जाखन / नवीन कुमार नैथानी

Gadya Kosh से
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जाखन नाम की वह नदी सौरी के लोगों को सपनों में बहती हुई दिखाई पड़ती थी। उनके सपनों के बाहर जाखन एक पथरीले रपाट के रूप में सौरी के दक्षिणी ढलानों पर ठिठके साल-वृक्षों की अनमनी पुकार को अनसुना करते हुए बाहर की दुनिया में बही जाती थी। जाखन का रपाट सौरी के लोगों को बताता था कि सौरी के बाहर भी कोई दुनिया थी जो निश्चित रूप से सौरी की जिंदगी से बहुत अलहदा रही आ रही होगी। सौरी में पहाड़ हैं, दरख्त हैं, हवा है, पानी के धारे हैं और पेड़ों की छलनी से छन कर आती रोशनी है। सौरी की स्मृतियों में सबसे सुंदर वे दिन हैं जब सूरज पूरब से निकल कर पश्चिम में अस्त हो जाता और तीस घरों की दुनिया सूरज का कारोबार मगरिया पाली को सौंप कर निश्चिंत हो रहती।

मगरिया पाली के बारे में बात करते हुए यह तथ्य जरूर ध्यान में रखना होगा कि इस नाम के बहुत सारे पाली सौरी में हुए आए हैं। गो-पालक से पाली शब्द की उत्पत्ति मानते हुए बहुत से समाज-शास्त्री तो यहाँ तक कहते हैं कि सौरी का लघुतम समाज शब्दों के बारे में बहुत ही किफायती था; कि उनकी दुनिया में शब्दों की बहुत ज्यादा जरूरत ही नहीं थी। कवि-गण कल्पना कर लिया करते हैं कि उनके कार्य-व्यापार क्योंकि बहुत सीमित थे इसलिए काव्य-व्यवहार के लिए अपार फुर्सत भी उनके पास थी! एक ही शब्द के इस्तेमाल से वे कई कार्य साध लिए करते थे - यहाँ तक कि व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के लिए भी वे दीगर शब्दों की खोज को व्यर्थ की वक्त बर्बादी समझा करते थे। पाली तो बहुत सारे हुए होंगे, सभी का नाम मगरिया क्यों?

नहीं! मगरिया सबसे प्रसिद्ध पाली हुआ जो चलता तो लाठी को दोनों कंधों पर धरती के समांतर रखते हुए चलता। उसके दोनों हाथ लाठी से लिपटे रहते - वह मवेशियों को हाँकता एक चलता-फिरता सलीब दिखाई पड़ता। सबसे आगे सौरी के घरों में बंधनेवाली गायें रहतीं जिनके पीछे मगरिया पाली की बकरियाँ चला करतीं जो थोड़ा बढ़ने के बाद ठिठक कर पीछे देख लिया करतीं और सलीब की तरह हिलते बिजूके को देख कर आगे बढ़ जातीं। उसकी लाठी के दाएँ सिरे पर कपड़े का एक महीन टुकड़ा हवाओं के बहने की दिशाओं में लहराता रहता… अलग-अलग घरों से आई गायों के गलों में अलग-अलग तरह की घंटियाँ लटकी रहतीं जो ढलानों में उतरते हुए द्रुत लय में बजा करतीं और चढ़ाई के वक्त धीमी ताल की संगत देती सुनाई पड़तीं! बिजूके की तरह हिलते मगरिया पाली के आगे घंटियों की आवाज सौरी का वितान बुनती थीं जिसे मगरिया अपनी निगाहों से ओझल नहीं होने देता था!

जहाँ तक मगरिया की निगाह, वहाँ तक सौरी की थाह। वह आँखों से सुनता था और कानों से देखता था। घंटी की आवाज से वह समझ जाता कि कौन सी गाय कहाँ तक पहुँच गई है। गायों के खुरों के नीचे फिसलते गोल पत्थरों के शोर से उसे पता चल जाता कि जाखन के रपाट में वे कहाँ तक निकल गई हैं! सौरी की सीमाओं का अतिक्रमण करने की सोचनेवाली दुस्साहसिक गायों की हरकत का अंदाज उसे रपाट के पत्थरों की हड़बड़ाहट से लग जाता। वह अपने कंधे से लाठी उतारता और उसे धरती पर पटकते हुए जोर लगा कर एक आवाज निकालता जो आसमान से टकरा कर सौरी की धरती पर बजती… तीस घरों के आँगन में काम करती औरतें समझ जातीं कि कोई कदम सौरी की सीमा लाँघने को मचलने लगा है! पशु तो पाली की आवाज के इशारों से बाहर जाते ही नहीं थे - सौरी की सीमा के भीतर तो आदमी भी मगरिया की निषेध भरी आवाज सुन कर समझ लेते कि उस दिशा में कदम नहीं रखना है… कोई आसन्न संकट वहाँ इंतजार कर रहा होगा!

सौरी के बसने की जितनी भी कथाएँ सुनाई देती हैं वे सब उजड़ने के अनिवार्य प्रसंग से शुरू होती आई हैं। सौरी कितनी बार उजड़ी और कितनी बार बसी इसका ठीक-ठीक ब्यौरा किसी भी जगह दर्ज नहीं है! सौरी जहाँ भी बसी उसके दक्षिण में हमेशा जाखन बही आती रही। कभी जाखन बारहों महीने पानी के साथ बहा करती थी - यह उन दिनों की बात है जब सौरी के लोग जाखन के सपने नहीं देखा करते थे। मगरिया पाली ने उन दिनों के बारे में अपने पिता से सुना था जब वे गायों के साथ मगरिया को पहली बार जाखन के पथरीले रपाट पर ले गए थे। बच्चे के आगे बकरियाँ दौड़ती हुई जाती थीं और पहाड़ी ढलान उतरते ही जब बालक मगरिया नदी में उतरा तो गोल पत्थर उसके पैरों के नीचे फिसल कर डगमगाए और वह नदी में जा डूबा!

‘सूखी हुई नदी में भी कोई डूबता है!’ सौरी के बच्चे मगरिया से पूछते थे।

‘मैं भी ऐसा ही सोचता था।’ बच्चों की बात पर खुश होते हुए पाली कहा करता, ‘पहली बार जब नदी को देखा तो सोचने लगा नदी में पानी की जगह पत्थर आते हैं। इसीलिए सौरी में कोई जाखन नदी नहीं कहता! सब जाखन का रपाट कहते हैं…।’

‘बरसात में पानी कहाँ से आता है?’ बच्चे पूछते। उनसे बात करना मगरिया को अच्छा लगता था।

‘पानी तो जाखन में हमेशा रहता है…’ मगरिया थोड़ा झुकते हुए बच्चों को रहस्य की बात बताता, ‘कभी जाखन में मत उतरना! वह रपाट नहीं है… नदी है। उसके पत्थर बहुत प्यासे रहते हैं! नदी का सारा पानी पी जाते हैं। बरसात में बादल प्यास बुझाते हैं तो पानी पत्थरों से उपर बहा जाता है!’

‘तो पहली बार जब नदी में उतरे तो कैसे डूबे… पत्थरों ने पानी उगल दिया क्या?’ कोई वाचाल बच्चा कह जाता।

‘नहीं! पानी में नहीं… मैं पत्थरों में डूबा।’ मगरिया गंभीर हो जाता था।

मगरिया बच्चों से ही नहीं सौरी के जवान और बुजुर्ग लोगों से भी जाखन के बारे में बतियाता। युवाओं से बात करते हुए वह जाखन के रपाट में आनेवाली गरम हवाओं का जिक्र करते हुए कहता कि किसी कमजोर दिलवाले को उधर का रुख नहीं करना चाहिए! उन हवाओं में अजीब तरह की सूरतें दिखाई पड़ती हैं… फरेब-भरी और मायावी।

‘वे बात करने के लिए उकसाती हैं… लगता है कोई औरत तुम्हारी गाय की राह रोके खड़ी है और कटोरे में दूध माँग रही है’ फिर वह किस्सा शुरू होता जहाँ मगरिया से कई पुश्त पहले एक पाली जाखन के रपाट में खो गया था… गायें पाली के बिना वापस लौट आई थीं और बकरियाँ सौरी की ढलान पर जाखन के किनारे गोल घेरा बनाए गुम-सुम बैठी रहीं। उस दिन के बाद कोई भी दक्षिण दिशा में सौरी की सीमाओं के बाहर कभी नहीं गया! दक्षिण दिशा में सौरी का विस्तार वहाँ तक जहाँ तक जाखन में मगरिया पाली के कदमों की रसाई!

बुजुर्गों से वह जाखन के रपाट में दिखाई दिए कुछ नई तरह के पत्थरों के बारे में बात करता।

‘तुम्हें वहम हो गया पाली!’ बुजुर्ग कहते।

‘मैं कल भी वहाँ गया था… वे पत्थर नहीं थे।’ मगरिया अपनी लाठी जमीन पर टेक कर खड़ा हो जाता।

‘जाखन के रपाट में जगहें कहाँ पहचान में आती हैं? पाली! तुम तो कहते हो कि जाखन के रपाट में कोई राह नहीं सूझती और कोई जगह नहीं चिन्हाती…’

‘मैं जगहों की बात नहीं कह रहा। राहों की खोज भी नहीं कर रहा! मैं तो पत्थरों के बारे में बता रहा हूँ… ये पत्थर मैंने पहले नहीं देखे हैं। सौगज पाली की याद है तुम्हें?’

सौगज पाली के जमाने में एक रात जोर की आँधी में सौरी के मकानों की छतें उड़ गई थीं। वह सौरी कहीं दूसरी जगह थी… जहाँ से सौगज एक नए रास्ते से सौरी के बाशिंदों और मवेशियों को हाँकता हुआ इस जगह ले आया था। सौगज ने हवाओं से बात करने की कई युक्तियाँ खोजीं और पालियों की अगली पीढ़ी को सौंपी। सौरी के बुजुर्ग जानते हैं कि पाली किसी दूसरे को हवाओं के गुर नहीं बताता।

‘हवाओं में कोई साजिश तो नहीं?’ सौगज का जिक्र सुन कर बुजुर्ग थोड़ा चौकन्ने हो जाते।

‘पत्थरों को देख कर लगता है, कोई अघट घटने को है… हवाओं में तपन है और वे एक दिशा से नहीं बह रही हैं।’ उस शाम पाली ने बुजुर्गों को चेतावनी देते हुए कहा था, ‘वे छहों दिशाओं से आ रही हैं और उनका लहू तप रहा है… कल जानवर जाखन के रपाट में नहीं जाएँगे।’

बुजुर्गों ने मगरिया की बात मान ली, उन्होंने अगले दिन मवेशी नहीं खोले। जवानों ने पाली की बात रख ली और जाखन की तरफ रुख नहीं किया। पूरा दिन आँगन में बँधी गायें रँभाती रहीं और जाखन की तरफ से हवाओं का शोर उठता रहा। सब लोग अपने घरों में कैद हो गए और मगरिया अपनी लाठी लिए सौरी की ढलानों में उतर लिया। बुजुर्गों ने उसे रोकने की कोशिश की लेकिन वह रुक नहीं सकता था। वह सौरी का पहरुवा था और उसे इन नई हवाओं की भाषा सीखनी थी! इनकी सरगोशियों को सुनना था और शरारतों को समझना था…

सौरी की ढलानों की तरफ जाते हुए उसकी लाठी के सिरे से बँधा कपड़ा आसमान की तरफ लहरा रहा था और आसमान में बादलों की आमद बढ गई थी…

सारी रात सौरी के आसमान में बादल गरजते रहे और सौरी के लोगों के मन में आशंकाओं की धारासार बारिश होती रही। तीन दिन और चार रात लगातार बरसने के बाद जब आसमान थमा तो सौरी की हवाओं में एक नई आवाज सुनाई दी… यह जाखन की आवाज थी जो सौरी के लोगों को सपनों में सुनाई देती थी… पानी से भरी हुई नदी की आवाज! सपनों के बाहर जब उन्होंने इस आवाज को सुना तो बहुत देर तक वे समझ ही नहीं सके कि यह उसी जाखन की आवाज है जिसके बारे में मगरिया ने चेतावनी दी थी! सपनों में जाखन की आवाज इतनी डरावनी नहीं लगती थी…

वे मगरिया का इंतजार करने लगे! बुजुर्गों के भीतर असीम धैर्य था लेकिन जवानों के कदम जाखन को बहते हुए देखने के लिए मचल रहे थे। बरसात के दिनों में जाखन जिस तरह बहती थी, यह वैसी आवाज नहीं थी; न यह बरसात जैसी बरसात ही थी! जाखन में जैसे आसमान से अदृश्य हो कर पत्थरों की बड़ी शिलाएँ चली आई थीं जिनकी गर्जन से सौरी की जमीन थरथरा रही थी। मगरिया होता तो उससे पूछा जाता कि इन आवाजों का क्या मतलब हो सकता है! वे मगरिया का इंतजार करते रहे… धीरे-धीरे सौरी के आसमान में रात उतर आई।

अगली रात भी पानी नहीं बरसा और सुबह होते ही उन्हें यकीन हो गया कि अभी मगरिया आएगा और इन आवाजों का रहस्य खोलेगा। बुजुर्ग मगरिया का इंतजार करने लगे। जवानों ने कहा कि हो सकता है मगरिया किसी मुसीबत में फँस गया हो। वे लोग जाखन तक जाने के बारे में सोच ही रहे थे कि सौरी के आकाश में बच्चों की किलकारियाँ गूँजने लगी - जाखन आ गई! जाखन आ गई!

बच्चे इस तरह की आवाज बरसात के मौसम में निकालते थे जब नदी में पानी आने की खुशी मनाते सारा सौरी जाखन के किनारों तक दौड़ता हुआ जा पहुँचता था।

सौरी के बड़े और बुजुर्ग जब तक कुछ समझ पाते तब तक देर हो चुकी थी! बच्चों का समूह किलकारियाँ मारता हुआ जाखन की तरफ ढलानों में उतर चुका था! उनके पीछे जवान दौड़े और बुजुर्ग भी अपने घरों में टिक नहीं सके। आशंकाओं की आँधियों के बीच वे उस सिरे तक पहुँचे जहाँ से जाखन पहली बार दिखाई देती है। जाखन के मटमैले विस्तार में शोर के सिवा कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था। आसमान साफ था और सूरज की तीखी रौशनी पानी की लहरों में गिरते ही डूब पड़ती थी! जाखन के किनारे बच्चों की टोली एक छोटी-सी रेखा की तरह दिखाई दी। उन्होंने आवाज लगाई - रुको! रुक जाओ!!

बच्चों को लगा कि कहीं ठीक पास उन्हें मगरिया पाली की आवाज सुनाई दी है -वही आवाज जिससे वह हवाओं को फटकारता है… आगे मत बढ़ो। वे नदी की तरफ और आगे बढ़े। पीछे से बड़ों ने फिर पुकारा - रुको!

बच्चों को लगा कि मगरिया पाली नदी में बहते पानी के बीच से उन्हें पुकार रहा है। बच्चे चिल्लाए - ओ पाली!

नदी के किनारे बड़ों ने आवाज सुनी - ओ पाली!

आवाज में पाली को खोज पाने की सूचना मान उन्होंने नजर नदी के बीच में डाली और वे चूक गए!

न उन्हें मगरिया पाली दिखाई दिया और न बच्चे!

काफी देर तक वे होशो-हवास खो कर वहीं बैठे रह गए। अनिष्ट घट चुका था और सौरी का भविष्य जाखन अपनी गरजती लहरों में उठा ले गई थी!

जाखन का किस्सा इस जगह खत्म नहीं होता! वह तो मगरिया पाली की सौरी थी। मगरिया के रहते सौरी में अनिष्ट कैसे हो सकता था। जब वे अपने होश में वापस लौटे तो उन्होंने देखा कि सौरी के सारे बच्चे जाखन के उस पार हैं। वह तो पत्थरों की नदी थी और बच्चों को पत्थरों की आवाज से डर नहीं लगता था। मगरिया उस पार बच्चों को जाखन का पानी उतरने की सलाह दे रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि सौरी के बुजूर्ग फिर से गश खा कर बेहोश हो जाएँ! सौरी के आसमान में फिर बच्चों की आवाज गूँज उठी - जाखन आ गई! जाखन आ गई!