जागर / सुकेश साहनी
बरसों बाद, उस रात मैंने जागते हुए सपने देखे।
सुबह उठा तो बाहर बहुत शोर-सा मालूम दिया। खिड़की से झांककर देखा-मेरे बहुत से साथी घर के बाहर जमा थे। बाहर आतेे ही उन्होंने मुझे घेर लिया। उनके मुखिया के मुझे खबरदार करते हुए कहा, "तुम इस तरह अलग नहीं हो सकते!" मैंने उन्हें शान्त किया और अपने सपनों के बारे में बताया। सुनकर एकबारगी वहाँ सन्नाटा छा गया, उनके चेहरों पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। उन्हें लगा, मुझे डाक्टर की ज़रूरत है।
जब डॉक्टर मेरी जांच करने लगा तो मैंने उसे रोका और अपने सपनों के बारे में विस्तार से बताया। पर उसे मेरे सपनों की भाषा समझ में नहीं आई जबकि उनकी भाषा वह बखूबी समझ रहा था। उसे लगा, मुझे गहरी नींद की ज़रूरत है।
नींद की गहरी झील को मैंने पलक झपकते ही पार कर लिया। वे साये की तरह मेरे पीछे लगे हुए थे। जब मैं सड़कों पर निकल पड़ा तो वे धैर्य खो बैठे। उन्हें लगा, मुझे मानसिक चिकित्सालय की ज़रूरत है।
पागलखाने में मेरे जैसे बहुत-से थे, पर रोगियों के साथ रहते-रहते उनके सपने फ्रीज हो गए थे। जैसे ही उन्होंने मेरी आँखों में झांका, उनके सपने सजीव हो उठे। बाहर वे डॉक्टरों के साथ मंत्रणा कर रहे थे, मुझे तनहाई की ज़रूरत है।
बार-बार शॉक दिए जाने से मेरा शरीर जर्जर हो गया था। सपने धुंधले, बदरंग और आधे-अधूरे दिखाई देने लगे थे। मैं जीवन की अंतिम सांसें ले रहा था। उन्हें लगा, अब मुझे किसी इलाज की ज़रूरत नहीं है।
मां की गोद में लेटा मैं सपने देखने में मगन था।
मेरे जन्मोत्सव में वे भी शामिल थे।
"बहुत मेधावी लगता है।" मुझे देखकर उनमें से एक बोला।
सुनकर मेरे होठों पर मुस्कान आ गई.
"देखो..." उनके मुखिया ने कहा, "पिछले जन्म की मीठी यादों में कैसे मुस्करा रहा है।"