जागता रहा अब्बास, सो रही है सरकार / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 18 दिसम्बर 2013
बुद्धिजीवी विष्णु खरे ने केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री श्री तिवारी को एक खत लिखा कि सात जून 2014 को ख्वाजा अहमद अब्बास की जन्म शताब्दी है और इत्तेफाक से लेखक कृष्णचंद्र की जन्म शताब्दी भी 28 नवंबर 2014 को है। इन दो लेखकों के जन्म शताब्दी वर्ष को पूरे देश में वर्षभर मनाया जाना चाहिए। यह दोनों ही लेखक प्रगतिवादी रहे हैं और फिल्मों से भी गहरे रूप से जुड़े हैं। अगर केंद्र सरकार अत्यंत व्यस्त है तो कम से कम हरियाणा की सरकार को ख्वाजा अहमद अब्बास की जन्म सदी वर्ष धूमधाम से मनानी चाहिए क्योंकि उनका जन्म पानीपत में हुआ था। गौरतलब यह है कि बीसवीं सदी के प्रारंभिक चरण में जन्मे बुद्धिजीवी सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय रहे और अपनी बात कहने के लिए उन्होंने सिनेमा की व्यापक पहुंच देखकर उसके साथ जुडऩे से कभी परहेज नहीं किया।
ख्वाजा अहमद अब्बास ने तो लगभग 68 किताबें लिखी हैं और अनेक दशकों तक ब्लिट्ज नामक अखबार के आखिरी पन्ने के लिए नियमित लेख लिखे हैं। उन्होंने दो दर्जन से अधिक पटकथाएं लिखी हैं और बतौर निर्माता निर्देशक भी अनेक फिल्मों की रचना की है। उनकी 'शहर और सपना' तथा 'दो बूंद पानी' को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है। उन्होंने 1946 में 'धरती का लाल' बनाई थी जिसका प्रदर्शन उस दौर में चल रहे हिन्दू-मुस्लिम दंगों के साथ व्यापक रूप से नहीं हो पाया। उनकी 'मुन्ना' भारत की पहली गीतविहीन फिल्म थी।
आज हम महिलाओं को लेकर चिंता जता रहे हैं और अब्बास साहब ने इस विषय पर 'ग्यारह हजार लड़कियां' नामक फिल्म छठे दशक में बनाई थी। अब्बास साहब ने पहली भारत-रूस सहयोग से बने 'परदेसी' नामक फिल्म बनाई है जिसका नायक एक रूसी नागरिक था।
तीसरे दशक में ख्वाजा अहमद अब्बास ने फिल्म समीक्षा में शांताराम की किसी फिल्म में दीवार के हिलने की बात लिखी तो शांताराम ने उन्हें फिल्म स्टूडियों में बुलाकर समझाया कि किस तरह ट्रॉली पर कैमरा रखकर ट्रेकिंग शॉट लिया जाता है। ज्ञातव्य है कि उस जमाने में जूम अर्थात पात्र के निकट जाने का प्रभाव उत्पन्न करने वाला लेंस भारत में प्रयुक्त मिचेल कैमरे से संभव नहीं था जो एरीफ्लैक्स के आने के बाद सातवें दशक में संभव हुआ। शांताराम का आशय था कि अब्बास स्टूडियो में फिल्मांकन देखें जो उन्हें फिल्म समीक्षा लिखने में सहायता करेगा।
ख्वाजा अहमद अब्बास की लिखी 'डॉ. कोटनीश की अमर कहानी' पर शांताराम ने फिल्म बनाई 'गुरू दक्षिणा ऐसे भी चुकाई जाती है'। ख्वाजा अहमद अब्बास ने उस दौर के शिखर फिल्मकार मेहबूब खान को अपनी पटकथा 'आवारा' केवल इसलिए नहीं बेची कि वे इसे पृथ्वीराज कपूर और दिलीप कुमार के साथ बनाना चाहते थे जबकि अब्बास को विश्वास था कि यथार्थ जीवन के पिता-पुत्र पृथ्वीराज और राजकपूर अभिनय करें तो भावनात्मक दृश्यों को अलग धार मिलेगी। राजकपूर ने 'आवारा' बनाई और उनका जीवन ही बदल गया।
ज्ञातव्य है कि राजकपूर की विचार प्रक्रिया पर पहला प्रभाव उनके पिता व पृथ्वी थियेटर का था तथा दूसरा प्रभाव ख्वाजा अहमद अब्बास के समाजवादी विचारों का रहा और उन्होंने अब्बास साहब की सात पटकथाओं पर फिल्में रचीं तथा अपनी अन्य लेखकों की फिल्मों में उनसे परामर्श लिया। अब्बास साहब की 'चार दिल चार राहें'में राजकपूर, मीना कुमारी, शम्मीकपूर, अजीत निम्मी इत्यादि अनेक सितारों ने काम किया था तथा वह भारत की बहु-सितारा फिल्म होते हुए भी अपनी रचनाधर्मिता में प्रयोगवादी फिल्म थी।
ख्वाजा अहमद अब्बास के ढेरों काम विविध क्षेत्रों में देखकर आश्चर्य होता है कि क्या यह एक व्यक्ति के लिए संभव है। अगर इस व्यक्ति ने इतना काम किया सो यह शायद कभी सोया ही नहीं, इसने कभी खाया -पिया भी नही। विगत तीन-चार दशकों में यह देखा गया है कि बुद्धिजीवी वर्ग ने समाज में सक्रिय भूमिका नहीं निभाई है, उन्होंने आम आदमी के जीवन पर सेकेंड हैंड जानकारी के आधार पर वैसा ही लिखा है जैसे पांच अंधे हाथी का वर्णन करते हैं। आज बुद्धिजीवी जमकर खाते हैं, खूब सोते हैं, प्रशंसा बटोरते हं और भूख से अनजान हैं। क्या कारण है कि आज के अधिकांश पढ़े-लिखे लोग समाज में फैलते सांप्रदायिकता के जहर पर खामोश हैं और फासिज्म का मौन समर्थन भी कर रहे हैं।