जाति, वर्ग, टेक्नोलॉजी और आधुनिकता / रामशरण जोशी
भारतीय समाज की जाति-विशिष्टता के संबंध में देश के वामंपथी आंदोलन के दो प्रमुख नेताओं ने अपने जीवन काल के अंतिम चरण में एक महत्वपूर्ण स्वीकारोक्ति की थी। सीपीआई के इन्द्रजीत गुप्त और सीपीएम ज्योति बसु ने जाति-फ़ैक्टर को स्वीकारते हुए कहा था कि हम कम्युनिस्ट, वर्ग और श्रमिक आंदोलनों को अधिक महत्व देते रहे। इन्हें जाति व्यवस्था की तुलना में प्राथमिकता पर रखा, लेकिन भारतीय समाज के जाति-यथार्थ और इसके प्रभावों से इंकार नहीं किया जा सकता। कम्युनिस्टों को इस तरफ पर्याप्त ध्यान देना चाहिए था। संभवत: यह भूल रही। दोनों के जाति-संबंधी विचार पाक्षिक पत्रिका ‘फ्रंट लाइन’ में दिए गए उनके इंटरव्यू में व्यक्त हुए थे।
२१ वीं सदी में इन विचारों का उल्लेख इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि जिस दौर में हम जी रहे हैं वह ‘हाइटेक युग’ है। - उच्च प्रौद्योगिकी काल। डा. राममनोहर लोहिया ने जहां वर्ग गतिविज्ञान को समझा था, वहीं जाति–गतिविज्ञान (डायनामिक्स) को भी गहराई से देखा। नि:संदेह वैज्ञानिक प्रगति, उच्च तकनोलॉजी और आधुनिकीकरण के बावजूद भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक यथार्थ में जाति-फ़ैक्टर आज भी अपनी संपूर्ण मजबूती के साथ उपस्थित है। दूसरे शब्दों में उत्पादन-पद्धति और उत्पादन तकनोलॉजी में क्रांतिकारी परिवर्तन के बावजूद भारतीय उत्पादन संबंधों में जाति फ़ैक्टर यथावत गतिशील है। इसकी फ्रीक्वेंसी व गति में उतार-चढ़ाव जरूर है, लेकिन यह फ़ैक्टर निष्क्रिय हो चुका है, ऐसा निष्कर्ष अवैज्ञानिक व अयथार्थवादी होगा।
मार्क्सवाद कहता है कि उत्पादन-पद्धति में परिवर्तन के साथ-साथ कालांतर में उत्पादन संबंधों में भी बदलाव आएगा। लेकिन क्या भारत में ऐसा हो सका? सच्चाई यह है कि जाति आधारित अस्मिताएं पहले से अधिक उग्र व आक्रामक होती जा रही हैं। उन्नत उत्पादन तकनोलॉजी ने इन्हें नई शक्ति से लैस कर दिया है। उदाहरण के लिए ताजा गुर्जर आंदोलन को लें। इसी प्रकार जाटों के आरक्षण की मांग पर भी नजर डाली जा सकती है। विगत दो दशकों में पिछड़ी-जाति की अस्मिताओं का विस्फोट पहले ही हो चुका है। पिछले वर्षों में दलित जाति गतिविज्ञान में नया आयाम जुड़ा है। यह आयाम है ‘आक्रामक अस्मिता’ का। जिस प्रकार दक्षिण भारत के सामाजिक आंदोलनों ने वहां की पिछड़ी जातियों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्वायत्तता से संपन्न किया था, आज उत्तर भारत में उसी परिघटना का उदय हुआ है। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश और राजस्थान के घटनाक्रम इसकी गवाही दे सकते हैं। इन क्षेत्रों में नये जाति-अंतर्विरोध उभर रहे हैं। दलित अस्मिता और पिछड़ा वर्ग अस्मिता के बीच नए संघर्ष बिंदु उभर रहे हैं। इसकी वजह यह है कि ग्रामीण उत्तर भारत में ऊंची जातियां धीरे-धीरे या तो शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन कर रही हैं या स्थानीय सत्ता तंत्र में प्रभाव की दृष्टि से गौण होती जा रही है। पारम्परिक नेतृत्व की शून्यता पैदा हो रही है। इस शून्यता को पाटने के लिए दलित अस्मिता और पिछड़ा वर्ग अस्मिता के मध्य बहुआयामी प्रतिस्पर्धा या कहिए संघर्ष की स्थिति पैदा हो रही है। इस नई स्थिति ने जातिगत अस्मिताओं और आंतरिक संरचनात्मक एकजुटता को नई शक्ति प्रदान की है। परिणामस्वरूप जाति-युक्त वर्ग का अस्तित्व बाधित हो रहा है। यद्यपि जाति-समुदाय के भीतर आर्थिक वर्ग अवश्य है। इसमें वर्गीय एकता भी है, लेकिन जाति से बाहर ‘वर्ग स्वायत्तता’ नहीं है। इस वर्ग स्वायत्तता की अनुपस्थिति में जाति-अस्तित्व सुरक्षित व सुदृढ़ रहता है।
इस परिप्रेक्ष्य में खाप-पंचायत की आक्रामकता को समझना होगा। यह अकारण नहीं है कि हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और अन्य क्षेत्रों में ‘खाप पंचायत’ के वर्चस्व का हठात उभार हुआ है। इन क्षेत्रों का तेजी से आधुनिकीकरण हुआ है, उच्च तकनोलॉजी रिस-रिसकर पहुंच रही है, संचार माध्यमों की पहुंच बढ़ी है, कृषि का ट्रैक्टरीकरण हुआ है, आधुनिक जीव-विज्ञान पहुंचने लगा है। इन तमाम नए एक्सपोजरों के बावजूद खाप पंचायत का अस्तित्व सुरक्षित ही नहीं है, आक्रामक भी है। खाप पंचायतें लोकतांत्रिक संस्थाओं व प्रणालियों को ललकार भी रही हैं। कोई भी राजनीतिक दल इनके खिलाफ निर्णायक भूमिका लेने के लिए तैयार नहीं है क्योंकि सभी चुनाव के दौरान ‘जाति बैकलेश’ से भयभीत रहते हैं। इसका सीधा अर्थ यह है कि जाति लोकतंत्र और आधुनिकता, दोनों पर ही भारी पड़ रही है।
कभी गौर से पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाले वैवाहिक विज्ञापनों को देखिए और उनका विश्लेषण कीजिए।आप देखेंगे ९५³ से अधिक विज्ञापनों में समान जाति के वर-वधुओं की मांग रहेगी। ये मांग उन परिवारों से होगी जो कि आर्थिक व शिक्षा की दृष्टि से उच्च होंगे। इतना ही नहीं, विज्ञापनों में वर-वधुओं की शैक्षणिक उपलब्धियों-उपाधियों व स्टेटस का विधिवत उल्लेख रहेगा। इसके साथ ही जाति-बंधन का आग्रह भी रहेगा। अब तो जाति के साथ-साथ उपजाति का भी वर्णन व आग्रह होने लगा है। अर्थ यह निकला कि जाति के भीतर उपजातियों की अस्मिताएं उभरने लगी हैं। उपजातियों का अस्तित्व जाति-संसार व जाति, अस्मिता को सुरक्षित ही नहीं रख रहा है, बल्कि इसके नये अवतारों को भी जन्म दे रहा है। ये अवतार स्वस्थ वर्ग रचना की प्रक्रिया को अवरूद्ध और जाति के जहरीले प्रभावों का दायरा चौड़ा कर रहे हैं। इन प्रभावों का जातिगत वैवाहिक संबंधों में प्रतिबिंबन देखा जा सकता है। यहां तक कि प्रगतिशील, जनवादी, समाजवादी और वामपंथी होने का दंभ भरने वाले लेखक बुद्धिजीवी भी जातिगत खोल से मुक्त नहीं हो पाते हैं। वे भी विवाह के मामले में अपनी जाति में ही ‘शरण’ तलाशते हैं। इससे भारतीय समाज पर जाति-जकड़न का पता चलता है।
वास्तव में भारत में एक स्वतंत्र व स्वायत्त वर्ग का उदय नहीं हो पा रहा है। इसका मूल कारण यह है कि जाति को वर्ग से ‘डीलिंक’ नहीं किया जा रहा है। जब तक वर्ग को जाति आधारों व पृष्ठभूमि से ‘डीलिंक’ नहीं किया जाएगा तब तक स्वस्थ लोकतंत्र, प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति भी अस्तित्व में नहीं आएगी। वैसे तो जातिगत और वर्गगत, दोनों प्रकार के लोकतंत्र गलत हैं। लोकतंत्र समानता आधारित नागरिकता पर टिका होना चाहिए। फिर भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जाति की तुलना में वर्ग निश्चित ही एक प्रगतिशील व विकसित चरण है। जाति और वर्ग का ‘संबंध विच्छेद’ कैसे किया जाए यह चिंतकों और राजनीतिक नेतृत्व के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है। माक्र्सवादी भी इसका अभी तक कोई माकूल समाधान नहीं निकाल पाए हैं। वे ‘वर्ग डायनमिक्स’ में तो माहिर हैं, लेकिन कास्ट डायनमिक्स के भिन्न होते हुए भी उन्होंने इसे विचारधारात्मक पूर्वाग्रहों के कारण न तो स्वीकार किया और न ही विकसित किया। यही बात गैर-माक्र्सवादी समाजवादी चिंतकों पर लागू होती है। उन्होंने ‘जाति-तोड़ो’ पर तो बल दिया, लेकिन ‘स्वायत्त वर्ग-निर्माण’ प्रक्रिया के प्रति उदासीनता दिखाई।
अब हमें खुले दिमाग से स्वीकार करना चाहिए कि भारतीय सामाजिक यथार्थ में ‘जाति और वर्ग’ स्वत: ‘को-टर्मिनस’ या ‘स-अन्त’ प्रक्रिया नहीं है। अत: इसे ‘राज्य हस्तक्षेप’ के साथ-साथ सामाजिक आंदोलन, ‘आत्मचेतना’ और स्वप्रयास से ही समाप्त किया जा सकता है। इसके लिए ‘वैज्ञानिक मानस’ (साइंटिफिक टेंपर) होना जरूरी है। जब तक इन दोनों को परस्पर ‘डी-लिंक’ नहीं किया जाएगा तब तक एक जेनुइन आधुनिक भारतीय समाज का निर्माण का प्रोजेक्ट अधूरा रहेगा, बल्कि आधुनिकता भी छद्म किस्म की रहेगी। इसके साथ ही स्वस्थ भारतीय नागरिक भी अस्तित्व में नहीं आ सकेगा। अत: यह आवश्यक है कि उत्पादन-संबंधों को जाति से मुक्त कर सिर्फ़ आर्थिक आधारों से जोडें। उनका समाज में स्वतंत्र आर्थिक अस्तित्व हो। समाज में व्यक्ति का स्थान निर्धारण उसकी जाति-पृष्ठभूमि के बजाए उसकी आर्थिक पृष्ठभूमि पर रहे। बेशक इस पृष्ठभूमि को व्यक्ति के प्रोपेâशन से शक्ति प्राप्त होगी न कि जन्मगत जाति व्यवस्था से। संक्षेप में वर्ग के संसार में जाति का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। उसका प्रवेश निषेध होना चाहिए, लेकिन यह तभी संभव है जब जाति व्यवस्था को पूरी तरह से निष्प्रभावी बना दिया जाए।
वास्तव में जाति को उत्पादन पद्धति और तकनोलॉजी से भी ‘डी-लिंक’ करने की जरूरत है। यह रिश्ता अजीब लग सकता है, लेकिन भारतीय समाज विशेष रूप से ग्रामीण समाज का यह कड़वा व घातक यथार्थ है। परंपरागत रूप से उत्पादन साधनों और उत्पादन-परिणामों पर ऊँची जातियों का आधिपत्य रहा है जब कि श्रम करने की नियति निचली जातियों की रही है। दलित, आदिवासी और निम्न मझौली जातियां श्रम करती रहीं हैं और इसका फल ऊंची जातियाँ भोगती रही हैं। ग्रामीण भारत की कृषि-श्रम शक्ति और दस्तकारी (लुहार, बढ़ई, रंगरेज, मोची, मैला ढोनेवाला आदि) के आधार कौन रहे हैं? नि:संदेह विशाल सीमांत समाज (दलित, पिछडे़ आदि)। लेकिन क्या इस समाज का उत्पादन-साधनों और उत्पादन परिणामों पर भी अधिकार रहा? जवाब है, कतई नहीं। यहीं से अंतर्विरोध पैदा हो जाता है, वर्ग जाति का स्थान नहीं ले पाता है। वह जाति को तोड़ नहीं पाता है। इस संबंध में चंद निजी अनुभवों का यहां उल्लेख कर रहा हूँ।
१९७७-७९ के दौरान मैं देश के प्रथम राष्ट्रीय बंधक श्रमिक सर्वेक्षण से जुड़ा हुआ था। इस सिलसिले में देश के विभिन्न जिलों के ग्रामीण क्षेत्रों में शिविरों का आयोजन भी करना पड़ता था। सर्वेक्षण के नतीजों ने बतलाया कि ९९ प्रतिशत बंधक श्रमिक आदिवासी, दलित, पिछड़ी जातियों और निचले तबके के मुसलमानों से संबद्ध हैं। अपवाद स्वरूप कोई सवर्ण रहा होगा। यह अध्ययन दर्शाता है कि उत्पादन-साधन, उत्पादन-स्वामित्व और उत्पादन-श्रम जाति आधारित हैं। इस व्यवस्था से जातिगत वर्ग का निर्माण तो होता है, न कि स्वतंत्र आर्थिक वर्ग का। यह बड़ा ही जटिल परिदृश्य है।
मैं पिछले वर्ष कुछ महीनों के लिए एक निजी शिक्षण संस्थान में पत्रकारिता पढ़ा रहा था। कुछ सप्ताह बीतने के पश्चात एक रोज मेरी एक युवा सहयोगी अपनी मूल पहचान बतलाती है। चूंकि मेरे विचारों से विभाग के सभी लोग परिचित थे। शिक्षिका जानती थी कि मैं ‘वर्ग’ (क्लास) को मान्यता देता हूँ, जाति में मेरा विश्वास नहीं है। ऊंची जाति के शिक्षक इससे दु:खी भी रहते थे। अत: उक्त युवा सहयोगी काफी संकोच के पश्चात मुझसे कहती है ‘सर मैं आपसे अपने परिवार के बारे में कुछ महत्वपूर्ण जानकारी शेयर करना चाहती हूँ, लेकिन एक ही निवेदन है कि आप इसे अन्य शिक्षकों से नहीं कहेंगें। यदि आप कहेंगे तो मैं उनकी निगाहों में छोटी हो जाऊंगी। वे मुझे सम्मान की दृष्टि से नहीं देखेंगे। मेरे प्रति दयाभाव दिखलाएंगे या दिल में घृणा करेंगे।
‘सर ! मैं उंची जाति से नहीं हूं। मेरा जाति सूचक उपनाम जरूर ऊंची जाति (संभवत: कायस्थ) का आभास देता है लेकिन मैं एस.सी. (अनुसूचित जाति) हूँ, दलित परिवार से हूूं। मैं अपनी योग्यता के बल पर यहां तक पहुंची हूं, जाति की कृपा से नहीं। मैं इस विभाग में सम्मान के साथ काम करना चाहती हूं। यदि साथियों को यह मालूम हो गया कि मैं दलित पृष्ठभूमि से हूं तो उनका व्यवहार बदल जाएगा। आप प्रगतिशील हैं इसलिए विश्वास में लेकर मैं आपसे यह जानकारी शेयर कर रही हूं।
मैं दलित युवा लेक्चरर की बात सुनकर कांप-सा गया। हमने कैसा भारत बनाया है?
क्या हम ऐसा नागरिक बनना चाहते हैं जो अपनी पहचान बताने से भयभीत रहता है? क्या उसे समाज में सम्मान व गरिमा के साथ जीने कें लिए ऊंची जाति का होना आवश्यक है? यदि ऐसा है तो वह स्वयं को भारतीय राष्ट्र राज्य का एक अभिन्न हिस्सा कैसे महसूस कर सकता है? पत्रकारिता की यह शिक्षिका प्रत्येक दृष्टि से सक्षम थी, एक अच्छी प्राध्यापिका होने के साथ-साथ उसमें विभाग के संचालन के गुण भी थे। मीडिया और विद्यार्थियों में वह खासी लोकप्रिय थी, भाषा पर अधिकार था, पीएच.डी. कर चुकी थी। इन तमाम खूबियों के बावजूद वह जाति को लेकर कुंठाग्रस्त रहती थी। ‘काश! मैं उँâची जाति में पैदा होती। ’ यह भाव उसे निरंतर दबोचता होगा।
आखिर क्या उसे इस कुंठा, इस भाव के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? मैं समझता हूं बिल्कुल नहीं क्योंकि यह भाव समाज सापेक्ष है। इसका सीधा संबंध राज-व्यवस्था से भी है, क्योंकि विगत ६ दशकों में हमारे राज्य नियंता या शासक वर्ग या ‘रूलिंग इलीट’ जातिमुक्त नागरिकता व वर्गीय चेतना का एहसास राष्ट्रीय जीवन में पैदा करने में नाकाम रहे हैं। वर्ग की दृष्टि से देखें तो यह युवती एक ‘स्वतंत्र शिक्षक वर्ग’ में प्रवेश का चुकी है, लेकिन जाति-पृष्ठभूमि की जकड़न से यह अभी तक स्वतंत्र नहीं है क्योंकि पारम्परिक भारत में बौद्धिकता या बौद्धिक तकनोलॉजी या बौद्धिक कर्मों व संस्थाओं पर ऊंची जातियों का एकािधकार रहा है। क्या कभी किसी पंडित, ठाकुर, वैश्य, कायस्थ, खत्री आदि को यह कहते हुए सुना है कि उनके पूर्वज मैला ढौते थे या चर्मकार थे? क्या ओमप्रकाश वाल्मीकि (जूठन), डा. तुलसीराम (मुर्दहिया), श्योराज सिंह बेचैन, सूरजपाल सिंह चौहान जैसे दलित लेखकों की आत्मकथाओं में पढ़ने को यह मिलता है कि उनके माता-पिता पूजापाठ कराया करते थे? या व्यापार करते थे? या क्षत्रिय कर्म से जुड़े थे? भारत के भीतर बहिष्कृत भारत का प्रतिनिधित्व इनकी रचनाएं करती हैं। अत: उत्पादन संबंध, उत्पादन साधन और तकनोलॉजी को जाति सापेक्षता के परिप्रेक्ष्य में भी देखनेसमझने की जरूरत है। इससे जाति और वर्ग के संबंध तथा परस्पर आश्रिता स्वत: स्पष्ट हो जाएंगे।
इस परिदृश्य में ‘जाति-तोड़ो’ आंदोलन की सफलता और जाति मुक्त समाज व्यवस्था का निर्माण तभी सुनिश्चित हो सकते हैं जब स्वायत्तता-सम्पन्न वर्ग अस्तित्व में आयें। भारत में ‘वर्ग संघर्ष’ भी इसलिए गति नहीं पकड़ सका क्योंकि जातियों और उपजातियों की बेड़ियों ने इसे जकड़ रखा है। यह जातिवाद की ‘डायनामिक्स’ से नियंत्रित होता है। यह डायनामिक्स अन्य कारकों को भी प्रभावित करती है। इन कारकों में आर्थक राजनीतिक तंत्र और तकनोलाँजी भी शामिल है। समाज चिंतकों और समाज परिवर्तनकर्मियों से तकाजा है कि वे ऐतिहासिक यथार्थ एवं अनुभवों के मद्देनजर बदलाव के नये औजारों को विकसित करें।