जागो मोहन प्यारे, मत रहना अंखियों के सहारे / जयप्रकाश चौकसे

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जागो मोहन प्यारे, मत रहना अंखियों के सहारे
प्रकाशन तिथि : 14 दिसम्बर 2019


आज राज कपूर और शैलेंद्र जीवित होते तो उनकी आयु 95 व 96 वर्ष होती। उनका जन्म 1 वर्ष के अंतर से हुआ, परंतु समान नेहरू प्रेरित साम्यवादी आदर्श उन्हें एक ही सृजन मंच पर खड़ा करता है। राज कपूर और उनके सिनेमा पर रूस चीन तथा पश्चिम में कुछ किताबें लिखी गई हैं, जिनमें खाकसार की राजकमल द्वारा प्रकाशित 'राज कपूर : सृजन प्रक्रिया' भी शामिल है। बी.के. ग्लोबल पब्लिकेशन हरियाणा से इंद्रजीत सिंह द्वारा संपादित शैलेंद्र पर लेखों के संग्रह का दूसरा संस्करण भी जारी हो चुका है। धन्य हैं इंद्रजीत सिंह जिन्होंने नामवर सिंह, आचार्य विष्णु दत्त राकेश, रामविलास शर्मा, त्रिलोचन, निदा फ़ाज़ली, कमलेश्वर, फणीश्वर नाथ रेणु, मंगलेश डबराल जैसे महान लोगों से शैलेंद्र पर लेख लिखवाए। इस संकलन में शैलेंद्र के गैर फिल्मी गीतों का समावेश भी किया गया है। मसलन उनकी एक रचना इस तरह है- 'सुन भैया रहमू पाकिस्तान के, भुलवा पुकारे हिंदुस्तान से, दोनों के आंगन एक थे भैया, कजरी और सावन एक थे भैया, ओढ़न-पहरावन एक थे भैया, जोधा हम दोनों एक मैदान के, सुन भैया'। संपादक इंद्रजीत सिंह शैलेंद्र पर एक और संकलन प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं।

राज कपूर ने 25 वर्ष की वय में आरके स्टूडियो का निर्माण प्रारंभ किया। उन्हें यह आशंका थी कि अगर उनके पुत्र फिल्म निर्माण जारी नहीं रख पाए तो उनका स्टूडियो बिक जाएगा। उनकी इसी आशंका को मजरूह सुल्तानपुरी ने यूं बयान किया है- 'इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोल...। सब कुछ बेच दिया गया, पहले उनका सौ एकड़ का लोनी स्थित फार्म, फिर स्टूडियो और कुछ ही दिनों में उनका बंगला भी बिक जाएगा, परंतु उनके बोल के रूप में उनकी फिल्में दिखाई जाती रहेंगी। उनमें कुछ कालजयी फिल्में शामिल हैं।

उनकी 'आवारा' रूस में राष्ट्रीय फिल्म घोषित की गई, खाड़ी देशों और चीन में लोकप्रिय हुई। विगत वर्ष ही चीन से 'आवारा' के पुनः निर्माण का प्रस्ताव आया था, जिसमें ऋषि कपूर और उनके पुत्र रणबीर कपूर, पृथ्वीराज व राज कपूर की भूमिकाओं को अभिनीत करें। राज कपूर के सिनेमा को अमेरिका में 1982 में प्रदर्शित किया गया। ख्वाजा अहमद अब्बास, राज कपूर के सृजन की रीढ़ की हड्डी की तरह हैं। अब्बास साहब ने निकिता ख्रुश्चेव से पूछा था कि रूस में 'आवारा' की लोकप्रियता का कारण क्या हो सकता है? निकिता ने जवाब दिया था कि दूसरे विश्व युद्ध में अमेरिका ने साधन जुटाए, ब्रिटेन ने रणनीति रची, परंतु सबसे अधिक संख्या में रूस के सैनिक और नागरिक मारे गए। युद्ध के पश्चात रूस का आवाम अपनी सामूहिक स्मृति में युद्ध की त्रासदी की जुगाली ही कर रहा था। उन्हें उन कड़वी यादों से मुक्ति दिलाई फिल्म 'आवारा' के नायक ने जो गाता है- 'आवारा हूं, आवारा हूं, या गर्दिश में हूं आसमान का तारा हूं, घर-बार नहीं संसार नहीं, मुझसे किसी को प्यार नहीं, जख्मों से भरा सीना है मेरा, हंसती है मगर ये मस्त नजर...' बकौल निकिता राज कपूर की इस फिल्म और गीत ने रूस की अावाम को फिर मुस्कुराने और जमकर जीने के लिए प्रेरित किया। राज कपूर की 'मेरा नाम जोकर', 'कल आज और कल' असफल रहीं। स्टूडियो गिरवी रखना पड़ा, राज कपूर पर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा। ऐसे व्यक्ति के अवचेतन पर कितना गहरा अंधेरा छाया होगा, परंतु उसने आनंद से भरी 'बॉबी' फिल्म बनाई। बॉबी के दौर में रुपया सोलह आने के मूल्य का था। आज की तरह मुद्रा लावारिस और बेघर नहीं थी। उसका इतना अवमूल्यन और जग हंसाई नहीं हुई थी।

राज कपूर रबर की गेंद की तरह थे। असफलताएं उन्हें जितनी जोर से फेंकती, उतनी ही तेजी से उछलकर वापसी करते थे। उनकी 'आह' असफल हुई तो उन्होंने 'बूट पॉलिश' बनाई। राज कपूर के विचार के केंद्र में हमेशा आम आदमी रहा। अगर वे जीवित होते तो उन्हें आम आदमी का इस तरह पुरातन अफीम चाटकर व्यवस्था के पैरों पर पड़ जाना उचित नहीं लगता। वे उसे जगाने के लिए जागते रहो की तरह फिल्म बनाते और शैलेंद्र लिखते- किरण परी गगरी छलकाए, ज्योत का प्यासा प्यास बुझाए, मत रहना अंखियों के सहारे, जागो मोहन प्यारे...।