जाति व्यवस्था / रामचन्द्र शुक्ल
जाति संस्था ने प्रजाति की शुद्धता को सुरक्षित रखने का असफल प्रयत्न किया है। इतिहास का हर छात्र जानता है कि भारतीय रक्त शक, यवन, यूची, हूण, मंगोल, आर्य तथा द्रविड़ रक्तों का मिश्रण है। जाति व्यवस्था के विरुद्ध सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि इसने मनुष्य का स्तरों और श्रेणियों में रूढ़ विभाजन कर दिया है। इसके तथाकथित समर्थकों के किसी भी सदस्य द्वारा यह प्रतिसंतुलित (Counter balanced) नहीं की जा सकती। कुलीन और ऊपर से दैवीय कहे जानेवाले ब्राह्मण अन्य सबको हेय दृष्टि से देखते हैं। क्रमश: प्रत्येक जाति अपने से नीची जाति को तुच्छ समझती है। इस तरह हम हतभाग्य अस्पृश्यों और वर्गहीन जाति बहिष्कृतों के विशाल जनसमूह तक नीचे उतरते हैं। इस प्रकार जाति व्यवस्था हार्दिक सहयोग या प्रतिक्रिया, प्रेम, विश्वास और पारस्परिक प्रभाव या आचरण की स्वतंत्रता के अवरोध का कारण बनती है। चूँकि प्रत्येक जाति के पास कर्म का अपना एक सीमित दायरा है। उसका अपना वंशानुगत व्यवसाय है। अत: अपने भाग्य को बेहतर बनाने के लिए किसी अन्य अवसर के अभाव में इच्छा या अनिच्छापूर्वक एक महत्वाकांक्षी युवक को इस वंशानुगत व्यवसाय से चिपके रहना है।
इसके अतिरिक्त जाति व्यवस्था ने वर्गीय भावना और वर्गीय अहं का पोषण किया है। इसे यदि समाप्त नहीं किया गया तो भारतीय संस्कृति और शिष्टता, राष्ट्रभक्ति और देशभक्ति की मृत्यु निश्चित है। ऐसे व्यक्ति मनुष्य के मध्य बन्धुत्व की भावना से रहित होकर अपनी ही जाति या वर्ग की उन्नति में रुचि लेते हैं। उनका आदर्श वाक्य है, 'हमारी जाति प्रथम और हमारी जाति अंतिम'। उनके मस्तिष्क और हृदय में, उनके विचारों और स्वार्थपूर्ण योजनाओं में अपने देश के लिए आदरपूर्ण तो क्या सामान्य स्थान भी नहीं है। वे कर्म के आधार पर नहीं जन्म के वैशिष्ट्य से ब्राह्मण और क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं और जब तक वे इस वैशिष्टय का उपभोग करते हैं तब तक किसी अन्य के वैशिष्टय या अच्छाई के बारे में बिलकुल नहीं सोचते। 'भारतीय प्रथम और भारतीय अंतिम' उनके लिए यह पद चरितार्थ किए जाने के लिए नहीं है। उनकी ईश्वर की अवधारणा उनके दोहरेपन का प्रतिबिम्ब है। जब वे ईश्वर के विधान का अस्तित्व मानते हैं तो फिर वे उस परमपिता के तथाकथित पुत्रों और पुत्रियों को कैसे विभाजित कर सकते हैं? वे ऐसे व्यक्ति हैं जो स्वार्थवश राजनीतिक, प्रशासनिक या व्यावसायिक क्षेत्रों में अपना पथ प्रशस्त करने का प्रयास कर रहे हैं। साथ ही साथ वे नीची जातियों के रूप में कर्मठ और निष्कपट व्यक्तियों ने जो कुछ उपार्जित किया है, उसे हड़प ले रहे हैं। यद्यपि निचली जातियों के भाग्य में बर्बाद होना ही लिखा है फिर भी वे सामाजिक परिवेश, राजनीतिक माँगों, आध्यात्मिक विकास या विश्व बाजार में प्रतियोगिता की भावना से कृषि तथा व्यवसाय की उन्नति, यंत्रो तथा कारखानों की वृद्धि तक के लिए विचार किए बिना, सदा की भाँति आत्मनिर्भर, आत्मतुष्ट और ऐकांतिक जीवन से सन्तुष्ट हैं। इस प्रकार वे इस महत्वाकांक्षा को व्यव्हार में परिणत नहीं कर सकते कि सभ्यता के अभियान में यूरोप और अमेरिका के साथ सम्मानपूर्वक टिके रहने के लिए भारत अपना उचित अंश प्राप्त करे। मार्ग में बाधा की तरह उपस्थित होकर जाति व्यवस्था हमें जीवन की आधुनिक अवस्थाओं की इन आवश्यकताओं के साथ सहज अनूकूलन नहीं करने देती।
जाति पूर्वी सभ्यता की देन है। विश्व में और कहीं भी इसका अस्तित्व नहीं है। मानवता का (यह) रूढ़ विभाजन स्वार्थी पंडितों द्वारा छद्म धर्म में जोड़ा गया पृष्ठभाग है। वे निर्धन पददलितों की कीमत पर खुद को समृद्ध करते हैं, आनंद लेते हैं और अज्ञानी जनसमूह की सामान्य भ्रांतियों को बढ़ाते हैं। इससे भी अधिक, ये पंडित अनुशासन या शासन के नाम पर उनके लिए हर प्रकार की गालियाँ और अनाप-शनाप बकवास रचते हैं। समाज की राजनीतिक और आर्थिक संरचना इन्हें अधिक ताकतवर बनाती है। मृदु उपचार (Soft treatment) के रूप में धार्मिक उपदेश जनसमूहों को ऑंसुओं में डुबोते रहे....या बेहोशी में पड़े रहने के लिए, अब भी उनकी योग्यताओं और प्यार के विस्तार की उच्च जाति के व्यक्तियों ज़ो अपनी निजी दुनिया के मालिक हैं, इस संसार के द्वारा अनदेखी की जाती है।
एक अच्छा समाज समग्रता में सुसंबंद्ध होता है, विभाजित या उपविभाजित रूप में नहीं, जैसा कि वर्तमान में है। यहाँ कुछ बुद्धिमान व्यक्तियों को दी गई सत्ता और उनके द्वारा उसका दुरुपयोग कर्तव्य और उत्तरदायित्व के भाव को, यथार्थ और सौन्दर्य के सम्पूर्ण बोध को मंद कर देता है। फिर पाश्चात्य सभ्यता की बराबरी कैसे हो?
जाति व्यवस्था ने अब हम लोगों में से प्रबुद्ध, सुसंस्कृत या सत्यत: शिक्षित व्यक्तियों को आकर्षित करना छोड़ दिया है। ऐसे व्यक्ति अब इसकी निंदा करते हैं, क़ुछ प्रकट रूप में स्पष्ट शब्दों में, कुछ संयमित भाषा में और कुछ मात्र हृदय में। रामायण काल से ही भारतीय समाज की प्रगति में निर्दयी जाति या वर्ण (व्यवस्था) सबसे बड़ी बाधाा रही है। जब तक इस अप्राकृतिक व्यवस्था का चलन है तब तक समाज अभिशप्त है और उसके साथ हम सब भी। जाति व्यवस्था के समर्थक इसके जिन सतही गुणों का दावा करते हैं, उन सबके उपरान्त भी सच्चाई यह है कि हमारा समाज सामाजिक सामर्थ्य, आध्यात्मिक तथा राजनीतिक एकात्मकता और मानवता के मूल्यों या कर्तव्यों की दृष्टि से निरंतर द्रासोन्मुख रहा है। (इस) घृणित जाति व्यवस्था ने एक ओर शिवत्व या सुन्दरता की जड़ों अथवा शिक्षा के विस्तार तक पर आघात किया है, और दूसरी ओर प्रतिरोध का कोई अवसर दिए बिना भुखमरी और बहिष्करण दिया है, जबकि अन्य देशों में हर एक व्यक्ति को समान अवसर प्राप्त हैं। यदि रामराज की सूक्ति या स्वराज की सरगर्मी
अनुमानित लेखन काल 1924 र्इ.
अनुवादक: आलोक कुमार सिंह
(आ. शुक्ल का यह लेख अधूरा प्राप्त हुआ था। इसका लेखन काल भी अनुमानित है। आचार्य की प्रपौत्री श्रीमती कुसुम चतुर्वेदी ने मूल रूप से अंग्रेजी में लिखित इस अधूरे लेख की हस्तलिखित प्रति ज़ो जगह-जगह से खंडित थी क़ो मिलाकर यह रूप दिया है। :सम्पादक)