जागरण / सुप्रिया सिंह 'वीणा'
आज सुबह माँ के गाए भजन ने उसे विश्वास और प्रकाश से भर दिया। "अंतहि तो ही तजोगो पामर क्यों न तजो अबही ते।" कहते है जब जागो तभी सवेरा। वह आभा है उसकी रश्मियों में इतना तो प्रकाश है ही जिससे वह स्वयं को अँधेरे से निकाल सके. बिगत दो दिनों के मंथन में उसने अपना मार्ग चुन लिया।
सच पति के प्रेम और स्नेह की आकांशा ने ही उसे दीन और निर्बल बना दिया! हर बार वह निडर होकर डटे रहने का संकल्प ले कर ससुराल जाती है और महीना लगते ही नई मांग के साथ उसे वापिस भेज दिया जाता है। पुनः क़र्ज़ लेकर माता पिता उसका घर बसाने की कोशिश करते है। अगली बार वही कहानी दोहराई जाती है।
बेचैनी और ग्लानि से भर जाती है आभा! दुर्गति का अंतहीन सिलसिला आखिर कब तक? इस बीच चोरी छुपे मायके आकर पति का ढांढस बंधाना एक नया घाव दे जाता है। उसके एलान को खून का घुट-सा पीती है आभा-"मैं माता पिता के विरुद्ध नहीं बोलूंगा यह पाप है।" मन में हस्ती सोचती है-"हाँ मूक दर्शक बनना पुण्य का काम है।" उसके पिता ने ज़मीन बेच कर पढ़ा लिखा कमाऊ दामाद किया था बेटी के सुख के लिए सब बेकार।
आज उसने निर्णय कर लिया, अब अपनी अंतरात्मा और माता पिता को और कष्ट नहीं दूँगी। पति से साफ़ शब्दों में बात करुँगी-"हिम्मत है तो माता पिता के समक्ष मुझे अपनाओ या फिर हमेशा के लिए त्याग दो। जो इंसान पत्नी के इज्जत सम्मान की रक्षा नहीं करता उसे पति बनने का क्या अधिकार? अँधेरे में मुझसे सम्बन्ध बनाने का क्या औचित्य?"
"अब मैं किसी के तानो से डर कर घर में नहीं छुपुँगी। डट कर समाज का मुक़ाबला करुँगी। कल से ही छोटे बच्चों को पढ़ा कर समय का सदुपयोग और धनार्जन करुँगी जो खुद के पैरो पर खड़े होने की मांग है। अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी करुँगी जो सात फेरों में दब गई. मेरी ज़िन्दगी मेरी है इसको खुशियों से भरने का कार्य मैं स्वयं करुँगी। मैं कोई भिखारिन नहीं जो ख़ुशी के लिए हाथ फैलाती रहु और न कोई निर्जीव वस्तु जिसका उपयोग करके गोदाम में सुरक्षित रखा जाए और ज़रूरत पड़ने पर फिर उपयोग में लाया जाए."