जाति का विनाश : क्यों और कैसे? / राममनोहर लोहिया
हिन्दुस्तानी जीवन में जाति सबसे ज्यादा लेडूबू उपादान है। जो सिद्धान्त में उसे नहीं मानते वे भी व्यवहार में उस पर चलते हैं। जाति की सीमा के अंदर जीवन चलता है, और सुंसस्कृत लोग जातिप्रथा के विरुद्ध हौले हौले बात करते हैं, जबकि कर्म में उसे नहीं मानना उन्हें सूझता ही नहीं। अगर उनका ध्यान उनके कर्मों की तरफ खींचा जाता है, जो कि अविश्वसनीय ढंग पर जाति के अनुरूप होते हैं, तो वे चिढ़ कर अपने विचार और अपनी बोली का हवाला देने लगते हैं। वास्तव में जो लोग उनका ध्यान उनके जातिगत व्यवहार की ओर खींचते हैं, उन्हीं के विरुद्ध वे जातिगत मनोवृत्ति का आरोप लगाते हैं। वे कहते हैं कि जब कि वे सिद्धान्तों और व्यापक रूपरेखा के बारे में स्वस्थ बहस करने में लगे हैं, तो उनके आलोचक इस बहस में कर्म का कलुषित अंग घुसेड़ कर उसे दूषित कर देते हैं। उनका कहना है कि ये आलोचक ही जाति का वातावरण बनाते हैं। कौन जाने विचार और कर्म के बीच इतना विचित्र अलगाव, जो कि और किसी से अधिक भारतीय संस्कृति की विशिष्टता है, जाति के असर का ही परिणाम हो। जाति का एक ऐसा चौखटा है जिसे बदला नहीं जा सकता। उसमें रहने के लिए बड़ी जबरदस्त पटुता, दुहरे, तिहरे या अनेक तरीकों से सोचना और काम करना नितान्त आवश्यक है।
जीवन के बड़े तथ्य जैसे जन्म, मृत्यु, शादी, ब्याह, भोज और अन्य सभी रस्में जाति के चौखटे में ही होती हैं। उसी जाति के लोग इन निर्णायक कामों में एक दूसरे की मदद करते हैं। ऐसे मौकों पर दूसरी जातियों के लोग किनारे पर रहते हैं, अलग और जैसे वे तमाशबीन हों। शुरू ही से एक आम गलती से छुटकारा पा लेना चाहिए। इधर के दशकों में देश के कई हिस्सों में कुछ अन्तरजातीय काम हुए हैं। अब्बल तो, इस तरह के काम भोज की छोटी रस्म की हद तक ही सीमित रहे और शादी ब्याह और बच्चे होने के बड़े काम नहीं हुए। दूसरे, यह काम सिर्फ़ सतही तौर पर और भ्रान्तिजनक रूप में अन्तरजातीय है। कभीकभी ऊँची जातियों के विभिन्न समुदायों के बीच अन्तरजातीय विवाह और भोज हो जाया करते हैं। सचमुच के सामूहिक काम के क्षेत्र में, ऊँची जाति और छोटी जाति के बीच अगर और ज्यादा नहीं, तो कम से कम हमेशा जैसा बड़ा भेद बना हुआ है। जब लोग
अन्तरजातीय विवाह इत्यादि की बात करते हैं, तो उनका मतलब सिर्फ़ ऊँची जाति के समुदायों के बीच विवाह से ही होता है।
यह साफ है कि जाति दुनिया में सबसे बड़ा बीमा है, जिसके लिए किसी को कोई औपचारिक अथवा नियमित बीमा किस्त नहीं देनी पड़ती है। जब सब कुछ काम नहीं आता, तो जाति का समैक्य हमेशा रहता है। वास्तव में, दूसरे तरीकों को काम में लाने के बहुत कम मौके आते हैं। जाति के अन्दर ही और अपने परिवार वालों में से ही लोग दोस्त बनाते हैं। जन्म,मृत्यु, कर्म, शादी और दूसरे रस्म-रिवाजों के वक्त इतने घनिष्ठ समैक्य का लाजमी प्रभाव जीवन के दूसरे अंगों पर, जिसमें राजनीतिक जीवन भी शरीक है, पड़ता है। आदमी के मन और उसके बुनियादी विचारों को वही वास्तव में प्रभावित और करीब करीब निश्चित करता है। राजनीतिक अंग तो आसानी से प्रभावित हो जाते हैं। जब जीवन की सभी बड़ी और व्यक्तिगत घटनाओं के अवसर पर लगातार मेल जोल होता है, तब उस चौखठ के बाहर अगर राजनीतिक घटनाएँ हों, तो कुछ हास्यास्पद ही होंगी। किसी जाति के लगभग एक ही तरह से वोट देने पर जब लोग हैरान हो जाते हैं तो वे ऐसे बनते हैं जैसे वे और किसी दुनिया से आये हों। कोई एक समुदाय जो एक दूसरे के साथ ही पैदा होता है, शादी करता है, मरता है और दावत करता है, उससे और किस बात की आशा करनी चाहिए। अगर जाति की जाति एक साथ वोट नहीं करती, तो यह हैरानी की बात है। मतदान जाति से हटकर २० प्रतिशत के ऊपर, मुश्किल से, अगर कभी हो तो हो और वह भी तब—जब कि जाति के एवज में कोई और सुरक्षा उपलब्ध हो।
भारतीय समाज के, यदि हजारों नहीं तो, सैंकड़ों जातियों में विभाजन से, जिनका जितना राजनीतिक उतना ही सामाजिक महत्व है, साफ हो जाता है कि हिन्दुस्तान बार-बार विदेशी फौजों के सामने क्यों घुटने टेक देता है। इतिहास साक्षी है कि जिस काल में जाति के बन्धन ढीले थे, उसने लगभग हमेशा उसी काल में घुटने नहीं टेके हैं। हिन्दुस्तान के इतिहास को गलत ढंग से पढ़ना अब भी जारी है। विदेशी हमलों के दु:खदायी सिलसिले को, जिसके सामने हिन्दुस्तानी जनता पसर गयी, अन्दरूनी झगड़ों और छलकपट के माथे थोपा जाता है। यह बात वाहियात है। उसका तो सबसे बड़ा एकमात्र कारण है, जाति। वह ९० प्रतिशत आबादी को दर्शक बना कर छोड़ देती है, वास्तव में, देश की दारुण दुर्घटनाओं के निरीह और लगभग पूरे उदासीन दर्शक।
हजारों बरसों के बावजूद जातियाँ चल रही हैं। उन्होंने कुछ लक्षणों और रीतियों को जन्म दिया है। एक तरह का छँटाव हो गया है जो कि सामाजिक रूप में भी उतना ही सार्थक है जितना कि सहज छँटाव के रूप में। व्यापार, दस्तकारी, खेती, प्रशासन या सिद्धान्तों से सम्बन्धित कामकाज के हुनर पुश्तैनी हो गये हैं। कोई प्रतिभाशाली ही इनमें वास्तविक पैठ कर सकता है। हुनर के इस जातिगत निर्धारण से कोई यह भी उम्मीद कर
सकता है कि ऐसे परम्परागत छँटाव से बहुत फायदे निकलेंगे। यदि सभी हुनरों से समान सामाजिक हैसियत मिलती या आर्थिक लाभ होता, तो ऐसा हो सकता था। साफ है, ऐसा नहीं है। कुछ हुनर अन्य हुनरों से अविश्वसनीय ढँग पर ऊँचे माने जाते हैं और उस सीढ़ी में खत्म न होने वाली सीढ़ियों का सिलसिला लगा हुआ है। निचले हुनर की जातियों को नीच माना जाता है। वे लगभग बेजान लोथ के रूप में जम जाती हैं। वे भंडार नहीं बन पातीं कि जिसमें राष्ट्र खुद को नूतन कर सके और नवस्पूâर्ति प्राप्त कर सके। सर्वाधिक श्रेष्ठ हुनरों की, तादाद की दृष्टि से अल्पसंख्यक जातियाँ स्वभावत: राष्ट्र को नेतृत्व प्रदान करती हैं। अपना बहुत ही स्वाभाविक अधिकार जमाये रखने के लिए वे छलकपट से उबलता दरिया बन जाती हैं और ऊपर ऊपर बहुत ही परिष्कृत और सुसंस्कृत होती हैं। जनता बेजान है; विशिष्टवर्ग कपटी है। जाति ने ऐसा बना दिया है।
एक मानी में जाति विश्वव्यापी तत्व है। जब श्री खुश्चेव ने आज के रूस में उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों की शारीरिक काम करने में आनाकानी पर अफसोस जाहिर किया तो उन्होंने उसकी जड़ की शुरूआत को खोल कर रख दिया। शारीरिक और बौद्धिक काम के बीच यह अन्तर करना और एक को नीचा और दूसरे को ऊँचा काम समझना और इस अन्तर के बढ़ते हुए पेंच और स्थायित्व जाति को पैदा करते हैं। और किसी देश की बनिस्बत हिन्दुस्तान को जाति का अनुभव गहरा है और दुनिया उससे कुछ सीख सकती है। जातियों ने हिन्दुस्तान को भयंकर नुकसान पहुँचाया है और हिन्दुस्तान उनसे निजाते कैसे पा सकता है, फिलवक्त हम इसी पर विचार करेंगे। मूल्यों का पूरा निकष ही गड़बड़ा दिया गया है। ऊँची जातियाँ सुसंस्कृत पर कपटी हैं; छोटी जातियाँ थमी हुई और बेजान हैं। देश में जिसे विद्वता के नाम से पुकारा जाता है, वह, ज्ञान के सार की अपेक्षा, सिर्फ़ बोली और व्याकरण, की एक शैली है। उदारता का मतलब हो गया है उसे संकुचित करके जाति और रिश्तेदार के लिए उसका इस्तेमाल करना और उसके द्वारा अपना स्वार्थ साध लेना। शारीरिक काम करना भीख माँगने से ज्यादा लज्जास्पद समझा जाता है। क्योंकि कुछ ऊँचे किस्म के भिखमंगेपन के द्वारा दाता को परलोक में अमूल्य लाभ होता है। साफ सीधी बात और बहादुरी के गुणों के बजाय चालबाजी, सामने जो हुकुम और पीठ पीछे अवहेलना, राज्य के सफल व्यक्तियों की निशानी हो जाती है। झूठ को सार्वजनिक जीवन का सबसे बड़ा गुण बना दिया जाता है। धोखेधड़ी का एक आम वातावरण बन जाता है, क्योंकि न्याय की और राष्ट्रीय कल्याण की रक्षा की अपेक्षा अपनी जाति के लोगों और रिश्तेदारों की रक्षा करना लक्ष्य बन जाता है। सार यह है कि जाति की आवश्यकताएँ राष्ट्र की आवश्यकताओं से भिड़ जाती हैं। इस भिड़न्त में जाति जीत जाती है, क्योंकि विपत्ति में अथवा रोजमर्रा की तकलीफों में व्यक्ति की यही एकमात्र विश्वसनीय सुरक्षा है।
पिछले दिनों हमारे प्रधानमंत्री ने यह रोना रोया कि वे इतने लोकप्रिय हैं और फिर भी जिस तरह वे चाहते हैं, लोग काम नहीं करते। यह ऐसे बहुत ही कम मौके में से एक था जब कि प्रधान मंत्री सच बोले। जबरदस्त लोकप्रियता और उतने ही जबरदस्त महत्व के बीच दरार का रहस्य इसी में तो छिपा है। किसी महान् परिवर्तन के लिए आदमी अपनी लोकप्रियता को जोखिम में डालने के लिए तैयार ही नहीं है। महात्मा गाँधी अपनी लोकप्रियता को जोखिम में डालना जानते थे। उन्होंने एक खास स्थिति में पवित्र गाय के बछड़े को मौत की सुई दिलवा दी, एक बन्दर को बन्दूक से मरवा दिया। वे हरिजनों को मन्दिर में ले गये, वे उन्हीं शादियों में जाते थे जो अन्तरजातीय होती, उन्होंने तलाक को माना, ऐसे समय पर उन्होंने ५५ करोड़ रूपये की बड़ी रकम पाकिस्तान को दिलवा दी जबकि हिन्दुओं ने इसे देशद्रोहिता कहा, वे सम्पत्ति के विरूद्ध सिर्फ़ बोलते ही नहीं, बल्कि काम भी करते थे, संक्षेप में, वे ऐसे किसी काम को करने से नहीं चूके जो कि देश में नयी जान डालता, चाहे उस काम से उनको खतरा और अपयश ही क्यों न हो। कुछ लोगों को नाराज किये बिना कभी कोई बड़ा काम नहीं होता। कुछ तबकों को, कभी-कभी बड़े तबकों को नाराज करने पर ही बड़े सामाजिक परिवर्तन किये जा सकते हैं। पुरानी चीजों के हिमायती हमेशा हुआ ही करते हैं; अलग-अलग स्थितियों में केवल उनकी संख्या में फर्वâ रहता है। एक महान नेता की हुनरमन्दी तो इसमें है कि जिन्हें वह नाराज करता है उनकी नाराजी का काल और उनकी संख्या को कम करे। लेकिन उनको उसे नाराज करना ही होगा। उनके बीच उसे अपनी लोकप्रियता को जोखिम में डालना चाहिए, हालाँकि अन्ततोगत्वा उसकी प्रतिष्ठा पहले से ज्यादा बढ़ सकती है। देश में जातिप्रथा की और किसी प्रतिरूपी उपज की तरह ही, प्रधानमंत्री भी किसी बदलाव के लिए अपनी लोकप्रियता को जोखिम में डालने में स्वभावत: अक्षम हैं।
परिवर्तन के विरूद्ध और स्थिरता के लिए जातिप्रथा एक भयंकर शक्ति है, ऐसी शक्ति जो मौजूदा टुच्चेपन, कलंक और झूठ को स्थिर करती है। एक अपवित्र डर लगा रहता है कि कहीं कोई टुच्चापन या झूठ चौड़े में आ गया तो पूरा ढाँचा ढेर हो जायेगा। अनेक तात्विक रूपों में आजाद हिन्दुस्तान ब्रिटिश इण्डिया का ही तो सिलसिला है। भारतीय जनता आज भी वंचित है। वह अपने ही देश में विदेशी है। उसकी भाषाएँ कुचली जाती हैं और उससे उसकी रोटी छीन ली जाती है। कहने को कुछ बड़े सिद्धान्तों के लिए यह सब किया जा रहा है। और ये सिद्धान्त जातिप्रथा से गुँथे हुए हैं, कुछ ऊँची जातियों और छोटी जातियों के ४० करोड़ के बीच महान् भेद के साथ। ये ऊँची जातियाँ अपना राज कायम रखना चाहती हैं, राजनीतिक और आर्थिक दोनों और, नि:सन्देह धार्मिक भी। सिर्फ़ बन्दूक के जरिये वह यह नहीं कर सकतीं। जिन पर वे शासन करना चाहती हैं उनमें हीन भावना भरनी होगी। अपने को छँटी हुई जाति बना कर ही वे इसे अच्छी तरह से कर सकती हैं, विशिष्ट भाषा, भूषा, आचार और रहन सहन के द्वारा, जिसके लिए छोटी जातियाँ अक्षम हैं।
जनता के बहुलांश में हीन भावना भरने के विचार से ही हिन्दुस्तान की राजनीतिक पार्टियों का रुख बनता है। जनता की भाषाएँ अविकसित हैं, उनके घर और उनके रहन सहन के तरीके उन्हें अच्छे और बड़े काम के लिए अयोग्य बना कर छोड़ देते हैं और उनके दिमाग की तो बात ही नहीं करनी चाहिए। इस तरह ऊँची जातियाँ भ्रान्ति का जाल बुनती हैं। हिन्दुस्तान में वर्तमान राजनीतिक मत विचार योग्य नहीं हैं, इसलिए कि ऊँची जातियों के झूठे और अस्वाभाविक हितों को प्रतिबिम्बित करते हैं।
छोटी जातियों का राजनीतिक आचरण विचित्र है। वे रजामन्दी से इस साजिश में क्यों हिस्सा लेती हैं, यह समझ के परे हैं। एक कारण तो काफी साफ है। ऊँची जाति को जाति से जितनी सुरक्षा मिलती है, उससे ज्यादा छोटी जाति को मिलती है पर, नि:सन्देह जानवर से भी बदतर स्तर की। उसके बिना वे अपने को असहाय अनुभव करेंगे। इन छोटी जातियों के बारे में कई बार ऐसा लगता है कि बाद में जाति भोज और रस्म रिवाज करने के लिए ही उन्होंने दिन भर मेहनत की। असल चीज वे ही हैं और बाकी सब छाया। कोई भी चीज उनमें हस्तक्षेप करती है तो वह उन्हें बहुत बुरी लगती है। उनके पास ऐसे किस्से कहानियाँ हैं कि जिनसे वे अपनी गिरी हुई हालत का औचित्य बतलाते हैं, और उसे त्याग और ओजस्विता का प्रतीक मानते हैं। कहार, जिन्हें मल्लाह, कैवर्त, नाविक आदि भी कहा जाता है, शायद एक करोड़ से ज्यादा होंगे। ये लोग अपने पौराणिक पुरखों के किस्से बतलाते हैं कि वे कैसे सीधे सादे, अलोलुप, वीर और उदार थे और क्षत्रियों और अन्य ऊँची जातियों से इसलिए हार गये कि ये ज्यादा लोलुप, कपटी और धोखेबाज थे। ऐसा सोच कर, छोटी जातियों का दरिद्रता का अपना मौजूदा जीवन बड़े सिद्धान्तों की खातिर कभी भी समाप्त न होनें वाले त्याग के काम का सिलसिला प्रतीत होता है। यह त्याग पौराणिक प्रतीकों के लिए है। वे परिवर्तन करने वाले सक्रिय सिद्धान्त के लिए नहीं, बल्कि जो है उसके सामने कुछ किए बिना आत्मसमर्पण कर देना, अपना कर्तव्य समझते हैं। इतिहास में ऐसे त्याग का कोई प्रयोजन नहीं होता। लेकिन त्याग हमेशा सन्तोषकारी होता है। इन मल्लाहों और कहारों की (जब पानी रहता है तो वे नाव चलाते हैं और मछली पकड़ते हैं और जब पानी और पीछे चला जाता है तो घरों में नौकरी करते हैं) चर्चा चल पड़ी तो यह कहना होगा कि ये लोग मखाने की तलाश में जब पानी में गोता लगाते हैं तब साँस रोके रहने की इनकी क्षमता गजब की होती है। १० बरस की उमर से भी छोटे छोटे मल्लाह बच्चे प्राणायाम योग करने लगते हैं और वह भी पानी के अन्दर और १५ मिनट से भी ज्यादा देर तक अपनी साँस रोके रहते हैं। ऊँची जातियों में ऐसे योगी जो पढ़े-लिखे और परिष्कृत भूषा वाले दिखाई देंगे, शायद डींग मारेंगे कि उस योग प्रक्रिया में उनका मन तो रिक्तता साधता है जबकि मल्लाह लड़के का मन कुछ नहीं करता। चूँकि किसी एक आदमी के लिए इन दोनों प्रकार के लोगों के मन में पैठ सकना सम्भव नहीं है, इसलिए कोई भी राय बना सकना मुश्किल है। दोनों स्थितियों में क्या मन एक जैसे हो सकते हैं? यदि वे इतने विभिन्न हैं जैसा कि दावा किया जाता है, तो जाति प्रथा का अपराध ठहराने के लिए यही पर्याप्त है।
इस धारणा पर कि सैद्धान्तिक आधिपत्य की लम्बी परम्परा ने छोटी जातियों को निश्चल बना दिया है, उनका राजनीतिक आचरण कुछ समझ में आता लगता है। यह धारणा बिलकुल सही है। जो है उसकी विनीत स्वीकृति, परिवर्तन के लिए अनमनापन, अच्छे और बुरे दिनों में भी जाति के साथ चिपके रहना, पूजा द्वारा अच्छे जीवन की कामना करना, रस्म रिवाज और सामान्य नम्रता उनमें सदियों से कूट कूट कर भरी गयी है। यह बदल सकता है। वास्तव में, इसे बदलना चाहिए। जाति से विद्रोह में हिन्दुस्तान की मुक्ति है या कह सकते हैं, ऐसा अभूतपूर्व और अब तक अनुपलब्ध अवसर आया है, जब हिन्दुस्तान सचमुच और पूरी तौर पर जीवन्त होगा। क्या ऐसा विद्रोह सम्भव है? विद्वान साधिकार इसे भले ही नकारें। कर्मशील व्यक्ति इसको मानते चले जाएँगे। आज सफलता की कुछ आशा दिखाई देती है। जाति पर इकतरफा हमला नहीं है। वास्तव में यह उतना ही राजनीतिक भी है जितना कि सामाजिक। जाति पर राजनीतिक हमला करने पर, यानी राष्ट्र का नेतृत्व करने का मौका देश की सभी जातियों के लोगों को देने पर, वह क्रान्ति की जा सकती है, जिससे कि जाति के छोटे समुदायों को ही अभी जो समैक्यता और आश्वासन मिलता है, वह पूरे हिन्दुस्तानी समाज को मिले। विदेशी शासन ने हिन्दू को मुसलमान से लड़ा दिया, किन्तु इसका यह मतलब नहीं कि देश में यहाँ के धर्मों ने जो झगड़ा पैदा किया, उसे छोड़ दें। भिड़ाओ और राज करो की नीति पर हुकूमत चलती है। भिड़ाने के जो तत्व पहले से ही मौजूद हैं, उन पर भी यह बात लागू करनी चाहिए। हिन्दुस्तान में ब्रिटिश राज ने जाति के तत्व को ठीक उसी तरह इस्तेमाल किया जिस तरह कि उसने धर्म के तत्व को। चूँकि भिडन्त कराने में जाति की शक्ति धर्म के जितनी बड़ी न थी, इस प्रयत्न में उसे सीमित सफलता मिली। पश्चिमी हिन्दुस्तान में मराठा पार्टी और अनुसूचित जाति संघ, दक्षिण में जस्टिस पार्टी और पूर्वी हिन्दुस्तान में ईसाई धर्म प्रचारकों द्वारा चालित आदिवासी दल इसी प्रयत्न के फल हैं। देशी राजाओं के गुट और पूर्वी हिन्दुस्तान के बड़े जमींदार विदेशी शासन के नेतृत्व में चले और, उनके अन्तिम दिनों में, ऐसे बदनाम हुए कि लगता था लाइलाज हो गये हैं। इन्हें भी उनके साथ शामिल कर लेना चाहिए।
अंग्रेजों ने जब यह प्रयत्न किया, उस समय उनकी निन्दा वाजबी तौर पर ही हुई। विदेशी शासन विभेदों को आदतन बढ़ाता और फ़ैलाता है; वह उन्हें जोड़ता मिलाता नहीं। उसकी निन्दा होनी ही चाहिए। किन्तु ऐसी निन्दा से वह जमीन तो नहीं हट जाती जिस पर विभेद जनमते और पलते है। अंग्रेजी शासन तो खतम हो गया किन्तु जिन जातीय पार्टियों को उसने पैदा किया था, वे आजाद हिन्दुस्तान में भी चल रही हैं और नयी ताकत पा रही हैं। पश्चिमी हिन्दुस्तान का कामगारी, शेतकरी पक्ष और रिपबलिकन पार्टी, दक्षिण हिन्दुस्तान का द्रविड़ मुनेत्र कजगम और पूर्वी हिन्दुस्तान की झारखंड पार्टी के साथ साथ गणतन्त्र और जनता पार्टियाँ न सिर्फ़ क्षेत्रीय पार्टियाँ हैं बल्कि जातीय पार्टियाँ भी हैं। अपने-अपने क्षेत्रोें में ये क्षेत्रीय जातियाँ निश्चयात्मक रूप में बहुसंख्यक हैं। छोटा नागपुर के आदिवासी झारखंड पार्टी के प्राण हैं, जैसे रिपबलिकन के महार, कामगारी शेतकरी के मराठा, द्रविड़ मुनेत्र कजगम के मुदलियार और दूसरे अब्राह्मण भी, और गणतन्त्र और जनता पार्टी के, उतने नहीं फिर भी, क्षत्रिय लोग प्राण हैं।
क्षेत्रीय जाति के दल बनने को, चाहे वे गरमपंथी मुखौटा लगा कर ही क्यों न आएँ कोई भी देशभक्त और कोई भी प्रगतिशील व्यक्ति अच्छी नजर से नहीं देखेगा। उनकी तोड़ने की क्षमता को कभी भी नजर अन्दाज नहीं करना चाहिए। परन्तु, दूसरी जातियां अगर इस विच्छेदन क्षमता को समझ भी जाएँ तो उससे क्या फायदा? जो जाति इस विच्छेदन का वाहक बनती है, वह इसे समझे तो बात हैं। वह कब समझेगी।
जिन जातियों ने मराठा, जस्टिस या अनुसूचित जातियों की पाटियों को बनाया, उन जातियों के साथ समाज ने दुव्र्यवहार किया था। व्यथा और चोट की इस भावना का अंग्रेज शासकों ने इस्तेमाल किया बेशक बहुत गन्दा इस्तेमाल, पर उन्होंने उसे पैदा नहीं किया, और पैदा कर भी नहीं सकते थे। इसी कारण यह समस्या अब भी बनी हुई है, कुछ मामलों में, जिस जाति को चोट लगी और जिस जाति ने चोट लगाई, उनकी जगहों की अदला बदली हो गयी है। लेकिन इससे चोट की समस्या तो हल नहीं होती। इसके अलावा, अनेक जातियों को अभी भी मुखर होना है और प्रभावकारी बनना है, और आज प्रतिपक्षी राक्षसों के सामने अकर्मण्य रह कर अथवा उनके सहायक बनकर ही वे संतुष्ट हो जाती है। चोट और अन्याय का मुख्य दाोात यही है।
जातियों के राजनीतिक खेल का आकर्षक उद्घाटन तो महाराष्ट्र में हुआ, और नाटक अभी खतम नहीं हुआ है। सन १९३० और उसके कुछ बाद तक, महाराष्ट्र का दृश्य चमत्कारी ढंग पर सीधा सादा था, और उसकी पृष्ठभूमि में एक तरफ तो थे ब्राह्मण और दूसरी तरफ बाकी लोग। इसके बाद करीब २५ वर्षों में भी इस दृश्य की अद्भुत सादगी में कुछ कमी नहीं आयी। सिर्फ़ छाने वाली जाति बदल गयी। आज की पृष्ठभूमि में एक तरफ मराठा हैं तो दूसरी तरफ हैं बाकी लोग। मराठा महाराष्ट्र की एक विचित्र जाति है, जो क्षत्रिय होने का दावा करती है पर वह उत्तर हिन्दुस्तान की कुछ काश्तकार शूद्र जाति जैसी ज्यादा है। उस इलाके में मराठा जाति सबसे ज्यादा दबाये गये लोगों की जाति थी। अलावा इसके, पश्चिमी हिन्दुस्तान में वैश्य और क्षत्रिय और कायस्थ भी नहीं के बराबर हैं, इसलिए द्विज या ऊँची जाति का प्रतिनिधित्व मोटे तौर पर ब्राह्मण ही करते हैं।
महाराष्ट्र में ब्राह्मणों के विरुद्ध विद्रोह करने में मराठों ने ही अगुवाई की, हालाँकि विभिन्न मात्रा में दूसरी दबी जातियों ने भी उनकी मदद की। शुरू में तो, यह विद्रोह अंग्रेज समर्थक रहा, क्योंकि ब्राह्मण पूरी तौर पर अंग्रेज विरोधी थे किन्तु फिर राष्ट्रीय आंदोलन इतना मजबूत हो गया कि उसने उसे पचा लिया। राष्ट्रीयता की पार्टी, कांग्रेस पार्टी में मराठा घुसा, और उस पर लगभग छा ही गया। जाति की जाति को हटा देने का तत्त्व फिर प्रकट हुआ, पर इस बार भूमिका बदली हुई थी। एक तरफ तो ब्राह्मण के हाथ से राजनीतिक शक्ति का एकाधिकार खिसकने लगा, और दूसरी तरफ, मराठा ने अपने नव उपलब्ध अधिकार में अन्य दबी जातियों को हिस्सा नहीं दिया। ब्राह्मण बनाम बाकी के लोग वाली पहले की स्थिति का बदलना काफी स्वाभाविक था। सामयिक वादविवाद का घटाटोप जब छँट जाएगा और महाराष्ट्र्र और गुजरात के लिए एक ही द्विभाषी राज्य और सिर्फ़ महाराष्ट्र के लिए एकभाषी राज्य के झगड़े की जड़ में जब लोग जा सकेंगे, तो जाति की उतनी ही प्रेरक शक्ति खुल कर प्रकट हो जायेगी। भाषा की शक्ति को नकारने की आवश्यकता नहीं है। उसके साथ ही जाति की उतनी ही जनन शक्ति मिली हुई है। द्विभाषावाद और सरकारी पार्टी का जो पहले विद्रोही राष्ट्रीय पार्टी थी, प्रतिनिधित्व मराठा करते हैं। एक भाषावाद और संयुक्त महाराष्ट्र समिति का, जो अब सरकार की विरोधी पार्टी है, प्रतिनिधित्व बाकी दूसरे लोग करते हैं। सतही तौर पर भाषा के इर्द गिर्द इस नाटक में, जाति की जो शक्ति तल में थी, वह काफी जबरदस्त थी। ब्राह्मण जिसके हाथ से राजनीतिक शक्ति दिन पर दिन और बढ़ती हुई मात्रा में खिसकती गई, और मराठा को छोड़ कर अन्य दबी जातियाँ, जिनको लगा कि वे पीछे छूट गए हैं, दोनों हमला करने के ताक में बैठे थे। गोवा के मसले पर हल्ला मचाने का उन्होंने जो प्रयास पहले किया था, जबकि कुछ अरसे के लिये पूना का शनिवार पेठ फिर से महाराष्ट्र की सांस्कृतिक राजधानी बन गया था, वही प्रयास भाषा के लिए वर्तमान प्रयास का सूत्रधार बन गया। इस हालत के लिए मराठों को अपने आपको धन्य मानना चाहिए। और किसी भी तरह वो भी सत्ता के लिए उतने ही लोलुप और एकाधिकार वृत्ति के साबित हुए। जातिप्रथा और उसके चलते जो अन्याय होते हैं, उनका नाश करने के लिए नहीं, बल्कि अपनी खुद की श्रेष्ठता को कायम रखने के लिए ही उन्होंने दबी जातियों के विद्रोह का इस्तेमाल किया। जाति प्रथा की समूची मारक शक्ति का नाश करने के बजाय, इस या उस जाति को ऊँचा उठाने के लिए ही दबी जातियों के विद्रोह का हमेशा और बार-बार बेजा इस्तेमाल किया गया।
शायद मराठा भी इससे हट कर कुछ नहीं करता। ब्राह्मण शायद फिर अपनी पहले वाली मनोवृत्ति दुहरा रहा है। हालाँकि कांग्रेस पार्टी के मराठों के खिलाफ समिति बाकी सब लोगों को लेकर बनी है, पर समिति के नेतृत्व में ब्राह्मण बहुत ही ज्यादा है। अगर समिति राजा बनती है, तो चक्र फिर घूम कर अपने पहले ठिकाने पर आ जायेगा, यानी ब्राह्मण बनाम बाकी सब। ऐसे अर्थतंत्र में जहाँ हाथ पैर मारने की जगहें कम होती हैं, अधिकार में जहां मौका बहुत कम है और पैसे में तो उससे और भी कम है, तो आपाधापी कठिन होती है; दूरदर्शिता प्राय: असम्भव हो जाती है और अपने समुदाय से चिपके रहना नितान्त आवश्यक हो जाता है। तब क्या इससे कोई छुटकारा नहीं है? क्या यह चक्र बिलकुल समरूपी है?
जब बिना टले और लगातार ठहराव के साथ वही झगड़े बार-बार होते हैं, तो आत्मा का निढाल हो जाना अवश्यभावी होता है। परन्तु, एक सम्भव नतीजा हो सकता है कि तरक्की करता हुआ पुनर्गठन होता चला जाए। भले ही वर्तमान झगड़ा जारी रहे, और उसके खत्म होने के पहले भी, काँग्रेस पाटी के मराठा बाकी लोगों में से कुछ के साथ राजनीतिक दोस्तियाँ बना सकते हैं, और, इसी, तरह, समिति के ब्राह्मण भी बाकी लोगों के साथ एक सच्चा पर सीमित भाईचारा स्थापित कर सकते हैं। परन्तु, इससे वह हालत नहीं पैदा होगी कि जिसमें एक केन्द्र के अतराफ सभी जातियों के लोग इस संकल्प के साथ एकत्रित हों कि उन्हें जाति प्रथा खत्म करनी है। वह केन्द्र तो शायद अब भी मौजूद है। लोगों को आकर्षित कर सकने की उसकी क्षमता के विकसित होने में समय लग सकता है। वास्तव में मौजूदा और बाद के झगड़ों के खत्म होने पर ही वह अपनी सच्ची अभिव्यक्ति कर सकता है।
ऊँची जातियों को राजनीतिक सत्ता से वंचित करने का लाजमी मतलब यह नहीं होता कि उन्हें आर्थिक और दूसरे प्रकारों की सत्ता से भी वंचित किया जाए। अव्वल तो यह कि राजनीति से उस तरह वंचित करना कहीं भी, दक्षिण में भी नहीं, पूरी तौर पर नहीं हुआ। तमिलनाड में ब्राह्मण को ऊँची जाति का एक मात्र प्रतिनिधि मान कर, उसे इधर विधायिकाओं और प्रशासनिक सत्ता से लगातार हटाया जा रहा है; इसके बावजूद वे अब भी अद्भुत विशिष्ट पदों पर जमें हुए हैं। हालांकि वे आबादी में ४ प्रतिशत ही हैं, प्रशासन की गजटी नौकरियों में उनका हिस्सा ४० प्रतिशत के करीब होगा। एक वक्त तो उनका हिस्सा ६० प्रतिशत था। एक और ज्यादा मार्वेâ की बात यह हुई कि तमिल ब्राह्मण ने आर्थिक सत्ता हथिया ली है। हिन्दुस्तान छोड़ कर जाने वाले अंग्रेजों से वह माउंट रोड लगातार खरीदता जा रहा है। इसलिए यह कहना कि आमतौर पर ब्राह्मणों की हालत गिरती जा रही है या देश के किसी हिस्से में उनकी हालत पर अफसोस करना सही नहीं होगा।
तमिल स्थिति बड़ी पेंचदार है। द्रविड़ आँदोलन और अब्राह्मण तत्त्वों ने कांग्रेस और काँग्रेस विरोधी दलों को समान रूप से प्रभावित किया है। दोनों द्रविड कजगम खुलकर द्रविड़ी हैं छिप कर और कुछ नरम तरीके से कांग्रेस पार्टी भी वैसी ही है। ब्राह्मण बनाम अब्राह्मण, आर्य बनाम द्रविड़, उत्तर बनाम दक्षिण और हिन्दी बनाम तमिल द्रविड़ आँदोलन के ये चारों तत्त्व अलग अलग मात्रा में, कांग्रेस और कांग्रेस विरोधी आँदोलनों में समान रूप से विद्यमान हैं। कांग्रेस विरोधी द्रविड़ आंदोलन के सामने कांग्रेस पार्टी की तरह अखिल भारतीय लिहाज आड़े नहीं आता इसलिए उत्तर, हिन्दी या ब्राह्मण के प्रति, जब भी मौका आए, उनका विरोध तीव्र होता है। लेकिन वह तो सिर्फ़ मात्रा का फर्वâ है। और, सरकारी पार्टी होने के नाते कांग्रेस पार्टी कुछ अधिक प्रभावशाली है, हालाँकि द्रविड़ भावना को वास्तव में उसने अधिक विवेक से आत्मसात किया है। आर्थिक कार्यक्रमों को साफ न बतलाने के कारण भविष्य की असन्दिग्ध पूर्व घोषणा करना कुछ कठिन है। आर्थिक कार्यक्रमों के मामले में तो कांग्रेस विरोधी द्रविड़ पार्टियाँ कांग्रेस से भी ज्यादा अस्पष्ट हैं। उनमें से कुछ ने तो उत्तर-दक्षिण और इसी तरह की अन्य काल्पनिक द्वेषपूर्ण बातों से जाति समस्या की ठोस बात को धँुधला और कमजोर बनने दिया है। दोनों द्रविड़ प्रवाह, जो कि ऊँची जाति के प्रभाव से मुक्त हो चुके हैं, अगर भौगोलिक और भाषा विषयक द्वेषपूर्ण बातों से छुटकारा पाते चले जाते और जाति को नष्ट करना एक मन से लक्ष्य बनाते और अगर एक यथास्थिति और पूंजीवाद का मार्ग अपनाता और दूसरा गरमपंथी और समाजवादी आर्थिक नीतियां अपनाता तो इसका परिणाम शुभ होता।
एक और संभावित और हानिकारक हालत पैदा हो सकती है और वह यह कि द्वेष और बढ़ते जायें। अगर वह यह मान लें कि आने वाले २०-२५ वर्षों में दक्षिण और तमिलनाड समेत हिन्दुस्तान की आर्थिक हालत सुधरने की संभावना नहीं है, तो अविवेकी विस्फोटक राजनीति का मंच तैयार हो जाएगा। लोग भौगोलिक और भाषा विषयक विरोध की बातों पर ज्यादा ध्यान देने लगेंगे। सत्ता में आने के लिए राजनीतिक पार्टियां यदि ऐसे अवसरों पर फायदा न उठाएँ तो उन्हें मानवोचित नहीं कहा जाएगा। जो सबसे अधिक संभावित हालत पैदा हो सकती है वह ज्यादा आशाजनक है। उसके पूरी तौर पर विकसित होने में समय लग सकता है। कांँग्रेस और कांग्रेस विरोधी पार्टियों के बीच जब इन द्वेषों का यह बेमतलब खेल खत्म हो जायेगा, तब जनता के अधिकाधिक तबके सम्पूर्ण निश्चयात्मक और ठोस कार्यक्रमों के लिए उत्सुक होंगे। आर्थिक क्षेत्र में समाजवादी सिद्धान्तों पर और सामाजिक क्षेत्र में जातिप्रथा के सम्पूर्ण नाश पर ऐसे कार्यक्रम की बुनियाद रखनी होगी। इसके लिये वे द्रविड़ भावना के स्वस्थ अंग का इस्तेमाल करेंगे।
कुछ उत्तर में यानी आंध्र प्रदेश में, एक मानी में; उससे भी ज्यादा दिलचस्प हालत हो गई है। आंध्र के रेड्डी उत्तर हिन्दुस्तान के क्षत्रिय और अहीर के मेल जैसे हैं और निश्चय ही यहां की एकमात्र सर्वाधिक प्रभावशाली जाति बन गए हैं। आंन्ध्र में क्षत्रिय और अहीर नहीं के बराबर हैं। आँध्र की शासक जाति सदफीसद रेड्डी ही है पर इन्होंने पूरी तौर पर ब्राह्मण को, जिसे उन्होंने राजनीतिक सत्ता से भगा दिया था, अलग नहीं कर दिया। वेलमा जैसी छोटी जातियों के साथ उन्होंने सत्ता को बांटने की समझदारी भी की। परन्तु, वे कम्मा लोगों के साथ दोस्ती न कर सके। यह जाति लगभग पूरी तौर पर उत्तर भारत के कुर्मियों जैसी है यानी नाम में भी और खेती की हैसियत में भी। पैसे वैसे के मामले में कुछ अच्छे रहने और राजनीति में कुछ पिछड़े रहने के कारण, आंध्र के कम्मा पिछले २०बरसों से कुछ बेचैन रहे हैं। रेड्डियों से बदला लेने के लिये लगभग पूरी की पूरी जाति कम्युनिस्ट पार्टी का हथियार बनी। कम से कम फिलवक्त अपने प्रयास में असफल हो जाने के कारण, और दुबारा कम्युनिस्ट पार्टी के जरिये बदला चुकाने के पहले, वे भी रंगा को हथियार बना कर कोशिश कर सकते हैं।
संख्या में सर्वाधिक पर सबसे कम असर वाली जातियों की ओर आन्ध्र राजनीति कब मुड़ेगी? ये है कापू, पद्यशाली, माला और मादिगा। असल में, इन सबको समय-समय पर चेट्टी संघम् भी कहा जाता है। काश्तकार जाति में कापू सबसे ज्यादा हैं। ये बहुत ही गरीब दखलदारी काश्तकार है। और अगर ये खेत मजूर नहीं हुए, तो और भी ज्यादा गरीब बँटाईदार हैं। कापुओं के इस बड़े तबके में गरमी और क्रियाशीलता वही पार्टी ला सकती है जो लगभग पूरी तौर पर जमीन की मालिक रेड्डी और कम्मा जातियों की जकड़न से अपने आप को छुड़ा ले। ऐसी पार्टी का लक्ष्य होना चाहिये बँटाईदारी खतम करना और इसकी शुरूआत शायद ऐसे हो सकती है कि मालिक को एक तिहाई या उससे भी कम हिस्सा देना और शेष बँटाईदार को। कम्यूनिस्ट पार्टी ऐसी पाटी नहीं बन सकी और वह शायद वैसी कभी बन भी नहीं सकती। वह जरूरत से ज्यादा मालिकों की पार्टी है— की बड़े मालिक नहीं, जितनी कि छोटे छोटे। खेत मजूरों की,जो कि ज्यादातर हरिजन हैं, भक्ति प्राप्त करके उसने नि:संदेह मार्वेâ की सफलता हासिल की है। यह बात अद्भुत है कि कम्युनिस्ट पाटी को सारे दक्षिण भारत में हरिजनों की भक्ति प्राप्त है। कापू बँटाईदारों के आँदोलनों के साथसाथ हरिजन मजदूरों के आंदोलन चलाने वाला कोई नया केन्द्र जब तक नहीं बनता, तब तक आँध्र की आबादी के इतने बड़े तबके को जागृत करने की या हरिजनों की भक्ति को पलटने की कोई आशा नहीं है।
झारखंड और गणतंत्र जैसी क्षेत्रीय और जातीय पार्टियों का उत्थान बहुत ही बेमिसाल विचित्र घटना है। आदिवासियों या जंगल वासियों के न अधिकारों के लिये न ही उनका दमन करने वाले दूषित कानूनों अथवा परिपाटियों के विरूद्ध झारखंड पार्टी शायद ही कभी लड़ी हो। वास्तव में, समाजवादी दल के लोग अथवा वैसे ही लोग उनके लिए कुछ इलाकों में लड़े। फिर भी वे झारखंड को वोट देते हैं, क्योंकि वह उनके साथ रहती है, उनके साथ ही खाती पीती और नाचती गाती है, उनके सुख दुख में वह भागी बनती है और वह प्राय: उन्हीं का अंग है। जैसे कुछ और मामलों में वैसे ही इस मामले में भी जाति ने राजनीतिक और सामाजिक भाईचारे में दरार डाल दी है। राष्ट्रीयस्तर की राजनीतिक और आर्थिक कार्यक्रम वाली पार्टियां जन्म, शादी, ब्याह खाने पीने और मृत्यु के मौके पर जब तक उनके साथ सामाजिक रूप में घुल मिल नहीं जाती, तब तक वे झारखंड जैसी पार्टियों का जो वर्चस्व कुछ इलाकों में है, उसे खत्म नहीं कर सकेंगी।
गणतन्त्र पार्टी का किस्सा कुछ अलग है। यह किस्सा निरन्तर निष्प्रभता का नहीं है। यह किस्सा है उस ज्योति का जो बुझ गयी, बीमारी ने फिर धर दबाया कंाग्रेस पार्टी के नये जालिम जनता के लिए इतने खराब साहिब हुये और, कुछ इलाकों में, इतने गन्दे कि वह अपने पुराने जालिमों को, राजाओं और जमींदारों को ही पसन्द करने लगी। कांग्रेस पार्टी ने जनता के साथ सचमुच वचन भंग किया, उड़ीसा इसका सुबूत है। भविष्य में क्या होगा कहना कठिन है। ऊब कर ही सही, जनता फिर एक बार अपनी तकदीर अपने पुराने जालिमों के हाथों सौंप सकती है। इस जाल के और आगामी जाल के कटने में और दस बरस भी लग सकते हैं। या सारे देश में जल्दी ही आने वाली हालत का चमत्कार भी इस दशक की घटनाओं को एक या दो बरस में ही समेट सकता है। हर हालत में, अपने वचन का पक्का और पुराने और नये जालिमों के साझे से पाक दामन वाला जातिविहीन शक्ति का नया केन्द्र होना चाहिए जो, जब जनता तैयार हो, उसे एक कर सके।
जाति प्रथा के प्रति अपने रुख में यह नया केन्द्र कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों से किस मानी में भिन्न होगा? आजकल हर एक आदमी जाति के विरूद्ध है। और फिर भी जाति प्रथा जीवित है, कुछ मानी में तो ऐसे कि जैसे पहले कभी न थी। इस विषैले कीटाणु के बारे में मैक्स वेबर जैसे प्रख्यात समाजशास्त्री अपने फलानुमानों में पूरे गलत साबित हुए हैं। उसका कहना था कि यूरोप-शिक्षित हिन्दुस्तानी, चूँकि उनकी दीक्षा तर्कनापरक विचारों और रहने सहने के ढंग पर हुई है, घर लौट कर जाति को खत्म करेंगे। वे इस बात को नहीं समझते थे कि ये यूरोप पलट हिन्दुस्तानी ज्यादातर ऊँची जातियों के ही होंगे और अपनी शिक्षा और बढ़ी हुई हैसियत के कारण विशिष्ट विवाहों के द्वारा वे जाति प्रथा को और भी मजबूत बनायेंगे। मुंह से तो जाति के विरूद्ध बोलना और काम से उसे दृढ़ करना दोनों साथ-साथ चलते हैं।
जाति का तीन अलग किस्म से विरोध होता है, एक जबानी, दूसरा निचले स्तर का और मिला जुला, और तीसरा वास्तविक। जाति के बारे में ऐसी आम जबानी निन्दा, जिससे कि वर्तमान ढांचे को आँच नहीं लगती, खूब जोर शोर से होती है। जाति प्रथा को बिलकुल ही गन्दी चीज बतला कर उसकी निन्दा की जाती है, किन्तु उसी तरह से उनकी भी निन्दा की जाती है, जो जाति प्रथा खत्म करने के लिए सक्रिय कदम उठाते हैं। जाति को नष्ट करने के लिए जीवनस्तर की बढोत्तरी और लियाकत और समान अवसर के सिद्धान्तों की दुहाई दी जाती है। सबकी आर्थिक उन्नति करो; सबको समान अवसर दो! ऐसा कहते हैं जाति का नाश करने वाले ये झूठे हिमायती, जैसे कि उन्नत स्तर और अवसर सिर्फ़ छोटी जातियों के लिए ही रहेंगे। जब सबको समान अवसर मिलेगा, तो उदार शिक्षा की ५ हजार बरस पुरानी परम्परा की जातियाँ ही सिर पर सवार रहेंगी। छोटी जातियों में जिस किसी के पास खास प्रतिभा होगी, वही इस परम्परा को तोड़ सकेगा। श्री नेहरू के नेतृत्व के तहत हिन्दुस्तान की राजनीतिक पार्टियों, कांग्रेस, कम्युनिस्ट और प्रजा सोशलिस्ट, के मन में यही घुसा हुआ है। वे चाहते हैं कि छोटी जातियों से खास योग्यता वाली औरतें और मर्द ही उनके साथ आएँ। किन्तु वे यह भी चाहते हैं कि पूरा ढांचा जैसा का तैसा बना रहे। वे ज्यादातर ऊँची जातियों में से आये हैं। परम्परा, योग्यता और आचार विचार पर आधारित उनके सामाजिक समूह को जब तक आंच न आए, वे अपनी जाति अथवा ऊँची और नीची जाति में भेद भाव की निन्दा करने में हिचकिचाते नहीं। छोटी जातियों में से अगर कोई योग्यता और तौर तरीकों में सिद्ध है तो उसका स्वागत होता है पर कितने लोग सिद्ध होंगे। बहुत कम। एक व्यक्ति की प्रतिभा के विरुद्ध होगा पाँच हजार बरसों का जालिम प्रशिक्षण और परम्परा। इस कुश्ती में सिर्फ़ बहुत ही तेजस्वी और बहुत ही योग्य व्यक्ति जीत सकता है। इसे कुछ बराबर की जोड़ वाली कुश्ती बनाने के लिए उन्हें जिन्हें अब तक दबा कर रखा गया है, असमान अवसर देने होंगे। किन्तु उस नकली यूरोपी, श्री नेहरू, के नेतृत्व में सतही यूरोप अभिमुख राजनीतिक पार्टियाँ इस असमान अवसर के मार्ग के खिलाफ ऐसा भयानक शोर मचाती हैं कि जैसे वह उनके बाहर से आये हुए और निहित स्वार्थों वाले समाजवाद के मार्ग की धर्म निन्दा ही हो।
निहित स्वार्थ का समाजवाद सिर्फ़ राजनीतिक और आर्थिक क्रान्ति की ही बात करता है। इसका मतलब होता है निम्नतम स्तर पर वेतन वृद्धि या बोनस देना और उच्चतम स्तर पर कारखानों इत्यादि में निजी पूँजी को खत्म करना। परिवर्तनशील वर्गों के यूरोप में भी, इस तरह की क्रांति शारीरिक और बौद्धिक श्रम के बीच भेद रखेगी। जातियों से बँधे हिन्दुस्तान में यह भेद समाज के स्वास्थ्य को नष्ट कर देगा। भारतीय समाज में बौद्धिक श्रम करने वालों की जाति बँधी हुई है; सैनिक जाति समेत, ये ऊँची जाति के हैं आर्थिक और राजनीतिक क्रान्ति हो जाने के बावजूद राज्य और कारखानों के मैनेजर उन्हीं में से बनेंगे। कम से कम तुलना में, जनता का बहुलांश निरन्तर शारीरिक और बौद्धिक हीनता की स्थिति में पड़ा रहेगा। किन्तु तब योग्यता और आर्थिक मानी के आधार पर ऊँची जाति की स्थिति को उचित ठहराया जाएगा जैसे कि अब उसे जन्म और बुद्धि के आधार पर उचित ठहराया जाता है। इसीलिये तो हिन्दुस्तान का बौद्धिक वर्ग, जो ज्यादातर ऊँची जाति का है, भाषा या जाति या विचार की बुनियादों के बारे में आमूल परिवर्तन करने वाली मानसिक क्रांति की सभी बातों से घबराता है। वह सामान्य तौर पर और सिद्धांत रूप में ही जाति के विरुद्ध बोलता है। वास्तव में, वह जाति की सैद्धान्तिक निंदा में सबसे ज्यादा बढ़ चढ़ कर बोलेगा पर तभी तक जब तक उसे उतना ही बढ़-चढ़ कर योग्यता और समान अवसर की बात करने दी जाये। जन्म से जाति के मामले में वह जो खोता है, उसे योग्यता से जाति के द्वारा पा लेता है। भाषा, व्याकरण, तौर तरीके, मेलजोल करने की क्षमता, मामूल के कामों में सलाहियत के बारे में उसकी योग्यता निर्विवाद है। इस निर्विवाद योग्यता को बनाने में पांच हजार बरस लगे हैं। कम से कम कुछ दशकों तक नीची जातियों को विशेष अवसर दे कर समान अवसर के नये सिद्धान्त द्वारा पांच हजार बरस की इस कारस्तानी को खत्म करना होगा। श्री नेहरू के नेतृत्व में हिन्दुस्तान की राजनीतिक पाटियां कांग्रेस या कम्युनिस्ट किसी बड़े पैमाने पर विशेष अवसर देने के पूरी तौर पर खिलाफ हैं। वे उसे जाति प्रेरित कदम कह कर उसकी निन्दा करते हैं जबकि वे स्वयं, शायद अनजाने ही, दुष्ट जाति भावना से भरे हुए हैं। वे जन्म से जाति वाली बात की निंदा करते हैं। पर योग्यता के सिद्धान्त को लागू करके वे अपनी खास हैसियत को सुरक्षित रखते हैं।
किसी भी हिसाब से हिन्दुस्तान की आबादी में ऊँची जाति वाले २० प्रतिशत से ज्यादा नहीं हैं। किन्तु देश में नेतागिरी की लगभग ८० प्रतिशत जगहों पर वे जमे हुए हैं। राष्ट्रीय क्रियाकलाप के चार मुख्य विभागों — व्यापार, सेना, ऊँची प्रशासनिक नौकरियाँ और राजनीतिक दल की ऊँची जगहों पर आसानी से ८० प्रतिशत ऊँची जाति वाले जमें हुए हैं। राजनीतिक दलों की ऊँची जगहों की हम जब बात करते हैं तो हमारा मतलब विधायिकाओं के सदस्यों से नहीं है, बल्कि उनका चयन करने वाली कार्यसमितियों से है। जब किसी राष्ट्र के मर्मस्थल के ८० प्रतिशत नेतृत्व को उसकी आबादी के २० प्रतिशत में से ही चुना जायेगा, तो निश्चय ही क्षय रोग की अवस्था आ जायेगी। उसकी ८० प्रतिशत आबादी अकर्मण्यता और अयोग्यता की अवस्था में पड़ जाती है। हमारा देश बीमार है और मौत के मुहाने पर बैठा है। ऐसे राष्ट्र को तन्दुरूस्त बनाने के लिए नेतृत्व का पूर्वनियोजित चयन करना होगा। राष्ट्र की कम से कम आधी या ६० प्रतिशत ऊँची नेतागीरी नीची जातियों के बीच से पूर्व नियोजित ढंग से चुननी होगी। इसे कानून के द्वारा करना आवश्यक नहीं है। इसकी उपादेयता समझ कर इसे करना अच्छा होगा। राष्ट्र के राजनीतिक नेतृत्व में परिवर्तन के द्वारा इसकी शुरूआत की जा सकती है। हाल ही में समाजवादी दल की राष्ट्रीय समिति के चुनाव ने दिखला दिया कि ऐसा हो सकता है। यह भी सही है कि बाहर की और अन्दर की भी अनभिज्ञ ऊँची जातियों ने इस दल की बड़ी बदनामी की। समय ही बतलाएगा कि यह बदनामी सफल होती है या नहीं। इस मौके पर इस पार्टी का जो कुछ भी हो, जाति के अर्थ में इस राष्ट्र को पुनर्जीवित करने के लिये, सफल होने तक बार-बार प्रयत्न करना चाहिये।
सच्चे मानी में ऊँची जातियों का ज्यादातर बहुमत तो नीची जातियों की पाँत में ही आता है। किन्तु वे इस स्थिति से अनभिज्ञ हैं। यही अनभिज्ञता तो दुनियां में अब तक इस बेमिसाल बनावटी सामाजिक व्यवस्था को कायम रखे हुये है। ५ या १० लाख लोगों से ज्यादा सचमुच ऊँची जाति के नहीं हैं। ये हैं पैसे वाले या बुद्धि वाले या असरदार लोग। ये बहुत ही खास जातियों के होते हैं जैसे बंगाली बड्डी, मारवाड़ी बनिये, काशमीरी ब्राह्मण जो व्यापार अथवा पेशे के नेताओं को उगलते हैं। सच्ची ऊँची जाति के दस लाख लोगों की इस सुई की नोंक वाली कटार पर आठ एक करोड़ झूठी ऊँची जातियाँ टिकी हुई है और फिर इन्हीं पर तीस एक करोड़ छोटी जातियाँ लदी हुई हैं। इस कटार ने समूचे राष्ट्र के जीवांगों को फाड़ कर छोड़ दिया है।
जाति की यह चक्की निर्दयता से चलती है। अगर वह छोटी जातियों के करोड़ों को पीस देती है, तो वह ऊँची जाति को भी पीस कर सच्ची ऊँची जाति और झूठी ऊँची जाति को अलग-अलग कर देती है। सच्ची ऊँची जाति कोट और कंठलंगोट या शेरवानी और चूड़ीदार पहनती है। ये है दिल्ली और अन्य राजधानियों के ब्राह्मण और बनिये, क्षत्रिय और कायस्थ। गाँवों और छोटे कसबों में आने जाने वाले द्विज केवल भ्रान्त रूप में इनसे सम्बन्धित हैं। ये झूठी ऊँची जातियाँ जनता की भूषा, धोती या पायजामा, पहनती हैं। लेकिन वे भ्रम को चिपटा लेते हैं और वास्तविकता को परे कर देते हैं। वे आदमी नहीं रह गये है; वे परम्परा की अकर्मण्य छाया बन गये हैं। दरअसल तो इन चलायमान संसार में जहाँ खुश्चेव लोग और आइजनहावर लोग कुछ सक्रिय राष्ट्रों की शक्ति पर इठलाते हैं, उनके बीच ये सच्ची ऊँची जातियाँ भी परम्परा की निष्प्रयोजन छाया है। श्री नेहरू और हिन्दुस्तान के राजनीतिक नेता लोग अपने ही देशवासियों को बड़े लगते होंगे; विश्व इतिहास में तो वे केवल कमजोर राष्ट्रों के उछलकूद करने वाले बौने ही हैं।
जाति कितनी अपरिमेय है और उसकी चक्की कितनी निर्दयता से पीसती है यह बनिया जाति के अन्दर सिर्फ़ वास्तविक, बल्कि नामकरण में भी जो भेदभाव है, उससे स्पष्ट होता है। पुराने जमाने का अच्छा खाता पीता, थोक व्यापारी, वैश्य बन गया। ठीक-ठीक यह कैसे हुआ कहना मुश्किल है। यह हो सकता है कि थोक व्यापारी या अच्छा खाता पीता वैश्य बना रहा, बाकी बनिये बन गये। बनिया जाति की बहुत बड़ी संख्या, तेली, जायसवाल, पंसारी इत्यादि के साथ पोंगापंथी लोग शूद्र जैसा व्यवहार करते हैं। वे पुराने जमाने के चिल्लर व्यापारी हैं, और आज भी, ज्यादातर वही हैं। पुराना थोक व्यापारी है द्विज, और पुराना चिल्लर व्यापारी है शूद्र। आज तक हमेशा भारतीय इतिहास में थोक व्यापारी और पुजारी की सांठगांठ रही। उनकी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक मिली भगत, जिसका मराठा राजनीति ने इतना सचित्र वर्णन किया कि उसे सेठजी-भटजी का जोड़ा नाम दिया, उन्हें द्विज और आधुनिक हिन्दू समाज की उत्कृष्ट उच्च जाति बना दिया। और यह खुली धोखेबाजी चल रही है, जिससे पैसे और प्रतिष्ठा के जमाव के रूप के अतिरिक्त जाति और किसी रूप में नहीं प्रकट होती।
द्विजों के नेतृत्व में जाति पर यह पहला जबानी हमला, कुछ खास शूद्र समूहों के नेतृत्व में जाति के विरूद्ध दूसरे थोथे आन्दोलन से बराबर मेल खाता है। शूद्रों के अन्दर कुछ जातियाँ तादाद में शक्तिशाली हैं और कुछ इलाकों में तो बहुत ही ज्यादा शक्तिशाली हैं। बालिग मताधिकार के युग ने उनके हाथ में शक्ति सौंप दी है। दक्षिण के मुदलियार और रेड्डियों ने और पश्चिमी हिन्दुस्तान के मराठों ने उसका इस्तेमाल किया है। वे ही, न कि द्विज, अपने इलाकों के राजनीतिक मालिक हैं, हालाँकि वहाँ भी ऊँची जाति ने अपनी आर्थिक पकड़ को मजबूत बना लिया है और फिर से राजनीतिक क्षेत्र में आने का बहुत ही चालाक और धोखे का प्रयास कर रही है। यह सम्भव है, मुख्यरूप से इसलिए कि जाति के विरूद्ध ये आन्दोलन थोथे हैं। समाज को ज्यादा न्यायसंगत, चलायमान और क्रियाशील बनाने के अर्थ में वे समाज को नहीं बदलते। वे सभी नीची जातियों को अधिकार नहीं देते, बल्कि सिर्फ़ उसको जो उनके बीच अकेली सबसे बड़ी हो। इसलिए वे जाति का नाश नहीं करते, बल्कि सिर्फ़ पद और अवसर में हेरपेâर करते हैं। ब्राह्मण अथवा वैश्य को लगे हुए ऊँची जाति के तमगे उनसे खीच कर मराठा या रेड्डी को चिपका दिये जाते हैं। इससे कोई समस्या हल नहीं होती। बल्कि बाकी सभी नीची जातियाँ इससे जुगुप्सित होती हैं और ऊँची जातियाँ गुस्से में आ जाती हैं। अपनी समूची ग्लानि और कुछ ज्यादा ही उत्तप्त अवस्था में जाति कायम रहती है।
सारे देश के पैमाने पर अहीर, जिन्हें ग्वाला, गोप भी कहा जाता है, और चमार जिन्हें महार भी कहा जाता है, सबसे ज्यादा संख्या की छोटी जातियाँ हैं। अहीर तो हैं शूद्र और चमार हैं हरिजन, हिन्दुस्तान की जाति प्रथा के ये वृहत्काय हैं, जैसे द्विजों में ब्राह्मण और क्षत्रिय। अहीर, चमार, ब्राह्मण और क्षत्रिय, हर एक २ से ३ करोड़ हैं। सब मिला कर ये हिन्दुस्तान की आबादी के करीब १० से १२ करोड़ हैं। फिर भी इनकी सीमा से हिन्दुस्तान की कुल आबादी के तीन चौथाई से कुछ कम बाहर ही रह जाते हैं। कोई भी आन्दोलन जो उनकी हैसियत और हालत को बदलता नहीं, उसे थोथा ही मानना चाहिए। इन चार वृहत्कायों की हैसियत और हालत के परिवर्तन में उन्हें ही बहुत दिलचस्पी हो सकती है पर पूरे समाज के लिए उनका कोई खास महत्व नहीं है।
उत्तर हिन्दुस्तान के अहीरों ओर चमारों ने भी, शायद पर्याप्त जागरूक न रहते हुए, रेड्डियों और मराठों जैसे ही प्रयत्न किये हैं। उन्हें असफल होना ही था, पहले तो इसलिए कि उत्तर में द्विज बहुत संख्या में हैं और, दूसरे इसलिए कि उत्तर की नीची जातियों के बीच संख्या में वे उतने शक्तिशाली नहीं हैं। इसके बावजूद कुछ दब कर प्रयत्न हो ही रहा है। कई मानी में जनतन्त्र है संख्या का ही शासन। ऐसे देश में जहाँ समुदायों का संसर्ग जन्म और पुरानी परम्परा के आधार पर होता है, सबसे ज्यादा संख्या वाले समुदाय राजनीतिक और आर्थिक विशेषाधिकार प्राप्त कर ही लेते हैं। संसद और विधायिकाओं के लिए उन्हीं के बीच से उम्मीदवारों का चयन करने के लिए राजनीतिक दल उनके पीछे भागते फिरते हैं।
और, व्यापार और नौकरियों में अपने हिस्से के लिए ये ही सबसे ज्यादा शोर मचाते हैं। इसके परिणाम बहुत ही भयंकर होते हैं। सैकड़ों नीची जातियाँ जो संख्या में इन से कमजोर हैं, पर सब मिला आबादी का बहुत बड़ा तबका है, निश्चल हो जाती है। जाति पर हमले का मतलब होना चाहिए सबकी उन्नति न कि सिर्फ़ किसी एक तबके की उन्नति। एक ही तबके की उन्नति से जातिप्रथा के अन्दर कुछ रिश्ते परिवर्तित होते हैं, किन्तु जातियों के आधार में कोई बदलाव नहीं आता।
एक और मानी में भी किसी एक तबके की उन्नति घातक होती है। नीची जातियों के जो लोग ऊँची जगहों पर पहुंच जाते हैं वे मौजूदा ऊँची जातियों में घुल मिल जाना चाहते हैं। इस प्रक्रिया में वे लाजमी तौर पर ऊँची जातियों के दुर्गुण सीख जाते हैं। ऊँची जगह पर पहुंचने के बाद, सभी जानते हैं कि नीची जाति के लोग कैसे अपनी औरतों को परदे में कर देते हैं जो कि ऊँची उच्च जाति में नहीं होता, बल्कि बिचली उच्च जाति में ही होता है। इसके अलावा, ऊँची उठने वाली नीची जातियाँ द्विज की तरह जनेऊ पहनने लगती हैं, जिससे वे अब तक वंचित रखे गये, लेकिन जिसे अब सच्ची ऊँची जाति उतारने लगी है। इस सबसे भेदभाव जारी रखने का एक और नतीजा निकला। इसके अलावा, इस तरह की उन्नति से नीची जातियों के बीच कोई गरमी नहीं आती। जो उन्नत हो जाते हैं वे अपने ही समुदाय से अलग हो जाते हैं अपने ही मूल नीचे समुदायों को गरमाने के बजाय, वे जिन जगहों पर पहुँचते हैं वहाँ की ही ऊँची जातियों का अंग बन जाने की कोशिश करते हैं। इस अत्यन्त अनुभागीय और सतही उन्नति की प्रक्रिया से एक और दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति पैदा होती है। इस उन्नति से अच्छे गुण सीखने या योग्य बनने का टेक नहीं मिलता, बल्कि जाति भड़काने और लड़ाने भिड़ाने का टेक मिलता है।
बंगाल जैसे इलाके में कुछ अजीब हालत बन गयी है। आम तौर पर यह माना जाता है कि बंगाल में जातीय राजनीति नहीं है। इसका मतलब यह है कि नीची जातियों का बहुत बड़ा हिस्सा बोलना ही नहीं जानता, तो उसके शोर मचाने का सवाल ही नहीं उठता। वे चुप हैं। वहाँ की ऊँची जातियाँ बहुत बोलती हैं। इसके अतिरिक्त वे कुछ कुछ यूरोपी लोगों जैसे हैं, क्योंकि हर एक ऊँची जाति ने, कम से कम शहरों में, अपना अलग व्यक्तित्व बनाने की कोशिश की है। नीची जातियों की यह चुप्पी और ऊँची जातियों के तुलनात्मक आधुनिकीकरण से बंगाल की, जो हिन्दुस्तान का जाति से सबसे ज्यादा पीड़ित हिस्सा है, स्थिति पर धुँधलका छा गया है। किसी दिन यह चुप्पी टूटेगी। उसी समय जाति के विरूद्ध फिर से थोथे आन्दोलन हो सकते हैं। महीश्य हैं शूद्र और नामशूद्र हैं हरिजन। ये दोनों बंगाल की नीची जातियों में संख्या में सबसे ज्यादा हैं। जाति का नाश करने की दृष्टि से नहीं, बल्कि ब्राह्मण और कायस्थ की बराबरी या प्रतिस्पर्धा करने के लिए ये जोर मार सकते हैं। ऐसे थोथे आन्दोलनों को रोकने का अब समय है। न सिर्फ़ नामशूद्र या महीश्य
डॉ. राम मनोहर लोहिया ::६५ ६६:: अस्पृश्यता का सवाल : गाँधी और आम्बेडकर
को ही, बल्कि सभी जातियों को नेतागीरी की जगहें देने की पूर्व नियोजित नीति पर चलना चाहिए।
हिन्दुस्तान के इतिहास के सामने जाति के विरुद्ध तीसरे और सच्चे आंन्दोलन का जो विषय है, अब हम उसको लेते हैं। औरत, शूद्र, हरिजन, मुसलमान और आदिवासी, समाज के इन ५ दबे हुए समुदायों को, उनकी योग्यता आज जैसी भी हो, उसका लिहाज किये बिना, उन्हें नेतृत्व के स्थानों पर बैठाना इस आन्दोलन का लक्ष्य होगा। आज तो उनकी योग्यता कम है ही। फिर, योग्यता का परीक्षण भी ऐसा होता है कि वह ऊँची जाति के ही पक्ष में जाता है। इतिहास के हजारों बरसों ने जो किया उसे धर्मयुद्ध के द्वारा ही दूर किया जा सकता है। समाज के दबे हुए समुदायों में सभी औरतों को, द्विज औरतों समेत जो कि उचित ही है, शामिल कर लेने पर पूरी आबादी में इनका अनुपात ९० प्रतिशत हो जाता है। दबी हुई मानवता का इतना बड़ा समुद्र हिन्दुस्तान के हर १० में ९ मर्द और औरतें, चुप्पी में ऊँघ रही हैं। या, बहुत हुआ तो, जीवन्त प्रतीत होने वाली चिंहुक सुनाई पड़ जाती है। उनके दुबले पतले अंगों पर आर्थिक और राजनीतिक उन्नति से अपने आप कुछ चरबी चढ़ सकती है। जाति का नाश करके ही उन्हें स्वाभिमानी बनाया जा सकता है। और यह नि:सन्देह, आर्थिक उन्नति के साथ साथ होना चाहिए। तभी उन्हें पूरे आदमी के लायक और जागरूक जनता बनाया जा सकता है। यह नहीं भूलना चाहिए कि ऊँची जातियाँ, द्विजो को भी जाति के इस क्षय रोग से भंयकर नुकसान उठाना पड़ा है। उनकी शिक्षा और संस्कृति, मीठी बोली और शिष्टाचार का मुखौटा लगा कर, धोखाधड़ी के द्वारा झूठ और निज की उन्नति के मारक जहर को छिपा देती है। दबे हुए समुदायों को ऊँचा उठाने के धर्मयुद्ध से ऊँची जाति भी पुनजीर्वित होगी और उससे सारे चौखटे और मूल्य, जो आज बिगड़ गये हैं, ठीक हो जाएँगे। नीची जातियों के कुछ २०-३०-५० लोगों को कंजूसी से कुछ खास जगहें दे देने में और इस धर्म युद्ध में घालमेल नहीं करना चाहिए। इससे ऊँची जाति चिढ़ जाती है। हल्ला मचाना शुरू हो जाता है। यह नीची जातियों को गरमा भी नहीं सकता। जीवन के किसी क्षेत्र में, कई हजारों के उच्चजातीय अल्पतंत्र में अगर नीची जातियों के १५-२० लोगों को जोड़ दिया जाता है, तो इससे क्या होना जाना है? उन्हें सैकड़ों की संख्या में जोड़ने की आवश्यकता है। आज जो वोट पँâसाने, झगड़ा कराने और जलन पैदा कराने का यंत्र है, फिर वही धर्मयुद्ध बन जाएगा। ऊँची जगहों पर नीची जातियों के एकाघ व्यक्ति के पहुँच जाने पर भी लोग आँखें फाड़ फाड़ कर देखने लगते हैं, जब कि ऊँची जातियों के एक साथ बीसियों व्यक्तियों के पहुँच जाने को स्वाभाविक माना जाता है। इसी तथ्य से पता चलता है कि कितना बड़ा धर्म युद्ध आवश्यक है। इस बात पर बार-बार जोर डालना चाहिए कि नीची जातियों के सैकड़ों लोग, जिन पर अन्यथा ध्यान नहीं जा पाता, उन पर पूर्व नियोजित नीति के द्वारा ध्यान देना चाहिए।
दबी हुई जातियों और समुदायो की उन्नति करने की इस नीति से जहर भी बहुत निकल सकता है। वास्तव में सावधानी बरतने पर इस जहर के कुछ दूषित पहलुओं को सिर्फ़ दबाया जा सकता है; उसे पूरी तौर पर दूर नहीं किया जा सकता। लोगों के मन पर इसका जो तत्कालिक असर पड़ेगा, उससे यह एक जहर निकल सकता है कि वह फुर्ती से द्विज को तो नाराज कर देगा पर उतनी ही फुर्ती से शूद्र को प्रभावित नहीं करेगा। शूद्र के जागृत होने के पहले ही स्थितियों के प्रति द्विज अपनी असंदिग्ध जागरूकता और भटका देने की क्षमता से इस नीति पर चलने वालों पर सीधी या उलटी बदनामी थोपने में सफल हो सकता है। दूसरे छोटी जातियों के बीच वृहत्काय, जैसे अहीर और चमार, इस नीति के फल को सैकड़ों छोटी जातियों के बीच बाँटे बिना खुद ही चट कर ले सकते हैं, जिसका नतीजा होगा कि ब्राह्मण और चमार तो अपनी जगहें बदल लेंगे पर जाति वैसी ही बनी रहेगी। तीसरे, नीची जातियों के स्वार्थी लोग अपनी निज की उन्नति करने के लिए इस नीति का अनुचित इस्तेमाल कर सकते हैं और वे लड़ाने भिड़ाने और जाति की जलन के हथियारों का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। चौथे चुनाव या चयन का हर एक मामला शूद्र और द्विज के बीच कटुतापूर्ण बोलाचाली, मारा पीटी का अवसर बन सकता है। दबी जातियों के ओछे तत्व इस हथियार का इस्तेमाल कर सकते हैं। किसी खास द्विज को, जिसके कि वे खिलाफ हैं, दूर करने की अपनी सनकी इच्छा के वशीभूत होकर वे सभी द्विजो को पूरी तौर पर हटा देने की कोशिश कर सकते हैं या असफल हो जाने पर, सारे वातावरण को संदेह से दूषित कर सकते है। पाँचवे वे आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं को धुँधला बना सकते हैं या उन्हें पृष्ठभूमि में धकेल सकते हैं। अपने स्वार्थ साधने के लिए नीची जातियों के प्रतिक्रियावादी तत्व जाति विरोधी नीति का बेजा इस्तेमाल कर सकते हैं। मिसाल के लिए, पिछड़ी जाति आयोग की रपट ने, नीची जाति जिसकी दुहाई देती रहती है, जनता की बड़ी समस्याओं से कन्नी काट ली है, ऐसी समस्याएँ जैसे अलाभकर जोेत के टिकस का खातमा और सभी आमदनियों की ऊँचाई नियत करना। उसकी ठोस सिफारिशों की संख्या कुल दो है। जिनमें एक अच्छी है और दूसरी खराब। पिछड़ी जातियों के लिए नौकरियों में सुरक्षा की उसने सिफारिश की है। और वह सुरक्षा इस आयोग की इच्छा से बढ़ कर न्याय-संगत रूप में अनुपातहीन हो सकती है। लेकिन शिक्षा में भी ऐसी ही सिफारिश करके उसने गलती की है। स्कूलों और कालिजों में, अगर जरूरत हो तो पिछड़ी जातियाँ २ या ३ पाली की माँग कर सकती हैं, लेकिन हिन्दुस्तान के किसी भी बच्चे को किसी शैक्षणिक संस्था के दरवाजे में घुसने न देने की माँग नहीं करनी चाहिए।
यह नीति ऐसे जहर उगल सकती है। इस जहर से लगातार जागरूक रहने पर उस पर बड़ी मात्रा में रोक लगायी जा सकती है। उस जहर के डर से हमें इस नीति की सृजनात्मक और उपचारात्मक चमत्कारी शक्ति से अन्धे नहीं बन जाना चाहिए। हिन्दुस्तान अपने इतिहास की सबसे ज्यादा स्पूâर्तिदायक क्रान्ति से अवगत होगा। जनता ऐसी जीवन्त हो जाएगी कि जैसी पहले कभी न थी। इस प्रकिया में वह मानवता के लिए भी एकाध मार्ग बतला सकती है। काल माक्र्स ने वर्ग का नाश करने का प्रयत्न किया। जाति में परिवर्तित हो जाने की उसकी क्षमता से वे अनभिज्ञ थे, लाजमी तौर पर हिन्दुस्तान की जाति एक अचल वर्ग तो है ही। इस मार्ग को अपनाने पर पहली बार वर्ग और जाति का एक साथ नाश करने का एक तजुरबा होगा।
ऊँची जाति के युवजनों को अब अपनी पूरी ताकत से उठना चाहिए। इस नीति में अपने स्वार्थो पर हमला देखने के बजाय, उसमें जनता को नवजीवन देने की क्षमता के रूप में उसे देखना चाहिए। आखिर ऊँची और नीची जातियों के बीच के बहुत ही कम विवाह सम्बन्धों में, द्विज और हरिजन के बीच वाले विवाह तो देखे जा सकते हैं पर शूद्र और हरिजन के बीच नहीं। ऊँची जाति के युवजन को छोटी जातियों के लिए खाद बन जाने का निश्चय करना चाहिए ताकि एक बार तो जनता अपनी पूरी तेजस्विता में पल्लवित पुष्पित हो। अगर मानव स्वभाव अपरिमित त्याग के लिए तत्पर रहता है, तो ऊँची जातियाँ सलाहकार बनेंगी और कार्यकारिणी होंगी सभी नीची जातियाँ। अगर हर एक जगह यह सम्भव नहीं है, तो जितनी भी जगहों पर सम्भव हो सके हो। मानव जाति की महान कुठाली में आस्था और समूची हिन्दुस्तानी जनता के पौरुष में उतनी ही आस्था के साथ ऊँची जाति को परम्परा और जनता का मेल करने के लिए तैयार होना चाहिए। इसके साथ ही साथ नीची जातियों के युवजन के कन्धे पर भारी बोझ आ जाता है। औरतों, शूद्रों, हरिजनों, मुसलमानों और आदिवासियों का अब सर्वोपरि ध्येय यही होना चाहिये कि उन्हें ऊँची जातियों की परम्पराओं और शिष्टाचारों का स्वांग नहीं रचना है, उन्हें शारीरिक श्रम से कतराना नहीं है, व्यक्ति की स्वार्थोन्नति नहीं करनी है, तीखी जलन में नहीं पड़ना है, बल्कि यह समझ कर कि वे कोई पवित्र काम कर रहे हैं, उन्हें राष्ट्र के नेतृत्व का भार वहन करना है। (१९५८, जून )