जाति का उन्मूलन / भीमराव आम्बेडकर
मित्रो,
जात-पांत तोड़क मंडल के जिन सदस्यों ने कृपापूर्वक मुझे इस सम्मेलन का सभापति चुना है, मुझे चिंता है, उन लोगों से मेरे चुनाव के संबंध में अनेकों प्रश्न किए जाएँगे। उनसे पूछा जा सकता है, क्या लाहौर में कोई योग्य पुरुष नहीं था जो सभापति चुनने के लिए बंबई दौड़ गए? मैं हिन्दू धर्म का आलोचक हूँ, मैंने महात्मा जी के सिद्धांतों की भी, जिन पर हिंदुओं की श्रद्धा है, आलोचना की है, जिससे वे मुझे अपनी वाटिका का सर्प समझते हैं। मैं समझता हूँ, शायद राजनीतिक हिंदू भी मंडल से जवाब तलब करेंगे कि उसने इस आदणीय पद के लिए मुझे चुनकर हिन्दुओं का अपमान क्यों किया। सामान्य हिन्दुओं को तो यह पसंद नहीं आएगा, क्योंकि सवर्ण हिन्ंदुओं की सभा में संबोधन के लिए एक अंत्यज का चुना जाना शास्त्रीय मर्यादा को भंग करना है। अंत्यज कितना ही अनुभवी क्यों न हो, शास्त्र उसे ‘उपदेष्टा’ स्वीकार करने की आज्ञा नहीं दे सकते। शास्त्रानुसार ब्राह्मण ही तीनों वर्णों का उपदेष्टा और गुरू है। हिन्दू राज्य के संस्थापक शिवाजी के गुरू संत रामदास जी ने अपने मराठी ग्रंथ ‘दासबोध’ में हिदुओं से प्रश्न किया है कि क्या तुम किसी अंत्यज को, जो तुम्हारे सभी प्रश्नों का उत्तर दे सकता है, अपना गुरू स्वीकार कर सकते हो? यही प्रश्न यदि मैं करूँ, तो मंडल के पास इसका क्या उत्तर होगा? उस कारण को तो मंडल ही जानता है, जिसने उसे बंबई भेजा और जिसने उसे मेरे जैसे व्यक्ति को, जो हिंदू धर्म का इतना विरोधी और अंत्यज है, मर्यादा के विरूद्ध सवर्ण हिन्दुओं का संबोधन करने के लिए सभापति चुना।
अपने संबंध में मैं आपसे यह कहने की अनुमति चाहता हूँ कि मैंने आपके निमंत्रण को अपनी एवं अपने अछूत साथियों की इच्छा से स्वीकार नहीं किया। मैं जानता हूँ, हिन्दू मुझसे और मेरे भाइयों से घृणा करते हैं, इसीलिए मैंने सदा अपने को उनसे अलग रखा और अपने विचारों का प्रकाश अपने प्लेटफार्म पर करता रहा। हिंदुओं के प्लेटफार्म पर अपनी बातें सुना कर अपने को उनके ऊपर रखने की मैंने कभी इच्छा नहीं की। यहाँ भी मैं अपनी इच्छा से नहीं, आपके चुनाव से आया हूँ। मैंने इससे इन्कार करना इसलिए उचित नहीं
समझा, क्योंकि मुझे बताया गया कि इस सम्मेलन का उद्देश्य सामाजिक सुधार है, और समाज-सुधार एक ऐसा विषय है जिससे मुझे मोह है- विशेषत: उस दशा में, जबकि आप समझते हों कि इस काम में मैं आपकी कुछ सहायता कर सकता हूँ। यह आपके न्याय पर निर्भर है कि मैं यहाँ जो कुछ कहना चाहता हूँ, उसे समस्या के हल के लिए आप कहाँ तक ग्रहण कर सकेंगे।
इस प्राक्कथन के साथ अब मैं मुख्य विषय पर अपने विचार आपके सामने रखने की अनुमति चाहता हूँ।
कांग्रेस और समाज सुधार
भारत में समाज सुधार का काम निर्वाण-प्राप्ति के मार्ग के समान अनेक कठिनाइयों से पूर्ण हैं। कारण, भारत में समाज सुधार के मित्र थोड़े और शत्रु बहुत अधिक हैं। इंडियन नेशनल कांग्रेस देश की सबसे बड़ी संस्था है, किन्तु समाज सुधार के साथ उसका व्यवहार कैसा रहा है, पहले इसी पर नजर डालिए।
पश्चिमी विद्वानों के संपर्वâ में जब यह देश आया, तो लोग मानने लगे कि कुरीतियों से आक्रांत हिंदू समाज में सामाजिक चेतना नहीं रही। अत: कुरीतियों को मिटाने का प्रयास निरंतर होना चाहिए। इस सत्य को स्वीकार कर लेने के कारण ही ‘कांग्रेस’ के जन्म के साथ, सोशल कान्प्रेंâस (समाज सुधार सम्मेलन) की भी नींव रखी गई। और कांग्रेस अधिवेशन के साथ ही, उसी पंडाल में ‘सोशल कान्प्रेंâस’ का भी अधिवेशन होने लगा। किंतु सामाजिक सुधार की चर्चा चलने पर जब हिंदू समाज व्यवस्था की तीव्र आलोचना होने लगी, तो यह बात ब्राह्मणों और कट्टर हिंदुओं को बर्दाश्त नहीं हुई और कांग्रेस के पूना अधिवेशन में, पूना के ब्राह्मणों के अनुरोध से, जब लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने इसका विरोध किया, तो कांग्रेस ने ‘समाज सुधार सम्मेलन’ को अपना पंडाल नहीं दिया और सामाजिक सम्मेलन के प्रेमियों ने जब अपना पंडाल अलग बनाना चाहा, तो विरोधियों ने उसे जला डालने की धमकी दी। कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन के सभापति मि. डब्ल्यू. सी.बनर्जी ने ‘समाज सुधार सम्मेलन’ के विरूद्ध अपने भाषण में कहा
‘मैं उन लोगों से सहमत नहीं हूँ जो कहते हैं कि जब तक हम अपनी सामाजिक पद्धति में सुधार नहीं करते, तब तक हम राजनैतिक सुधार के योग्य नहीं हैं। मुझे इन दोनों के बीच कोई संबंध नहीं दिखाई देता। क्या हम राजनैतिक सुधार के योग्य इसलिए नहीं हैं क्यों कि हमारी विधवाओं का पुनर्विवाह नहीं होता और हमारी लड़कियों की शादी कम उम्र में हो जाती है या हमारी पत्नियाँ और पुत्रियाँ हमारे साथ गाड़ी में बैठकर हमारे मित्रों से मिलने नहीं जातीं? क्योंकि हम अपनी बेटियों को ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज में पढ़ने के लिए नहीं भेजते? ’ (हर्षध्वनि)
मि. बनर्जी के इन आक्षेपों के पर्याप्त उत्तर हैं। उनसे पूछा जा सकता है, क्या आपको यह मालूम है कि हिंदू समाज व्यवस्था ने देश की पंचमांश जनसंख्या को ‘अछूत ’ बना रखा है? पेशवाओं के शासनकाल में, महाराष्ट्र में, इन अछूतों को उस सड़क पर चलने की आज्ञा नहीं थी जिस पर कोई सवर्ण हिंदू चल रहा हो। इनके लिए आदेश था कि ये अपनी कलाई में या गले में काला धागा बाँधें, ताकि हिंदू इन्हें भूल से छू न लें। पेशवाओं की राजधानी पूना में तो इन अछूतोंं के लिए यह आदेश था कि ये कमर में झाडू बाँधकर चलें ताकि इनके पैरों के चिह्न झाडू से मिट जाएँ और कोई हिंदू इसके पद-चिह्नों पर पैर रखकर अपवित्र न हो जाए; अछूत अपने गले में हाँड़ी बाँधकर चले, और जब थूकना हो तो उसी में थूकें, भूमि पर पड़े हुए अछूत के थूक पर किसी हिंदू का पैर पड़ जाने से वह अपवित्र हो जाएगा। अछूत भी मनुष्य है, पेशवा ब्राह्मण भी मनुष्य है। एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ यह व्यवहार!
इसी तरह मध्य भारत में गरीब बलाई जाति के विरुद्ध वहाँ के कालोटों, राजपूतों और ब्राह्मणों ने इंदौर जिले के १५ गाँवों में ऐसे अमानवीय कानून बनाए थे, जिनका पालन न कर सकने के कारण बलाइयों को स्त्री-बच्चों सहित उन गाँवों को छोड़ कर, जहाँ उनके बाप-दादे पीढ़ियों से रहते आए थे, धार, देवास, बागली, भोपाल, ग्वालियर और दूसरे निकटवर्ती राज्यों के सुनसान गाँवों में चला जाना पड़ा, और इन नए घरों में उनके साथ जैसी बीती, वह अवर्णनीय है। बलाई भी मनुष्य हैं और ब्राह्मण-राजपूत भी मनुष्य हैं। (टाइम्स ऑफ इंडिया, ४ जनवरी १९२०)
गुजरात के अंतर्गत कविथा ग्राम की घटना अभी पिछले साल की है। कविथा के हिंदुओं ने अछूतों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने नहीं दिया। अहमदाबाद के ‘जन’ नामक गाँव की नवंबर १९३५ की घटना है कि वहाँ के अछूतों की स्त्रियों पर सवर्ण हिंदुओं ने इस कारण आक्रमण किया क्योंकि वे धातु के बर्तनों में पानी लाने लगी थीं। जयपुर राज्य के चकवारा गाँव की ताजा घटना है कि वहाँ एक अछूत ने तीर्थयात्रा से लौट कर अपने भाइयों को पकवान का भोज दिया। बेचारे अछूत मेहमान भोजन कर ही रहे थे कि सैकड़ों हिंदू लाठी ले कर उन पर टूट पड़े और उनका भोजन खराब कर दिया, क्योंकि वे लोग घी के बने पकवान खा रहे थे। उन्होंने अतिथि बन कर घी खाने की ढिठाई क्यों की? घी तो हिंदुओं का खाद्य है; अछूतों को घी खाने का अधिकार नहीं।
प्रश्न होता है, जिस समाज में मनुष्य दुर्बलों पर इस तरह के क्रूर, गर्हित और अमानवीय आचरण करते हों, वहाँ समाज सुधार की आवश्यकता क्यों नहीं है?
समाज सुधार के दो अर्थ हैं : एक पारिवारिक सुधार और दूसरा, समाज का पुनर्गठन। विधवा विवाह, बाल विवाह, स्त्री शिक्षा आदि पारिवारिक सुधार के अंतर्गत हैं तथा समाज में ऊँच-नीच, छूत-अछूत का अधिकार-भेद, वर्ण भेद या जाति भेद मिटाना सामाजिक सुधार है। हमारे देश में जो सांप्रदायिक बँटवारा (कम्यूनल अवार्ड) हुआ, वह सामाजिक सुधार न होने के कारण हुआ। यदि देश की सामाजिक व्यवस्था ठीक होती, तो सांप्रदायिक बँटवारे का प्रश्न ही न उठता।
इतिहास इस बात का समर्थन करता है कि समुन्नत देशों में राजनैतिक क्रांतियों से पहले सामाजिक और धार्मिक क्रांतियाँ हुई हैं। लूथर द्वारा किया हुआ धार्मिक सुधार यूरोपीय लोगों के राजनैतिक उद्धार का पूर्व लक्षण था। प्यूरीटिनिज्म एक धार्मिक सुधार था, और इसने नए संसार की नींव रखी, अमेरिकी स्वतंत्रता का युद्ध जीता। हजरत मुहम्मद द्वारा धार्मिक क्रांति होने के बाद ही अरबों ने राजनैतिक शक्ति प्राप्त की। भगवान बुद्ध द्वारा की हुई धार्मिक क्रांति के फलस्वरूप ही चंद्रगुप्त और अशोक जैसे सम्राट हुए। साधु-संतों द्वारा की हुई धार्मिक क्रांति के बाद ही शिवाजी हिंदू राष्ट्र की स्थापना कर सके। गुरू नानक द्वारा पैदा की गई धार्मिक क्रांति के फलस्वरूप ही सिखों ने राजनैतिक शक्ति प्राप्त की। तब कैसे कहा जा सकता है कि शक्तिशाली और सुदृढ़ राष्ट्र को बनाने के लिए धार्मिक और सामाजिक क्रांति की आवश्यकता नहीं है?
सत्य तो यह है कि सामाजिक सुधार के बिना सच्ची राष्ट्रीयता का उदय संभव नहीं है।
कम्युनिस्ट और समाज सुधार
कांग्रेस के बाद राजनीतिज्ञों का दूसरा दल कम्युनिस्टों (साम्यवादियों) का है। इस दल के सिद्धांत सामाजिक अवस्था के अनुरूप स्थिर हुए। कम्युनिस्टों का ध्येय आर्थिक असमानता को मिटा कर समाज में समता लाना है। कम्युनिस्ट कहते हैं- ‘ मनुष्य एक आर्थिक प्राणी है। उसकी आकाँक्षाएँ और चेष्टाएँ आर्थिक तथ्यों से बँधी हुई हैं।’ ये लोग वर्ण भेद और जाति भेद मिटा कर सामाजिक समता लाने के स्थान पर यूरोपीय साम्यवादियों का अंधानुकरण कर आर्थिक समता पर ही सारी शक्ति लगा देते हैं। इनके मत में धार्मिक और सामाजिक सुधार भ्रम-मात्र है। साम्पत्तिक शक्ति ही एकमात्र शक्ति है, इस बात को मानव समाज का अध्ययन करने वाला कोई भी मनुष्य स्वीकार नहीं करेगा।
साधु-संतों का सर्वसाधारण पर जो शासन होता है, वह इस विचार का अपवाद है। भारत के करोड़ों लोग लँगोटीधारी संपत्तिहीन साधु-संतों की आज्ञा मानते हैं और अपना अंगूठी-छल्ला बेच कर काशी, मक्का आदि तीर्थों के दर्शनों को जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? भारत का इतिहास बताता है कि धर्म एक बड़ी शक्ति है। भारत में पुरोहितों का शासन मजिस्ट्रेट से भी बढ़कर है। यहाँ काउंसिलों के चुनाव और हड़तालों को भी आसानी से धार्मिक रंगत मिल जाती है। भारत ही नहीं, यूरोप के इतिहास में भी धर्म की प्रबलता पाई जाती है। रोम के प्रजातंत्री शासन काल में एक काउंसिल (प्रतिनिधि) दूसरे काउंसिल के काम को रद्द कर देता था। वहाँ प्लोबियनों और पेट्रीशियनों का संघर्ष था। रोम की जनता का यह धार्मिक विश्वास था कि कोई भी अफसर वहाँ किसी पद को ग्रहण नहीं कर सकता, जब तक डेल्फी देवी की देववाणी उसे स्वीकार न करे। डेल्फी देवी के पुरोहित पेट्रीशियन थे, इसलिए जब कभी प्लेबियन ऐसे व्यक्ति को अपना नेता चुनते, जो पेट्रीशियनों के विरूद्ध होता, तो देववाणी सदा विघोषित कर देती कि डेल्फी देवी उसे स्वीकार नहीं करतीं। इस कारण प्लेबियनों को अपने में कभी ऐसा प्रतिनिधि न मिल सका, जो पेट्रीशियनों का मुकाबला करता। प्लेबियन लोग इस ठगी को इसलिए स्वीकार कर लेते, क्योंकि उनका अपना भी विश्वास था कि देवी की स्वीकृति आवश्यक है, केवल जनता द्वारा चुना जाना ही पर्याप्त नहीं है। धार्मिक विश्वास छोड़ने के बदले प्लेबियनों ने अपना लौकिक लाभ छोड़ दिया। क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि प्लेबियन संपत्ति की अपेक्षा धर्म को अधिक महत्व देते थे?
धर्म, सामाजिक स्थिति और संपत्ति, ये तीनों प्रभुता के दााोत हैं। आज के यूरोपीय समाज में संपत्ति की प्रमुखता है, किंतु भारत में धर्म और सामाजिक व्यवस्था का सुधार किए बिना आप आर्थिक सुधार नहीं कर सकते। क्या भारत का सर्वहारा वर्ग ऐसी क्रांति लाने के लिए इकट्ठा हो जाएगा? इसके लिए उसे प्रेरणा तभी मिल सकती है जब उसे विश्वास हो जाए कि जिनके साथ वह काम कर रहा है, वे समता, बंधुता और न्याय के लिए ही संघर्ष कर रहे हैं तथा क्रांति के बाद वर्ण, जाति और धर्म का कोई भेद न रहेगा। कम्युनिस्टों का केवल यह कहना काफी नहीं है कि ‘मैं जाति भेद को नहीं मानता’। भारत में जहाँ साधारण जनता धनी और निर्धन, ब्राह्मण और शूद्र एवं ऊँच-नीच के भेद को मानती है और इसे पूर्व जन्म के कर्मों का फल,विधाता का विधान अथवा तकदीर समझती है, वहाँ वह धनवानों के विरूद्ध कैसे इकट्ठी हो सकती है? और यदि नहीं इकट्ठी हो सकती, तो ऐसी आर्थिक क्रांति का होना ही असंभव है। यदि किसी कारण ऐसी क्रांति हो भी गई, तो ब्राह्मण-शूद्र, ऊँच-नीच और वर्ण-जाति के भेद-भाव को उत्पन्न करने वाले पक्षपातों से युद्ध किए बिना माक्र्सवादी शासन यहाँ चल सकना संभव नहीं। आप किसी भी ओर मुँह कीजिए वर्ण भेद और जाति भेद एक ऐसा राक्षस है जो सब ओर से आपका मार्ग रोके हुए है। जब तक आप इस राक्षस का वध नहीं करते, आप न यहाँ राजनैतिक सुधार कर सकते हैं और न आर्थिक सुधार।
क्या चातुर्वर्ण श्रम का विभाजन है?
कुछ लोग कहा करते हैं कि चातुर्वर्ण व्यवस्था श्रम का विभाजन है। परंतु यह बात निराधार है। वस्तुत: चातुर्वर्ण व्यवस्था का आधार भोगैश्वर्य की सुलभता, समाज पर प्रभुता और श्रेष्ठता,श्रम से बचना, आराम और लौकिक सुविधा का स्वार्थ है। यही कारण है
कि इसे राष्ट्रीयता विघातक समझते हुए भी सवर्ण हिंदू नेता इसका विध्वंस सहन नहीं कर पाते। धनी और निर्धन की विषमता मिटा कर सापेक्षिक समता लाने का राग अलापनेवाला सोशलिस्ट हिंदू भी यहाँ चातुर्वर्णी मर्यादा की रक्षा के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाता देखा जाता है। सवर्ण हिंदू को मानो जन्म में ऊँचाई का पट्टा मिला हुआ है, जिसके भोग में वह ऐसा प्रसक्त है कि वह शूद्रों के अभाव-ग्रसित कष्टमय जीवन का अनुभव ही नहीं कर सकता। एक अहीर या चमार मजदूर ब्राह्मण-मजदूर के शाप से डर कर उसका पूजन करता एवं उसकी गाली, डींगें और बदतमीजी बरदाश्त करता है। ब्राह्मण और भंगी के बीच परंपरागत धार्मिक कुसंस्कारों के कारण कल्पित उच्चता और पवित्रता की दीवार खड़ी है। खेद है, भारत में आज तक जितने सुधारक हुए, वे सब भी सवर्ण हिंदुओं में ही पैदा हुए। यही कारण है कि वर्ण व्यवस्था द्वारा होने वाली घोर हानि की वे अनुभूति नहीं कर सके।
वर्ण व्यवस्था और जाति भेद वस्तुत: श्रम का नहीं, श्रमिकों का विभाजन है। यही कारण है कि यहाँ नीचे गिराई गई जाति का मनुष्य ऊपरवाली जाति का पेशा नहीं कर सकता। यहाँ भंगी हलवाई का काम नहीं कर सकता, परचूनी नहीं कर सकता, चाय और पान की दुकान नहीं रख सकता, पुरोहित नहीं बन सकता। ऐसा कोई सामाजिक कार्य नहीं, जिसमें भंगी से ब्राह्मण तक समान भाव से लग सकें। हिंदुओं को एकता या एक-राष्ट्रीयता के सूत्र में बाँधनेवाली एक भी बात नहीं, सब अपने को अलग-अलग अनुभव करते हैं। हिंदू का जन्म से मरण पर्यंत सारा जीवन अपने वर्ण और जाति की तंग चहारदीवारी के भीतर ही सीमित रहता है। एक जाति और एक वर्ण का मनुष्य दूसरी जाति और दूसरे वर्ण से घृणा और द्वेष रखता है। यहाँ तक कि लोगों ने एक-दूसरे की जाति के विरूद्ध निंदा और घृणापूर्ण कहावतें भी बना रखी हैं।
आर्य समाज की वर्ण व्यवस्था
आर्य समाय ने वर्ण व्यवस्था को आकर्षक बनाने के लिए यह दावा पेश किया कि वर्ण जन्म से नहीं, गुण-कर्म-स्वभाव से होता है। वह यह भी कहता है कि भारत की चार हजार जातियों और उपजातियों को गला कर चार वर्णों में ढाल देना चाहिए। ये दोनों बातें सम्भव नहीं हैं। सवाल यह है कि यदि व्यक्ति को गुणों के अनुसार समाज में आदर मिलता है, तो फिर चार वर्णों का आग्रह कैसा? ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र नाम के गंदे लेबलों की आवश्यकता क्यों? वर्णों का लेबुल न लगाने से क्या समाज में सम्मान नहीं मिल सकता? दूसरा यह कि गुण क्या चार ही हैं? यदि चार ही हैं, तो यदि एक ही व्यक्ति में ब्राह्मणक्ष्ात्रिय-वैश्य-शूद्र चारों के गुणों का विकास हो, तो वह किस वर्ण में रहेगा? फिर, नीचे वर्ण में जनमे व्यक्ति को गुण-कर्म के अनुसार ऊँचे वर्ण का माना जाने के लिए क्या समाज को मजबूर किया जा सकेगा? अत: चार हजार जातियों को चार वर्णों में ढालना असंभव सा है। फिर गुणों के अनुसार चार वर्णों का विभाजन करने के लिए क्या म्युनिसिपैलिटी और काउंसिलों के इलेक्शन की तरह वर्णों का इलेक्शन हुआ करेगा अथवा परीक्षाएँ ले कर यूनिवर्सिटी से वर्णों का सर्टीफिकेट बँटा करेगा?
इसके सिवाय समाज में आधी आबादी स्त्रियों की है। क्या आज भी समस्त नारी जाति को ‘शूद्रा’ बना कर रखा जा सकता है? यदि नहीं, तो क्या चातुर्वर्ण के अनुसार कुछ स्त्रियाँ पुरोहित बनेंगी, कुछ सिपाही का काम करेंगी और कुछ सेठ बन कर व्यापारी का काम करेंगी? इतिहास-प्रसिद्ध प्लेटो ने भी गुणों के अनुसार विचारक, शूर और वणिक व श्रमिक-तीन श्रेणियों में समाज को बाँटने की व्यवस्था की थी, किंतु उसकी व्यवस्था भंग हो गई। यह सिद्ध हो गया कि किन्हीं दो मनुष्यों को भी सदा एक श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, क्योंकि गुण और स्वभाव परिवर्तनशील होते हैं। अतएव आर्य समाजी कल्पना से उदभूत गुणों के अनुसार चातुर्वर्ण व्यवस्था हानिकर और अस्वाभाविक ही नहीं, वरन मूर्खतापूर्ण और असम्भव भी है।
वस्तुत: चातुर्वर्णी व्यवस्था चाहे गुण-कर्म के अनुसार हो, चाहे जन्म के आधार पर, दोनों रूपों में अस्वाभाविक है। स्वतंत्र मानव समाज को चार वर्णों में केवल कठोर कानून और राज-दंड के भय से ही ठूँसा जा सकता है, जैसा कि चातुर्वर्ण के रक्षक राम ने शूद्र हो कर तप करने के कारण शंबूक का शिरच्छेदन कर दिया। आज बीसवीं शताब्दी के स्वतन्त्र मानव समाज को मनुस्मृति की अंधकारयुगीन दण्डनाओं से अनुशासित नहीं किया जा सकता।
वर्ण व्यवस्था असाध्य और हानिकारक
चातुर्वर्ण व्यवस्था मानव समाज के लिए असाध्य ही नहीं, हानिकर भी है। इसका अर्थ है, कुछ इने-गिने मनुष्यों के भोगैश्वर्य के लिए बहुजन समाज को कंगाल बना दिया जाए एवं थोड़े से लोगों के प्रभुत्व के लिए बहुत-से लोगों को सर्वहारा बना दिया जाए। थोड़े-से लोगों के जीवन के विकास और प्रकाश के लिए बहुत-से लोगों को प्रवंचित, नि:सत्व और अंधकारमय बना दिया जाए। भारत में यही हुआ। इस राक्षसी व्यवस्था ने यहाँ के बहुसंख्यक लोगों को निर्जीव और पंगु बना दिया। यही कारण है कि दूसरे समुन्नत देशों की तरह यहाँ कभी सामाजिक क्रांति नहीं हुई। यहाँ का खेतिहर हल के सिवाय तलवार नहीं चला सकता था। जनता के पास संगीनें न थीं। क्रांति के द्वारा दासता से मुक्त होने का कोई साधन न था। उसे समझाया गया था कि परमेश्वर ने ही तुम्हारे भाग्य में दासता लिखी है। इसके फलस्वरूप शूद्र बनाई गई जनता घोर दासता का दु:ख भोगती थी। भारतीय इतिहास में केवल मौर्य साम्राज्य का काल ही वह काल था, जब चातुर्वर्ण ध्वस्त हो गया था, शूद्र और दास होश में आ गए थे और देश के शासक बन गए थे।
महाभारत और पुराण ब्राह्मण-क्षत्रियों के संघर्ष से पूर्ण हैं। कभी ब्राह्मण क्षत्रियों का विनाश करते पाए जाते हैं और कभी क्षत्रिय ब्राह्मणों का। यदि क्षत्रिय और ब्राह्मण गली में मिल जाएँ तो कौन किसको पहले प्रमाण करे या रास्ता छोड़ दे, ऐसी छोटी बातों पर भी लड़ पड़ते थे। क्षत्रिय और ब्राह्मण एक-दूसरे की आँख के काँटे थे। भागवत में स्पष्ट लिखा है कि कृष्ण का अवतार क्षत्रियों का विनाश करने के लिए हुआ था और ब्रह्म-हत्या निवारण के लिए ही राम को अश्वमेध यज्ञ करना पड़ा था। इन सब बातों से सिद्ध हो जाता है कि चातुर्वण व्यवस्था आदर्श रूप में कभी सफल नहीं हुई।
जो लोग कहते हैं कि वर्ण भेद केवल श्रम विभाग का दूसरा नाम है और प्रत्येक सभ्य समाज के लिए श्रम विभाग आवश्यक है, वे इसकी गहराई को नहीं देखते। भारतीय वर्ण भेद केवल श्रम विभाग नहीं, वरन श्रमिकों का विभाग है तथा श्रमिकों को एक-दूसरे के ऊपर श्रेणीबद्ध करके रखा गया है। बेचारे श्रमिकों को स्वयं अच्छा व्यवसाय चुनने की छूट नहीं है। ऐसा किसी भी सभ्य समाज में नहीं है।
स्वेच्छा से व्यवसाय न चुन सकने का परिणाम यह होता है कि लोगों को अपने पैतृक कामों से अरुचि उत्पन्न हो जाती है। इस अरुचि का कारण व्यवसायों पर लगा हुआ कलंक तथा इसे करने वालों के प्रति ऊँच-नीच की सामाजिक भावनाएँ होती हैं। इस सबकापरिणाम यह होता है कि उस व्यवसाय की उन्नति नहीं होती।
वर्णभेद और प्रजनन विज्ञान
वर्णभेद के हिमायती कुछ लोग इसे रक्त की पवित्रता और वंश की विशुद्धि कायम रखने का साधन कहते हैं; किंतु डॉ. भंडारकर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘फॉरेन एलिमेन्ट्स इन द हिंदू पॉपुलेशन’ (हिंदू लोगों में विदेशी तत्त्व) पुस्तक में तर्क और प्रमाणों से सिद्ध कर दिया है कि भारत में ऐसी कोई श्रेणी नहीं जिसमें विजातीय अंश न हो। ल़ड़ाकू राजपूत और मराठों में ही नहीं, ब्राह्मणों में भी शुद्ध रक्त नहीं है। वर्णभेद वस्तुत: विभिन्न जातियों के रक्त और संस्कृति-सम्मिश्रण के बहुत पीछे बना। पंजाब और मद्रास के ब्राह्मणों अथवा बंगाल और मद्रास के अस्पृश्यों में ही एक वंश या एक ही रक्त नहीं है। वस्तुत: पंजाब के ब्राह्मण और पंजाब के चमार एवं मद्रास के ब्राह्मण और मद्रास के चमार में रक्त और वंश की एकता है। यदि विभिन्न वर्णों के लोगों में वर्णांतर विवाह होने दिया जाए, तो इससे हानि की अपेक्षा लाभ ही अधिक होगा। मनुष्य-मनुष्य में भेद नहीं है, क्योंकि विभिन्न वर्णों के विवाहों से संतान पैदा होती है, स्त्रियाँ बाँझ नहीं हो जातीं। थोड़ी देर के लिए यदि मान लिया जाए कि रक्त सम्मिश्रण की रुकावट सुप्रजनन या रक्त शुद्धि की दृष्टि से है, तो विभिन्न वर्णों के पारस्परिक सहयोग की रुकावट का उद्देश्य क्या है?
वर्ण भेद यदि सुप्रजनन शास्त्र के मौलिक सिद्धांतों के अनुसार होता, तो इस पर अधिक आपत्तियाँ न होतीं, क्योंकि तब उसका उद्देश्य उत्तम संतान उत्पन्न कर नस्ल का सुधार करना होता। परंतु ऐसा है नहीं। वृक्ष अपने फल से पहचाना जाता है। वर्ण भेद ने तो ऐसी नस्ल पैदा की जिसका न लंबा कद है, न बलिष्ठ शरीर। शारीरिक दृष्टि से हिंदू ठिगने ओर बौने लोगों की जाति है। एक ऐसी नस्ल, जिसका दसवाँ भाग सैनिक सेवा के योग्य है। ऐसी दशा में यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि वर्ण व्यवस्था का आधार वैज्ञानिक सुप्रजनन शास्त्र है। यह तो एक ऐसी सामाजिक पद्धति है जिसमें इसके व्यवस्थापकों का घमंड और स्वार्थ भरा है। इन्हें ऐसी शक्ति प्राप्त हो गई थी, जिससे ये ऐसी गर्हित व्यवस्था अपने से छोटों पर लाद सकें। इसने हिंदुओं को पूर्णत: असंगठित और नीति-भ्रष्ट बना दिया है।
हिंदू समाज एक काल्पनिक वस्तु
‘हिंदू समाज’ एक काल्पनिक वस्तु है। ‘हिन्दू’ नाम भी एक विदेशी नाम है। यहाँ के निवासियों को अपने से अलग पहचानने के लिए मुसलमानों ने यह नामकरण किया था। मुस्लिम आक्रमण के पूर्व के किसी भी संस्कृत ग्रंथ में ‘हिंदू’ शब्द नहीं मिलता। शायद उस समय सत्ताधारियों को ऐसे किसी नाम की आवश्यकता ही न थी, क्योंकि उन्हें इस बात की कल्पना ही न थी कि हम सब यहाँ के निवासी एक जाति, एक समाज या एक बिरादरी हैं। वस्तुत: भाईचारे के रूप में ‘हिंदू समाज’ का कोई अस्तित्व नहीं है—यह केवल वर्णों और उपवर्णों का संग्रह मात्र है। प्रत्येक वर्ण और उपवर्ण केवल अपने ही अस्तित्व का अनुभव करता है और उसे बनाए रखने के लिए वह प्रयत्नशील भी रहता है।
विभिन्न वर्ण-उपवर्ण या जाति-पाँति कोई संघ भी नहीं बनते, क्योंकि एक वर्ण कभी यह अनुभव नहीं करता कि वह दूसरे वर्णों के साथ संबद्ध है, सिवाय उस समय के जबकि हिंदू-मुस्लिम फसाद हो रहा हो। प्रत्येक वर्ण अपने ही भीतर खान-पान और ब्याह-शादी करता है और अपनी पृथकता का प्रकाश करने के लिए अपनी रस्मों और पहनावे में भी भिन्नता रखता है। वस्तुत: आदर्श हिंदू वहीं है जो चूहे की तरह अपने ही बिल में घुसा रहता है। यही कारण है कि यहाँ ‘सामूहिक जाति चेतना’ नहीं है। अतएव हिंदू एक समाज या एक राष्ट्र नहीं कहला सकते।
हिंदू एक आकारहीन ढेर हैं, इस बात को कुछ देशभक्त मानना नहीं चाहते। वे कहते हैं, इस बाहर से दिखाई देनेवाली भिन्नता के नीचे कोई मौलिक एकता है। वह मौलिक एकता क्या है? इसे लादी गई चीज के सिवाय कोई बता नहीं पाता। किसी संस्कृति के प्रसारक यदि सारे देश में फ़ैल गए हों, तो उस प्रसारित संस्कृति से देश एक समाज नहीं बन सकता, जब तक कोई ऐसी चीज न हो, जिसमें सबका साझेदारी का अधिकार हो। देश में आदिम जातियों का एक समाज अवश्य है क्योंकि विविध आदिम जातियों के स्वभावों,
रीतियों, विश्वासों और विचारों में एकसदृश्यता और मौलिक एकता पाई जाती है। जब तक किसी कार्य में लोग साझीदार नहीं बन जाते और उस काम की सफलता या विफलता को अपनी निजी सफलता या विफलता नहीं समझते, तब तक लोग एक समाज नहीं हो सकते। वर्ण भेद इस साझेदारी को रोकता है, इसी कारण देश कभी एकीभूत जीवनवाला राष्ट्र नहीं बन सका।
आदिवासी और जाति भेद
देश में आदिवासियों की एक खासी संख्या है, जो मानव समाज से अलग असभ्य जंगली हालत में पाए जाते हैं। इनमें कुछ ऐसे भी हैं जो विवश हो ‘जरायमपेशा’ हो गए हैं। हिंदू डींगे मारते हैं कि उनके वेद में सारे विश्व को ‘आर्य’ बनाने का आदेश हैं, तो फिर अपने ही देश में रहने वाले इन आदिवासियों को उन्होंने अब तक सभ्य आर्य क्यों नहीं बनाया? क्या यह शर्म की बात नहीं है?
हिंदुओं ने इन आदिवासी मानवों को सभ्य बनाने का प्रयत्न क्यों नहीं किया, इसका सही उत्तर यह है कि हिंदू वर्ण और जाति के अहंकार से ग्रसित हैं, इसलिए वह इनसे संपर्वâ स्थापित नहीं कर सकता। इन्हें सभ्य बनाने में उसे इनके बीच बसना, इनसे प्रेम व सहानुभूति पैदा करना एवं इन्हें अपनाना पड़ता। यह सब उनके लिए संभव न था, क्योंकि ऐसा करने में हिंदू में वर्ण और जाति की पवित्रता नष्ट हो जाती। इसलिए वह इनसे दूर रहा। हिंदुओं को यह कल्पना नहीं हुई कि यदि अहिंदुओं ने इन जातियों को सुधार कर इन्हें अपने धर्म का साझीदार बना लिया, तो ये बहुसंख्यक आदिवासी उनके शत्रुओं की संख्या बढ़ा देंगे और तब हिंदुओं को अपने जाति भेद और वर्ण भेद को ही धन्यवाद देना पड़ेगा।
केवल यही नहीं कि हिंदुओं ने इन जंगलियों को सभ्य बनाने का यत्न नहीं किया, ऊँचे वर्णवाले हिंदुओं ने अपने से नीचे वर्णवालों के सांस्कृतिक विकास को भी रोका है। महाराष्ट्र के सुनारों और पठारे प्रभुओं के साथ बलपूर्वक ऐसा किया गया। बेचारे सुनारों को शौक हुआ कि वे भी ब्राह्मणों की तरह चुनी धोती और त्रिपुंड धारण कर परस्पर ‘नमस्कार’ किया करें, तो उन्हें पेशावाओं ने दबाव डाल कर ऐसा करने से रोक दिया और पठारे प्रभु जब ब्राह्मणों की नकल कर विधवाओं को बिठलाने लगे ( क्योंकि विधवा विवाह अनार्य प्रथा है, आर्य हिंदुओं में विधवा विवाह नहीं होता), तो उनको कानूनन रोका गया।
हिंदू लोग मुसलमानों और ईसाइयों की हमेशा निंदा किया करते हैं, किंतु ये दोनों धर्म मानवता के अधिक निकट पाए जाते हैं। ये गिरे हुओं को उठाते और ज्ञान का प्रकाश फ़ैला कर लोगों की उन्नति का मार्ग खोलते हैं, जबकि हिंदुओं का जातीय राग-द्वेष दुर्बलों को सदा अज्ञानांधकार में रख कर उन्हें दासता का सबक सिखाने और उन्हें दलित, पीड़ित, प्रवंचित व शोषित करने में ही अपना परम पुरूषार्थ समझता है।
शुद्धि और संगठन
ईसाई मिशनरियों की देखा-देखी हिंदुओं में भी विधर्मियों की शुद्धि करके संख्या बढ़ाने का शौक पैदा हुआ। उन्होंने यह नहीं सोचा कि हिंदू धर्म मिशनरी (प्रचारक) धर्म नहीं है, अत: शुद्धि आंदोलन एक मूर्खता और व्यर्थ चेष्टा सिद्ध होगा।
वस्तुत: हिंदू समाज वर्णों और उपवर्णों (जातियों) का संग्रह मात्र होने से प्रत्येक वर्ण एक ऐसा संगठित संघ है, जिसमें बाहर से भीतर आने का द्वार बन्द है। हिंदू संस्कृति के अनुसार किसी जाति विशेष में जन्म लेनेवाला ही उस जाति का सदस्य माना जा सकता है। किन्तु जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे धर्म में जाता है, तो उसके सामने केवल सिद्धान्तों और दर्शनों को ही दिमाग में ठूँस लेने का प्रश्न नहीं होता, वह यह भी देखता है कि उस समाज में प्रवेश करने पर उसका स्थान क्या होगा, वह कहाँ रखा जाएगा, किस बिरादरी में उसे जगह मिलेगी, किन लोगों में उसके बच्चों के ब्याह होंगे इत्यादि। हिन्दुओं का जाति भेद इन प्रश्नों का उत्तर देने में विमूढ़ है।
जिन कारणों से शुद्धि संभव नहीं है, प्राय: उन्हीं कारणों से संगठन भी असंभव है। जातिवाद होने से हिंदू शारीरिक शक्ति रखते हुए भी भीरु, कायर, दब्बू और अकेला है। उसे विश्वास नहीं है कि संकट पड़ने पर दूसरी जाति का हिंदू उसकी सहायता करेगा। मुसलमानों और सिखों की तरह वह किसी संकटग्रस्त को अपने घर में छिपा कर रोटी नहीं खिला सकता, न विभिन्न जातियों के हिंदू एक परिवार की तरह संगठित होकर एक घर में रह सकते हैं। यही कारण है कि जब एक हिंदू पिटता या लुटता है, तो दूसरा उसे बचाने के लिए अपनी जान जोखिम में डालने की हिम्मत नहीं करता। किसी हिंदू लड़की का अपहरण हो जाने पर हिंदू उसे वापस लाने में इसलिए उदासीन रहता है कि उसकी शादी कहाँ करेगा? बिरादरी में तो उसे कोई अच्छा घर-वर मिलेगा नहीं।
वर्ण भेद और जाति भेद से ग्रस्त होने के कारण हिंदू समझता है कि भाग्य ने उसे अकेला पैदा किया है। हिंदू के रहन-सहन, खान-पान ओर पूजा-उपासना में कोई ऐसी बात नहीं है, जो उसे मुसलमानों और सिखों की तरह एकनिष्ठ करके परस्पर सहानुभूति उत्पन्न करे, न ऐसा कोई सामाजिक बंधन है जिससे एक हिंदू दूसरे हिंदू को अपना भाई समझे। इसीलिए हिंदू संगठित भी नहीं हो पाता।
जाति भेद और सदाचार
वर्णवाद और जातिवाद ने इस देश में मानवी सदाचार का भी संहार कर दिया है, जो अत्यंत खेदजनक है। मानवीय सदाचार का अर्थ है सार्वजनिक सद्गुण और सार्वजनिक सदाचार। मनुष्यों के केवल दो विभाग किए जा सकते हैं: अच्छे और बुरे, ज्ञानी और अज्ञानी, धर्मात्मा और धर्महीन, विद्वान और मूर्ख। किंतु वर्ण और जाति की भावना ने
हिंदुओं की दृष्टि को ऐसी संकुचित बना दिया है कि अन्य मनुष्य कितना ही सद्गुणी और सदाचारी क्यों न हो, यदि वह किसी वर्ण-विशेष या जाति-विशेष का व्यक्ति नहीं है, तो उसकी कोई सुनेगा ही नहीं। एक ब्राह्मण किसी अब्राह्मण को अपना नेता और गुरू नहीं मानेगा। इसी तरह कायस्थ कायस्थ को और बनिया बनिए को ही अपना नेता मानेगा। वर्ण और जाति का विचार छोड़ कर मनुष्यों के सद्गुणों की कद्र वह नहीं करेगा। यहाँ मानवीय सदाचार ‘कबायली सदाचार’ बन गया है। सद्गुण और सदाचार की प्रधानता नहीं है, वर्ण और जाति की प्रधानता है।
मेरा आदर्श समाज
आप पूछ सकते हैं, यदि आप वर्ण और जाति नहीं चाहते, तो आपका आदर्श समाज क्या है? मैं कहूँगा, एक ऐसा समाज, जिसमें न्याय, बन्धुता, समता और स्वतंत्रता हो। मैं समझता हूँ, किसी भी विचारवान को इससे इन्कार न होना चाहिए। बन्धुता का अर्थ यह है कि देश में उत्पन्न सभी व्यक्ति परस्पर भाई-भाई हैं और सभी का पिता की संपत्ति की भाँति देश की संपत्ति पर समान अधिकार है। जीवन के लिए आवश्यक भोजन, वसन, औषधि और शिक्षा के लिए सभी बराबर के हकदार हैं। इसी का नाम बन्धुता या भाईचारा है। इसका दूसरा नाम है जनतंत्र या लोकतंत्र।
‘समता’ शब्द पर प्रâांसीसी राज्य क्रांति के समय बहुत विवाद हुआ, क्योंकि सब मनुष्य समान नहीं होते। कोई प्रतिभाशाली है, कोई जड़-बुद्धि; कोई कलाकार है, कोई लंठ; कोई बलिष्ठ है, कोई दुर्बल; कोई वीर है, कोई भीरु; कोई पुरूषार्था है; कोई आलसी; कोई कर्मिष्ठ है और कोई आरामतलब ; कोई सर्वांग-सुन्दर है और कोई कुरूप इत्यादि। प्राकृतिक असमानता के कारण व्यवहार में भी असमानता न्यायसंगत है। किंतु प्रत्येक व्यक्ति को, उसके अन्दर निहित शक्ति के पूर्ण विकास में, समान भाव से प्रोत्साहन और सुविधा मिलना आवश्यक है। इसमें जाति, वंश, खानदान, पारिवारिक ख्याति, सामाजिक संबंध इत्यादि बातें बाधक नहीं होनी चाहिए। जनतंत्र में वोट सबके समान होते हैं, वोटों का वर्गीकरण नहीं होता। अत: सबके उन्नति के अधिकार और व्यवहार में भी समता होना अनिवार्यत: आवश्यक है।
स्वतंत्रता समय की माँग और युग-धर्म है। जैसे उठने-बैठने, चलने-फिरने, हिलनेडुलने, सोने-जागने की स्वतंत्रता सभी को प्राप्त है, उसी तरह प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार व्यवसाय चुनने और आचरण करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। दूसरों की इच्छानुसार जीविका अर्जन करने और अपने जीवन का कर्तव्य स्थिर करने की विवशता होना तो दासता है। वर्ण विधान अर्थात कल्पित वर्णों के अनुसार कर्मों की व्यवस्था तो एक वैधानिक ‘दास प्रथा’ मात्र है। खान-पान, रहन-सहन, धर्माचरण, चिंतन-भाषण, लेखन
मुद्रण इत्यादि की स्वतंत्रता सभी को होनी चाहिए।
इस प्रकार न्याय, बन्धुता, समता और स्वतंत्रता से युक्त समाज ही मेरा आदर्श समाज है।
अहिंदुओं की जात-पाँत
जाति भेद की बात चलने पर कुछ लोग सिखों, मुसलमानों और ईसाइयों के अंदर जात-पाँत का नाम ले कर संतोष की साँस लेते हैं। इन लोगों से मेरा निवेदन है कि अहिंदुओं की जात पाँत में हिंदुओं की जाति-पाँति से मौलिक भिन्नता है। हिंदुओं में कोई ऐसी संयोजन शक्ति नहीं है जो वर्ण भेद से उत्पन्न होने वाली भिन्नता का इलाज हो, जबकि अहिंदुओं में सबको एकत्र रखने वाले अनेक बंधन हैं एवं जातियों का उनके यहाँ उतना महत्व नहीं है। आपके यह पूछने पर कि तुम कौन हो, जब कोई अहिंदू कहता है कि वह मुसलमान या ईसाई है, तो आप उसके उत्तर से संतुष्ट हो जाते हैं, उससे यह नहीं पूछते कि मुसलमानों में तुम शेख, सैयद, जुलाहा-कौन हो? परंतु जब कोई मनुष्य कहता है कि वह हिंदू है, तो इतने से आपको संतोष नहीं होता और आपको उसकी जाति पूछने की आवश्यकता रहती है, क्योंकि हिंदू होने की दशा में जाति इतनी आवश्यक है कि उसके जाने बिना आप यह स्थिर नहीं कर सकते कि आपको उसके साथ किस तरह बरतना चाहिए।
दूसरी बात यह कि मुसलमानों, सिखों और ईसाइयों में जात-पाँत का कोई सामाजिक महत्व न होने के कारण वे जाति तोड़नेवाले का बहिष्कार नहीं करते; परंतु हिंदू अपनी जाति तोड़ने पर बहिष्कृत हो जाता है। इससे हिंदुओं और अहिदुओं की जात-पाँत के महत्त्व का अंतर साफ समझ में आ जाता है।
तीसरी बात यह है कि हिंदुओं का जाति भेद उनके धर्म का अंग है। व्यास आसन पर बैठ कर कथा केवल ब्राह्मण ही बाँच सकता है, कायस्थ या कलवार नहीं बाँच सकता, चाहे कितना ही विद्वान क्यों न हो। अहिंदुओं की जातियाँ उनके धर्म का अंग नहीं। धर्म हिंदुओं को बाध्य करता है कि वे जातियों की पृथकता को सद्गुण और सदाचार समझें। अहिदुओं को ऐसा समझने के लिए धर्म बाध्य नहीं करता। हिंदू यदि अपनी जाति को तोड़ना चाहे, तो धर्म रास्ते में खड़ा हो जाता है, अहिंदुओं में धर्म बाधक नहीं। अतएव अहिदुआें में जात-पाँत देखकर हिन्दुओं को संतोष की साँस नहीं लेनी चाहिए।
कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मानते ही नहीं कि वर्ण भेद से हिंदुओं की हानि हुई। ये लोग केवल इस बात से सांत्वना पा रहे हैं कि हिंदू अभी तक जीवित हैं, मिट नहीं गए। डॉ. राधाकृष्णन ने भी अपनी पुस्तक ‘हिंदू व्यू ऑफ लाइफ’ में इसी मत का समर्थन किया है। किंतु मेरा निवेदन है, क्या अब तक जीता रहना भविष्य में भी जीवित रहने का प्रमाण है? प्रश्न यह है कि आप किस अवस्था में जीते हैं? केवल जीने और उपयुक्त रीति से जीने में
बड़ा अन्तर है। समाज में लड़ कर विजय-कीर्ति के साथ जीना एक प्रकार का जीना है और रण में पीठ दिखा कर अधीनता स्वीकार कर जीना दूसरे प्रकार का जीना है। इतिहास साक्षी है कि हिंदू जीवन निरंतर पराजय का जीवन रहा है। यह बच कर जीवित रहना तो ऐसा है, जिसके लिए प्रत्येक विचारवान हिंदू को, जो सत्य को स्वीकार करने से नहीं डरता, लज्जा और शर्म का अनुभव करना चाहिए।
जाति भेद मिट कैसे सकता है?
अब प्रश्न यह है कि जाति भेद या वर्ण भेद कैसे मिट सकता है? हिंदुओं की सामाजिक व्यवस्था दूषित है, उसका सुधार आवश्यक है। कुछ सुधारकों का मत है कि उपजातियों को, जो हजारों की संख्या में हैं, घटा कर चार वर्णों में कर देना चाहिए। इनका ख़याल है कि जिन उपजातियों के रस्म-रिवाज जिस वर्ण या प्रमुख जाति से मिलते हों, उनको उसमें मिला देना आसान तरीका है। मेरी समझ में यह कल्पना ही गलत है। क्योंकि पहले तो प्रमुख वर्णों में ही सदृशता नहीं है। जैसे कि उत्तरी और मध्य भारत के ब्राह्मण अधिकतर ‘रसोइए’ और ‘पानी पांडे’ तथा कश्मीर और बंगाल के ब्राह्मण प्राय: मांसाहारी हैं, इनकी अपेक्षा बंबई और मद्रास के ब्राह्मणों का खान-पान और सामाजिक स्थिति बहुत ऊँची है। इनका यह भेद कैसे मिटेगा? इसी तरह उत्तर भारत, बिहार और बंगाल के कायस्थ योग्यता में दक्षिण भारत के ब्राह्मणों के समकक्ष हैं तथा निरामिषता की दृष्टि से गुजराती, मारवाड़ी और जैनी दक्षिणी ब्राह्मणों के समतुल्य हैं। ऐसी दशा में किसको किस वर्ण में ठूंसा जाएगा? फिर, आधुनिक समाज के इंजीनियर, डॉक्टर, प्रोपेâसर, लेक्चरर, शायर, एडिटर, लेखक, कलाकार, टेकनीशियन, वैज्ञानिक इत्यादि— जिनमें सभी उपजातियों के लोग हैं— इन सबको किस वर्ण में घुसेड़ा जाएगा? क्षण भर के लिए मान भी लिया जाए कि हजारों उपजातियाँ चार वर्णों में ठूँस दी गर्इं,तब भी चार का जाति भेद बना रहा और यह प्रमुख जाति भेद प्रबल होकर क्या और अधिक अनिष्टकारी न हो जाएगा? फिर, उपजातियोंके टूटने के साथ ही क्या इनके द्वारा होनेवाले सामाजिक काम बन्द हो जाएँगे? इसीलिए यह खयाल गलत ही नहीं, असंभव भी है।
कुछ लोगों का मत है कि अन्तरजातीय सहभोज होने चाहिए। इससे जाति भेद मिटेगा। मेरे विचार में यह उपाय भी अपर्याप्त है, क्योंकि सहभोज अर्से से हो रहे हैं। इसका जाति भेद मिटने पर कोई असर नहीं हुआ।
मेरे विचार में जाति भेद मिटाने का वास्तविक उपाय अन्तरजातीय और अंतर-वर्णीय विवाह हो सकते हैं। केवल रक्त-मिश्रण ही स्वजन, आत्मीय और मित्र होने का भाव पैदा कर सकता है। जब तक यह आत्मीयता, बन्धुता और मित्रता का भाव प्रधान नहीं होता, तब तक जाति भेद द्वारा उत्पन्न किया हुआ अमित्रता का दुर्भाव दूर नहीं होगा। जाति भेद मिटा
कर हिंदुओं के सामाजिक जीवन को तेजस्वी बनाने का यही एक सही उपाय है।
इस दृष्टि से लाहौर के जात-पाँत तोड़क मंडल का कार्य सराहनीय है। यह सही और सीधा रास्ता है। जाति भेद के रोग का सही निदान ढूँढ लेने के लिए मंडल धन्यवाद का पात्र है। परन्तु क्या कारण है कि हिंदुओं की बड़ी संख्या इस आंदोलन के साथ सहयोग नहीं कर रही है।
हिंदू इसलिए जाति भेद तोड़ना नहीं चाहता, क्योंकि उसे अपना धर्म प्राणों से भी अधिक प्यारा है। वस्तुत: जाति भेद बनाए रखने में लोगों की उतनी अधिक भूल नहीं है, जितनी हिन्दू धर्मशास्त्रों की। हिन्दू धर्मशास्त्र जाति भेद का समर्थन करते हैं, वर्ण संकरता को पितरों को नरक में ढकेलने वाली कुल-घातिनी कहते हैं अतएवं यह कहना गलत नहीं है कि वर्ण भेद और जाति भेद की रक्षा के लिए ही हिंदू-शास्त्रों की रचना हुई है।
जो सुधारक अस्पृश्यता मिटाने का यत्न कर रहे हैं, जिनमें महात्मा गाँधी भी शामिल हैं, वे इस बात को नहीं समझ पाते कि लोगों के आचरण का मूलाधार धर्मशास्त्र हैं। जाति भेद, वर्ण भेद, अधिकार भेद, अस्पृश्यता इत्यादि बुराइयों को मिटाने का मौलिक उपाय हिंदू शास्त्रों का विरोध और उनके विरुद्ध घृणा का प्रचार करना है। व्याकरण और तर्क द्वारा शास्त्रों का अर्थ बदलना उपयुक्त नहीं। हमें यह कहने का साहस होना चाहिए कि सारी खराबी की जड़ हिंदू धर्म ग्रंथ हैं, जिन्होंने जाति भेद और वर्ण भेद की पवित्रता का प्रचार किया।
हिंदू रोम-रोम शास्त्रों से बँधा है
वर्णाश्रम हिंदू धर्म की रीढ़ होने के कारण वर्णों और जातियों के कर्मों, अधिकारों और भोगों की अलग-अलग व्यवस्था ही हिंदू शास्त्रों का उद्देश्य है तथा एक हिंदू,जिसे धार्मिक होने का अभिमान है, शास्त्रों से ऐसा बँधा है कि वह उनके विरुद्ध कुछ भी सोचने और करने को स्वतंत्र नहीं है। धर्म के जिज्ञासुओं के लिए वेद ही प्रमाण है। श्रुति वेद हैं और धर्मशास्त्र स्मृतियाँ। ये दोनों संपूर्ण अर्थों में निर्विवाद हैं और इन्हीं से धर्म का प्रकाश हुआ है। मनु का स्पष्ट आदेश है --
योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयात् द्विज: स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिंदक:।
जो द्विज (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य) इन धर्म-मूलों का कुतर्क से अपमान करे, उसका सज्जन पुरूषों को बहिष्कार कर देना चाहिए, क्योंकि वेद निंदक नास्तिक होता है।
श्रुतिद्वैधं तु यत्र स्याप्तत्र धर्मावुभो स्मृतौ।
यदि कहीं पर दो श्रुतियों में अन्तर हो, तो दोनों को प्रमाण मान कर किसी एक का पालन करना चाहिए।
या वेदबाह्या: स्मृतयो याश्च कश्चि कुदृष्टय:। सर्वास्ता निष्फला: प्रेत्य तमोनिष्ठा हि त: स्मृता:।
यदि श्रुति और स्मृति में परस्पर विरोध हो, तो श्रुति को प्रमाण मानना चाहिए। यह कुतर्क न करना चाहिए कि इन दोनों में ठीक कौन है। वशिष्ठ कहते हैं
वेदायत्वोपनिबंधृत्वत् प्रामाणगं हि मनो:स्मृतं। मन्वर्थविपरीता तु या स्मृति: सा न शस्यते।
यदि कहीं स्मृतियों में परस्पर विरोध हो, तो वहाँ मनुस्मति को प्रमाण मानना चाहिए। मनु के अर्थ के विरुद्ध कोई स्मृति मान्य नहीं हैं। धर्म क्या है, इसके लिए मनु का स्पष्ट आदेश है-
वेद: स्मृत: सदाचार: स्वस्थ च प्रियमात्मन: एतच्चतुर्विषं प्राहु: साक्षात् धर्मस्य लक्षणम्।
वेद, स्मृति, सदाचार तथा जिससे अपना संतोष हो, यह चार प्रकार का साक्षात धर्म का लक्षण कहा गया है।
मतलब यह है कि हिंदू धर्म का निर्णय वेद और शास्त्र में है, उसके आगे या उससे भिन्न सोचना वेद-शास्त्र का अपमान और निंदा करना है। ऐसे कुतर्की निंदक का समाज से बहिष्कार कर देना चाहिए। यदि दो श्रुतियों में कहीं पर अंतर पाया जाए, तो दोनों को ठीक मान कर किसी एक का पालन करना चाहिए और यदि श्रुति और स्मृति में अंतर हो, तो कुतर्क न कर श्रुति के आदेश को मान लेना चाहिए। वृहस्पति कहते हैं, यदि दो स्मृतियों में परस्पर विरोध हो, तो यहाँ मनु को मानना चाहिए, क्योंकि मनु के अर्थ के विरूद्ध कोई स्मृति मान्य नहीं है। यदि कोई ऐसा मसला हो, जिसके लिए श्रुति और स्मृति— दोनों में कोई स्पष्ट आदेश न मिलता हो, तो सदाचार से उसका निर्णय करना चाहिए या फिर अपने को जो प्यारा लगे या जिससे अपना संतोष हो, उसे मानना चाहिए।
श्रुति और स्मृति के आदेश तो उन ग्रंथों में मौजूद ही हैं, सदाचार किसे कहते हैं, यह समझना शेष है। सदाचार को समझने में कहीं लोग शास्त्र-मर्यादा का उल्लंघन न कर बैठें, इसलिए मनु ने सदाचार की भी परिभाषा कर दी है-
यस्मिन् देशे य आचार: पारंपर्यंक्रमागत: वर्णार्नां किल सर्वेषां स सदाचार उच्यते।
जिस देश में (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-वर्णशंकर शूद्रादि) सभी वर्णों का परंपरा क्रम से जो आधार चला आ रहा है, शास्त्र उसी को सदाचार (सदा का आचार) कहते हैं। ‘सदाचार’ का अर्थ यह नहीं है कि ‘अच्छा आचरण’ या ‘अच्छे पुरुषों का आचरण’।
डॉ. भीमराव आम्बेडकर ::४३ ४४:: जाति का उन्मूलन
‘आत्मा को प्यारा’ तो वही होगा, जिससे राहत और आराम मिले! लेकिन मनु ने सदाचार उसे कहा है जो परंपरा से समर्थित है।
इन धर्मादेशों में कहीं भी हिंदू को स्वतंत्र चिंतन की गुंजाइश नहीं है। स्वतंत्र भाव से सोचने-विचारने वाला नास्तिक और समाज-बहिष्कृत करने योग्य है। कुछ समस्याएँ ऐसी आ जाती हैं, जैसे कि रेल या जहाज की यात्रा, अनार्य देशों या विदेशों में गमन और निवास तथा शूद्र, अति शूद्र अनार्यों के साथ सहभोज, सो शास्त्रों में इनकी ‘आपद्धर्म’ संज्ञा है और इनके लिए ‘प्रायश्चित’ का विधान है।
इस तरह शास्त्रों में रोम-रोम बँधे हुए बेचारे हिंदू को जाति भेद विनाश की हिम्मत कहाँ से हो सकती है, जब तक उसे उन शास्त्रों से ही घृणा न हो आए, जो जाति भेद के समर्थक हैं। शास्त्रों का अर्थ बदल कर जनता को धोखा देना व्यर्थ है।
जाति भेद क्यों नहीं मिट सकता?
मेरी समझ में हिंदू समाज से जाति भेद मिटना इस कारण भी असम्भव है क्योंकि ब्राह्मणों ने इस आन्दोलन के विरुद्ध शत्रुता का भाव दिखाया है। ब्राह्मण राजनीति के और कुछ-कुछ आर्थिक सुधार के नेता तो बने हुए हैं, परंतु वे जाति भेद मिटाने के नाम से भी चिढ़ते हैं। यह बात नहीं कि ब्राह्मण इस बात को समझते न हों कि जाति भेद राष्ट्रीयताविघाती एवं सारी बुराइयों की जड़ है, परन्तु वे इसे मिटाना इसलिए नहीं चाहते क्योंकि इसके मिटने से उनका हजारों वर्षो से चला आ रहा सामाजिक प्रभुत्व मिट जाएगा।
आप जानते हैं, ब्राह्मण दो तरह के हैं; एक याचक जो यजमानों की पुरोहिताई, पूजापाठ और कर्म-कांड कराते हैं, दूसरे लौकिक जिनकी जीविका ब्राह्मणी वृत्ति से नहीं है। किंतु याचक और लौकिक दोनों एक ही शरीर की दो भुजाएँ हैं। दो में से कोई भी इस आंदोलन का अगुआ बन कर ब्राह्मण जाति की शक्ति और विशेषाधिकार को हानि पहुँचाना नहीं चाहता।
प्रोपेâसर डाइसी ने अपने पुस्तक ‘इंगलिश कांस्टिट्यूशन’ में इस बात का तात्त्विक विवेचन करते हुए स्पष्ट कह दिया है कि ‘क्रांतिकारी मनुष्य वैसा नहीं होता जो पोप बनता है, और जो पोप बनता है, वह कभी सामाजिक क्रांति की इच्छा नहीं करता।’ ठीक यही बात ब्राह्मणों पर लागू है जो मनुष्य ब्राह्मण के घर जन्म लेता है और जिसे ब्राह्मण होने का गर्व है, उसे सामाजिक क्रांतिकारी बनने की इच्छा नहीं हो सकती। ब्राह्मणों से सामाजिक क्रांति की आशा करना, लेजली स्टीफन के शब्दों में, उतना ही व्यर्थ है जितना ब्रिटिश पार्लियामेंट से सभी नीली आँखोंवाले बच्चों को मार डालने का कानून पास कराने की आशा करना।
आप में से यदि कोई यह कहे कि जाति भेद मिटाने के आंदोलन में ब्राह्मण आगे आएँ, न आएँ, इसकी क्या परवाह है, तो मेरी समझ में ऐसी धारणा उस महत्व से आँखें
बंद कर लेना है जो किसी समाज में बुद्धिजीवी श्रेणी को प्राप्त होता है। प्रत्येक देश में बौद्धिक श्रेणी ही नेतृत्व करती है, चाहे वह शासक न भी हो। साधारण जनता बुद्धिजीवी लोगों के पीछे चलती है और उनका अनुकरण करती है। बुद्धिमान मनुष्य धर्मात्मा हो सकता है और दुरात्मा भी आसानी से हो सकता है। बुद्धिजीवी श्रेणी महापुरुषों के ज्ञान की प्रसारक भी हो सकती है और बड़ी आसानी से दुष्टों का दल अथवा भोगैश्वर्य में प्रसक्त व्यक्तियों से वृत्ति पानेवाले चाटुकारों का जत्था भी।
भारत में ब्राह्मण जाति ही यहाँ की बौद्धिक श्रेणी है। किन्तु यहाँ की बौद्धिक श्रेणी ‘ब्राह्मण जाति के हितों की रक्षा करना’ अपना प्रथम कत्र्तव्य समझती है और देश के हितों की रक्षा करना अन्तिम कत्र्तव्य। ब्राह्मण जाति हिंदुओं की बौद्धिक श्रेणी ही नहीं, वरन एक ऐसी श्रेणी है जिसे शेष हिंदू सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। हिन्दू शास्त्रों का आदेश है कि ‘ब्राह्मण सब वर्णों का गुरू है’ (वर्णानां ब्राह्मणो गुरू:)। मनु ने तो यहाँ तक लिखा है
अनाम्नातेषु धर्मेषु कथं स्यादिति-चेदभवेत्। यं शिष्टा ब्राह्मणा ब्रूयु: स धर्म: स्यादशंकित:।
अर्थात धर्म की जिन बातों का शास्त्रों में विधान नहीं है, उनके संबंध में शिष्ट ब्राह्मण जो कहें, नि:संदेह वही धर्म है।
ऐसी बौद्धिक श्रेणी, जिसकी मुट्ठी में सारा समाज है, यदि जाति विनाशी आंदोलन में सहयोग नहीं करती, तो उसकी सफलता की संभावना बहुत कम है।
हिन्दुओं में जाति भेद के दो रूप हैं: एक रूप में तो वह जनता को अलग करता है और दूसरे रूप में उन सब जातियों को एक-दूसरी पर क्रमबद्ध (चढ़ा-उतार) रूप में रखता है। इस क्रमविन्यास की बाहरी पहचान उनके धार्मिक और सामाजिक अधिकार हैं। इन अधिकारों का नाम ‘संस्कार’ है। जिस जाति का पद जितना ऊँचा है, उसके संस्कारों की संख्या भी उतनी ही अधिक है। और जिस जाति का पद जितना नीचा है, उसके संस्कारों की संख्या भी उतनी ही कम है। यही नीच-ऊँच का भाव उन्हें जाति भेद के विरुद्ध संगठित नहीं होने देता। यदि कोई जाति अपने से ऊँची जाति के साथ रोटी-बेटी का संबंध स्थापित करना चाहती है, तो धूर्त लोग उसे यह कह कर निरस्त कर देते हैं कि तुम्हें भी अपने से छोटी जाति के साथ रोटी-बेटी का संबंध करना पड़ेगा।
जाति भेद के सभी दास हैं। किंतु सभी दासों का दुख एक समान नहीं। जिस तरह आर्थिक क्रांति के लिए कार्ल माक्र्स ने सर्वहारा वर्ग को समझाया था कि ‘इस क्रांति से तुम्हारी हथकड़ियाँ कट जाने के सिवाय तुम्हारी और कोई हानि नहीं होगी,’ ऐसा कोई नारा या युद्ध-नाद हिंदुओं को जाति भेद के विरुद्ध उत्तेजित करने के लिए नहीं है। जाति भेद तो एक राज्य के भीतर दूसरा राज्य है। इसके मिटने से कुछ जातियों के अधिकार और प्रभुता की अधिक हानि होगी और कुछ की कम। इसलिए जाति भेद के किले को मिसमार करने के लिए सेना में सब हिंदुओं के भरती होने की आशा आप नहीं कर सकते।
सुधार का पहला कदम: पुरोहितशाही पर नियंत्रण
मैं इस विचार से सहमत नहीं हूँ कि मानव समाज के लिए धर्म की आवश्यकता नहीं है। इस विषय में महान विचारक बर्वâ के इस कथन का मैं समर्थन करता हूँ कि सच्चा धर्म समाज की बुनियाद होता है, जिसके आधार पर सच्ची हुकूमतें बनती हैं तथा जनता एवं सरकार दोनों फूलती-फलती हैं। मेरे विचार में, प्रचलित पुराने हिंदू विचारों के स्थान पर सुविचारित कल्याणकारी सिद्धांतों को धर्म के रूप में प्रचलित करना चाहिए। हिंदू जनता को जाति भेद की बुराई से मुक्त करने की दिशा में पहला कदम यह उठना चाहिए कि पुरोहितशाही पर नियंत्रण हो। इस नियंत्रण के लिए आवश्यक है कि
(१) अनेक पुस्तकों को छोड़ कर केवल एक धर्म-ग्रंथ रखा जाए जो सभी हिंदुओं को मान्य हो। उसके सिवाय जो लोग अन्य पुस्तकों में लिखित विरुद्ध सिद्धांतों को ‘धर्मसिद्धांत’ बना कर प्रचार करें, उन्हें दंडनीय ठहराया जाए। (२) अच्छा हो कि हिंदुओं की पुरानी पुरोहितशाही को खत्म कर दिया जाए: उसके स्थान पर प्रत्येक ऐसे व्यक्ति को, जो अपने को हिंदू कहता हो, पुरोहित बनने का अधिकार दिया जाए। यह कानून बन जाना चाहिए कि कोई हिंदू तब तक पुरोहित न बन सकेगा, जब तक वह राज्य द्वारा निर्धारित परीक्षा पास नहीं कर लेगा और जब तक उसके पास राज्य से प्राप्त पुरोहित का काम करने की सनद न हो। (३) जिस पुरोहित के पास सनद न हो, उसके द्वारा कराया हुआ कोई संस्कार वैध न समझा जाए और सनद के बिना पुरोहित का काम करने वाले व्यक्ति को दंडनीय ठहराया जाए। (४) पुरोहित भी लोक सेवकों की भाँति राज्य का नौकर हो, उसे राज्य से वेतन मिले और दूसरे नागारिकों के साथ देश के साधारण राज-नियम के अधीन होने के अतिरिक्त वह अपने आचार, विश्वास और पूजा-पाठ के विषयों में राज्य-नियंत्रण के अधीन हो। (५) आई.सी.एस. की तरह पुरोहितों की संख्या भी राज्य की आवश्यकता के अनुसार राज नियम द्वारा सीमित होनी चाहिए। कुछ लोगों को शायद ऐसी व्यवस्था विचित्र मालूम हो, किंतु इसमें क्रांतिकारी कुछ भी नहीं है। पुरोहिती एक व्यवसाय मात्र है और किसी व्यवसाय का नियंत्रित होना उसकी उन्नति का द्योतक है। भारत में अनेक व्यवसाय नियंत्रित हैं। इंजीनियरों, डॉक्टरों, वकीलों आदि सभी को पहले अपने व्यवसायों में दक्षता प्राप्त करनी होती है, तब कहीं उन्हें अपने पेशों में प्रैक्टिस करने की इजाजत मिलती है। यही नहीं, इन्हें अपने कार्य-काल में केवल
कानूनी पाबंदी ही नहीं, वरन अपने व्यवसायों के लिए निर्धारित सदाचार का पालन भी करना पड़ता है। किंतु हिंदू पुरोहित परम स्वतंत्र है। उस पर कोई पाबंदी नहीं है। वह मूर्ख, प्रमेह, उपदंश आदि घृणित रोगों से पीड़ित, सदाचारहीन, नशेबाज और जुआरी ही क्यों न हो, परंतु वह पवित्र संस्कार कराने, देवताओं के पवित्र स्थानों में प्रवेश करके देव-पूजा करने योग्य समझा जाता है। हिंदू के यहाँ इन बातों का कोई विचार नहीं, केवल ब्राह्मण के घर में जन्म लेना काफी है। वह किसी राज-नियम या समाज-नियम के अधीन नहीं, केवल अपने अधिकार और प्रभुता को जानता है। यह तरीका समाज के लिए हानिकारक है। पुरोहित व्यवसाय को कानून के द्वारा नियंत्रण में लाना आवश्यक है। इस व्यवसाय पर एक जाति विशेष का अधिकार होना उचित नहीं है। इस व्यवसाय के द्वार सबके लिए खुले होना चाहिए। इसे जनतांत्रिक होना चाहिए। ऐसा होने से जातिवाद और जाति भेद खत्म करने में सहायता मिलेगी। जाति भेद का मूलाधार ब्राह्मणवाद के सिवाय और कुछ नहीं। गुणकर्मवादी आर्य समाज को इस क्षेत्र में आगे आना चाहिए, क्योंकि जाति व्यवस्था गुण-कर्म के सिद्धान्त के विरुद्ध है।
हिंदू धर्म का युगानुरूप कोई सैद्धांतिक आधार होना आवश्यक है और वह आधार समता, स्वतंत्रता और बन्धुता जैसे लोकमान्य जनतंत्र के अनुरूप हो। इसके लिए सारी सामग्री उपनिषदों में मौजूद है। उपनिषदों के एकात्मवादी विचार के आधार पर व्यवस्था बनाई जा सकती है। इस सुधार का अर्थ होगा जीवन की मौलिक भावना में परिवर्तन तथा एक नवजीवन में प्रवेश। किंतु यह जीवन नवीन शरीर में प्रवेश करे, इसके लिए पुराने शरीर का मर जाना आवश्यक होगा।
हिंदुओं के लिए कुछ विचारणीय प्रश्न
मैंने आपका बहुत अधिक समय ले लिया। अब मैं अपना भाषण समाप्त करना चाहता हूँ। हिंदुओं के संबंध में, हिंदू जनता के सामने, शायद यह मेरा अंतिम भाषण है। इसलिए समाप्त करने से पहले यदि आप मुझे अनुमति दें, तो मैं कुछ प्रश्न उपस्थित करूँ, जिन पर, मेरा ख़याल है, हिंदुओं को गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। वे प्रश्न ये हैं-
(१) हिंदुओं को यह सोचना चाहिए कि क्या उन्हें केवल इतना समझ कर ही संतोष कर लेना है कि संसार की भिन्न-भिन्न जातियों के लोगों के विश्वासों, स्वभावों, नैतिकता और जीवन के ध्येय में भिन्नता है या यह मालूम करने का प्रयत्न करना आवश्यक है कि किस प्रकार का नैतिक चरित्र, विश्वास, स्वभाव और जीवन का ध्येय समाज को फूलनेफलने, मजबूत बनाने, पृथ्वी को बसाने और सुराज्य-स्थापन करने की शक्ति रखता है और किस प्रकार का नहीं। (२) हिंदुओं को सोचना चाहिए कि क्या उन्हें अपने समस्त पैतिृक सामाजिक धर्म डॉ. भीमराव आम्बेडकर :: ४७
और भावनाओं का उत्तराधिकार अपनी भावी संतति को सुरक्षित रखने के लिए देना ठीक है अथवा उसमें जो उपयोगी है, केवल उतना ही देना आगे उचित है।
(३) हिंदुओं को सोचना चाहिए कि क्या उन्हें अपने अतीत काल के समस्त आदर्शों की पूजा आँख बंद करके करते रहना लाभदायक है अथवा उनकी पूजा बंद कर वर्तमान युग में जो उत्तम, उपयोगी एवं उन्नति के शिखर पर ले जाने वाले आदर्श हैं, उनकी पूजा करना हितकारी है। (४) हिंदुओं को सोचना चाहिए कि क्या अभी तक उनके लिए यह स्वीकार करने का समय नहीं आया है कि कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है, कोई भी वस्तु अपरिवर्तनीय नहीं है, कोई भी वस्तु सनातन नहीं है, प्रत्युत प्रत्येक वस्तु बदल रही है, अतएव परिवर्तन ही व्यक्ति और समाज के जीवन का नियम है। संसार की बदली हुई परिस्थिति के अनुकूल जो व्यक्ति या समाज अपने जीवन में परिवर्तन नहीं लाता, वह संसार के समुन्नत समाज के समक्ष सिर ऊँचा करके जीवित नहीं रह सकता। मेरी धारणा है, इन प्रश्नों के सही हल पर आरूढ़ होना कल्याणकारी सिद्ध होगा।
उपसंहार
मैं समझता हूँ, मेरा यह भाषण बहुत लंबा हो गया है। किन्तु जाति भेद की विषम समस्या पर जितनी बातें मुझे कहनी थीं, उन्हें कह देना भी आवश्यक था।
भारत में जाति भेद मूलत: हिंदुओं के भीतर से निकली हुई वह गंदगी है जिसने सारे देश के वायुमंडल को विषाक्त बना दिया है। और यह विष सिख, मुसलमान, ईसाई आदि अहिन्दू लोगों में भी फ़ैला पाया जाता है। अतएव, लाहौर के जात-पाँत तोड़क मंडल को केवल हिन्दुओं का ही नहीं, सिख, मुसलमान, ईसाई आदि सभी का समर्थन मिलना चाहिए। मंडल का काम राष्ट्र की एक महान सेवा है और मंडल का यह प्रयत्न स्वराज्य के लिए किए गए प्रयत्नों से कहीं अधिक कठिन है, क्योंकि स्वराज्य संग्राम जब आप लड़ते हैं तो सारा राष्ट्र आपके साथ होता है, किन्तु इस जाति भेद विनाशक संग्राम में स्वयं मंडल को सारे राष्ट्र से संघर्ष करना होगा और वह राष्ट्र भी कोई दूसरा नहीं- स्वयं अपना ही। मेरे विचार में तो मंडल का यह काम स्वराज्य से अधिक महत्वपूर्ण है। उस स्वराज्य से क्या लाभ, यदि हम उसकी रक्षा नहीं कर सकते।
मेरी सम्मति में हिंदू समाज से जाति भेद के महारोग के विनाश से ही उसमें अपनी आजादी की रक्षा करने की शक्ति उत्पन्न होने की आशा की जा सकती है। इस भीतरी शक्ति के अभाव में स्वराज्य का महल सदा हिलता ही रहेगा।