध थ्रिलर लग रही है, परंतु यह भावना की तीव्रता की तीन प्रेम-कथाओं को राष्ट्रप्रेम के धागों से बुनती है और कसावट की यह हद है कि दुनिया का कोई भी संपादक इस सघन रचना की एक फ्रेम भी नहीं काट सकता। इसकी प्रेम-कथाओं में अनुभूति की तीव्रता 'फिल्मी थीम' को फाड़कर निकलती-सी प्रतीत होती है। यह अजब फिल्मों का गजब दशक है। निर्देशक तनाव की रस्सी पर पात्रों को चला रहे हैं और नीचे कोई सर्कसनुमा सुरक्षा का नेट भी नहीं है तथा खुले हुए जख्मों से रिसते खून में चरित्र नहा रहे हैं। क्या फिल्में इस कदर यथार्थपरक हो सकती हैं? इस विधा के जन्म के समय २८ दिसंबर १८९५ को जादूगर जॉर्ज मेलिए ने कहा था कि सिनेमा फंतासी प्रस्तुत करेगा और लुमिअर बंधुओं को विश्वास था कि यथार्थ प्रस्तुत करेगा। निखिल आडवाणी लुमिअर बंधुओं के साथ हैं। जॉर्ज मेलिए में विश्वास करने वालों की भी कमी नहीं है, परंतु भारतीय सिनेमा और समाज का मेरुदंड विविधता रहा है।
बहरहाल, 'डी डे' के नाम से उसका पूरा परिचय नहीं मिलता। फिल्म का आधार इस कल्पना पर रखा गया है कि चार भारतीय खुफिया रॉ एजेंट दाऊद इब्राहिम को पकड़कर जिंदा भारत लाएंगे। यहां काल्पनिकता समाप्त है और अब जो घटनाक्रम आप देखते हैं, वह घोर यथार्थपरक है। इंटरवल में आपको लगता है कि दाऊद को लाने का 'मिशन' असफल हो गया, परंतु मध्यांतर के बाद पराजित चारों पात्र हताश नहीं हैं और ऐसा प्रयास करते हैं, मानो तिनके का सहारा लेकर चिनाब पार करके गंगा तट आ जाएंगे। यह जमींदोज होने के बाद आकाश पकडऩे का हौसला ही इन पात्रों की ताकत है और वे अजूबा कर दिखाते हैं, वह भी उस समय जब उनकी सरकार उनके अस्तित्व को नकार चुकी है और पाकिस्तानी सरकार भी अपने 'हीरो' दाऊद से निजात पाने को बेकरार है, गोया कि सरहद के दोनों ओर सरकारें एक-सी निर्मम हैं और अब आखिरी दौड़ में दोस्त-दुश्मन दोनों एक साथ भाग रहे हैं।
पहली प्रेम कहानी तो दस वर्ष से जासूसी के लिए पाकिस्तान में बसे रॉ एजेंट इरफान और उसकी प्रेमिका तथा मासूम बच्चे की है। पहले प्रयास की असफलता के समय उसे ज्ञात होता है कि उसकी पत्नी और बच्चा लंदन नहीं जा पाए और हिरासत में हैं। आप उसकी वेदना और तड़प को देखिए कि वह खतरों से घिरा हुआ होने पर भी अपने प्रेम को बचाने का प्रयास करता है और एक बार अपने साथियों के भी खिलाफ हो जाता है, तब आपको लगने लगता है कि प्रेम की खातिर उसने देश से विश्वासघात किया, परंतु अंतिम दस मिनट में एक और राज उजागर होता है। इस पूरे प्रसंग में इरफान खान की तड़प और दाऊद की भूमिका में ऋषि कपूर का चातुर्य देखते ही बनता है। वह कहता है कि एक क्षण भी अलग नहीं हो पाने वाले उसके पुत्र को जवान होने पर पिता के निर्मम व्यवसाय की जानकारी हुई तो पिता पुत्र से आंख नहीं मिला पाता - यह एक जरायमपेशा अपराधी के भीतर छुपे हुए मनुष्य की अभिव्यक्ति है और थेसपिअन ऋषि कपूर ने कमाल का अभिनय किया है। फिल्म में तनाव के क्षण में दाऊद मराठी बोलता है। ज्ञातव्य है कि वह मुंबई के कांस्टेबल का पुत्र है। अब इस जमीन पर तो पाकिस्तान में रहने वाला दाऊद और भारतीय इरफान एक 'सद' में खड़े हैं। इरफान की प्रेम-कथा में दाऊद की पुत्र प्रेम-कथा भी शामिल है।
भारतीय रॉ एजेंट अर्जुन पाकिस्तान में छुपने के उद्देश्य से तवायफ के कोठे पर जाते हैं और अपनी पूरी हिकारत के बावजूद उस तवायफ से उन्हें इतना इश्क हो जाता है कि उसे जख्म देने वाले अनजान आदमी का भी कत्ल करते हैं। दोनों अपने जिस्म से खून साफ करने के लिए साथ में नहाते हैं और आत्मा का मैल भी धुल जाता है। घटनाक्रम में आगे जाकर पाकिस्तानी जुल्मी उस तवायफ को पीटता है, परंतु वह अर्जुन के बारे में एक शब्द भी नहीं बोलती। निर्देशक का कमाल है कि उसी लाश को हटाए जाने के बाद वह घटनास्थल पर पहुंचता है और चारों तरफ फैला खून उसके जेहन में तूफान खड़ा करता है - जुल्मी और तवायफ के दृश्य में अर्जुन मौजूद है और मानो अपने अदृश्य प्रेमी को मौजूद पाकर पिटते हुए भी वह मुस्करा रही है। इस दृश्य का वर्णन करना कठिन है, यह देखने और महसूस करने की चीज है। सआदत हसन मंटो के पात्र लगते हैं।
बहरहाल, क्लाइमैक्स में दाऊद को भारतीय सरहद के पार ले आए हैं और वह खुश है तथा सगर्व कहता है कि उसके लिए कराची और तिहाड़ में कोई फर्क नहीं है। वह अर्जुन को इतना उकसाता है कि वह उसे गोली मार देता है। यहां निखिल नए भारत की बात कर रहे हैं, जो सीधे अपराधी को ठोंकता है और न्याय की प्रक्रिया में अविश्वास दिखाने को नया भारत कह रहा है। निखिल साहब आप अराजकता को निमंत्रित कर रहे हैं - आपके जेहन का नया भारत उतना ही काल्पनिक है, जितना आपकी कहानी। बहरहाल, इतना छोटा हिस्सा विवादास्पद हो सकता है, परंतु यह निर्विवाद है कि आपकी फिल्म कमाल की है।