जाति से बाहर / सत्य के प्रयोग / महात्मा गांधी
माताजी की आज्ञा और आशीर्वाद लेकर और पत्नी की गोद में कुछ महीनों का बालक छोड़कर मैं उमंगों के साथ बम्बई पहुँचा। पहुँच तो गया, पर वहाँ मित्रो ने भाई को बताया कि जून-जूलाई में हिन्द महासागर में तूफान आते हैं और मेरी यह पहली ही समुद्री यात्रा हैं, इसलिए मुझे दीवाली के बाद यानी नवम्बर में रवाना करना चाहिये। और किसी ने तूफान में किसी अगनबोट के डूब जाने की बात भी कही। इससे बड़े भाई घबराये। उन्होंने ऐसा खतरा उठाकर मुझे तुरन्त भेजने से इनकार किया और मुझको बम्बई में अपने मित्र के घर छोडकर खुद वापस नौकरी पर हाजिर होने के लिए राजकोट चले गये। वे एक बहनोई के पास पैसे छोड़ गये और कुछ मित्रों से मेरी मदद करने की सिफारिश करते गयो।
बम्बई में मेरे लिए दिन काटना मुश्किल हो गया। मुझे विलायत के सपने आते ही रहते थे।
इस बीच जाति में खलबली मची। जाति की सभा बुलायी गयी। अभी तक कोई मोढ़ बनिया विलायत नही गया था। और मैं जा रहा हूँ , इसलिए मुझसे जवाब तलब किया जाना चाहिये। मुझे पंचायत में हाजिर रहने का हुक्म मिला। मैं गया। मैं नहीं जानता कि मुझ में अचानक हिम्मत कहाँ से आ गयी। हाजिर रहने में मुझे न तो संकोच हुआ , न डर लगा। जाति के सरपंच के साथ दूर का रिश्ता भी था। पिताजी के साथ उनका संबंध अच्छा था। उन्होने मुझसे कहा: 'जाति का ख्याल हैं कि तूने विलायत जाने का जो विचार किया हैं वह ठीक नहीं हैं। हमारे धर्म में समुद्र पार करने की मनाही हैं , तिस पर यह भी सुना जाता है कि वहाँ पर धर्म की रक्षा नहीं हो पाती। वहाँ साहब लोगों के साथ खाना-पीना पड़ता हैं।'
मैंने जवाब दिया , 'मुझे तो लगता हैं कि विलायत जाने में लेशमात्र भी अधर्म नहीं हैं। मुझे तो वहाँ जाकर विद्याध्ययन ही करना हैं। फिर जिन बातों का आपको डर हैं, उनसे दूर रहने की प्रतिक्षा मैने अपनी माताजी के सम्मुख ली हैं, इसलिए मैं उनसे दूर रह सकूँगा।'
सरपंच बोले: 'पर हम तुझसे कहते हैं कि वहाँ धर्म की रक्षा नहीं हो ही नहीं सकती। तू जानता है कि तेरे पिताजी के साथ मेरा कैसा सम्बन्ध था। तुझे मेरी बात माननी चाहिये।'
मैने जवाब मे कहा, 'आपके साथ के सम्बन्ध को मैं जानता हूँ। आप मेरे पिता के समान हैं। पर इस बारे में मैं लाचार हूँ। विलायत जाने का अपना निश्चय मैं बदल नहीं सकता। जो विद्वान ब्राह्मण मेरे पिता के मित्र और सलाहकार हैं , वे मानते मानते हैं कि मेरे विलायत जाने में कोई दोष नहीं हैं। मुझे अपनी माताजी और अपने भाई की अनुमति भी मिल चुकी हैं।'
'पर तू जाति का हुक्म नहीं मानेगा?'
'मैं लाचार हूँ। मेरा ख्याल हैं कि इसमें जाति को दखल नहीं देना चाहिये।'
इस जवाब से सरपंच गुस्सा हुए। मुझे दो-चार बाते सुनायीं। मैं स्वस्थ बैठा रहा। सरपंच ने आदेश दिया, 'यह लड़का आज से जातिच्युत माना जायेगा। जो कोई इसकी मदद करेगा अथवा इसे बिदा करने जायेगा , पंच उससे जवाब तलब करेगे और उससे सवा रुपया दण्ड का लिया जायेगा।'
मुझ पर इस निर्णय का कोई असर नहीं हुआ। मैने सरपंच से बिदा ली। अब सोचना यह था कि इस निर्णय का मेरे भाई पर क्या असर होगा। कहीं वे डर गये तो ? सौभाग्य से वे दृढ़ रहे और जाति के निर्णय के बावजूद वे मुझे विलायत जाने से नहीं रोकेंगे।
इस घटना के बाद मैं अधिक वेचैन हो गया ? दुसरा कोई विध्न आ गया तो ? इस चिन्ता में मैं अपने दिन बिता रहा था ति इतने में खबर मिली कि 4 सितम्बर को रवाना होने वाले जहाज में जूनागढ़ के एक वकील बारिस्टरी के लिए विलायत जानेवाले हैं। बड़े भाई ने जिन के मित्रों से मेरे बारे में कह रखा था , उनसे मैं मिला। उन्होंने भी यह साथ न छोड़ने की सलाह दी। समय बहुत कम था। मैने भाई को तार किया और जाने की इजाजत माँगी। उन्होने इजाजत दे दी। मैने बहनोई से पैसे माँगे। उन्होंने जाति के हुक्म की चर्चा की। जाति-च्युत होना उन्हें न पुसाता न था। मै अपने कुटुम्ब के एक मित्र के पास पहुँचा औऱ उनसे विनती की कि वे मुझे किराये वगैरा के लिए आवश्यक रकम दे दे और बाद में भाई से ले ले। उन मित्र ने ऐसा करना कबूल किया, इतना ही नहीं , बल्कि मुझे हिम्मत भी बँधायी। मैने उनका आभार माना , पैसे लिये और टिकट खरीदा।
विलायत की यात्रा का सारा सामान तैयार करना था। दूसरे अनुभवी मित्र नें सामान तैयार करा दिया। मुझे सब अजीब सा लगा। कुछ रुचा, कुछ बिल्कुल नहीं। जिस नेकटाई को मैं बाद में शौक से लगाने लगा, वह तो बिल्कुल नही रुची। वास्कट नंगी पोशाक मालूम हुई।
पर विलायत जाने के शौक की तुलना में यह अरुचि कोई चीज न थी। रास्ते में खाने का सामान भी पर्याप्त ले लिया था।
मित्रों ने मेरे लिए जगह भी त्र्यम्बकराय मजमुदार (जूनागढ़ के वकील का नाम ) की कोठरी में ही रखी थी। उनसे मेरे विषय में कह भी दिया था। वे प्रौढ़ उमर के अनुभवी सज्जन थे। मैं दुनिया के अनुभव से शून्य अठारह साल का नौजवान था। मजमुदार ने मित्रों से कहा, 'आप इसकी फिक्र न करें।'
इस तरह 1888 के सितम्बर महीने की 4 तारीख को मैने बम्बई का बन्दरगाह छोड़ा।