जाति का मिथक और उसका गतिविज्ञान / सच्चिदानंद सिन्हा
अपनी दीर्घकालीन निरंतरता में मिथक एक स्वतंत्र अस्तित्व ग्रहण कर लेता है औरयह अस्तित्व, जो किसी मानव समुदाय की सामूहिक कल्पना से ज्यादा कुछ नहीं होता,आदमी के जीवन के रोज-ब-रोज के ठोस अनुभवों की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली ढंग सेउनके व्यवहारों और संबंधों को निर्धारित करता है। इस तथ्य का सबसे जीता-जागता नमूनाहमारी वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था से जुड़ा मिथक है, जो भारतीय समाज के सबसेगहरे विभेद और विभाजन की जड़ में है।
जाति विभाजन धार्मिक विभाजन और वर्ग विभाजन से कहीं अधिक गहरा होता है।विडंबना यह है कि वर्गीय अनुभूति, जो ठोस आर्थिक आधार पर खड़ी होती है, सबसेसतही भी होती है। इसका कारण यह है कि वर्ग आदमी की आर्थिक परिस्थिति पर निर्भरकरता है और इस वजह से आदमी की वर्गीय स्थिति सतत परिवर्तनशील रहती है। आज कामजदूर निजी प्रयासों या सामाजिक कारणों से मध्य वर्ग में दाखिल हो सकता है या मध्यवर्ग का आदमी स्थिति खराब होने से मजदूर की श्रेणी में गिर सकता है। इसी तरह कुछलोग गरीब वर्गों में पैदा हो पूँजीपति तक बन जाते हैं और पूँजीपति दिवालिया हो मध्य वर्गया मजदूर वर्ग तक में शामिल हो जाते हैं। चूँकि वर्गीय आरोहण की संभावना बनी रहती है,ज्यादातर लोग अपनी आकांक्षा और भावना में भी अपने से ऊपर के वर्ग के साथ जुड़ने कीकोशिश करते हैं। यही कारण है कि बर्तानिया में, जहाँ का मजदूर वर्ग कभी वर्ग चेतना काक्लासिकी नमूना समझा जाता था, अब मजदूर यह चेतना खोने लगे हैं और बड़ी संख्या मेंअपने को मध्य वर्ग से जोड़ने लगे हैं । माक्र्स की उस कल्पना के विपरीत, जिसके अनुसारवर्ग चेतना राष्ट्रीय या अन्य सामूहिक वफादारियों के ऊपर हावी हो जाएगी, संसार भर केअनुभव यही बतलाते हैं कि राष्ट्रीय, जातीय, धार्मिक और मूल की चेतना ही वर्ग चेतना कोखंडित कर मानव समुदायों पर हावी होती है। धार्मिक तादात्म्य बोध वर्ग चेतना से अधिक गहरा होता है, क्योंकि आदमी का जन्मकिसी विशेष धार्मिक समुदाय में ही होता है और उसका लालन-पालन, विवाह तथा मौतके बाद के संस्कार सभी अपने समुदाय के भीतर ही और इसी की संहिता के अनुसार होतेहैं। फिर भी चूँकि धर्म निजी विश्वासों का भी क्षेत्र है, व्यक्तियों के धार्मिक विश्वासों मेंपरिवर्तन हो सकते हैं -आदमी अनीश्वरवादी बन सकता है या अपना धर्म छोड़ कोई दूसराधर्म कबूल कर सकता है। इसलिए धार्मिक तादात्म्य गहरा होता हुआ भी आदमी को संपूर्णरूप से अपने घेरे में नहीं रख पाता। लेकिन जातीय तादात्म्य इतना गहरा होता है कि यह न सिर्पâ आदमी के जन्म के साथजुड़ा हुआ है और उसके विभिन्न संस्कारों पर हावी है, बल्कि उसके विश्वासों से निरपेक्षहै। इसलिए अपने विश्वास-परिवर्तन से भी आदमी अपनी जाति से निकल नहीं सकता।कोई लाख कोशिश करे, अपनी जाति को उस तरह नहीं बदल सकता, जैसे अपने धर्म को।अपनी जाति को छोड़ कर आदमी दूसरी जाति का नहीं बन सकता, वह सिर्पâ अजात बनसकता है-यानी सभी जातियों से बहिष्कृत। किसी भी व्यक्ति के लिए यह पूर्ण रूप सेनिराश्रित एकाकीपन की स्थिति है। इसीलिए कबीले से बहिष्कार की तरह जाति सेबहिष्कार भी जाति के सदस्यों के लिए आत्यंतिक दंड बन जाता है।
मूल से तादात्म्य की तरह जातीय तादात्म्य भी इस विश्वास पर आधारित है किप्रत्येक जाति का उद्भव प्राचीन काल में अलग-अलग मानव कुलों से हुआ और हजारोंवर्षों से प्रत्येक जाति अपने रक्त की शुद्धता को बरकरार रखती रही है। इसलिए रक्त औरबीज की शुद्धता का भाव गहराई से लोगों की भावना में बैठा हुआ है। इसी विश्वास से यहमान्यता पैदा होती है कि जातियों का मिश्रण अनैतिक है और ऐसे मिश्रण से वर्णसंकर पैदाहोते हैं। मनुस्मृति ने, जिसे अंग्रेजों ने हिंदुओं के सिविल कोड का दरजा दे दिया था, इसमान्यता को और भी बल दिया।
लेकिन भारत के इतिहास के तथ्यों पर एक सरसरी निगाह दौड़ाने से भी हम इसनिष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यह मान्यता असल में एक मिथक से ज्यादा कुछ नहीं, भले हीभारतीय समाज इसे एक अटल सत्य की तरह ढोता चला आ रहा हो। जातियों के संबंध मेंइस विश्वास के कायम रहने का एक कारण यह भी है कि लोग अक्सर जातियों केअस्तित्व और वर्ण व्यवस्था को अलग करके नहीं देखते, हालाँकि जातियों का अस्तित्वएक सामाजिक असलियत है, जबकि वर्ण एक खास विचारधारा के तहत वर्गीकरण कीएक परंपरा मात्र। जातियाँ हजारों हैं, लेकिन वर्ण मात्र चार, और पाँचवीं कोटि अंत्यजों कीहै। जातियों को इन्हीं चार वर्णों एवं अंत्यज में वर्गीकृत किया जाता है। चूँकि वर्णपारिभाषित विशेषण हैं, जिन्हें जातियों के साथ जोड़ा जाता है, इसलिए वर्ण अपरिवर्तनशीलहोते हैं, ठीक उसी तरह जैसे ‘चतुर’ और ‘मूर्ख’, ‘तीव्र’ और ‘मंद’ जैसे विशेषणअपरिवर्तनशील होते हैं, क्योंकि ये पारिभाषित हैं। लेकिन विशेषणों से जुड़नेवाले तत्वअनेक हो सकते हैं और परिवर्तनशील हो सकते हैं-जैसे आज का चतुर कल मूर्ख हो जासकता है, या ‘अ’, ‘ब’,‘स’ कोई भी आदमी या जंतु इन विशेषणों से युक्त हो सकता है। इस तरह वर्णों यानी वर्गीकरण की कोटियों की अपरिवर्तनशीलता से यह अनुमान लगायाजाता रहा है कि इन वर्णों के साथ जुड़ी जातियाँ भी अतीत काल से वर्ण की उन्हीं कोटियोंमें रहीं हैं, जिनमें उन्हें हम आज पाते हैं। लेकिन इतिहास बताता है कि जहाँ वर्णों कावर्गीकरण अपरिवर्तित रहा है, वहीं इनके दायरे में आनेवाली जातियाँ लगातार बदलती रहीहैं। और अक्सर ऐसा हुआ है कि जिन जातियों को आज हम वर्ण व्यवस्था के ऊपर केस्तरों में पाते हैं, वे कभी बहुत नीचे के स्थान पर थीं और दूसरी जातियाँ, जो आज अंत्यजया चौथे वर्ण में हैं, कभी वर्ण व्यवस्था के ऊपरी स्तरों पर मौजूद थीं। वर्णों में कुछ जातियोंका प्रवेश और अन्य जातियों का निष्कासन वैसे ही होता रहा है, जैसे पूँजीपति वर्ग मेंव्यक्तियों का प्रवेश या निष्कासन होता है, हालाँकि वर्ग और वर्ण में प्रवेश और निष्कासनकी प्रक्रियाएँ भिन्न रही हैं। पूँजीपति वर्ग में प्रवेश या इससे निष्कासन व्यक्तियों का होता हैऔर यह प्रक्रिया सरल होती है, जबकि वर्णों में प्रवेश सामूहिक रूप से हुए हैं और इसकीप्रक्रिया काफी जटिल और समय लेने वाली रही है।
विभिन्न समुदायों की वर्णोन्नति का सबसे महत्वपूर्ण नमूना है राजपूत जाति काक्षत्रिय वर्ण में समावेश। राजपूत जाति का उद्भव उस काल में हुआ, जब राजसत्ता परक्षत्रिय वर्ण की प्रधानता करीब-करीब समाप्त हो चुकी थी। तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व सेसातवीं शताब्दी तक लगभग हजार वर्षों में भारत में अनेक मूलों के लोगों का आगमन बड़ीसंख्या में खासकर उत्तर-पश्चम से हुआ था। इसमें यवन, शक, हूण, पठान, गुर्जर, जाटआदि अनेक समूह थे, जिन्होंने या तो छोटे-मोटे राज्य कायम कर लिये थे या यहाँ केराजवंशों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित कर लिये थे। इसके अलावा ऐसे कबाइली याजातीय समूह खुद देश के भीतर थे जो वर्ण व्यवस्था की निचली सीढ़ियों पर थे, लेकिनविभिन्न जगहों पर अपना शासन कायम करने लगे थे। ऐसे समूहों के लोग आठवीं औरनौवीं शताब्दी से राजपूत जाति के नाम से क्षत्रिय वर्ग में स्थान पाने लगे। उच्च वर्णों मेंशामिल होने और उससे निष्कासित होने की प्रक्रिया तो इसके काफी पहले से शुरू थीं,लेकिन राजपूत जाति के अभ्युदय के बाद से यह प्रकिया काफी तेज हुई और राजसत्ता प्राप्तकर अनेक निम्न वर्ण के समुदाय और कबीले राजपूत बनकर क्षत्रियों की श्रेणी में दाखिलहोने लगे। यह प्रक्रिया उन्नीसवीं शताब्दी तक चलती रही। इस प्रक्रिया में डोम और भर सेलेकर जाट, गुर्जर, कुरमी (कुनभी), खरबार, चेरों तक अनेक मूलों के निम्नवर्गीय जातियोंके लोग राजपूत बन कर क्षत्रिय वर्ण में दाखिल हो गए। यहाँ तक कि स्वयं शिवाजी कुनभीया किसी अन्य शूद्र जाति में जन्में थे, लेकिन राजसत्ता प्राप्त करने के बाद राज्याभिषेक केसमय यथाविधि मराठा नाम से क्षत्रिय वर्ण में शामिल कर लिये गए। इसके पहले हेमू, जोअकबर के खिलाफ अनेक राजाओं के संयुक्त युद्ध अभियान का नेता था, इसी तरह जन्मसे नमक बेचनेवाली धूसर जाति का था। लेकिन सिवंâदर शाह का फौजी अफसर बन कर
राजपूत बन गया और इस तरह क्षत्रिय वर्ण में शामिल हो क्षत्रिय होने का दावा करने वालेअनेक राजपूत राजाओं में अग्रणी स्थान पर पहुँच गया। इसी प्रक्रिया से बिहार के पलामूजिले में चेरो लोग और रामगढ़ के खरबार लोग राजपूत बन गए। इन लोगों का राजपूत बनक्षत्रिय वर्ण में दाखिला हाल ही में, यानी १९वीं शताब्दी में हुआ। चेरो और खरबार जातिकी बिरादरी के बाकी लोग अब भी अत्यज की श्रेणी में हैं। इस तरह जो जातियाँ या कबाइली जमातें राजसत्ता पर कब्जा जमा क्षत्रिय वर्ण मेंदाखिल हो जाती थीं, उनके पुरोहित ब्राह्मणों की श्रेणी में दाखिल हो जाते थे। विभिन्नब्राह्मण समुदायों के उद्भव की भिन्नता इस बात में भी जाहिर होती है कि ब्राह्मण होने कादावा करने के बावजूद अलग-अलग वंशों के ब्राह्मणों में शादी-ब्याह का संबंध नहीं होता।चितपावन, मैथिल, कान्यकुब्ज, सरयूपारीय आदि नामों से जानेवाले ब्राह्मण एक-दूसरे केकुलों में शादी का संबंध स्थापित नहीं कर सकते। उनमें अधिकांश एक-दूसरे को निम्नकोटि का ब्राह्मण मानते हैं।
समाज में ब्राह्मणों की श्रेष्ठता कायम होने के दो कारण थे। एक कारण तो यह था किजन्म से लेकर मृत्यु तक के विभिन्न संस्कारों में उनकी उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती थी।ये संस्कार इतने महत्व के माने जाते थे कि इनके बिना सामाजिक जीवन के बिखराव काखतरा था। यानी ब्राह्मणों के हाथ समाज के उन मूल्यों की धरोहर थीं जो मूल समाज कोबाँध कर रखते हैं और संस्कार जिनके प्रतीक हैं। यह एक आम कारण है, जिससे सभीसमुदायों के धर्म में पुरोहित या पुजारी वर्ग का महत्व होता है। दूसरा कारण यह था किब्राह्मण ही नवोदित राजवंशों की वंशावली तैयार कर उन्हें उच्च वर्णों में प्रतिष्ठित करते थे।जब तक वर्ण व्यवस्था की मान्यता रही, नवोदित राजवंशों के लिए अपनी सत्ता कीस्वीकृति (लेजिटिमेसी) के लिए यह वंशावली अत्यंत महत्व की थी, जिससे लोगों को यहविश्वास होता था कि उनका राजा या शासक उस वर्ण का है जो शाधकों के अनुसार शासनकरने का हकदार है। कोई भी नवोदित शासक यह नहीं चाहता था कि प्रजा उसके शासनकरने के औचित्य पर शंका करे। इसलिए ऐसे शासक दान-दक्षिणा देकर ब्राह्मणों को खुशरखते थे और बदले में ब्राह्मण उन्हें चंद्रवंशी, सूर्यवंशी जैसे उदात्त वर्णों के साथ जोड़ करउनकी स्थिति को मजबूत बनाते थे। बुद्धिमान ब्राह्मण शासकों की कुलीनता के दावे कोअस्वीकार कर जान जोखिम में डालने के बजाय उनकी कुलीनता का यशगान कर धनअर्जित करना अधिक समझदारी की बात मानते थे। साथ ही सभी शाध्Eाों के इजारेदार होनेके कारण ब्राह्मण कहीं-न-कहीं यह सच्चाई भी तो जानते ही थे कि कुलीनता का आधारउन जैसे ब्राह्मणों द्वारा अन्वेषित मिथक से अधिक कुछ नहीं है। इस तरह ब्राह्मणों औरराजाओं के बीच का यह सामाजिक संबंध वर्ण व्यवस्था के मिथक को बनाए रखने मेंकाफी हद तक जिम्मेदार रहा कि भारत के कुलीन लोग (यानी द्विज) वास्तव में कुलीन हैं,
जबकि असलियत है यह कि इस देश की सभी जातियों में और सबसे अधिक राजवंशीराजपूतों में देश की सभी जातियों और कबीलों का लहू प्रवाहित होता है। मनुस्मृति कीकसौटी मान लेने पर भारत के सभी द्विज वर्णसंकरों के भी वर्णसंकरों में गिने जाएंगे, इतनाव्यापक अंतरजातीय और अंतरकबायली यौन संबंध इनके उद्भव के अतीत में हैं। अंग्रेजों की प्रभुसत्ता की स्थापना के बाद जो राजे-महाराजे देश में बच गए, वे इतनेशक्तिहीन थे कि अपनी कुलीनता के दावे को आसानी से लोगों पर लाद नहीं सकते थे।इसलिए गैर-क्षत्रिय राजवंशों के क्षत्रिय वंश में प्रवेश के प्रयास विफल हुए, अगर ये प्रयासअंग्रेजी शासन के स्थापित होने के बाद किए गए। इसी तरह का विफल प्रयास कूचबिहारके राजवंशियों (कोच) का था। आजादी के बाद कूचबिहार के राज का अंत होने के बादवहाँ के शासकों के कुल के राजवंशियों की सामाजिक स्थिति में और भी गिरावट आई औरवे आज पश्चिम बंगाल में अनुसूचित जाति की कोटि में हैं, जबकि एक समय असम समेतबंगाल के बड़े भू-भाग पर उनका शासन था। हालाँकि अंग्रेजी शासन की स्थापना के बाद ऊँचे वर्णों में प्रवेश का परंपरागत मार्गयानी राजसत्ता पर अधिकार प्राप्त कर पदोन्नति का मार्ग प्राय: रुक गया, फिर भी, चूँकिउच्च वर्णों के साथ सामाजिक प्रतिष्ठा जुड़ी थी, ऊपर उठने की आकांक्षा बनी रही। इसआकांक्षा की पूत्र्ति के लिए इस शताब्दी के शुरू के काल से एक दूसरे तरह का प्रयास होतारहा है, जिसे समाशाध्Eाी एम.एन. श्रीनिवास ‘संस्कृतीकरण’ कहते हैं। इस प्रक्रिया कीतुलना वे आधुनिकीकरण (मार्डनाइजेशन) से करते हैं। जिस तरह आधुनिक कहलाने कीललक में हिंदुस्तानी पश्चिमी देशों के लिबास, बोलने-चालने के तौर-तरीके, भोजन आदिकी नकल करते हैं और आपस की बात-चीत में भी अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करते हैं, उसीतरह अद्विज पिछड़ी जातियों ने अपना सामाजिक स्थान ऊंचा करने के लिए द्विजों के रहनसहनकी नकल करना शुरू किया। अद्विज जातियों में अनेक ने जनेऊ पहनना शुरू कियाऔर इस गलतफहमी में कि द्विज शाकाहारी और शुद्ध खान-पान वाले हैं, कई जातियों केलोगों ने मांस-मछली खाना तथा ताड़ी-दारू आदि पीना बंद कर दिया। (हालाँकि वास्तवमें द्विजों पर ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं था और अतीत काल के द्विज, खासकर ब्राह्मण तोगोमांस भी बड़े चाव से खाते थे)। भले ही इन प्रयासों से इन जातियों के अपने रहन-सहनमें काफी बदलाव आया और आत्मसम्मान की भावना बढ़ी, लेकिन द्विजों ने इन्हें अपनेकुल में शामिल नहीं किया। कारण यह था कि इसके लिए राजनैतिक सत्ता की जैसीजरूरत थी (वर्णों में उन्नति का परंपरागत माध्यम यही था), वह इनके पास नहीं थी।नतीजा यह हुआ कि ऊपर के वर्ण में गिने जाने का पिछड़ी जातियों का प्रयास विफल हुआ।अगर कहीं स्तरों की उन्नति हुई भी तो अपने ही वर्ण में स्थित जातियों की तुलना में। धीरे-धीरे पिछड़ी जातियों में ऊपर उठने का यह प्रयास खत्म होता गया।
संस्कृतीकरण के माध्यम से ऊपर उठने के प्रयास से पिछड़ी जातियों के विमुख होनेका सबसे अहम कारण था-अंग्रेजी शासन के कायम होने से वर्णों के माध्यम से वरीयताप्राप्त करने के आधार का ही ध्वस्त हो जाना। धर्मशाधकों की मान्यता चाहे जो रही हो,अंग्रेजी हुकूमत के आने और उनकी शिक्षा पद्धति लागू होने से पैदा वस्तुस्थिति यहीबतलाती थी कि नयी शिक्षा के प्रणेता अंग्रेज विद्वान ही नए ब्राह्मण थे और विजेता तथाशासक अंग्रेज ही नए क्षत्रिय भी थे। अंग्रेजों ने न सिर्पâ नयी शिक्षा का जाल पैâलाया, बल्किइसमें प्रशिक्षित भारतीय शिक्षाविदों, अफसरों और व्यापारियों आदि का एक ऐसा वर्ग पैदाकिया, जिसने ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों के परंपरागत पेशों-शिक्षा-दीक्षा, शासन-प्रशासन और युद्ध तथा व्यापार आदि को अपने हाथों में ले लिया। इस तरह पुरानी वर्णव्यवस्था का सामाजिक और आर्थिक आधार नष्ट हो गया।। लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि परिस्थिति के इस बदलाव सेवर्णगत विषमताएँ भी मिट गयीं! हुआ यह कि परंपरा से शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी वर्णों मेंशामिल जातियाँ—ब्राह्मण, राजपूत, बनिया और कायस्थ (जो शूद्र वर्ण में गिने जाने केबावजूद मध्य युग से तो लिखा-पढ़ी के क्षेत्र.में काफी आगे आ गए थे)- अंग्रेजी शिक्षाग्रहण करने मंे भी आगे आ गर्इं और इस शिक्षा के बल पर प्रशासनिक सेवाओं, व्यवसायऔर व्यापार में अपना स्थान बनाने लगीं। दूसरी ओर, शूद्र और दलित प्राय: नयी शिक्षाऔर इससे संबद्ध नौकरियों तथा व्यवसायों से वंचित रहे ।
अंग्रेजों के आने से एक दूसरी तरह का विकास भी हो रहा था जिससे शूद्रों तथादलितों की स्थिति बदतर होती गई। भारत का आर्थिक आधार यहाँ का परंपरागत शिल्प था,जिसमें उत्पादन संपूर्ण रूप से यहांँ की अद्विज जातियों के हाथों में था। अंग्रेजों ने जबअपना शासन भारत पर कायम किया तो अपने देश के कारखानों के माल को इस देश परलाद कर यहाँ के परंपरागत शिल्पों और उद्योगों को नष्ट कर दिया। प्रारंभ में यह काम मुख्यरूप से शक्ति प्रयोग के जरिए किया गया, बाद में कारखाने के बने सामान के सस्ता होने सेप्रतिस्पर्धा में पारंपरिक शिल्प पर आधारित यहाँ के कुटीर उद्योग नष्ट हो गए। चूँकि इनउद्योगों में लगे लोग उन जातियों के थे जिन्हें शूद्र वर्ण या अंत्यजों में गिना जाता था, अंग्रेजीशासन का सबसे विनाशकारी फल इन्हीं जातियों के लोगों को भोगना पड़ा। अपने पारंपरिकउद्योगों के नष्ट होने से इन जातियों के लोग बड़ी संख्या में आजीविका के लिए अकुशलमजदूरों की श्रेणी में आ गए। इनमें कुछ औद्योगिक और प्रशासनिक केंद्रों के इर्द-गिर्दविकसित हो रहे नए नगरों में मजदूरी करने चले गए। बाकी लोग गांवों में भूमिहीन खेतमजदूरोंकी श्रेणी में। ततवा (बुनकर), नुनियाँ (नमक, शोरा आदि बनानेवाले), जुलाहा(बुनकर), शिकलगढ़ (धुनकर), लोहार, बढ़ई, तेली, चमार (चमड़े का सामान बनानेवाले), धोबी, बड़ई (पान का रोजगार करने वाले), ठठेरा (बर्तन बनाने वाले), कुम्हार, रंगसाज, सोनार आदि सभी औद्योगिक जातियों के लोग बड़ी संख्या में अब अकुशलमजदूरों में पाए जा सकते हैं। इस विकास का नतीजा यह हुआ कि जहाँ वर्णों की परंपरागतविषमता का महत्व घटने लगा, वहीं शिल्पी जातियाँ अपनी आजीविका के प्रतिष्ठितपरंपरागत साधनों को खो कर अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा भी खोने लगीं। कभी इस देश केशूद्र-शिल्पी काफी संपन्न थे और इनकी श्रेणियों(गिल्डों) ने अनुदान दे कर महत्वपूर्णकलाकृतियों का निर्माण कराया था। अब ये घोर विपन्नता की स्थिति में आ गए। इस तरहअंग्रेजी शिक्षा में प्रशिक्षित हो अंग्रेजी नौकरियों और अंग्रेजी शिक्षा से उपलब्ध नए व्यवसायों(जैसे वकालत, डॉक्टरी आदि) में घुस तथा उद्योगों के ऊँचे तकनीकी स्थानों पर पहुँचे,द्विजों और बनियों ने जहाँ अपनी आर्थिक और सामाजिक हैसियत को पहले से भी अच्छीकर ली, वहाँ शूद्रों और अंत्यजों की स्थिति पहले से कहीं बदतर हो गई। इस तरहसामाजिक और आर्थिक दृष्टि से अगली और पिछली जातियों के बीच की खाई और भीगहरी होती गई। यह ठीक है कि सामाजिक दृष्टि से परंपरागत समाज में ब्राह्मण पुरोहितों कीवरीयता मानी जाती थी, लेकिन आर्थिक दृष्टि से ब्राह्मण पुरोहित प्राय: गरीब और याचक हीथे। सिर्पâ महाराष्ट्र या दक्षिण के कुछ राज्यों में वे आर्थिक दृष्टि से भी संपन्न थे और सत्तामें भी खास स्थान रखते थे। लेकिन वे द्विज, जो नयी शिक्षा के माध्यम से ऊँचे अफसर बनगए थे, आम लोगों से आर्थिक स्थिति और रहन-सहन सभी मामले में इतने भिन्न हो गएथे कि यह सोचना मुश्किल हो गया कि ये लोग और आम लोग एक ही समाज के हैं।
अंग्रेजी शासन के अंतिम चरण में जब देश में विभिन्न तरह के आधुनिक उद्योगलगाए जाने लगे और आजादी के बाद जब आधुनिकीकरण के नाम पर देश में पश्चिमी ढंगका उद्योगीकरण तेजी से शुरू हुआ, तब परंपरागत उद्योगों का नाश और भी तेजी से हुआ।इसके फलस्वरूप तुलनात्मक दृष्टि से नव-अभिजात वर्ग, जो मूलत: अगली जातियों केनयी शिक्षा पद्धति और नयी औद्योगिक और प्रशासनिक व्यवस्था में प्रवेश से पैदा हुआ,टूटते परंपरागत पेशों में विपन्नता की जिंदगी व्यतीत करने वाले पिछड़ी जातियों से और भीअधिक शक्तिशाली और संपन्न बन गया।
नयी प्रशासनिक सेवाएँ शक्ति और संपन्नता के दााोत हैं, यह समझ कर अद्विजों मेंयह चाहत पैदा हुई कि वे भी इन सेवाओं में प्रवेश पाएं। इसी चेतना के फलस्वरूप दक्षिणमें जस्टिस पार्टी ने पहले पहल प्रशासनिक सेवाओं में अद्विजों के लिए आरक्षण की माँगकी। दलितों में एक धुँधला एहसास इस बात का हो रहा था कि राजसत्ता को प्रभावितकरने की क्षमता के साथ उनका उत्थान गहराई से जुड़ा हुआ है। इसी एहसास से शुरू मेंबाबा साहब आंबेडकर के नेतृत्व में विधायिकाओं में दलितों के अलग प्रतिनिधित्व की माँगशुरू हुई। लेकिन इस मांग का अंग्रेज ‘विभाजन करो और शासन करो’ की नीति के तहतउपयोग करना चाहते थे, ताकि असली सत्ता सदा वे अपने हाथों में रखें। पहले भी अंग्रेज मुसलमानों को हिंदुओं से अलग करने के लिए अलग प्रतिनिधित्व के हथियार का इस्तेमालकर चुके थे। दलितों की समस्याओं के प्रति गहरी संवेदना के बावजूद इस मांग के इसीपहलू के कारण महात्मा गांधी ने अलग प्रतिनिधित्व की माँग का विरोध करने में अपनीजान की बाजी लगा दी और आमरण अनशन पर बैठ गए। बाद में १९३२ का पूना पैक्टहुआ, जिसमें अलग प्रतिनिधित्व की माँग को तो छोड़ दिया गया, लेकिन दलितों को उनकीसंख्या के अनुपात में प्रशासनिक सेवाओं और विधायिकाओं में प्रतिनिधित्व देने का सिद्धांतकबूल किया गया। बाद में जब डॉ. आंबेडकर ने भारतीय संविधान की रूप-रेखा बनाई,तब इस समझौते की मूल शर्तों को हमारे संविधान में शामिल किया गया।
जैसा कि ऊपर बतलाया गया है, इतिहास का सबक यही रहा है कि जातियों कीवर्णाेन्नति उनकी राजनैतिक हैसियत के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी रही है और इस दृष्टि सेदलितों द्वारा आरक्षण की माँग, जो शासन और प्रशासन में उचित प्रतिनिधित्व दिलाता,खास अहमियत रखती है। शासन और प्रशासन में कम से कम अपनी संख्या के अनुपात मेंस्थान पाने के साथ उनका सामाजिक सम्मान जुड़ा हुआ है। जिस दिन सवर्ण लोग शासनऔर प्रशासन के उच्चतम स्थानों पर दलितों की उपस्थिति को सहज भाव से स्वीकार करनेलगेंगे, उस दिन परंपरा से प्राप्त यह भावना मिट जाएगी कि खास-खास पद और पेशेखास-खास वर्णों के लिए सुरक्षित हैं। समय के साथ आरक्षण से यह निष्पत्ति अनिवार्यरूप से आएगी। इससे वर्णों के साथ जुड़े सम्मान और अपमान बोध का लोप तो अवश्यहोगा, लेकिन विभिन्न जातियों के बीच की आर्थिक विषमता और नवअभिजात वर्ग औरआम लोग के बीच की गहराती आर्थिक और सामाजिक खाई को नहीं पाटा जा सकता।
नए ढंग की उद्योग नीति और देश पर लादी जाने वाली नयी शिक्षा नीति परंपरा सेचली आ रही विषमता को मिटानेवाली नहीं, बल्कि और तेजी से बढ़ानेवाली है। आधुनिकउद्योग का ढाँचा पिरामिड का होता है, जिसमें लगे लोगों को कई स्तरों में विभाजित करदिया जाता है। इस पिरामिड की चोटी के समीप उपस्थित लोग अत्यधिक शक्ति औरसुविधाओं से संपन्न होते हैं और नीचे के लोग कम वेतन पाते हैं और मशीन के पुर्जे कीतरह व्यवहार में लाए जाते हैं। इनका काम ऐसा होता है कि जरूरत पड़ने पर इन्हें काम सेहटा कर इनका काम मशीनों से लिया जा सकता है। ऊपर के स्थानों पर (यानी तकनीकीविशेषज्ञ, प्रबंधन विशेषज्ञ आदि के स्थानों पर) पहुँचने के लिए लंबे समय के विशेष तरहके प्रशिक्षण की जरूरत होती है। इस तरह के प्रशिक्षण हेतु चयन के लिए भी बचपन से हीखास तरह के प्रशिक्षण की जरूरत होती हैं। ऐसा प्रशिक्षण वैसे ही परिवारों के बच्चों कोप्राप्त हो सकता है, जिन परिवारों के लोग पढ़े-लिखे हैं या जिनमें इतनी संपन्नता है किखर्चीले स्वूâलों में खास तरह की शैक्षणिक तैयारी के लिए अपने बच्चों को भेज सकें।चूँकि अभी देश में दो तरह के स्कूल हैं- एक-सरकारी, जहाँ आम आदमियों के बच्चे पढ़ते हैं और दूसरे-पब्लिक स्कूल, जहां संपन्न लोगों के बच्चे पढ़ते हैं, आम आदमी काबच्चा उच्च तकनीकी या प्रबंधकी की शिक्षा प्राप्त करने की दौड़ से पहले ही छँट जाता है।यह स्थिति नवोदय विद्यालयों के खुलने से भी नहीं बदली है, क्योंकि इन विद्यालयों में भीउन्हीं के बच्चे चुने जाते हैं, जो अपने बच्चों को अच्छा प्रारंभिक प्रशिक्षण देने की योग्यताया प्रशिक्षण दिलवाने की आर्थिक क्षमता रखते हैं। नतीजा यह हुआ है कि उन जातियों केलोग, जो पहले से शिक्षित हैं या प्रशासन तथा उद्योगों में ऊँची जगहों पर हैं, अपने बच्चोंको भी इन स्थानों के योग्य शिक्षा दिला देते हैं बाकी लोग ऐसी शिक्षा से वंचित हो जाते हैं।इस वजह से एक नई जाति व्यवस्था पैदा हो रही है, जिसमें एक जाति में नई शिक्षा प्राप्तऔद्योगिक-तकनीकी विशेषज्ञ, प्रबंधकी विशेषज्ञ तथा प्रशासक शामिल हैं और बाकीजातियों में वे लोग हैं, जो इन उद्योगों की निचली सीढ़ी पर अर्धकुशल या कुशल मजदूर हैं।इससे भी नीचे असंगठित उद्योगों, सेवाओं और खेती आदि के कामों में लगे हैं, जो किसीतरह अपना गुजारा चला रहे हैं। नई औद्योगिक सभ्यता में इस आखिरी वर्ग के लिए कोईस्थान नहीं है। वे इस सभ्यता के अंत्यज हैं।
अगर हम गौर से देखेंगे तो पाएँगे कि इस आखिरी श्रेणी में अपनी कुल संख्या केहिसाब से सबसे बड़ा अनुपात दलित, आदिवासी एवं अति पिछड़ी जातियों के लोगों का है, जो औद्योगीकरण के प्रारंभिक काल से ही नई सभ्यता में प्रवेश की दौड़ में पीछे छूट गये हैं।उनके लिए अब इस औद्योगिक सभ्यता में कोई प्रतिष्ठित जगह नहीं है। इसमें संदेह नहीं किइन समूहों के थोड़े से लोग, जो आरक्षण के जरिए इस सभ्यता की ऊँची जाति में प्रवेश पाचुके हैं, अपने वंशजों के लिए भी इस व्यवस्था में स्थान बना लेंगे। लेकिन इससे दलितोंसे निकले इन अभिजात लोगों और आम दलितों के बीच का संबंध टूटता जाएगा और ये‘दलित अभिजात’ दूसरे अभिजातों की बिरादरी में शामिल हो जाएँगे। इसका एक परिणामयह हो सकता है कि दलितों का वह मुखर हिस्सा, जो इस विषमतापूर्ण व्यवस्था केखिलाफ दलितों को संगठित कर समतामूलक समाज की ओर बढ़ने की दिशा दे सकताथा, इस नई सभ्यता का हामी बन जाएगा और आम दलित नेताविहीन हो जाएँगे। चूँकिवर्तमान विकास दिनोंदिन विशेष सुविधाएँ बढ़ाता जाता है, लेकिन इनका दायरा छोटा करताजाता है और ऐसे लोगों की संख्या बढ़ाता जाता है जो इस विकास के लिए अप्रासंगिक हैं।इसलिए एक नई तरह का धु्रवीकरण समाज में हो रहा है। इसमें एक धु्रव पर सभी जातियोेंसे भरता एक छोटा-सा अति सुविधाप्राप्त समुदाय पैदा हो रहा है और दूसरे ध्रुव पर पैदाहो रही है एक ऐसी विशाल जनसंख्या, जो नयी अर्थव्यवस्था के लिए अप्रासंगिक है,क्योंकि वह वैसी शिक्षा से वंचित है जो नयी व्यवस्था से उसे जोड़ सके। लेकिन इस त्रासदिक स्थिति में परिवर्तन की एक नई संभावना भी छिपी है। समता केअपने संघर्ष में, जो इस पूरी व्यवस्था के विकल्प की तलाश में निहित है, दलित अब अकेले नहीं रहेंगे। दलितों के अलावा सभी वर्णों का भारी बहुमत, जो नयी औद्योगिकव्यवस्था के द्वारा सभ्यता के कूड़ेदान में डाला जा रहा है, विकल्प की तलाश में उसकासाथी हो सकता है। समाज का सबसे शोषित वर्ग होने के कारण इस तलाश में दलितअगुआ का काम कर सकते हैं। इसमें उन्हें वर्णों के उस इतिहास से सबक लेना पड़ेगा,जिस इतिहास का जिक्र ऊपर किया गया है। जातियों द्वारा वर्णों में अपनी हैसियत ऊपरकरने में राजसत्ता पर अधिकार का महत्वपूर्ण हाथ रहा है। आज भी यह सच्चाई ज्यों कीत्यों है। सदियों बाद एक ऐसी स्थिति आई है जब सत्ता पर अधिकार करने के अपने प्रयत्नमें दलित अकेले नहीं होंगे, क्योंकि आधुनिक औद्योगिक सभ्यता ने विभिन्न वर्णों के लोगोंके बहुमत को अंत्यजों की एक ही कतार में खड़ा कर दिया है। आज परंपरागत दलितों केसंघर्ष में यह नव दलितों की विशाल सेना भी शामिल होगी और विशाल बहुमत होने केकारण लोकतंत्र के माध्यम से एक ऐसी नयी व्यवस्था के निर्माण में सहायक होगी जोसमता पर आधारित हो। आज की स्थिति में एक बुनियादी परिवर्तन यह हुआ कि जहाँप्राचीन काल में नीचे स्थित जाति या कबाइली समूह सत्ता हासिल कर उच्च वर्णों में स्थानपा लेते थे, लेकिन वर्ण-व्यवस्था ज्यों की त्यों रहती थी, अब इतिहास ने पूरी वर्ण व्यवस्थाको अप्रासंगिक बना दिया है। इसलिए नया परिवर्तन समतामूलक समाज की दिशा में हीसंभव है। वर्णों का इतिहास हमारी शताब्दी के वर्तमान मोड़ पर दलितों के सामने यहीचुनौती प्रस्तुत कर रहा है।