जाति कौन तोड़ेगा? / राजकिशोर
जाति कौन तोड़ेगा? इस प्रश्न में ही निहित है कि जाति प्रथा टूट कर रहेगी। लेकिन क्या वाकई?
जाति प्रथा को अतीत में कम से कम दो बार गंभीर धक्का लग चुका है। पहला दौर था जैन और बौद्ध धर्मों के फ़ैलने का। लेकिन जैन धर्म एक खास जाति तक सीमित हो कर रह गया और बौद्ध धर्म भारत में टिक ही न सका। जाति प्रथा को दूसरा आघात देने की कोशिश की भक्ति आंदोलन ने। लेकिन यह मुख्यत: उन जातियों का आंदोलन था, जिन्हें समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता था। जाति की उनकी आलोचना वस्तुत: उनकी निजी और सामाजिक पीड़ा का ही चीत्कार था। इस चीत्कार को सवर्ण चित्त ने उत्सुकता से सुना, लेकिन इससे व्यवस्था के ढाँचे में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ। जाति सिर पर चढ़कर बोलती रही। इस आंदोलन से निकले हुए संत बाद में स्वयं भिन्न-भिन्न जातियों की संपत्ति हो गए और उनके प्रगतिशील संदेश को क्रमश: भुला दिया गया। कबीर और रैदास अपनी सामाजिक और आध्यात्मिक चेतना में एक थे, पर उनके शिष्यों के बीच तरह-तरह की दूरियाँ बनी रहीं। जाति प्रथा को हाल में चुनौती मिली है आधुनिकता की शक्तियों से। लेकिन अभी तक भारत में ये शक्तियाँ जाति प्रथा को कमजोर करने में कोई खास सफल नहीं हुई हैं। यह देख कर लगता है कि जाति प्रथा ने स्थायित्व का अमृत पिया हुआ है।
अभी तक जाति प्रथा को जो चुनौती मिलती रही थी, उसके पीछे भारतीय समाज की आर्थिक गत्यात्मकता बहुत कम थी। यह सच है कि ईसा पूर्व पाँचवीं और छठी शताब्दी का भारत, जब जैन और बौद्ध धर्मों का प्रभाव तेजी से फ़ैला और पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी का भारत, जब भक्ति आंदोलन की धाराएं काफी तेज थीं, एक नहीं थे। उनके बीच कम से कम दो हजार वर्षो का आर्थिक-सामाजिक परिवर्तन था। लेकिन यह परिवर्तन बहुत ही मंद गति से हुआ था। मंद गति से होने वाले परिवर्तनों के प्रभाव नाटकीय ढंग से सामने नहीं आते। साथ ही, ये परिवर्तन जिस सभ्यता में हुए, वह मूलत: ग्राम-केंद्रित और कृषि-आधारित सभ्यता थी। जैन और बौद्ध धर्मों ने ज्यादातर वैश्यों के जीवन को प्रभावित किया और भक्ति आंदोलन के अधिकतर संत विभिन्न शहराती पेशों से आए थे। नगरों में और व्यवसायी वर्ग में नए विचार तेजी से पैदा होते हैं, क्योकि इनकी सामाजिक और सांस्कृतिक अंत:क्रिया विस्तृत होती है। लेकिन ये विचार किसी समाज को बदलने में सफल तभी होते हैं, जब गांवों में फ़ैल सकें। यह नहीं हो सका। भक्त संतों ने खास कर नीची मानी जानेवाली जातियों में व्यापक रूप से प्रवेश किया, किंतु मुख्यत: एक नई धार्मिक प्रणाली के प्रतीक के रूप में। इनके संदेश की सामाजिक प्रगतिशीलता पर व्यापक अमल तभी हो पाता, जब पूरे समाज का कोई नया और स्वतंत्र आर्थिक आधार विकसित हो पाता। एक लगभग ठहरी हुई कृषि व्यवस्था में इसके लिए कोई गुंजाइश नहीं थी। अत: कहा जा सकता है कि जाति प्रथा को अब तक जो चुनौतियाँ मिली थीं, उनका वैचारिक और भावनात्मक आधार ही ज्यादा प्रबल था, जबकि ब्राह्मणवाद सिर्फ़ एक विचार नही था। वह एक मजबूत आर्थिक व्यवस्था पर टिका हुआ था।
लेकिन अब यह आर्थिक व्यवस्था चरमरा रही है। इसका कारण आधुनिक विचार कम आधुनिक जीवन-पद्धति ज्यादा है। आधुनिक विचार की विफलता का सर्वाधिक रोचक दृश्य २१ सितंबर १९९५ को प्रकट हुआ, जब देश के एक बड़े हिस्से में शंकर-सुत गणेश ने टनों दूध पिया। बेशक आधुनिक विचार ने एक वर्ग के जीवन को बदला है, लेकिन यह ज्यादातर निजी जीवन में हुआ है और किसी सामाजिक आंदोलन की शक्ल नहीं ले सका है। इस मामले में तीसरी दुनिया के अनेक देशों की तरह भारत के मध्य वर्ग ने काफी निराश किया है। यूरोप के मध्य वर्ग ने अनेक सामंती मूल्यों से विद्रोह कर प्रगतिशील काम किया था, किंतु भारत के मध्य वर्ग ने अधिकंाशत: सामंती मूल्यों को संरक्षण दिया है। यहाँ तक कि इसके कम्युनिस्ट हिस्से ने भी जात-पाँत के मूल्यों का तिरस्कार करना जरूरी नहीं समझा। जो विचारों से इतने उग्र नहीं थे और फिर भी अपने को उदार तथा प्रगतिशील मानते थे (इनका सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधित्व जवाहरलाल नेहरू करते थे), उनका मानना था कि सामाजिक अपप्रथाओं को दूर करने के लिए किसी विशेष प्रेरणा या अभियान की जरूरत नहीं है। विकास की प्रक्रिया में वे स्वत: नष्ट हो जाएँगी। मानना पडेगा कि यह आशावाद भारतीय समाज को अप्रिय सच्चाइयों से मुठभेड़ न कर पाने का आलीशान बहाना था। इस बहाने का कपट उजागर हो जाने के बावजूद उससे उपजा आशावाद अब भी जारी है। यहाँ तक कि भारतीय जनता पार्टी भी, जो अपने को कांग्रेस का उत्तराधिकारी मानती है, इसी आशावाद का शिकार है। वह पिछड़ों और दलितों को अपनाना चाहती है, लेकिन उन्हें पिछड़ा और दलित बनाए रख कर। हिंदू एकता उसके लिए राजनैतिक मुद्दा है—सामाजिक मुद्दा नहीं। सामाजिक स्तर पर तो विभाजित हिंदू समाज ही उसे स्वीकार्य है। इसके बावजूद आर्थिक व्यवस्था और राजनैतिक तंत्र बदलने से भारतीय समाज में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। इनके कारण जाति का प्रश्न एक नए ढंग से निर्णायक हो उठा है।
सच तो यह है कि इन परिवर्तनों के परिणामस्वरूप जाति प्रथा कुछ और मजबूत ही हुई है, हालाँकि उसका दंश भी कम हुआ है। इसका कुछ श्रेय ब्रिटिश शासकों को है और कुछ बालिग मताधिकार पर आधारित लोकतंत्र को। ब्रिटिश सत्ता ने निस्संदेह दलित जातियों को विशेष रूप से राजनैतिक संरक्षण दिया। इसके पीछे उनका मानवतावाद नहीं, बल्कि भारत में ब्रिटिश सत्ता के सामाजिक आधार की खोज थी। यह दिलचस्प है कि ब्रिटिश सत्ता को भारत में समर्थन देनेवाले वर्गों में एक ओर उच्च वर्णों के लोग थे और दूसरी ओर अत्यंत निम्न वर्ण के लोग। उच्च वर्णों के लिए यह विदेशी सत्ता के साथ सहयोग कर अपनी देशी सत्ता बनाए रखने के पुराने खेल का ही विस्तार था। ध्यान देने की बात है कि १८५७ के निर्णायक संघर्ष में मध्यवर्ती जातियों और उनके राजनैतिक धार्मिक नायकों की विशेष भूमिका थी। इस संघर्ष को कुचलने में उच्च वर्णों के लोगों और सामंतों ने सहयोग ही किया था। यह वर्ग स्वाधीनता संग्राम में तभी बड़े पैमाने पर शामिल हुआ, जब सत्ता का हस्तांतरण लगभग निश्चित हो चुका था। दूसरी ओर, दलित जातियां ब्रिटिश सत्ता से न्याय की आशा करती थीं। ये भारतीय समाज के पराजित लोग थे और ब्राह्मणवादी व्यवस्था के जारी रहते हुए इनके लिए सम्मानजनक जीवन का कोई आश्वासन नहीं था। यह सच नहीं है कि आधुनिकता का प्रतिनिधित्व करने वाली ब्रिटिश सत्ता ने ब्राह्मणवाद को कोई चुनौती दी या जाति प्रथा को अमान्य किया। लेकिन यह स्वाभाविक ही था, क्योंकि दुनिया भर में पूँजीवाद को सामंतवाद और प्रतिक्रियावाद के साथ समझौता करते पाया गया है। फिर भी दलितों के प्रति उन्होंने अपनापन दिखाया, क्योंकि दलित अपने समाज के भीतर कुचला हुआ था और अपनी मुक्ति के लिए वह किसी का भी सहयोग लेने के लिए तैयार था। आजादी के बाद कांग्र्रेसी सत्ता लंबे समय तक दलितों को अपने साथ रखने में सफल हुई, तो इसी कारण। हाँ, दलित नेताओं की भूमिका जरूर बदल गई। पहले डॉ. आम्बेडकर जैसे नेता पैदा हुए। अब जगजीवन राम जैसे लोगों को महत्व दिया गया। वह संघर्ष का समय था और यह समझौते का। इस विपर्यय का एक और महत्वपूर्ण प्रतीक तमिलनाडु में रामस्वामी नायकर के नेतृत्व में दलितों और पिछड़ी जातियों का आत्म-सम्मान आंदोलन था। नायकर सभी प्रकार के धार्मिक और सामाजिक अन्यायों के खिलाफ आग उगलते थे, लेकिन उनके आंदोलन के बल पर राज्य की सत्ता में आई द्रविड़वादी पार्टियाँ सभी तरह के प्रतिक्रियावादी मूल्यों को प्रश्रय दे रही हैं।
लेकिन दलितों की आबादी कम है। अत: वे राजनीति की धारा को बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं कर सकते। यही कारण है कि स्वातंत्र्योत्तर भारत में भारतीय राजनीति में दलितों की वाणी तब तक स्पष्ट रूप से नहीं सुनी जा सकी, जब तक उनके एक मध्य वर्ग का विकास नहीं हो गया। कांशीराम और मायावती इसी दलित मध्य वर्ग के नेता हैं। इस वर्ग के विकास का श्रेय निस्संदेह कांग्रेस की हरिजन कल्याण नीतियों को ही है। इन नीतियों
को दो हिस्सों में बाँट जा सकता है- (१) आरक्षण, जिसे राष्ट्रीय स्तर पर मान्य कराने का श्रेय डॉ० आंबेडकर को है। १९३२ के पूना समझौते के खिलाफ अनाप-शनाप बोलनेवालों की संख्या आज काफी बढ़ गई है, लेकिन यह भूलने की बात नहीं है कि इसी समझौते की मार्फ़त ही भारत के सवर्ण नेतृत्व ने पहली बार दलितों को आरक्षण देने के सिद्धांत को मान्यता दी थी। (२) दलितों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए विशेष कानूनी और प्रशासनिक उपाय। इन दोनों प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप ही दलितों के बीच एक छोटा-सा मध्य वर्ग उभर पाया, जिसका नेतृत्व करते हुए कांशीराम ने परिस्थितियों के चक्र से उत्तर प्रदेश में अपनी पार्टी की सरकार बनाने में सफलता प्राप्त कर ली। लेकिन इस सामयिक और आधारहीन सफलता से किसी दूरगामी भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए। दलित राजनीति का पूर्ण अभ्यदुय अभी बाकी है। लेकिन पिछड़ी जातियों की राजनीति आज अपने उत्कर्ष पर है। उसने देश के लगभग सभी हिस्सों में सत्ता पर काफी कब्जा कर लिया है। यह देश में लोकतांत्रिक राजनीति की ताकतों को बल मिलने से ही हुआ है कि आज कोई भी राजनैतिक दल पिछड़ी जातियों की उपेक्षा नहीं कर सकता। लोकतंत्र में ताकत का फ़ैसला संख्या-बल से होता है। और भारत में शूद्र ही बहुसंख्यक हैं। अत: उन्हें एक न एक दिन सामने आना ही था।
क्या इस सबसे जाति प्रथा कमजोर नहीं हुई है? सच तो यह है कि जाति प्रथा ने एक नई दृढ़ता प्राप्त कर ली है। अब ब्राह्मणवाद तथा मनुवाद की निंदा की जाती है, सामाजिक न्याय की बात की जाती है, आरक्षण की बात की जाती है, किंतु जातिविहीन समाज की बात नहीं की जाती। दिलचस्प यह है कि यह बात न तो साम्यवादी करते हैं, जो सिद्धांतत: सभी प्रकार के सामाजिक और आर्थिक वर्गों के विरुद्ध हैं और न भाजपा के नेता, जो हिंदू एकता की कामना करते हैं। यदि जातियाँ जड़ीभूत वर्ग हैं, तो फिर वर्ग संघर्ष का एक रूप जाति व्यवस्था की समाप्ति क्यों नहीं होनी चाहिए? निस्संदेह कुछ नक्सलवादी समूहों ने कुछ सर्वहारा जातियों को एक आर्थिक वर्ग के रूप में संगठित किया है। किंतु वर्ग संघर्ष के लक्ष्यों और जाति संघर्ष के लक्ष्यों में फर्वâ है। वर्ग संघर्ष का लक्ष्य वर्ग शत्रु का सफाया या उससे ज्यादा से ज्यादा रियायतें वसूल करना होता है, जबकि जातिविहीनता की ओर बढ़ने के लिए संघर्ष के साथ प्रेम और समीपीकरण की जरूरत है। जातियों के बीच सिर्फ़ वर्ग संघर्ष चलाते हुए यह समीपीकरण हासिल नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर भाजपा और संघ के लोग चाहें भी, तो जाति प्रथा के सवाल को छू नहीं सकते, क्योंकि इससे तथाकथित हिंदू एकता खंडित होती है। जनता दल और समाजवादी पार्टी जैसे संगठन जाति-व्यवस्था की निांदा तो खूब करते हैं, किन्तु वे वस्तुत: जाति प्रथा का नाश चाहते नहीं क्योंकि जाति प्रथा नहीं रही, तो पिछड़ी जाति की अलग राजनीति का क्या होगा? इस तरह दिखाई यह पड़ रहा है कि जाति प्रथा में कुछ नए निहित स्वार्थ प्रवेश कर गए हैं। पहले ये निहित स्वार्थ उच्च जातियों के थे, क्योंकि इसके कारण उन्हें विशेषाधिकार हासिल होते थे। वह सामंतवाद का जमाना था, जिसमें एक व्यक्ति का या एक अल्पसंख्यक वर्ग का शासन चल सकता था। यह लोकतंत्र का युग है, अत: अब तो बहुसंख्यकों का ही शासन चलेगा और ऊँची जातियाँ बहुत चतुराई से ही अपना वर्चस्व बनाए रख सकती है। गैर सवर्ण समुदाय अब जाति के आधार पर ही विशेषाधिकार की माँग कर सकता है। जाति प्रथा का सर्प पहले अपने मुंह से काटता था, अब यह अपनी दुम से हमला कर रहा है।
यह निहित स्वार्थों के नए परिपाक का ही एक अशुभ नतीजा है कि पिछड़ी जातियों और दलितों में समय-समय पर राजनैतिक एकता तो हो जाती है, किन्तु सामाजिक एकता नहीं हो पाती। इसका कारण यह है कि दोनों ही समूहों के राजनैतिक नेतृत्व के पास कोई प्रगतिशील सामाजिक दर्शन नहीं है। उदाहरण के लिए, दलित नेतृत्व दलितों के बीच मौजूद जाति प्रथा की दीवारों को तोड़ना नहीं चाहता और अपने समाज के प्रति पिछड़े नेतृत्व का भी यही रुख है। दोनों ही समूहों में यह शिकायत आम है कि कुछ विशेष जातियों ने राजनैतिक सत्ता का सारा लाभ हथिया लिया है। उदाहरण के लिए, मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश में और लालू प्रसाद यादव बिहार में यादव वर्चस्व के प्रतीक माने जाते हैं। उन्हें समूचे पिछड़े वर्ग का समान शुभचिंतक नहीं माना जाता। बिहार में एक समय कर्पूरी फार्मूला बना था, जिसके तहत पिछड़ी जातियों को ‘पिछड़ी’ और ‘अति पिछड़ी’ में विभाजित किया गया था। इससे आरक्षण का लाभ पिछड़ी जातियों के भीतर भी सामाजिक आवश्यकता के अनुरूप बँट जाता था। किन्तु नई व्यवस्था में यह विभाजन खत्म कर दिया गया है। विधान सभा चुनाव में कुर्मी-यादव संघर्ष की स्मृतियाँ अभी ताजा हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश में जब मायावती की सरकार बनी, तो कुछ विशेष जातियों के प्रतिनिधियों को मंत्री के ज्यादा पद मिले। अन्य जातियों की उपेक्षा हो गई। कहा जा सकता है कि आरक्षण के सिद्धांत में ही यह निहित है कि दबे-कुचले समुदायों में भी वहीं वर्ग इसका विशेष लाभ उठा पाएगा जो पिछड़ों में भी कम पिछड़ा है। निस्संदेह यह एक स्वाभाविक स्थिति है। लेकिन यह प्रशासनिक सच है। राजनैतिक सच कुछ और होना चाहिए था। जो लोग सामाजिक न्याय और सामाजिक समता के आधार पर स्थापित नेतृत्व देने का दावा करते हैं, यदि उनके इरादे क्रांतिकारी और समतावादी हैं, तो उन्हें अपने बीच से उन वर्गों को विशेष रूप से उभरने का मौका देना चाहिए, जिन्हें इतिहास ने कुछ ज्यादा वंचित किया है। यह तभी होगा, तब जाति समाप्ति का दूरगामी लक्ष्य भी नेतृत्व के सामने होगा। अभी तो जाति व्यवस्था से संघर्ष न केवल अधूरा है, बल्कि कुछ हद तक विकृत भी है, जिसके कारण जाति व्यवस्था को कोई सशक्त चुनौती नहीं मिल पाती।
इसका मतलब यह नहीं है कि आरक्षण तथा लोकतांत्रिक राजनीति से जाति व्यवस्था को कुछ भी आघात नहीं पहुँचेगा। जाति व्यवस्था एक हद तक वर्ग व्यवस्था भी है। इन नयी प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप पिछड़ों और दलितों में से एक संपन्न वर्ग का उदय होगा और ऊँची जाति के लोग इस वर्ग से सामाजिक और पारिवारिक व्यवहार रखने का निर्णय कर सकते हैं। लेकिन इसमें काफी समय लगेगा। जब तक इस नये वर्ग का उदय बड़े पैमाने पर नहीं होगा, तब तक जाति विलय की घटनाएँ इक्का-दुक्का ही रहेंगी - किसी सामान्य प्रवृत्ति का रूप नहीं ले सकती। हमें भूलना नहीं चाहिए कि ऐसा इतिहास में भी कई बार हो चुका है। कई बार शूद्रों ने अपने राज्य कायम किए हैं या राज िंसहासन तक पहुँचे हैं तथा ऊँची जाति की स्त्रियों के साथ विवाह किया है। ऊँची जातियों में अपने भीतर जाति तोड़ने की एक प्रवृत्ति काफी पहले से दिखाई दे रही है। ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों के लड़केलड़कियों ने अपने सीमित दायरे में अंतरजातीय विवाह की ओर रुझान दिखाया है। लेकिन यह जाति का वास्तविक टूटना नहीं है। यह एक नई तरह की सामाजिक गतिशीलता है। आधुनिकता के प्रभाव से, मसलन सह-शिक्षा और काम करने की जगहों में स्त्रियों-पुरुषों के नजदीक आने से इस तरह की गतिशीलता बढ़ सकती है। लेकिन इससे किसी धोखे में नहीं पड़ना चाहिए। जाति का टूटना सच्चे अर्थों में तभी माना जाएगा, जब नीची जातियों और ऊँची जातियों के बीच वैवाहिक संबंध बड़े पैमाने पर स्थापित होंगे और समाज का एक बड़ा वर्ग ऐसा बनेगा, जिसकी अपनी कोई जाति नहीं होगी। जिस वर्ण-संकरता को भारत में बहुत नीची निगाह से देखा गया है, वही भारत के सुंदर भविष्य का निर्माण कर सकती है। रक्त-शुद्धता के सिद्धांत ने दुनिया में जिस देश का सर्वाधिक नुकसान किया है, वह भारत ही है।
खान-पान और सामाजिक व्यवहार में सहभागिता जाति व्यवस्था के शिथिल होने की निशानी है। अभी हाल तक बहुत से सवर्ण घरों में मुसलमानों और दलितों के लिए अलग-से बरतन रखे जाते थे। अब यह कम होता जा रहा है। लेकिन इसके स्थान पर जो चीज उभर रही है और मजबूत हो रही है, वह है जातियों के आधार पर की जानेवाली राजनीति द्वारा निरंतर फ़ैलाया जा रहा विद्वेष। यह जातियों के सामाजिक के बजाय राजनैतिक इकाई बनने का चिह्न है। चूँकि विद्वेष की इस संस्कृति में सामान्य सामाजिक हितों के बजाय, या उनकी कीमत पर, विशेष जातीय हितों पर जोर दिया जाता है, इसलिए अन्याय और विषमता के विरुद्ध उदघोष करते हुए भी जाति समूह एक-दूसरे के निकट नहीं आते, बल्कि निरंतर दूर होते जाते हैं। जाति प्रथा ने भारत का जो सबसे बड़ा अहित किया है, वह है हिंदू समाज में सामाजिक और राजनीतिक संस्कार विकसित न होने देना। हिंदू अपने व्यक्तिगत जीवन के बारे में सोचता है, अपने परिवार के बारे में सोचता है, अपनी जाति की मर्यादाओं का ध्यान रखता है, किंतु वह पूरे समाज के स्तर पर बहुत कम सोचता है। उसके लिए प्राय: उसकी जाति ही उसका समाज रही है और एक जाति को दूसरी जाति की विकतियों में दखल देने का कोई अधिकार नहीं रहा है। इससे प्रत्येक जाति की अपनी विकृतियाँ बढ़ी ही हैं और किसी बड़े स्तर पर कोई सामाजिक हस्तक्षेप संभव नहीं हुआ है। पिछले कुछ दशकों से यह सामाजिक हस्तक्षेप ज्यादातर कानून के माध्यम से हुआ है। लेकिन हिंदू ने चूँकि पिछले डेढ़ हजार वर्षों से राज्य निर्माण का स्वप्न खो दिया है और वह एक तरह से राज्यविहीनता के शून्य में तैरता रहा है, इसलिए राज्य और उसकी संस्थाओं की कद्र करना वह अब भी नहीं जानता। वस्तुत: जातियों में बँटा समाज और राज्यविहीन समाज एक ही सिक्के के दो पहलू थे। जब जीवन व्यवहार जाति से ही तय होगा, तब राज्य की जरूरत क्या है? यह भी एक कारण है कि भारतीय राज्य अब भी भारतीय समाज में एक बेगानी सी चीज है और उसका उपयोग देश-निर्माण तथा समाज-निर्माण के लिए कम, अवसरों और सुविधाओं की छीना-झपटी के लिए ज्यादा हुआ है। जाति के आधार पर चलने वाली मौजूदा राजनीति ने इस बेगानेपन को कुछ नए आयाम दिए हैं। सामाजिक और आर्थिक स्तर पर निकटता तथा राजनैतिक स्तर पर संघर्ष एवं कलह के कारण भारतीय समाज एक नए ढंग से आत्म-विभाजित प्रतीत होता है।
इसे खत्म करने का एक ही तरीका है: जाति व्यवस्था को नष्ट करना तथा भारतवासियों की एक समग्र भारतीय एवं मानवीय पहचान को विकसित करना। लेकिन यह कार्य कितना कठिन है, इसे रेखांकित करते हुए एम. एन श्रीनिवास ने ६० के दशक में लिखा था : जिस मुद्दे पर मैं यहाँ जोर देना चाहता हूँ वह यह है कि जाति को राष्ट्रीय जीवन में एक अभिशाप समझने वालों की संख्या बहुत कम है। मैं यह बखूबी माने लेता हूँ कि दिन-प्रतिदिन यह वर्ग बढ़ रहा है और गाँवों में भी हमें ऐसे उन्नत विचारों के लोग मिलने लगे हैं जो कहते हैं कि मनुष्यों के पारस्परिक संबंधों में जातिवाद विष घोल राह है। परन्तु यह भी सच है कि अभी एक बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो जाति व्यवस्था में कोई बुराई नहीं देखते। यह तथ्य ध्यान में रखना आवश्यक है कि जब तक जनता यह जान नहीं लेती कि जाति का अर्थ अनिवार्यत: जातिवाद है तथा उससे जो लाभ मिलते हैं, उनका भारी मूल्य देश को चुकाना पड़ता है तब तक कुछ भी नहीं हो सकता। यह बात जनता तक पहुँचाना किसी भी दशा में सरल काम नहीं है और अभी तक किसी राजनेता या सामाजिक कार्यकर्ता ने व्यक्त नहीं किया है कि ऐसी कोई कठिन समस्या उसके सम्मुख है। यह समझ लेना जरूरी है कि इस मामले में मात्र सदिच्छा ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उसके तो परिणाम अभीष्ट से विपरीत भी निकल सकते हैं।
स्पष्ट है कि कम से कम राजनीति जाति को नहीं तोड़ सकती। यानी मौजूदा राजनीति। इसका कारण यही है कि मौजूदा राजनीति में समाज को या देश को बनाने का कोई तत्व दिखाई नहीं पड़ता। जब यह तत्व था, तब जाति व्यवस्था को नष्ट करने का आह्वान भी किया जाता था। इस दृष्टि से डॉ. राममनोहर लोहिया की समाजवादी धारा भारतीय राजनीति की एकमात्र ऐसी उल्लेखनीय धारा है, जिसने यथार्थ और आदर्श, दोनों का सम्मान किया था। डॉ. आंबेडकर की विचारधारा भी जाति व्यवस्था के खिलाफ थी और ‘जाति का संहार’ शीर्षक उनका निबंध भारत में उसी निष्ठा के साथ पढ़ा जाना चाहिए जिस निष्ठा से ‘कम्युनिस्ट मेनिपेâस्टो’ साम्यवादियों के बीच पढ़ा जाता रहा है। रामस्वामी पेरियार ने भी जाति के खिलाफ जिहाद छेड़ी थी, किंतु उनका आंदोलन तमिल समाज तक सीमित हो कर रह गया और इस आंदोलन से निकली राजनैतिक धाराओं ने प्राय: उन सभी बुराइयों को अंगीकार कर लिया जिन्हें नायकर ने कटु आलोचना का विषय बनाया था। गांधी जी अंतिम दिनों में जाति प्रथा के खिलाफ हो गए थे, लेकिन जाति तोड़ने का कोई स्पष्ट आह्वान उन्होंने नहीं किया। हालांकि जब वे जाति व्यवस्था को मानते थे, तब भी उनकी कल्पना की जाति व्यवस्था एक तरह का सामाजिक श्रम विभाजन ही थी और उसमें ऊँच-नीच के लिए कोई जगह नहीं थी, लेकिन यह एक यूटोपिया ही था। जब तक जाति व्यवस्था है, तब तक सामाजिक ऊँच-नीच भी रहेगी तथा भारतवासियों की प्राकृतिक ऊर्जा के मुक्त संचरण को बाधित करती रहेगी। आज जब साम्यवादी जाति के अस्तित्व को स्वीकार कर रहे हैं और उसके अनुसार अपनी राजनीति भी बना रहे हैं, तब कहा जाता है कि पहली बार प्रगतिशील राजनीति भारत के सामाजिक यथार्थ के प्रति सचेतन हो रही है। लेकिन दुख की बात यह है कि यह सचेतनता सिर्फ़ चुनावी गणित के स्तर पर है। यदि यह आगे भी जाती, तो जातिविहीनता की भी कोई नीति बनती। यानी जाति सिर्फ़ यथार्थ के स्तर पर स्वीकृत हुई हैं, आदर्श के स्तर पर नहीं। लेकिन आदर्श के स्तर पर क्या कुछ और भी स्वीकृत हुआ दिखता है? जाति संघर्ष कमजोर है, तो क्या वर्ग संघर्ष भी कमजोर नहीं है? दूसरी ओर आर्थिक विकास और शहरीकरण की प्रक्रिया इतनी धीमी है कि जाति व्यवस्था की जकड़न कम होने का नाम नहीं लेती।
लेकिन सच यह भी है कि जाति को तोड़ने का काम राजनीति ही कर सकती है। यदि राजनीति ने जातिविहीन समाज स्थापित करने का बीड़ा नहीं उठाया, तो यह बीड़ा कोई और उठा नहीं सकता। बेशक वह राजनीति कुछ और प्रकार की होगी। जाति प्रथा दो ही तरह से टूट सकती है -(१) लोगों में यह चेतना फ़ैले कि यह बुरी चीज है और (२) सभी जातियों का इतना तीव्र आर्थिक विकास हो कि उनके बीच सामाजिक ऊँच-नीच संभव न रह जाए। पहला काम विद्वान और समाज सुधारक भी कर सकते हैं, लेकिन वे तीव्रतर हो रही आर्थिक विपमताओं को कम नहीं कर सकते और न ही उन करोड़ों लोगों के लिए सम्मानजनक रोजगार की व्यवस्था कर सकते हैं जो जाति प्रथा के कारण दैन्य का जीवन बिताने के लिए अभिशप्त रहे हैं। सिर्फ़ चेतनागत स्तर पर आंदोलन चलाने से मिली सफलता हमेशा अधूरी होगी, क्योंकि जन्म के आधार पर प्राप्त होने वाले विशेषाधिकारों को छोड़ना आसान नहीं होता। अत: दूसरा काम भी साथ-साथ जरूरी है और यह काम राजनीति का है। आर्थिक गत्यात्मकता ही टिकाऊ सामाजिक गत्यात्मकता पैदा कर सकती है। अंतरजातीय प्रेम विवाहों से जाति प्रथा एक हद तक ही टूट सकती है। विवाह का निर्णय एक जटिल निर्णय है। इसके पीछे निजी जीवन की दर्जनों बातें होती हैं। तीव्र प्रेम के कारण जाति का अतिक्रमण स्वाभाविक है, किंतु यह उम्मीद करना नादानी है कि करोड़ों युवक-युवतियाँ सिर्फ़ जाति तोड़ने के लिए शादी करेंगे। लेकिन जब देश का तीव्र आर्थिक विकास होगा, सभी समुदायों के लोगों को आगे बढ़ने के अवसर मिलेंगे, ऊँच-नीच कम होगी, तब ऐसा वातावरण बन सकता है, जिसमें विभिन्न जातियों के युवक-युवतियों को एक-दूसरे से वैवाहिक संबंध बनाने की स्वाभाविक इच्छा हो। जाति प्रथा तभी टूटेगी। स्पष्ट है कि इसके लिए एक ऐसी प्रबल राजनैतिक धारा की जरूरत है, जो देश और समाज का पुनर्निर्माण करने के लिए कृतसंकल्प हो। इसके अभाव में भी जाति व्यवस्था को विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया में कुछ आघात मिलता रहेगा, लेकिन उसका कोई बड़ा सामाजिक प्रभाव नहीं होगा। प्रभावशाली परिवर्तन के लिए व्यापक और गहरे जानेवाले राजनैतिक नेतृत्व की जरूरत है। यह नेतृत्व कौन मुहैया करेंगा? यह कहना उचित नहीं है कि सवर्ण लोग यह काम नहीं कर सकते। निस्संदेह उनकी बौद्धिक क्षमताएँ, एक वर्ग के रूप में, सर्वाधिक जाग्रत हैं। लेकिन उनकी आँखों पर सीमित स्वार्थों की जाली पड़ी हुई है। अत: समुदाय के स्तर पर उनसे कोई बड़ी उम्मीद नहीं की जा सकती। हाँ, उनके बीच से कुछ देशकामी विशिष्ट लोग जरूर उभर सकते हैं। अत: एक वर्ग के रूप में तो यह जिम्मेदारी शूद्र और दलित जातियों की ही है। समग्र राष्ट्रीय विकास से सबसे ज्यादा लाभ भी इन्हें ही हासिल होगा। समाजवादी रास्ते को विकृत और अवरुद्ध कर सवर्ण समाज ने मुक्त प्रतिद्वंद्विता पर आधारित नई आर्थिक नीति में अपने भविष्य का इंतजाम कर लिया है। इससे पिछड़ी और दलित जातियों की आर्थिक तथा सामाजिक मुक्ति का प्रश्न और पेचीदा हो गया है। अत: उनके बीच से ही ऐसे तेजस्वी नेतृत्व का विकास ज्यादा स्वाभाविक लगता है, जो पूरे भारतीय समाज में समता और संपन्नता का दर्शन फ़ैला सके। जाति प्रथा को वही तोड़ेगा, जो देश की प्रगति के रास्ते में मौजूद दूसरे अवरोधों को भी तोड़ेगा। यह नहीं हो सकता कि सिर्फ़ जाति टूटे और अन्य बंधन यथावत बरकरार रहें या और मजबूत होते जाएँ।
यह भी नहीं हो सकता कि जाति प्रथा हमेशा बनी रही। इस व्यवस्था के पीछे न कोई तर्क है और न ही इससे कोई लाभ। हाँ, इससे होनेवाले नुकसान बिलकुल साफ हैं। अत: इसका जाना तो निश्चित है। इतिहास यह बताता है कि कौन-कौन-सी चीजें नहीं टिक सकतीं। लेकिन इसमें वक्त कितना लगेगा, इसका निर्णय तो हम ही करेंगे। हम, जो इतिहास के नियंता हैं।