जाति विरोधी प्रयासों की असफलता / इंदुमती केलकर

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भारत में संपूर्ण अथवा सम्यक् क्रांति की सारी बातें निरर्थक सिद्ध होंगी जब तक प्रस्थापित वर्ण-व्यवस्था पर कड़ा प्रहार नहीं होता। यह एक ऐसी राक्षसी व्यवस्था है जिसके नीचे समता की सारी धाराएं सूख गई हैं। इसलिए समता के लिए लड़ने वालों को चाहिए कि वे भारत की वर्णव्यवस्था के जन्म, वृद्धि, फ़ैलाव, उसके दुष्परिणाम तथा उसके विनाश के उपायों पर गंभीरता से विचार करें।

हजारों सालों से यह व्यवस्था भारत में प्रचलित है। यह धारणा कि चातुर्वण्र्यव्यवस्था वेदोत्तरकालीन है, सही नहीं है। ऋग्वेद के दसवें मंडल तथा नवें सूक्त की बारहवीं ऋचा में कहा है,” ब्राह्मणोस्य मुखमासीत्, बाहु राजन्य कृत: उरु तदस्य तद्धैश्य, पदम्यां शूद्रो अजायत।” अथर्ववेद और पुरुष सूक्त में भी ‘शूद्र’ शब्द का जिक्र है। इस तरह हिन्दू धर्म में वर्णाश्रम व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस व्यवस्था का सीधा संबंध ईश्वर से जुड़ा है। वेदकालीन चार वर्णों की परिणति कालांतर में हजारों जातियों में हुई। आकाश के ग्रह-नक्षत्रों की गणना शायद हो सकती है, लेकिन हिन्दू धर्म की जातियों की नहीं। जातियों की ऊपरी सीढ़ी पर का हर उमर का आदमी निचली सीढ़ी पर के आदमियों को हीन समझता है और उसे ठोकर मारता है। वही आदमी ऊपर की सीढ़ी पर के आदमी के सामने झुक जाता है। सीढ़ी के तल में औरत है और उसे सभी ऊपर वालों से मार खानी पड़ती है। उसे सबसे हीन माना जाता है।

इस व्यवस्था के कारण हिन्दू समाज शतखंडित हुआ है। आदमी आदमी को नहीं पहचानता, जाति को पहचानता है। उच्चवर्णीय और कनिष्ठवर्णीय एक ही धर्म के होते हुए भी उनमें कोई रिश्ता नहीं रहा। एक संचित है, तो दूसरा वंचित। एक शोषक है तो दूसरा शोषित। एक शासक है तो दूसरा शासित। एक बिना परिश्रम सत्ता, संपत्ति, प्रतिष्ठा और ज्ञान पर एकाधिकार जमाता है तो दूसरा सत्ता,संपत्ति, प्रतिष्ठा, ज्ञान विहीन अवस्था में किसी तरह जीवन व्यतीत करता है।

हिन्दू धर्म के कर्मविपाक सिद्धांत ने भी बहुसंख्यक लोगों की अवस्था बेजान बनाई है। पूर्वजन्म के पाप के फल से नीच जाति में जन्म मिलता है और इस जन्म का पाप पुनर्जन्म का कारण बन जाता है। ऐसा भय कनिष्ठवर्णियों के मन में पैदा कर दिया है। पाप पुण्य की सारी कल्पनाएं जाति-प्रथा के बिना तकरार पालन से जोड़ दी गई हैं और जाति-प्रथा ईश्वर निर्मित होने के कारण अपरिवर्तनीय बताई गई है। इस तरह ईश्वर, धर्म, वर्णाश्रम धर्म तथा जाति-प्रथा और कर्मविपाक सिद्धांत, पूर्वजन्म, पुनर्जन्म के पेâरे के डर का एक दुष्टचक्र बनाया गया है। इस चक्र में पिछड़ी जातियां और औरतें पिसती जाती हैं। बेजबान, बेजान बनाई जाती हैं।

दुनिया में विजित और विजेता, मालिक और गुलाम के बीच जो रिश्ता रहा, वही भारत में उच्चवर्णीय और कनिष्ठवर्णियों एवं औरतों में रहा। लड़ाई में बने हुए गुलामों का शरीर गुलाम था, मन आजाद था। इस कारण काल प्रवाह में गुलामी प्रथा मिट गई। लेकिन भारत के उच्चवर्णीय स्वामियों ने अपने गुलामों पर मानसिक गुलामी लादी। यह मानसिक गुलामी धीरे-धीरे उनकी आदत बन गई। इस कारण यहां के गुलामों ने कभी बगावत का झंडा उठाया ही नहीं। फलस्वरूप यहां धर्म और जाति-प्रथा का महत्त्व बढ़ता गया। इतना ही नहीं, उनकी जड़ें और गहरी होती गई।

एक जमाना था जब समाज का प्राप्तव्य धर्म था। धर्मभावना को लेकर लड़ाइयां होती थीं। कभी तो औरत भी लड़ाई का कारण बन चुकी थी। उस समय भारतीयों को हिन्दू धर्म के अलावा दुनिया में अन्य भी धर्म हैं, यह जानकारी नहीं थी। उस समय के तत्त्वज्ञान तथा सभ्यता की कल्पनाएं आज की स्थिति में लागू करना उचित नहीं होगा। आज के विज्ञाननिष्ठ आधुनिक युग में कल्पनाएं काल बाह्य हो गई हैं। आज की दुनिया का प्राप्तव्य है सत्ता, संपत्ति और विज्ञान। दुनिया के किसी भी राष्ट्र में हिन्दू, मुसलमान, यहूदी आदि धर्मों के लोग रहते हैं। इस कारण धर्म की बुनियाद पर राष्ट्र खड़ा करने की कल्पना भी कालविसंगत हो गई है। दुनिया के इतिहास में ईसाई ईसाइयों में, हिन्दू हिन्दुओं में, मुसलमान मुसलमानों में लड़ाइयां हुई हैं। भारत में अभी भी धर्म और वर्णाश्रम व्यवस्था का अनुचित प्राबल्य है। जिस वजह से बिना लड़ाई, खून की एक बूंद भी न गिराते हुए उच्च वर्णीय मालिकों ने दलितों और औरतों को दास बनाया है। दलितों को शारीरिक कष्टों के कामों में तो औरतों को चूल्हे-चौके और बच्चों के कामों में लगाया। उच्चवर्णियों की कुटिल बुद्धि का यह अनोखा नमूना है। उन्होंने दलितों को बुद्धिहीनता के कारण तो औरतों को शारीरिक बलहीनता के कारण दबाया। यह शोषण आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जैसे सार्वजनिक जीवन के सभी क्षेत्रों में सदियों से चलता आया है। आर्थिक क्षेत्र में पूंंजीपति, व्यापारी और कालाधन जमा करने वालों के हाथ में, राजनीतिक क्षेत्र में सत्तारूढ़ शासकों, नौकरशाहों और उच्चपदस्थों के हाथ में, सामाजिक क्षेत्र में पंडित, मौला-मौलवी, ज्योतिषी, अंधश्रद्धा व भाग्यवाद फ़ैलाने वालों तथा संतमहंती का ढोंग रचने वालों के हाथ में सत्ता, संपत्ति, प्रतिष्ठा और ज्ञान विज्ञान केंद्रित हो गया है। और चारों ही मिलकर एक दूसरे को बल देते हैं। इसका परिणाम आधी आबादी वाली औरतों और दलितों को मिलाकर अस्सी फीसदी समाज की शक्ति सड़ जाने में हुआ है। उनमें उदासीनता, लाचारी और आत्महीनता पैदा हुई है।

भारत में वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ हिन्दू धर्म पर हमला बौद्ध और जैन धर्मों ने किया लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। और दो धर्म बढ़ गए। हिन्दू धर्म ने बुद्ध और महावीर को अवतार मानकर अपने में समेट लिया। अंग्रेजी शासन काल में जातिनिर्मूलन की लड़ाई में एक विचित्र विकृति पैदा हो गई। सामाजिक क्रांति की दृष्टि से जो गरम लोग थे वे राजनीतिक दृष्टि से नरम थे। और राजनीतिक गरम लोग सामाजिक दृष्टि से नरम थे। फलस्वरूप सामाजिक क्रांति बनाम अंग्रेजी शासन की खिलाफत ऐसा अनोखा द्वंद्व पैदा हो गया। समाज में अन्य जो प्रयत्न हो रहे थे उनके पीछे भी दयावाद, मानवतावाद और करुणा की भावनाएं थीं। ममता थी लेकिन समता की भावना नहीं थी। विचार और कर्म में एकरूपता न होने के कारण उन प्रयत्नों से दलितों और औरतों में बगावत की भावना पैदा नहीं हुई। परिणामत: स्थितिप्रियता बढ़ी और प्रस्थापित व्यवस्था जैसी थी वैसी ही बनी रही।

महात्मा गांधी के उदय के बाद स्थिति में थोड़ा बदलाव जरूर हुआ। उन्होंने अस्पृश्यता के खिलाफ लड़ाई छेड़ी। औरतों के लिए राजनीतिक क्षेत्र खोला, हिन्दूमुस्लिम एकता के लिए जान तक दी। लेकिन उनकी विचारधारा ने वर्णाश्रम-व्यवहार पर चोट नहीं की। सर्वधर्मसमभाव का नारा लगाया। जिस देश में एक ही धर्म की-हिन्दू धर्म की बहुतायत है, वहां सर्वधर्म समभाव की परिणति हिन्दू धर्म के प्रभाव में हो जाना स्वाभाविक है। मिसाल के तौर पर नमोवाणी में प्रत्येक हिन्दू धर्म का त्यौहार मनाया जाता है। सभी व्रत, अंधश्रद्धाओं की परिवरिश होती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कांग्रेस सरकार ने यह ढोंग और बढ़ाया। जबान से भाषा बोलते थे विज्ञान की, सेक्युलरिज्म की लेकिन व्यवहार हो रहा था विपरीत। तभी तो १९५० में डॉ० लोहिया ने तत्कालीन राष्ट्रपति द्वारा खुलेआम ब्राह्मणों के पैर धोने के कार्य को असभ्य और वर्णवर्चस्व को बढ़ावा देने वाला कार्य कहा। उनकी प्रेरणा से युवजनों ने विरोध निदर्शन भी किया था।

कांग्रेस सरकार ने या यूं कहिए कुछ अपवादों को छोड़कर किसी सरकार ने भी सेक्यूलरिज्म का अर्थ ही ग्रहण नहीं किया था। कांग्रेस सरकार ने सेक्यूलरिज्म का अर्थ लगाया सर्वधर्मसमभाव। इस कारण यज्ञयाग, भूमिपूजा, तिरुपति दर्शन,धार्मिक व्यक्तियों की पूजा, ज्योतिषों का बढ़ावा, अगम्य और अदृश्य शक्तियों पर अंधश्रद्धा इत्यादि प्रसंग होते रहे। मंत्री और उच्चपदस्थ जाहिर रूप से वहां हाजिर रहने लगे। ढोंगबाजी और कर्मकांड बढ़ने लगे। यह सिलसिला अब खत्म होना चाहिए। सेक्यूलर व्यक्ति इस तरह का व्यवहार कभी नहीं करेगा। सेक्यूलरिज्म का वास्तविक अर्थ है धर्मविहीनता, इहलोकवाद। इस सिद्धांत पर ही शासन चलना चाहिए। सार्वजनिक व्यवहार होना चाहिए। ईश्वर पर निष्ठा है, धार्मिक कर्मकांड करना है तो वह जाहिर रूप में नहीं। इतना परहेज नहीं संभाला गया तो दलितों और औरतों पर अत्याचार और अन्याय बढ़ते जाएंगे। कारण उच्चपदस्थ वरिष्ठवर्णियों द्वारा होने वाले धार्मिक आचरण एक तरफ प्रस्थापित व्यवस्था को बल देते हैं, वहीं दलितों को बुद्धिहीन कर्मकांडों में पंâसा देते हैं। नतीजा सामाजिक और सांस्कृतिक क्रांति अवरुद्ध होती है।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने समता की कसम तो खायी है। कम्युनिस्ट वर्ग संघर्ष का नारा भी लगाते हैं लेकिन भारत की विशेष परिस्थिति की समझ उन्हें भी नहीं है। वर्णाश्रमधर्म और जाति-प्रथा शोषण को, गरीबी को तथा अन्यायों को बढ़ावा देते हैं यह तथ्य वे जान नहीं पाए। तभी तो उनका नेतृत्व प्राय: वरिष्ठवर्णियों का है। वे वर्गसंघर्ष के समान जातिध्वंस के बारे में लड़ाई नहीं छेड़ते।

जनता पार्टी का उदय अभी-अभी हुआ है। लेकिन वह पार्टी वैसे आसमान से अचानक नहीं उतरी। उसमें जो चार दल विलीन हुए हैं उनकी वर्णाश्रमधर्म व्यवस्था और औरतों के बारे में एक जैसा दृष्टि नहीं है। हो सकता है भविष्य में कुछ परिवर्तन हों। लेकिन आज तो दलितों और औरतों के प्रति उसकी उदासीनता दिखायी देती है।

जाति-प्रथा का इस्तेमाल चुनाव की राजनीति में करने के कारण ‘जाति जाती नहीं’ यह अनुभव आया। ‘फूट डालो और सत्ता हासिल करो’ नीति का परिणाम जाति की जड़ें और मजबूत होने में हुआ। इस नीति का अवलंब कुछ व्यक्तियों को छोड़कर प्राय: बहुतांश दलों ने किया। कुछ ने प्रत्यक्ष तो कुछ ने अप्रत्यक्ष सहारा लिया। चुनाव के समय मध्यवर्ग नाराज न हो, इसलिए सामाजिक विषमता के अथवा अंग्रेजी हटाओ जैसे सवाल उपस्थित न करने का रवैया रहता है। १९६७ के चुनाव के समय ‘समान नागरिक कानून’ का सवाल उठाकर लोहिया जी ने अपना चुनाव खतरे में डाला था। लोहिया जी तो कभी भी जोखिम उठाकर अपनी लोकप्रियता की बाजी लगाकर पेट के समान दिल-दिमाग के सवाल उठाते थे। आज कोई भी इस तरह का साहस नहीं दिखाता।

जाति-प्रथा तोड़ने हेतु लोहिया जी पिछड़ों को विशेष अवसर देने की और हर क्षेत्र में ६० फीसदी जगह औरत, आदिवासी, अस्पृश्य, शूद्र और कनिष्ठ वर्णीय मुसलमानों के लिए सुरक्षित रखने की राजनीति समाजवादी आंदोलन में लाए। उसके लिए ‘जाति तोड़ो’ सम्मेलन खड़ा किया। लेकिन उनकी मृत्यु के बाद चक्र उलटी दिशा में घूमने लगा है। उनकी जातिनीति का फायदा ‘शूद्र’ संज्ञा के तहत जितनी दोयम सीढ़ी की जातियां हैं, उन्होंने उठाया। लोहिया जी के आखिरी दिनों में यह अधिक स्पष्ट हुआ। सत्ता-संपत्ति का प्रवाह शूद्रों, जैसे महाराष्ट्र के मराठा, बिहार के यादव, आंध्र के रेड्डी इत्यादि ने अपने तक रोका। अन्य छोटी अवर्ण जातियों, आदिवासी, अस्पृश्य, औरतों तक उसको जाने नहीं दिया। वे नव उच्चवर्णीय बनकर शोषण में हाथ बंटाने लगे। वैसे तो नेतृत्व की दौड़ में उच्चवर्णियों के साथ औरतों और दलितों का दौड़ना असंभव है। कारण यह जोड़ ही विषम है। शूद्रों के साथ भी दलित और औरत नहीं टिकेंगे। इसलिए शूद्रों को भी जातिनीति से हटाना चाहिए। औरत और दलित लड़ने में सक्षम नहीं हैं। उन्हें विशेष अवसर मिलना ही चाहिए। समाज का यह कत्र्तव्य है और उनका यह हक है। सहूलियतें देने की भीख तो उन्हें लाचार बनाती है। दिखावे के लिए जो एक-दो औरतें और एक-दो दलित लेने का फ़ैशन है, इससे वे सत्ताधारी उच्चवर्णियों के चापलूस बन जाते हैं। जातिनीति का सचमुच अवलंब होने के बाद जब उनकी बहुसंख्या होगी तब उनकी तेजस्विता प्रकट होगी। कत्र्तव्यशक्ति जागृत होगी। आज तो स्थिति यह है कि सत्ताप्राप्त लोग अपनी सत्ता छोड़ने को तैयार नहीं।

लोहिया जी ने कहा था कि अब तक कनिष्ठवर्णियों के परिश्रम पर वरिष्ठवर्णियों के नेतृत्व के फल-पुष्प फले-फूले। अब वरिष्ठ वर्णियों को चाहिए कि वे खाद बनकर कनिष्ठवर्णियों को फलने-फूलने दें। लेकिन लोहिया जी की इस अपेक्षा का पूर्ण होना प्राय: असंभव है। खाद बनने का मतलब है आत्मत्याग, अहंभाव विसर्जन और व्यक्तित्व समर्पण। समता का व्यवहार और ममता की कत्र्तव्य भावना एक असिधारा व्रत है। यह व्रत कठिन है। जैसी व्याघ्र को रक्त की वैसी मनुष्य को सत्ता की लालसा होती है। सत्तात्याग अग्नि परीक्षा है। अभी भी उच्चवर्णीय सत्ताधारियों की कुर्सी, सत्ता, प्रसिद्धि, मान-सम्मान, परदेस दौरे इत्यादि की भूख पूर्ण नहीं हुई है। पहले जैसी प्रज्वलित है। उनसे खाद बनने की अपेक्षा व्यर्थ है। हाल ही की स्थिति देखने से यह तथ्य विदारक रूप में सामने आता है। जनता ने बड़ी उम्मीद से सत्ता परिवर्तन किया। लेकिन औरतों और दलितों को न्याय नहीं मिल रहा है। उनको केवल समाज में या कुर्सी में हिस्सा मिलने का सवाल नहीं है। भूमिका, दृष्टिकोण और नीति का सवाल है। कुछ उदाहरण यह बात स्पष्ट करने वाले हैं।

प्रधानमंत्री मोरारजी भाई ने ‘टाइम’ की मुलाकात में कहा, “औरतें मर्दों से ज्यादा भली और मृदु स्वभाव की होती हैं। लेकिन जब वे राक्षसी बनती हैं तब सारी सीमाएं तोड़ती हैं।” इस तरह लिंगभेद के आधार पर मानवी गुणों का अथवा दोषों का विभाजन करना कहां तक उचित है? ऐसा अनुभव भी नहीं आता। वस्तुस्थिति के सामने ऐसा विभाजन टिकेगा नहीं। दरअसल सज्जनता या मृदु स्वभाव मानवी सदगुण है। वह कुछ स्त्री-पुरुषों में होता है, कुछ स्त्री-पुरुषों में नहीं होता। उसी तरह तानाशाही का रास्ता आदमी को राक्षस बनाने वाला है। केंद्रित हो जाने वाली सत्ता आदमी को तानाशाह बनाती है। वह हिटलर हो या इंदिरा गांधी, स्टेलिन हो अथवा सिरिमाओ। खास औरतों के समझे जाने वाले गुण भी कई दफा स्त्री-पुरुषों में समान रूप से होते हैं या नहीं होते हैं। महात्मा गांधी अथवा साने गुरूजी के समान मातृहृदय कितनी औरतों के पास होगा? लेकिन कष्ट, सेवा, मातृप्रेम, त्याग इत्यादि का आरोपण करके सीमित और संकुचित क्षेत्र में औरतों की शक्ति नष्ट की जाती है।

अब समय आ गया है कि न्याय और समता हासिल करने के लिए दलितों को संघर्ष करना पड़ेगा। उन्हें कोई मौका देकर न्याय देने वाला नहीं है। हर क्षेत्र में बहुसंख्या में पैठकर उन्हें अपना नेतृत्व स्थापन करना चाहिए। लायकी-नालायकी की, पात्र-अपात्रता की और योग्यता-अयोग्यता की भाषा निरर्थक है। आज तक जिनके हाथ में सत्ता रही उनकी योग्यता क्या थी, यह एक जांच का विषय है। लायकी मापने का कोई मापदंड

१८२ :: जाति विरोधी प्रयासों की असफलता

मौजूद नहीं है।

जब तक दलितों और औरतों का समावेश बहुसंख्या से ‘जनता’ पार्टी में नहीं होगा, तब तक ‘जनता’ केवल नाम में ही रहेगी। जाति तोड़ो सम्मेलन को इस संदर्भ में सचेत रहना चाहिए। नीति के खिलाफ जहां भी व्यवहार हो तो निदर्शन, सत्याग्रह तक जाना पड़ेगा। निम्नलिखित कार्यक्रम अपनाकर उसे मनवाने की कोशिश जाति तोड़कों को करनी चाहिए—

१. सरकार, प्रशासन तथा संगठन में ६० फीसदी जगहें औरत, आदिवासी अस्पृश्य और पिछड़े मुसलमानों के लिए सुरक्षित रखना। २. औरत, आदिवासी, अस्पृश्य आदि दलितों के अलग संगठन बनाकर उन्हें ‘कुल्हाड़ी का दांडा’ (मतलब, उच्चवर्णियों के हाथ का खिलौना नहीं) बनाकर पार्टी के व्यापक क्षेत्र में काम करने का अवसर देना। ३. लिंगभेद को लेकर सार्वजनिक जीवन में किसी तरह की रोक न लगाना। ४. शासकीय तथा सावर्जनिक स्तर पर जाहिर रूप में होने वाले वर्णवर्चस्व-निदर्शक पंडित, मौलवी या पादरी द्वारा होने वाले संस्कारों की खिलाफत। ५. शासन की तरफ से मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा तथा अन्य धार्मिक संस्थानों को दिए जाने वाले अनुदान खत्म करने की और धार्मिक सम्मेलनों में सरकारी प्रतिनिधि भेजने की खिलाफत। ६. किसी तरह के भेदभाव प्रकट न हों, इस तरह की पोशाक लोकप्रिय बनाना। ७. चोटी,जनेऊ, दाढ़ी, गोषा, बुरका जैसे व्यक्ति-व्यक्ति में भेद पैदा करने वाले रूप चिह्नों और प्रतीकों के मानसिक बोझ से जनता को मुक्त करने की कोशिश करना। ८. सहभोज, हिन्दू-मुस्लिम घाल-मेल, छुआछूत विहीन पानी भरने की जगहें, जाति-धर्म निरपेक्ष बस्तियां, खेल-कूद, कला,साहित्य, नाटक इत्यादि के रचनात्मक कार्यक्रम करना। ९. दहेज प्रथा से ब्याह न कराया जाए, तथा विलास, ठाठ-बाट बंद हो, इसके लिए आन्दोलन चलाना तथा ब्राह्मण, मुल्ला या पादरी की मध्यस्थता वाली शादी और उपनयन संस्कारों का बहिष्कार। १०. पाठ्य पुस्तकों, शिक्षा संस्थाओं और सार्वजनिक संस्थानों में किए जाने वाले जातिधर्मवाचक उल्लेखों का विरोध। ११. वर्ण-वर्चस्वगत रूढ़ और गुलामी के संस्कार खत्म करने की कोशिश करना। १२. शासन द्वारा अंतरजातीय और अंतरधमीय विवाह करने वालों को नौकरियों में प्राथमिकता। १३. जाति तोड़ो सम्मेलन संगठित ढंग से चलाना।