जातिगत झगड़े और हमारा भविष्य / सच्चिदानंद सिन्हा

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जाति व्यवस्था में पहले भी काफी कमियाँ थीं और आज के समानतावादी आदर्शों के दौर में तो यह एकदम ही अनुपयुक्त है। यह कहने से काम नहीं चलेगा कि भारत के लोग उँच-नीचवाली श्रेणीबद्धता के मूल्यों, जिसका जीवित रूप जाति व्यवस्था है, के साथ जिए हैं और उनको इसके साथ ही जीना चाहिए।

सच तो यही है कि मानव विकास के शुरुआती चरण में मौजूद अन्य अधिकंाश व्यवस्थाओं की तरह यह भी एक दमनकारी व्यवस्था थी और उन व्यवस्थाओं की तरह इसे भी विदा हो जाना चाहिए। लेकिन जब-जब इसे समाप्त करने की बात करते हैं तभी हमें अपने रास्ते में अनेक अकल्पनीय मुश्किलें उभरती दिखती हैं।

जाति व्यवस्था बहुत स्पष्टतया आर्थिक भूमिकाओं और पुरस्कार-दंड व्यवस्था से लैस एक उसी तरह का उत्पादक सम्बन्ध है जैसा कि पूँजीवाद में है या किसी हद तक सामन्तवाद में था। इसमें आर्थिक कामकाज और अच्छे काम का पुरस्कार तो जाति के आधार पर बँटता है पर यहाँ आर्थिक पक्ष पीछे रह जाता है। इस व्यवस्था के लोगों की हैसियत उनके भौतिक साधनों या कमाई से तय नहीं होती उन्हें अपनी जाति के हिसाब से खुद को ऊँचा या नीचा मानना होता है। इससे जाति को समाप्त करने का काम बहुत ही मुश्किल और जटिल बन जाता है।

अगर जाति व्यवस्था मुख्यत: आर्थिक सम्बन्ध वाली होती तो इसे समाप्त करना आर्थिक वर्गों को मिटाने जितना आसान होता। किसी एक वर्ग की भौतिक सम्पदा को दूसरा वर्ग ले या छीन सकता है, पुनर्वितरित कर सकता है। वेतन और कमाई के ढाँचे को पुनर्गठित करके कमाई को बराबर बनाया जा सकता है। सैद्धान्तिक रूप से तो यह चीज हरदम सम्भव है और जहाँ सम्पदा कुछ ही हाथों में सिमटी हो वहाँ पुनर्वितरण और भी आसान है। इसके लिए गरीबों को आन्दोलित करके आर्थिक नीतियों में बदलाव के लिए दबाव बनाने की जरूरत होती है। यह बहुत तार्विâक कार्य व्यापार है और जो चीजें छीनी जाती हैं वे बाहरी ही हैं जिनके रहने और न रहने से ही कोई समाज में अमीर या गरीब बनता है। यह बात गरीबों को लामबन्द करने तक जाती है, जिससे वांछित बदलाव किया जा सके। लेकिन जाति व्यवस्था एकदम ही अलग तरह की चीज है। यहाँ बड़ा और छोटा होने की मानसिकता ही असली फर्वâ लानेवाली चीज है। एक दरिद्र ब्राह्मण भी ‘छोटी’ जाति के लोगों के प्रति ठीक वैसा ही व्यवहार करेगा जैसा कि अमीर ब्राह्मण। बल्कि अमीर के पास तो अपनी श्रेष्ठता बताने का दूसरा तरीका भी है इसलिए गरीब ब्राह्मण उससे भी ज्यादा घटिया किस्म का व्यवहार करेगा, खुद को बड़ा बनाने का अधिक प्रयास करेगा। इससे ही हम जाति व्यवस्था में अमीरी और गरीबी वाले धु्रव को तलाशने के रास्ते में आनेवाली परेशानियों का अन्दाजा लगा सकते हैं। गरीब ब्राह्मण को (गरीब श्वेत की तरह ही) अपनी जातीय श्रेष्ठता का अहसास अमीर ब्राह्मण से भी ज्यादा होता है और वह ऐसे किसी आन्दोलन में हिस्सा नहीं लेगा जो उससे यह श्रेष्ठताबोध छीन ले। इसलिए जाति-नाश की लड़ाई के लिए की जाने वाली किसी भी कोशिश में सबसे पहले द्विज जातियाँ एकजुट हो जाती हैं और उस वक्त उनमें अमीर-गरीब का भेद भी नहीं रहता। तब पुरानी कबीलाई निष्ठाएँ जाग जाती हैं और जातियों के बीच फासले और गहरे हो जाते हैं। देश के अनेक हिस्सों में हाल में ठीक यही चीज हुई। पिछड़ी जातियों या हरिजनों को एकजुट करके जाति की लड़ाई लड़ने की हर कोशिश का उन जातियों ने एकजुट होकर जवाब दिया जिनके खिलाफ यह लड़ाई लड़ी जानी थी और अक्सर इस विवाद ने हिंसक रूप भी लिया। ऐसे टकरावों की समाजों में हुए कबीलाई टकरावों में कई तरह की समानताएँ हैं।

जाति संघर्ष और वर्ग संघर्ष में समानता मानते हुए जो लोग जाति संघर्ष का आह्वान करते हैं वे इन दोनों के बीच बुनियादी अन्तरों को भूल जाते हैं। वर्ग तो बाहरी सम्पत्ति के आधार पर बनते हैं जबकि जाति दिमाग के अन्दर बसे पूर्वाग्रहों, विशिष्ट पहचान और श्रेष्ठताबोध के आधार पर फलती-फूलती है। जातियों के बीच दुश्मनी या उग्रता का भाव इन पूर्वाग्रहों को और पुख्ता बनाता है और इनके बीच अलगाव बनाने वाली शक्तियों को ही मजबूत करता है। जब दो समूहों में टकराव हो तो सदा दोनों के बीच अन्तर पर ही जोर दिया जाता है। जातियों में जोर-दबर्दस्ती से बदलाव भी नहीं किया जा सकता जैसा कि कई बार धर्मान्तरण में हो जाता है। जातीय या नस्लवाली पहचान की तरह, जिससे जाति बहुत हद तक मेल भी खाती है, जाति की भावना साझा उत्पत्ति और विशिष्ट सामाजिक स्थिति के बोध में ही निहित होती है, जैसा कि कबीलों के मामले में होता है। अगर कोई जाति विभिन्न समूहों को मिलाकर बनती है तब भी उनके साझा पूर्वजों और जाति की शुद्धता के मिथक गढ़ लिए जाते हैं। और जाति चाहे ऊँची हो या नीची, सभी पर यह बात लागू होती है। इसलिए जब कोई व्यक्ति अपना धर्म बदल लेता है तब भी समूहवाली उसकी पहचान नहीं मरती। भारत में इसका एक अलग ही रूप देखने को मिला है और धर्म बदलने पर भी जाति वही बनी रहती है। इस्लाम और ईसाई जैसे मत भी, जिनमें समानता ही बुनियादी चीज है, जाति को दबा नहीं पाते। शेख और सय्यद जैसा उच्च जाति का मुसलमान मोमिनों

के यहाँ शादी करने की हामी नहीं भरेगा। केरल के ईसाइयों में भी ऐसा ही जातिगत बँटवारा है। वहाँ सीरियन ईसाई खुद को नायरों के बराबर और कई बार नम्बूदरी ब्राह्मणों के बराबर मानते हैं। वे आम तौर पर लैटिन ईसाई से शादी नहीं करते। ऐसी शादी नायरों द्वारा हरिजनों से शादी करना मानी जाएगी।

इस दुविधा या उलझन को देखते हुए जाति संघर्ष के पक्षधरों ने यह कोशिश भी कि आर्थिक प्रकृति की शिकायतों को भी जातिगत विभाजन के हिसाब से इकट्ठा करके पेश किया जाए। चूँकि जातिगत और वर्ग विभाजन हर मामले में साथ नहीं दिखते और आर्थिक समस्याओं के समाधान आर्थिक सुधार के रास्ते आते हैं, इसलिए यह तर्क भी दमदार नहीं बन पाया। पर एक नारे या युद्धघोष के तौर पर यह चीज चल पड़ी, पर इसमें हिटलर द्वारा जर्मनी के सारे मर्जों का कारण यहूदियों को बतानेवाले तर्क की झलक दिखाई देती है। यह सही है कि तब कुछ आर्थिक और बौद्धिक क्षेत्र में यहूदियों की प्रमुख भूमिका थी, लेकिन समाज के अगुवा की भूमिका में जर्मन भी थे और नेतृत्व में उनका ज्यादा ही बड़ा हिस्सा था। लेकिन भारी परेशानी झेल रहे और बलि का बकरा ढूँढ़ रहे लोगों के लिए हिटलर की इस बात के आगे प्रमाण लाने और विचारने की सुध नहीं थी। इसलिए व्यवस्था में सुधार करके अपने बदहाली दूर करने की जगह यहूदियों को मारने-समाप्त करने में ही समाज के सारे तनाव और कुंठा को निकलने दिया गया।

अगर जाति युद्ध को भी अपनी तार्विâक परिणति तक ले जाया गया तो यह भी उसी तरह के ‘समाधान’ पर पहुँचेगा। अपने सारे भौतिक संसाधनों से वंचित होकर भी उच्च जाति में जन्मा व्यक्ति इस अहसास को नहीं जाने देता कि वह फलाँ कुल में, फलाँ जाति में जन्मा है, इसलिए श्रेष्ठ है। ऐसे में किसी भी समूह को आलोचना का पात्र बनाते हुए वह तो अलग होगा ही, सभी उसके खिलाफ हो जाएँगे। और फिर जिन लोगों को यह सब झेलना पड़ेगा, निश्चित रूप से वे भी बदले की कार्रवाई करेंगे ही। और इस प्रकार बात बढ़ते-बढ़ते यहूदी दमनवाले दौर के गैस चैम्बरों और फाँसी के तख्तों तक पहुँच जाएगी। और असल में अधिकांश मामलों में किसी भी जाति के चुनिन्दा लोगों को छोड़कर किसी से भी कुछ ठोस भौतिक चीज पा सकने की स्थिति ही नहीं रहेगी। दूसरी ओर इस तरह सताए जाने से जातियों के पूर्वाग्रह और बढ़ेंगे - और जाति व्यवस्था की भी यही नींव है। हिटलर के साम्यवाद विरोधी आन्दोलन से उग्र जियोनिज्म वाली शक्तियों को ही बल मिला। इसी प्रकार जातीय संघर्ष और परिणामस्वरूप बड़ी जातियों के प्रति घृणा ऊँची जाति के लोगों में कट-मर जाने की भावना भरेगी। और यह चीज फिलिस्तीनी-यहूदी संघर्ष की तरह स्थायी युद्ध का रूप ले लेगी, बल्कि उससे भी बदतर क्योंकि यहाँ तो सिर्फ़ फिलिस्तीन और इजरायल बनाने से काम नहीं चलेगा। यदि अलग-अलग जातियों के मुल्क बँटे तो बँटने को जमीन ही न होगी। यदि सचमुच ऐसा हुआ तो हमारी जनता के लिए इससे बदतरस्थिति की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती।

ऊपरी तौर पर जिस लड़ाई को द्विज और शूद्र जातियों के बीच मान लिया जाता है वह गम्भीरता से देखने पर बहुत ही जटिल किस्म की जातीय लड़ाई में बदलती दिखती है। जातियाँ तीन मोटी श्रेणियों में बँटी हैं-१.द्विज, २.शूद्र, और ३.अछूत या जाति-बहिष्कृत। आज मध्य जातियाँ कही जाने वाली शूद्र जातियाँ अछूतों से द्विजों से भी ज्यादा दूरी महसूस करती हैं। शादी को छोड़कर द्विजों और इन मध्य जातियों के बीच हर तरह के सामाजिक सम्बन्ध अब आम हैं और मान्य हैं। लेकिन मध्य जातियों के लोग द्विज ब्राह्मणों की तरह ही अछूतों से दूरी रखते हैं। फिर इन तीनों मोटी श्रेणियों के अन्दर भी काफी गहरे बँटवारे हैं और यह दरार सिर्फ़ उसी वक्त नहीं दिखती जब एक समूह की जातियाँ दूसरे समूह की जातियों के खिलाफ कमर कसती हैं। ऐसे अवसरों पर एक व्यापक मोर्चा बनाने, एक दूसरे को गले लगाने (और इसमें कहीं भी आपसी अलगाव को भरने की मंशा नहीं रहती) की कोशिशें की जाती हैं। जब मोर्चे पर जानेवाली यह भावना समाप्त हो जाती है। तो हर जाति वापस अपने-अपने दायरे में चली जाती है और फिर आपसी नफरत और रंजिशें चलने लगती हैं।

इस विभाजन के भी तीन स्तर हैं--वर्ण के स्तर पर विभाजन, वर्णों के अन्दर जातिगत विभाजन और जातियों के अन्दर उप-जातियों वाले विभाजन। और किसी भी व्यक्ति की असली निष्ठा उसकी उपजाति में होती है। इसलिए जाति संघर्ष तार्विâक रूप से उपजातियों की छोटी-छोटी घेराबन्दी और फिर उनके गठजोड़-प्रतिगठजोड़ तक जाएगा। यह परिदृश्य काफी कुछ जंगल के कानून से चलते समाज का है- और फिर इन समूहों की संख्या इतनी ज्यादा होगी कि इसमें हिटलरवाला अन्तिम समाधान भी सम्भव नहीं रह जाएगा।

यह बात निश्चित नहीं है कि जाति युद्ध के पक्षधरों को अपने इस कथन की तार्किक परिणति का अन्दाजा होगा। अगर ऐसा हो तब भी इस ‘शार्ट कट’ उपाय के लाभ इतने हैं कि इससे वे अपनी आखों पर पट्टी बाँध लेते हैं। शिकायतों का सारा पुलिन्दा रखनेवाले भी अपनी करनी में दीर्घकालिक परिणामों की परवाह नहीं करते। वे तो बस सामने दिख रहे दुश्मन पर ही सारी परेशानी उतार देंगे। और हमारी भारतीय स्थितियों में सबसे स्पष्ट दुश्मन तो सामाजिक श्रेणी में एक पायदान ऊपर बैठा व्यक्ति ही है। इसमें कोई भेदभाव नहीं है और इस चीज को समर्थन मिलता भी रहा है। राजनीतिक खेल में जिन लोगों को बाकी मुद्दों को दरकिनार करके भावनात्मक समर्थन की दरकार होती है वे इन भेदभावों और बँटवारे का मसला छेड़ देते हैं और फिर उन्हें उन सभी लोगों के समर्थन का भरोसा हो जाता है जो इस तरह के बँटवारे या भेदभाव से खुद को त्रस्त मानते हैं। और दूसरा पक्ष भी शान्त नहीं रहता। उसकी तरफ से भी तत्काल और उतनी ही जोरदार गिरोहबन्दी होती है।

और फिर इस स्थिति का लाभ अपनी राजनीति चमकाने के लिए उठाने वाले ऐसे नेताओं की कोई कमी है ही नहीं जो ऐसे अवसरों की ताक में बैठे रहते हैं। इस प्रकार सत्ता का अपना खेल चलने लगता है जिसमें जाति सबसे लाभदायक उपकरण बन जाती है। सारे गड़े मुर्दे उखाड़कर भावनाएँ भड़काई जाती हैं। जैसा कि हमने पिछले दिनों देखा है कि आदमी-आदमी के बीच अन्तर की बात - जोकि जाति व्यवस्था की बुनियादी पहचान है -उस मानवीय संवेदना को ही नष्ट करने के लिए उठाई गई जो एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य पर किए जानेवाले जुल्म में एक सात्विक किस्म के रोष का काम करती है। इसी का परिणाम है कि अन्तर-जाति टकरावों में क्रूरतम उपाय अपनाए गए।

क्रूरता फूटने की ये वारदातें तब और डरावनी लगती हैं जब हम उस परिप्रेक्ष्य पर नजर डालते हैं जिसमें ये घटनाएँ हो रही हैं। यह किसी किस्म के अस्वाभाविक गुस्से या पागलपन का फूटना नहीं है जो समय के साथ ही विदा हो जाएगा। अगर हम आज की दुनिया पर नजर डालें तो पाएँगे कि इस तरह के व्यवहार आम चलन बनते जा रहे हैं, चाहे वह जातीय मसलें हों या क्षेत्रीय, धार्मिक विवाद हों या नस्लवादी। आतंकवाद वास्तविक या काल्पनिक अत्याचारों को दूर करने का, उनका बदला लेने का व्यापक तरीका बन गया है। अक्सर आतंक का शिकार एकदम निर्दोष और भले स्त्री-पुरूष बच्चे बनते हैं जिनके खिलाफ आतंकवादियों के मन में भी कोई गुस्सा नहीं होता। लेकिन वे आतंकवादियों के वास्तविक निशाने या ‘दुश्मन’ लोगों से किसी तरह जुड़े हो सकते हैं, उस इलाके में रहे या गए हो सकते हैं, उनको मारने से ‘दुश्मन’ किसी तरह प्रभावित हो सकता है। अब जैसे आतंकवादी विमान अपहृत करते हैं या स्कूलों पर बम फेंकते हैं तो ऐसा दुनिया का ध्यान खींचने या खास तरह का दबाव बनाने के लिए ही करते हैं। और इन सबमें सबसे बड़ी चिन्ता की बात है मनुष्य का बतौर मनुष्य मोल खत्म होते जाना। कोई व्यक्ति जिस समूह का हो वही केन्द्रीय बन जाता है और उसके लिए बाकी सारे लोग बाहरी हो जाते हैं। पर यह बाहरीपन या परायापन बाकी सभी को मनुष्य न मानने तक पहुँच जाता है और उनका उपयोग अपने लिए या अपने समूह के लिए करने में हर्ज नहीं लगता। पर इस स्थिति की विडम्बना है कि सारे समूह इसी तरह सोचते हैं।

आधुनिक युग के सैन्यवाद और युद्ध ने भी मानव जीवन के प्रति नजरिए में बदलाव किया है और उसका मोल घटाया है। इस तरह की लड़ाई में जान की परवाह तो रहती ही नहीं। यह सिर्फ़ सैनिकों के बीच सीमित नहीं रहती। इसमें आराम से आम आदमी को भी निशाना बनाया जाता है और नागरिक ठिकानों पर बमबारी करने में कोई हिचक नहीं रहती। यह बात जगजाहिर है कि सैनिकों को उकसाया जाता है, धन का लोभ देकर प्रोत्साहित किया जाता है कि वे आम लोगों का संहार करें, जिससे समझौता बातचीत में उनके पक्षवालों को अपना हाथ ऊपर रखने में मदद मिले। कहना न होगा कि लड़ने, मरने कटनेवाले और होते हैं और वातानुकूलित होटलों या सभागृहों में समझौता और शान्तिवार्ता करने वाले और। मोटे-थुलथुल राजनेताओं को अपनी नाक या मूँछ ऊपर रखने की चिन्ता रहती है। इस चीज की सभी निन्दा करते हैं। पर इन्हीं बातों को ध्यान में रखने और अपने मकसद को ही सबसे सही मानने के चलते जब फौजी या आतंकवादी बच्चों के स्कूल पर बम फेंकता है या किसी निर्दोष को निशाना बनाता है तो उसे कोई अपराधबोध नहीं होता। उसे नहीं लगता कि मरनेवाले ने किसी खास इलाके, खास कुल या नस्ल में जन्म लेकर क्या अपराध कर दिया है।

यह चीज पूरी दुनिया में हो रही है, हमारे कथित पिछड़े महादेश से लेकर गोरों की ईसाई भूमि या विकसित इलाके तक में। अरब, यहूदी, तुर्वâ, इतालवी, जर्मन, अमेरिकी, कोई भी नहीं बचा है जो एक ‘पवित्र’ उद्देश्य के लिए बम की दीक्षा लेने को गलत मानता हो। हर खेमा अपने उद्देश्य और पक्ष को एकदम सही मानता है और दूसरे के नजरिए या सोच के प्रति आँखें मूँदे रहता है, इसलिए इस टकराव में तब तक अन्त आता नजर नहीं आता जब तक हर समूह थोड़ी देर के लिए अपने पक्ष को भूलकर खुद को दूसरे की स्थिति में रखकर पूरी स्थिति पर पुनर्विचार न करे, सबको समान मनुष्य न माने और मानव जीवन को सर्वोच्च स्थान न दे।

इस पृष्ठभूमि में भारत में होने वाले जातीय टकराव उन सभी लोगों लिए चिन्ता का विषय बनने चाहिए जो मानव व्यवहार के सभ्य तौर-तरीाकें को बचाने की चिन्ता करते हों।

जब तक जातीय टकराव के पीछे की मानसिकता को समझने और अज्ञानता के चलते इन न्यस्त स्वार्थी तत्त्वों द्वारा उभारे गए टकराव के मुद्दों को दबाने का प्रयास नहीं किया जाता, हम भारी मुश्किल में पँâसेंगे ही। हम उसी ओर बढ़ते जा रहे हैं। जो लोग ऐसे टकराव से लाभ में रहेंगे या लाभ ले रहे हैं उन्हें भी यह सोचना होगा कि वे कहाँ जा रहे हैं और आज मिलनेवाले छोटे लाभ क्या कल उन्हीं को और पूरे समाज के लिए भारी नहीं पड़ेंगे।

जाति आधारित बिखराव इतना व्यापक है कि अगर लोग अपने आधिकारिक पद की जिम्मेदारियों की जगह जातिगत निष्ठाओं को रखने लगें तो कोई भी प्रशासन काम कर पाएगा? ऐसी स्थिति में व्यवस्था बैठ जाएगी। हाल में उभरे जातिवाद के नए दौर और टकरावों ने लोकतान्त्रिक संस्थाओं और प्रशासनिक कुशलता पर गम्भीर चोट की है। अगर नियुक्ति, पदस्थापन और तबादला, सभी में काबलियत और कामकाज को आधार बनाने की जगह व्यक्ति की जाति के आधार पर फ़ैसले लिए जाने लगें तो कोई भी प्रशासनिक व्यवस्था कैसे काम कर सकती है?

राजनीति आधुनिक समाज में एकता लानेवाली एक बड़ी शक्ति है, खासकर लोकतान्त्रिक राजनीति। आज का समाज भी पहले के किसी भी समाज से ज्यादा बिखरा हुआ है। पिछली शताब्दियों में लोगों की आवाजाही, दूरदराज के इलाकों तक धर्म के फ़ैलाव और परिवहन के बढ़ते साधनों ने अब हर मुल्क की एकरूपता या समरूपता को तोड़ा है। आज अधिकांश देशों में मिश्रित आबादी है जहाँ अलग-अलग जातीय समूहों, राष्ट्रीयताओं, धार्मिक मान्यताओं और भाषायी समूहों के लोग साथ-साथ रहते हैं। किसी भी आधुनिक मुल्क की राजनीति इन तरह-तरह के स्वार्थों को एक तार्विâक खाँचे में फिट करती है और इस खाँचे को बनाने में इस बात का खास ध्यान रखा जाता है कि कोई भी समूह खुद भी एकदम अलग-थलग महसूस न करे। और इसी विशेष चिन्ता के चलते समाज में एकता कायम की जाती है या बनती है। लेकिन इस भूमिका को निभा सकने में सक्षम होने के लिए राजनीतिक दलों को इस बात से बचना होता है कि वे किसी एक ही गैर-आर्थिक और गैर-तार्विâक समूह के साथ खुद को नत्थी न कर दें। अगर वे किसी एक समूह के साथ पूरी तरह जुड़ जाते हैं तो फिर देश में एकता बनाने की अपनी असली भूमिका नहीं निभा सकते। और अगर राजनीतिक दल ही ऐसे समूहों के अनुरूप खुद ही संगठित हों तो समाज की तरह राजनीतिक व्यवस्था भी बिखराव का शिकार हो जाएगी और समाज को एकजुट करने वाली कोई शक्ति ही नहीं रह जाएगी। ऐसी स्थिति में राजनीतिक समूहों का उद्देश्य परस्पर विरोधी हितों को आगे बढ़ाना होगा और अन्तत: राजनीतिक व्यवस्था में सिर्फ़ बड़े समूहों के पक्षधर ही बचेंगे और उस पर एक बड़े समूह की तानाशाही कायम हो जाएगी। यह तानाशाही जैसी स्थिति अन्य समूहों, खासकर छोटे समूहों की जरूरतों को नजरअन्दाज करेगी और ऐसे समूहों को दबाने का प्रयास भी करेगी। अगर प्रभुत्व की लड़ाई वाले समूहों की ताकत कमोबेश समान होगी तो धीरे-धीरे गृहयुद्ध की स्थिति आ जाएगी और अगर दूसरे समूह बहुत कमजोर हुए तो वे आतंकवाद का सहारा लेंगे। जातिगत भेदों या अन्तरों को बढ़ा-चढ़ाकर बताने और राजनीति में जाति का मुद्दा बनाने से लोकतान्त्रिक राजनीति का बंटाधार हो जाएगा। और इस चीज को न देख पाना सब कुछ जानकर आँखों पर पट्टी बाँध लेना ही होगा।

लेकिन यह सब कहने का यह मतलब भी नहीं निकाला जाना चाहिए कि सामाजिक अन्याय के लम्बे समय से पड़े मसलों पर ध्यान ही न दिया जाए। ऐसा करने से सम्भव है कि ये विवाद कुछ समय के लिए टल जाएँ पर इस बात की ज्यादा गुंजाइश हो जाती है कि बाद में ये और विस्फोटक रूप लेकर सामने आएँ। ऐसे में जरूरत है कि समस्या को किसी एक छोटे हिस्से की समस्या मानने की जगह पूरे समाज की समस्या मानकर सामाजिक न्याय के हिसाब से निपटाएँ। जातिगत पिछड़ेपन और अक्षमता के मसले को जब सामाजिक न्याय के नजरिए से सुलझाते हैं तब समाज को जोड़नेवाली शक्तियाँ ताकतवर होती हैं और समानता और निष्पक्षता जैसे कुछ बुनियादी मूल्यों के इर्द-गिर्द समाज के सभी समूहों को एकजुट करती हैं। इससे पुराने पूर्वाग्रहों को उभरने का अवसर नहीं मिलता। अगर यह समझ रहे कि क्या समस्या है तो जातिगत टकराव के अनेक जटिल और उलझे मसलों के भी अनेक समाधान निकाले जा सकते हैं निश्चित रूप से इससे उन लोगों को खास लाभ होगा जो सामाजिक रूप से वंचित रहे हैं और वे पहले की कमी को भी पूरा कर सकते हैं। लेकिन जहाँ तक सम्भव हो इसके साथ ही ऊपरी जाति के गरीब लोगों के लिए भी बदले में कुछ कदम उठाने होंगे जिससे किसी के मन में यह दुर्भावना न फ़ैले कि उन्हें बिना किसी उनकी गलती के ही सजा दी जा रही है या उनके साथ कोई भेदभाव हो रहा है। अधिकंाश मामलों में तो पिछड़े और खास कर दलित जातियों के लोग ही सबसे ज्यादा गरीब हैं। ऐसे में यह बेहतर विकल्प हो जाता है कि सिर्फ़ आर्थिक कदम उठाने की जगह पिछड़ी जातियों की आर्थिक स्थिति को बेहतर किया जाए। जातिगत भेदभाव दूर करने का यह तरीका किसी भी जाति में नाराजगी नहीं पैदा करेगा और जहाँ तक सम्भव हो इसे ही बढ़ावा दिया जाना चाहिए। अक्सर वंचित जाति के लोगों का अपमान उनकी दरिद्रता के चलते कई गुना बढ़ जाता है। दरिद्रता के चलते वे बहुत साफ-सुथरा नहीं रह पाते और फिर यही चीज बड़ी जातियों के लिए एक हथियार बन जाती है कि वे पिछड़ों को, दलितों को गन्दा बताकर अपने से दूर ही रखें। हाँ, अगर बड़ी जाति का आदमी साफ-सफाई नहीं रखता तो इस बात की अनदेखी कर दी जाती है। अगर पिछड़ी जातियों की दरिद्रता दूर कर दी जाए तो उनकी तरफ से नाक पेâरने का बहाना भी खत्म हो जाएगा।

हमने ऊपर कहा है कि राजनीति हमारे समय के मिश्रित समाजों में एकता पैदा करने वाली शक्ति के रूप में काम करती है। यह बात एकदम सही है। बशर्ते राजनीति निजी या एक छोटे समूह के लिए सत्ता पाने की मंशा से न की जाए। यह बात तभी सच होती है जब राजनीति समाज के वृहत्तर हितों का ख़याल रखती है और राजनीतिक दल कुछ बातों को न उठाने-छेड़ने पर सहमति रखें। उन्हें समाज को नुकसान पहुँचानेवाले वैसे क्षुद्र प्रयासों का मोह छोड़ना होगा। इन सबका सीधा-सा मतलब यह है कि राजनीति कायदे से चले, मूल्यों पर आधारित हो। इनके बिना तो राजनीति विखंडनवादी शक्तियों का उत्प्रेरक बन जाती है। और हर आधुनिक समाज में ऐसी शक्तियाँ दबी-छुपी रहती हैं। भारत में मर्यादित व्यवहार वाली राजनीति बहुत नहीं चली है। इसी चीज ने जातिवाद, सम्प्रदायवाद और हर किस्म के क्षेत्रवाद जैसी विभाजनकारी शक्तियों को आगे ला दिया है।

इस स्थिति से निकलने का रास्ता न बना पाने की हमारी अक्षमता राजनीति के सीमित नजरिए से भी आई है और यह तंग दृष्टिकोण पश्चिम के राजनीतिक सोच पर चलने के चलते बना है। हम जिस पश्चिमी सैद्धान्तिक ढाँचे के तहत चलते-सोचते रहे हैं उससे अपने समाज के आज के टकरावों और संघर्षों को सही प्ररिप्रेक्ष्य मे ंनहीं समझ सकते। पिछले डेढ़ सौ वर्ष की सभी प्रमुख राजनीतिक और समाजशास्त्रीय अवधारणाएँ यूरोप के अनुभव पर आधारित रही हैं जो काफी कुछ एक समान आबादी वाले देशों का समाज है। प्रमुख राजनीतिक, विचारक और समाजशास्त्री लोगों की जो मुख्य चिन्ताएँ रही हैं वे भी अलग-अलग पसन्द या सोचवाली रही हैं अर्थात् बाहरी कारकों से तय हुई हैं। माक्र्सवादियों के लिए पूँजीवाद के तहत उत्पादन और वितरण व्यवस्था की अराजकता चिन्तन का मुख्य मुद्दा थी और वे योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था की तार्विâकता लाकर इसे सुधारना चाहते थे। पश्चिमी समाजशास्त्र को बहुत ज्यादा प्रभावित करने वाले मैक्स वेबर के लिए जीवन और विचारों की पारम्परिक शैली की अतार्विâकता सबसे बड़ा मुद्दा थी और वे मानते थे कि समाज इस पर जीत हासिल करने और एक तार्विâक व्यवस्था लाने का प्रयास कर रहा है। वैसे तो पैराटो ने सामाजिक व्यवहार की अतार्विâकता पर जोर दिया पर यह अतार्विâकता भी समाज के अन्दर से आती थी और समाज की समानतावादी संस्कृति के चलते सीमित ही रहती थी।

इन सबने जिन प्रणालियों की बात की उनके मूल्यों में एक समानता थी। माक्र्स तक में प्रभावी वर्ग की विचारधारा, जिसमें उसके मूल्य भी समाहित थे, पूरे समाज की विचारधारा बन जाती है। जब एक नया वर्ग सत्ता हासिल करता है तो फिर उसके मूल्य सारे समाज के लिए सार्वजनिक बन जाते हैं।

दूसरी ओर हम आज के अधिकांश समाजों में यह स्थिति देखते हैं कि विभिन्न जातीय, धार्मिक और अन्य समूहों के अपने-अपने कुछ बुनियादी मूल्य, पहचान और निष्ठाएँ हैं जो पूरे समाज के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले मूल्यों के भी ऊपर गिनी जाने लगती हैं और इसमें भी और चिन्ता की बात यह है कि अगर विभिन्न समूहों के बीच बैर या उग्रता का भाव है तो गुटों के प्रति निष्ठा और तेजी से बढ़ती जाती है।

पश्चिम जगत में यही स्थिति तब थी जब सिकन्दर की विजयों के साथ यूनानी साम्राज्य विस्तृत होता गया था या जब रोमन साम्राज्य बहुत बड़ा हो गया था और अनेक मूूलों और विश्वासों वाले लोग एक ही राजनीतिक व्यवस्था की छतरी के नीचे आ गए थे। पहला साम्राज्य तो इतना लम्बा चला ही नहीं कि उसे अपने अन्दर के इतने तरह के लोगों को सँभालने के लिए पर्याप्त प्रणाली विकसित करने का अवसर मिलता। रोमन साम्राज्य में भी कोई समानतावादी दर्शन या आदर्श से तो काम नहीं हुआ पर वहाँ छोटे समूहों—जिन्हें बारबेरियन अर्थात् बर्बर और असभ्य माना जाता था—के विश्वासों और सन्देहों की परवाह किए बिना रोमन कानून लागू किए गए और उनके अनुरूप ही सबसे आचरण कराके शान्ति रखी गई। लेकिन साम्राज्य के बाद के दिनों में जब यही ‘बारबेरियन’ लोग साम्राज्य के कामकाज में प्रमुख भूमिका निभाने लगे तब पुरानी व्यवस्था गम्भीर दबावों में आ गई। लेकिन राजा और प्रजा सभी के ईसाई धर्म में दीक्षित हो जाने से राहत मिली और समाज अराजकता की गिरफ्त में आने से बच गया। इससे सशक्त कबीलों को अवसर मिला और उन्होंने अपने-अपने क्षेत्रीय राज्य स्थापित किए जिनमें काफी हद तक सामंजस्य और समानता रही। इसके बाद उनसे सम्बन्धित जो भी राजनीतिक व्यवस्थाएँ और विचार आए वे वैसे ही मुल्कों की शासन प्रणाली को ध्यान में रखकर विकसित हुए थे। यह वह पृष्ठभूमि हैं जिसमें राजनीतिक व्यवस्था की तार्विâकता का विचार फतवे जैसी हैसियत में आ गया। पर जब फासीवाद का उदय हुआ तब शीशे का यह महल चकनाचूर हो गया। तब यह लगने लगा कि समाज के अन्दर कुछ ऐसी बेलगाम शक्तियाँ भी सुप्तावस्था में पड़ी हैं जो जागकर लोगों के सिर पर जुनून की तरह छा सकती हैं। इससे यड के अध्ययन और मानव मन की अतार्किक शक्तियों के अध्ययन में दिलचस्पी जगी। लेकिन विश्वयुद्धों के बाद की समृद्धि ने लोगों को इन सभी चीजों को भुलाने की प्रेरणा दी। उसके बाद से ये चीजें जहाँ-तहाँ सिर उठा रही हैं लेकिन यूरोपीय लोगों की निश्चिन्तता में खलल नहीं डाल पातीं। इसलिए वे अभी भी सन्तुलन के अपने सिद्धान्तों के साथ ही चल रहे हैं, उन्हीं के लिए तर्क, कुतर्क और प्रमाण इकट्ठे करते जा रहे हैं।

दूसरी तरफ भारत अपने ऐतिहासिक दौर के शुरू से ही विभिन्न तरह के लोगों की विविधता को समेटकर एक शासन प्रणाली विकसित करने की जद्दोजहद में लगा रहा है। कुछ खास तरह से जाति व्यवस्था ने इस काम को एक हद तक पूरा भी किया है। लेकिन इसकी जड़ों में ही वैमनस्य के बीज पड़े हैं जो कुछ लोगों को श्रेष्ठ बताते हैं तो कुछ को नीच। लेकिन यह व्यवस्था दो ‘सेफ्टीवाल्वों’ के मौजूद होने के चलती रही। पहली चीज तो थी कठोर वैचारिक ढाँचे के बावजूद सत्ता या तलवार के जोर पर पिछड़ों के लिए अगड़ी पाँत में बैठने की गुंजाइश। यह तब हुआ जब किसी पिछड़े नायक ने हथियारों के बल पर अपना राज्य स्थापित किया और शासक जाति का दर्जा पा लिया। दूसरी चीज थी पूरी व्यवस्था द्वारा भौतिक सुखों का त्याग करने को मनुष्य का सबसे बड़ा उद्देश्य बताना। इस व्यवस्था के चलते समाज में सबसे ज्यादा सम्मान का हकदार वही हुआ जो सब कुछ त्याग दे - यह हिन्दू संन्यासी या बौद्ध भिक्खू ही हो सकता था। और सन्यासी या भिक्खू बनना हर किसी के लिए सम्भव न था, इसलिए निचले तबकों या जमातों में पैदा तनाव कभी भी पूरी व्यवस्था को ठप्प करने या बाधित करने की स्थिति तक नहीं पहुँचा।

एक वास्तविक समानतावादी समाज इससे भी ज्यादा प्रभावी ढंग से सामाजिक तनावों को दूर कर सकता है। भौतिक सम्पत्ति और दर्जे का मोल घटाना इसका सबसे आसान तरीका हो सकता है। क्योंकि इन्हीं के लिए व्यक्ति और समूह अन्ध प्रतिद्वन्द्विता करते हैं और इनको लेकर ही उनके अन्दर सबसे ज्यादा राग-द्वेष होता है। लेकिन जब तक जरूरतों पर अंकुश न लगाया जाए तब तक समानता के आदर्श को हासिल कर पाना सम्भव नहीं है। अत्यधिक सम्पत्ति का स्वामी बनने की भूख के साथ अगर जातिगत मूल्यों से पैदा हताशा को जोड़ लें तो भारत में जातियों के बीच टकराव को कौन टाल सकता है।

पिछले दिनों हुई घटनाएँ इस बड़ी आपदा की चेतावनी भर हैं। जातिगत सम्बन्धों में कोई तार्विâकता नहीं है, न हो सकती है। इसलिए खुद को बचाने का एकमात्र तरीका है कि हम अपने मूल्यों को बदलें और उन्हें अधिक-से-अधिक समानतावादी होने की तरफ मोड़ें। मूल्यों की बात करना राजनीति को उपदेश-कला बनाना लग सकता है। लेकिन अन्तिम विश्लेषण में भी राजनीति की वैधता तभी है जब वह तात्कालिक लक्ष्यों को लाँघकर ऊपर उठती है। राजनीतिक सत्ता पाने के लिए जरूरी जनमत जुटाने के काम में जुटे राजनेता भी हरदम ऐसी अपील करते हैं। पर इस पहलू पर गौर करना चाहिए कि यह अपील एक कबीलाई एकता के कुछ अन्तर्निहित भावों को छेड़कर उसे कौन-सी दिशा देती है। यह अक्सर एक समूह में दूसरे समूहों के प्रति विद्वेष भाव को उकसाती है। यह सार्वजनिक मूल्यों के प्रति विद्वेष पैदा करती है।

जब से विभिन्न जातीय या सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के लोगों का मेल-जोल होना शुरू हुआ है, तभी से पूरे समाज के लिए कोई ऐसी नैतिक शक्ति पैदा करने की कोशिशें चलती रही हैं तो सबके बीच एकता बनाए, उसे मजबूत करे। कबीलाई धर्म को सार्वजनिक धर्म में बदलना इस दिशा में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रयास है। बौद्ध, इस्लाम और ईसाई जैसे धर्मों ने लोगों में बन्धुत्व पर जोर दिया है। इन सभी धर्मों के बारे में यह खास बात है कि ये शुरुआत में ही समानतावादी रहे हैं। सभी मनुष्य भाई-भाई हैं, जैसी अवधारणा के साथ समानता की बात अनिवार्यत: जुड़ती है। जब तक भौतिक सुख-साधनों को ऊँचा स्थान मिलता रहेगा, मनुष्य का मोल उसी अनुपात में कम होता जाएगा, जिस अनुपात में कुछेक लोगों के हाथ में ही सम्पत्ति सिमटती जाएगी। पर भौतिक सुख-साधनों का लालच बहुत बड़ा है और इन्हें जमा करते जाने की मनुष्य की भूख ने महान धर्मों की तरफ से भी उसकी आँखों पर परदा डाल दिया। फिर जिन लोगों की धर्म में आस्था बनी रही वे थोड़े से ही रह गए। उन लोगों के मन में भी यह धारणा बैठ गई कि वे ईश्वर द्वारा चुने हुए लोग हैं और विशिष्ट हैं इसलिए उन्होंने अपने धर्म के ही थोड़े से लोगों के साथ बन्धुत्व रखते हुए छोटे-छोटे समूह बना लिए। इसलिए अब सभी धर्मों के अन्दर भी बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ लगाने मठ बनाने और भौतिक साधन जुटाने की होड़-सी लगी है।

समाजवाद ने भी उसी वक्त एक मत या अलग सम्प्रदाय का रूप ले लिया जब उपभोगवाद आर्थिक गतिविधियों के जाल में पूरे विश्व को समेट रहा था और इस प्रकार नए टकरावों की स्थिति पैदा कर रहा था। समाजवाद ने दुनिया के सारे वंचितों के एकजुट होने का आह्वान किया। पर इसकी शुरुआती तेजी को समाजवादी आन्दोलन के उन कुछ धड़ों ने ही भोथरा किया, जिन्होंने संग्रहशील (सम्पत्ति जमा करने वाला) समाज के उन मूल्यों को स्वीकार किया जिन पर कभी समाजवाद ने चोट करने की शुरूआत की थी।

जब असमानताएँ बहुत ही बड़ी हो जाती हैं तो लोग मतभेदों या अलगाव वाले कारकों की तलाश करते हैं। अक्सर उन मतभेदों को भी खोदकर निकाला जाता है जिन्हें काफी पहले दफना दिया गया होता है। क्योंकि अपने कष्टों के लिए दूसरों को जिम्मेवार ठहराने में इन मतभेदों या अन्तरों का सहारा आसानी से लिया जा सकता है। हैरानी की बात यह है कि व्यक्तिगत हितों को आगे बढ़ाने, सम्पत्ति जमा करने और अपनी हैसियत के अनुरूप समाज में जगह बनाने की होड़ वाले दौर में जिन अतार्विâक अपीलों और निष्ठाओं को मृत या समाप्त मान लिया गया था, अब अनौपचारिक रूप से सामने आ रही हैं।

आज दुनिया जिस रूप में है उसे देखते हुए नहीं लगता कि जब तक लोग अपनी आकांक्षाओं को नीचे लाने को तैयार नहीं होंगे, दूसरे लोगों की जरूरतों के अनुरूप अपने उपभोग की आदतों में बदलाव नहीं करेंगे तब तक ये पुराने पिशाच फिर से वापस डाल पर जाएँगे। जातिगत विभाजन के संदर्भ में यह बात अधिक दमदार रूप से हम पर भी लागू होती है। आज जो लोक सामाजिक दृष्टि से लाभ की स्थिति में हैं वे अगर बाकी लोगों को साथ लेने या उनको भी खपाने की भावना से काम नहीं करेंगे तो यह समस्या समाप्त होने वाली नहीं है।

जब तक हम यह जान और मान नहीं लेते कि आज विभिन्न जातियों में बँटे होने के बावजूद भारत के सभी लोग एक ही तरह के मूल वाले हैं, जो अलग-अलग तरफ से आकर एक बड़े समाज का हिस्सा बनते गये हैं, तब तक इस समस्या का समाधान संभव नहीं है।