जाग उठी चुभन / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
जापानी काव्य संग्रह मान्योशू में सन् 347 से आठवीं शताब्दी तक की लगभग 4515 कविताएँ हैं, जिसमें 4207 ताँका 265 चोका, 61 सेदोका तथा बाकी अन्य रचनाएँ हैं। सेदोका का आधार हैं 5-7-7 के दो कतौता। कतौता अपने आप में अर्ध कविता है। दो कतौता मिलकर पूर्ण कविता बनते हैं। प्रथम भाग में जो कथ्य होता है, दूसरे भाग में एक अलग कोण से, अलग परिदृश्य में उसी बात की पुष्टि या प्रस्तुति रहती है। हिन्दी में 'अलसाई चाँदनी' (21 कवियों के 326 सेदोका, अगस्त-2012) इस क्षेत्र में पहला संग्रह है, जिसका सम्पादन डॉ-भावना कुँअर, डॉ-हरदीप सन्धु और मैंने किया था। इसी वर्ष डॉ-उर्मिला अग्रवाल 'बुलाता है कदम्ब' और देवेन्द्र नारायण दास के एकल संग्रह आए. डॉ-रमाकान्त श्रीवास्तव का सेदोका-संग्रह 'जीने का अर्थ' 2013 में, डॉ-सुधा गुप्ता का सेदोका-संग्रह 'सागर को रौंदने' सन् 2014 में प्रकाशित हुआ। सेदोका की आत्मा को समझे बगैर कुछ के संग्रह 2013 में छपे_ लेकिन वे अनुलोम-विलोम प्राणायाम से आगे नहीं बढ़े। किसी भी रचना का प्राणतत्त्व है-उसकी विषय वस्तु! किस वर्ष में छपा इसका विशेष महत्त्व नहीं। इसके शास्त्रीय पक्ष से अनभिज्ञ कुछ ने सेदोका के साथ भी खिलवाड़ शुरू करके उसका सेदोका गीत बनाना शुरू कर दिया है
डॉ.भावना कुँअर का हाइकु के क्षेत्र में पदार्पण नई पीढ़ी और अच्छे हाइकुकारों में एक ऐसे नाम का जुड़ना है, जिसने हिन्दी हाइकु को अपने संग्रहों 'तारों की चूनर' (2007, देशान्तर का पहला संग्रह) और 'धूप के खरगोश' (2012) से ऊँचाई प्रदान की। जापान की अन्य विधाओं ताँका-चोका और सेदोका के क्षेत्र में निरन्तर सृजनरत हैं। 'जाग उठी चुभन' इस दिशा में एक ऐतिहासिक महत्त्व का कार्य है। इनके सेदोका में यह चुभन विभिन्न रूपों में सामने आई है। दुनिया के सारे सम्बन्धों का सार है, विश्वास और प्रेम। प्रत्येक व्यक्ति का एक परिवेश होता है, जो उसके अवचेतन पर हावी रहता है। यही अवचेतन उसके लिए नेत्र का नहीं उपनेत्र या पूर्व निर्धारित धारणा का काम करता है। यही बिखराव का कारण है। अविश्वास मन में रखकर हम ट्रेन में भी सपफ़र नहीं कर सकते, हर समय आशंका बनी रहेगी कि कहीं ऐसा न हो कि आँख लग जाए और हमारा साथी ही सामान लेकर चम्पत हो जाए. जीवन के सपफ़र में यह आशंका जीवन को और भी कठिन और पेचीदा बना देती है। अविश्वास की ज़मीन में कभी प्रेम का अंकुर नहीं उगता। रिश्ते काँच-से भी ज़्यादा नाज़़ुक होते हैं, वहाँ अविश्वास के लिए स्थान नहीं है। अविश्वास या असावधानी से रिश्ते चूर-चूर हो जाते हैं। रीते मन के प्यालों को जोड़ने का मतलब है-भावशून्य सम्बन्धों को फिर से जोड़ना। परिणाम सीधा है, ऐसा प्रयास करने वालों को और अधिक घायल होना पड़ता है-
रिश्ते काँच-से / जरा ठसक लगी / चूर-चूर हो गए, / जोड़ना चाहा / रीते मन के प्याले / घायल हम हुए.
चाकू की नोक से पेड़ों पर नाम लिखने वालों की मानसिकता पर बहुत गहरी बात कही है। नाम रह जाते हैं _ लेकिन निष्प्राण नाम-
चाकू की नोक / पेड़ों के सीने पर / दे जाती कुछ नाम / ठहरा वक्त / पेड़ भी हैं, नाम भी / पर, जीवन है कहाँ?
प्रेम के नाम पर लूटने वाले यदि अपने ही हों, तो क्या किया जा सकता है! सेदोका का यह अंश देखिए-'लूटा सदा ही / अपनों ने हमको / करें क्या शिकायत!' दुःखों में मुस्कराकर जीने के अलावा और क्या उपाय बचता है! शक की चील अगर दिलो-दिमाग़ पर पंजे गड़ाकर बैठ जाए, तो प्यार से सँजोया गया घरौंदा भी मन का चैन छीन लेता है-
प्यार का घरौंदा / बड़े अरमानों से / बसाया था मैंने / शक की चील / पंजे गड़ा, आ बैठी / फिर कभी न उड़ी।
ये तथाकथित अपने जाने-अनजाने गहरे घाव देते रहते हैं। उनकी सारी संवेदना पथरा जाती है। वे निष्ठुरतापूर्वक ताकते रहकर और अधिक आहत करते हैं-
मेरे अपने / गर्म सलाइयाँ ले / मुझे दागते रहे / गहरे घाव / खाके, सुलगे हम / वह ताकते ही रहे।
'दर्द के दरिया में' जीवन के दर्द की तीव्रता प्रस्तुत की है। यह ऐसा दरिया है जिसका किसी को भी किनारा नहीं मिलता। फिर भी किसी के लिए मन में केवल दुआ ही रही, दुर्भावना नहीं।
उतरे हम / दर्द के दरिया में / किनारा मिला नहीं, / आँसू तो सूखे / दिल का बोझ बढ़ा / आहों में दुआ रही।
कुछ ऐसा अनहोना और घिनौना दर्द भी होता है, जो न कहा जाता है, न सहा जाता है। समझने पर वह कुण्ठा का आवेग बढ़ा जाता है। वैयक्तिक स्वतन्त्रता से वंचित करना पंख काटने जैसा है। परकटा पंछी सागर पार कैसे कर सकता है। उसके भाग्य में केवल विडम्बनाएँ ही बचती हैं।
समझा नहीं / घिनौनी हरकतें / मासूम बचपन, / कुंठा से घिरा / जिंदा तो रहा, पर / टूटा, बिखर गया।
भीगे हों पंख / धूप से माँग लूँ मैं / थोड़ी गर्मी उधार, / काटे हैं पंख / जीवन का सागर / कैसे करूँ मैं पार!
इस घुटन में मीत के गले लगना क्षणिक सुख दे जाता है। दूसरी ओर आज़ाद पंछी जैसा जीवन सीखचों में बन्द होने पर असहाय-सा हो जाता है। सुरीले गीत गाने वाले कण्ठ को शब्दों के बाण से बींधकर घायल कर दिया जाता है। दूसरों के मन का चैन छीनने वाले परपीड़ा से कभी प्रभावित नहीं होते-
उड़ती थी मैं / आजाद पंछी बन / क्यों छीन ली उड़ान / सुरीले गीत / बसते थे कण्ठ में / क्यों बींधे लेके बाण!
मन का चैन / वह छीनके मुस्काए / हम आँसू बहाएँ, / चेहरे पर वो / सुकूँ लिए घूमे हैं / हम सो भी न पाए.
'जागी उठी चुभन' बरसों से हृदय में चुभन बहुत गहराई तक उतर चुकी थी, उससे काव्य का रूप और निखर उठा है। कभी यह चुभन स्वयं को भी दोषी ठहराती है कि उसने अपने लिए निष्ठुर घराना खुद ही क्यों चुन लिया!
बरसों तक / सोई थी जो दिल में / जाग उठी चुभन / निखर गया / कविताओं का रूप / खिल गया चमन।
और एक सेदोका की ये अन्तिम तीन पंक्तियाँ-सूझी क्या मुझे / जो ढूँढकर लाई / निष्ठुर-सा घराना।
यदि शिकारी अपने ही हों, तो उनसे कोई कैसे बच सकता है! सुनहरे सपनों का बिखरना सबको आहत करता है। डॉ-भावना कुँअर के ये लयात्मक सेदोका अर्थ के बहुआयामी द्वार खोलते हैं। । सेदोका के शास्त्रीय पक्ष को इस उदाहरण से भली प्रकार समझा जा सकता है-
बचती फिरूँ / डरी, सहमी-सी मैं / हिरणी की तरह, / बना शिकारी / हमसप़फ़र मेरा / निशाने पर थी मैं।
पल भर में / टूटकर बिखरे / सुनहरे सपने, / किससे कहूँ / घायल हुआ मन / रूठे सभी अपने।
कोई प्रिय जैसे ही गहराई से मन को छू गया तो सोई हुई चुभन फिर से जाग उठी। यह सेदोका मन की पर्तों को एक-एक करके खोलता जाता है।
छू गया कोई / गहराई से मन / खुले सब बंधन / सोई पड़ी थी / बरसों से कहीं जो / जागी आज चुभन।
'गर्म है हवा' में जीवन और प्रकृति के वे सभी कारण मौजूद हैं, जो हमारे ही नहीं वरन् पूरे जीवन को दुःखद बनाते हैं-
गर्म है हवा / छीन ले गया कौन / ठंडे नीम की छाँव? / बसता था जो / साँसों में सबके ही / गुम हो गया गाँव।
बातें करती / सुनहरी चिड़िया / तितली, फूलों संग / खोजती अब / गए कहाँ वह पेड़ / कहाँ करेंगे सभा।
'प्रकृति, प्रेम रूठे' में रंग और खुशबू की पिटारी लेकर घूमती वासन्ती हवा है, तो कहीं धूप का छिड़काव करता सूरज है, दुआ देती पूरी प्रकृति है
सूरज फिरे / छिड़काव करता / यहाँ-वहाँ धूप का / देते दुआएँ / पेड़-पौधे औ पंछी / चेहरे खिल जाएँ।
रुह की तहों तक उतर कर प्रेम करने की तीव्रता, दिल की दहलीज को लाँघकर आया उनका ख्याल, मन की झील में कांकर फेंककर भागने वाला और पकड़ में न आने वाला पथिक प्यार को और तीव्र कर देते हैं। ये सेदोका उत्तम काव्य का श्रेष्ठ उदाहरण बन गए हैं-
प्यार जो करो / उतर जाओ तुम / रूह की तहों तक, / मिल जाएगा / अनमोल ख़ज़ाना / मोती-सा लकदक।
ख़्याल उनका / दिल की दहलीज़ / लाँघकर जो आया, / सूखा गुलाब / पन्नों से निकलके / खुशबू भर लाया।
मन की झील / शान्त थी बरसों से / कौन पथिक आया! / फेंक इसमें / प्रेम-काँकर, भागा / हाथ न लग पाया।
'छिनी नीम की छाँव' में नैसर्गिक जीवन के छिन जाने की व्यथा नीम के व्याज से आज का कृत्रिम जीवन सामने आ गया है।
खुशी से झूमें / कूलर और पंखे / छीन नीम की छाँव, / हो गए सूने / पोखर, पनघट / धँसी रेत में नाव।
अभावग्रस्त जीवन की सीली दीवारों से प्यार टपकता था, आज वह दुर्लभ हो गया है। भावना जी के सेदोका के छह अध्यायों के नाम मिलकर एक सेदोका बनाते हैं। वह सेदोका पूरे संग्रह की पीड़ा का शिलालेख बन जाता है-
रिश्ते काँच-से / दर्द के दरिया में / जाग उठी चुभन /
गर्म है हवा / प्रकृति, प्रेम रूठे / छिनी नीम की छाँव।
डॉ-सुधा गुप्ता के सेदोका संग्रह के बाद इसे दिल को छूने वाला संग्रह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं। देशान्तर के पहला संग्रह होने का गौरव भी 'जाग उठी चुभन' को दिया जाएगा।
-०-1 दिसम्बर, 2014