जादुई महानगर मुंबई / संतोष श्रीवास्तव

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मेरे बचपन की यादों में जिस तरह अलीबाबा, सिंदबाद, अलादीन, शहरज़ाद, ख़लीफ़ा, हारूं रशीद, जुबैदा और अलिफ़ लैला के संग शहर बगदाद आज भी ज़िन्दा है उसी प्रकार मुम्बई मेरे खून में रच बस गया है। जब मैं यहाँ आई थी तो यह बम्बई था। अब बम्बई को मुम्बई कहती हूँ तो लगता है एक अजनबी डोर मेरे हाथ में थमा दि गई है जिसका सिरा मुझे कहीं दिखाई नहीं देता। शहरों के नाम बदल देने से मुझे सख़्त एतराज़ है। एक प्रचलित नाम जो अनपढ़, गँवार, बूढ़ा, बच्चा सबकी ज़बान से चिपक गया है... केवल बम्बई ही नहीं पूरे भारत का हर शहर, हर गाँव... बम्बई नाम में अपने सपने खोजता है क्योंकि यह शहर सपनों के सौदागर का है। आप सपने ख़रीदिये वह बेचेगा... एक से बढ़कर एक लाजवाब सपने... रुपहले, चमकीले, सुनहले और जादुई...

मैं भी सपने देखने की उम्र में बम्बई आई थी। लेकिन मेरे सपने चूँकि लेखन और पत्रकारिता से जुड़े थे इसलिए मेरे पैरों के नीचे फूल नहीं बल्कि यथार्थ की ठोस ज़मीन थी। बम्बई रोशनियों का शहर है और यहाँ रोज़ी रोटी के जुगाड़ के लिए हर संभव सपना देखा जा सकता है।

सात द्वीपों वाली इस नगरी में जो आकर्षण उस वक़्त था वह आज भी है। इस नगरी को पाने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने न जाने कितने पापड़ बेले थे। पहले यहाँ पुर्तगालियों का शासन था। 1661 में इंग्लैंड के किंग चार्ल्स द्वितीय ने पुर्तगाल की राजकुमारी कैथरीन डे ब्रिगेंज़ा से शादी की थी। कैथरीन और चार्ल्स को बम्बई दहेज़ में मिला था। ईस्ट इंडिया कंपनी के अनुरोध पर चार्ल्स ने इसे दस पाउंड सालाना की लीज़ पर ईस्ट इंडिया कंपनी को दे दिया। और तब गेटवे ऑफ़ इंडिया के शानदार गेट से समुद्री जहाज से उतरी इंग्लैंड की रानी ने बम्बई में प्रवेश किया। यह गेटवे ऑफ़ इंडिया गवाह है हिन्दुस्तान में अंग्रेज़ों के पैर पसारने का, उनकी कूटनीतिक चालों का, 26 नवंबर 2008 के आतंकी हमले का। निश्चय ही अपनी आँखों से ताज कांटिनेंटल की सजधज प्रतिदिन देखता उस दिन यह ज़रूर जार-जार रोया होगा। मैं गेटवे ऑफ़ इंडिया के समुद्र तट पर बनी पत्थर की मज़बूत रेलिंग पर कुहनियाँ टिकाए अरब सागर की उठती गिरती लहरों पर सवार स्टीमरों, नावों जहाजों को देख रही हूँ। न जाने कितनी सदियों का इतिहास समेटे है यह सागर... बम्बई का एक बहुत बड़ा वर्ग मछुआरों का है जिन्हें घाटी कहते हैं। घाटी बम्बई पर अपना वैसा ही हक़ जमाते हैं जैसा कोई राजा अपने राज्य पर। सागर इन मछुआरों का देवता है। नारियल पूर्णिमा के दिन मछुआरे अपनी नौकाओं को रंग बिरंगे कपड़ों से सजाते हैं और नाचते गाते समुद्र को नारियल की भेंट चढ़ाते हैं। इस दिन वे न तो समुद्र के अन्दर जाते हैं और न मछलियाँ पकड़ते हैं।

यहाँ से एलीफेंटा की गुफाओं के लिए दिन भर स्टीमर पर्यटकों को लाते ले जाते हैं। एलीफेंटा टापू में सातवीं शताब्दी के दौरान चालुक्य शासकों द्वारा निर्मित भव्य गुफ़ा मंदिर पर्यटकों को आज भी लुभाते हैं। वैसे इसका इतिहास समय की रहस्यमय पर्तों में दबा है। इस द्वीप पर कई बौद्ध स्तूप तो तीसरी शताब्दी से भी पूर्व के हैं। लेकिन यहाँ का मुख्य आकर्षण गुफ़ा मंदिर का निर्माण चालुक्य वंश के राज कुमार पुलकेशन द्वितीय ने अपने आराध्य देव भगवान शिव के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करने के लिए सातवीं शताब्दी में कराया था। कालांतर में इस द्वीप को पुरी और फिर घरापुरी के नाम से जाना जाता रहा। जब पुर्तगाली आए तो उन्होंने गुफ़ा मंदिरों के बाहर पत्थर के तराशे हुए हठी को देखकर इस द्वीप का नाम 'ए इल्हा दो एलीफेंटा' अर्थात हाथी का द्वीप रख दिया। उन्होंने जलदस्युओं के आक्रमण से द्वीप को सुरक्षित करने के लिए किला भी बनवाया। मंदिर बड़ी पहाड़ी पर विशाल शिला खण्ड को तराश कर बनाया गया है। एक घंटे की स्टीमर, लांच समुद्री यात्रा के बाद काफ़ी ऊँचाई पर चढ़ना पड़ता है। गुफ़ा क्या है मानो साक्षात शिव का वास... अँधेरे, गतिशील और सर्जन में रत शिव के विभिन्न रूपों की अलग-अलग गुफाएँ जिन्हें पैनल एक से नौ क्रमांक दिए गये हैं। एक में लंकापति रावण कैलाश उठाए हैं। दो में शिव का उमा महेश्वर रूप, तीन में अर्ध्दनारीश्वर, चार में भगवान शिव की महेशमूर्ति तराशी गई है। शिव के तीन व्यक्तित्व, सौम्य, ध्यानमग्न और तत्पुरुष। एक ही मूर्ति में समाहित इन तीन व्यक्तित्वों को श्रृंगार, रौद्र और शांत रसों का समागम भी कहते हैं। पाँच और छै: में सदाशिव रूप, सात में अंधासुर का वध करते हुए शिव, आठ में नटराज और नौ में योगेश्वर रूप तराशे गये हैं। इस भव्य गुफ़ा मंदिर में अब प्रतिवर्ष फरवरी मास में नृत्य का भी आयोजन किया जाता है। नज़दीक की पहाड़ी पर एक तोप भी रखी है।

जिस समय अंग्रेज़ों ने बम्बई में पदार्पण किया था घाटियों के बाहुल्य के साथ ही धनी घरानों और मारवाड़ी व्यापारियों की तादाद भी यहाँ बढ़ने लगी। पर्शिया से पारसी भी आकर बम्बई में बसने लगे। वे जोरोस्ट्रियन धर्म के थे और पवित्र अग्नि 'ईरानशाह' के उपासक। उस समय यहाँ धनी गुजराती वर्ग भी अपने शबाब पर था। पारसियों ने गुजराती भाषा को अपनी मातृभाषा ईरानी में मिलाकर एक नई भाषा को जन्म दिया ईरानी पारसी भाषा। पारसी एक शिक्षित वर्ग के रूप में उभरे जिनके प्रमुख दादाभाई नौरोज़ी के नाम से टाइम्स ऑफ़ इंडिया के सामने की सड़क पहचानी गई। यह सड़क और विक्टोरिया टर्मिनस तीस पैंतीस वर्ष पहले साहित्यकारों के आकर्षण का केंद्र था क्योंकि तब टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप से हिन्दी, अंग्रेज़ी की बेहतरीन साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक पत्रिकाएँ निकलती थीं। धर्मयुग, सारिका, माधुरी, नन्दन, ऑनलुकर, इलस्ट्रेटेड वीकली जैसी बड़े सर्कुलेशन की पत्रिकाएँ यहाँ से निकलती और भारत के हर शहर के पाठक वर्ग तक हाथों हाथ पहुँच जातीं। डॉ. धर्मवीर भारती, खुशवंत सिंह, कुर्रतुल एन हैदर, अवधनारायण मुद्गल, कमलेश्वर, कन्हैयालाल नंदन जैसे संपादकों से मिलना हर नए लेखक के लिए सफ़लता की सीढ़ी हुआ करता था। मैं भी भारती जी से उसी दौरान मिली थी। वह मिलना मेरे लेखन की इब्तिदा की तारीख़ों का था जब भारतीजी ने मेरी कुल जमा तीन कहानियों को धर्मयुग में प्रकाशित कर मुझे पहचान लिया था कि मैं ही वह लेखिका हूँ जो जबलपुर से पत्रकार बनने आई हूँ। उन्होने मुझसे अंतरंग कॉलम 2 साल तक लिखवाया।

वह बीसवीं सदी का आठवाँ दशक रहा होगा जब फिल्मों में गीत और संवाद लिखने के लिए बाक़ायदा नामी गिरामी हस्तियाँ जुटी हुई थीं। साहित्यकारों, शायरों और कवियों का बोलबाला था यहाँ। साहिर लुधियानवी, जांनिसार अख़्तर शैलेन्द्र, कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, प्रदीप तब अपने पूरे निखार पर थे। यहाँ तक कि तब इनके गीतों और साहित्यिक रचनाओं में फ़र्क़ करना मुश्किल हो जाता था। ये सारे के सारे गीतकार प्रगतिशील आन्दोलन और इप्टा से जुड़े थे और तब ट्रेड यूनियन आन्दोलन अपने चरम पर था।

विक्टोरिया टर्मिनस जो अब छत्रपति शिवाजी टर्मिनस के नाम से जाना जाता है दूर से एक महल जैसा दिखता है। यह विश्व के सबसे सुंदर छै: स्टेशनों में गिना जाता है। मई 1878 में एफ. डबल्यू स्टीवेन्स ने इसकी रूपरेखा तैयार की थी और दस वर्षों में इसे बनाकर पूरा किया था। गोथिक कला के बेहतरीन नमूनों वाली इस महलनुमा इमारत के दक्षिणी द्वार के सामने रानी विक्टोरिया की मूर्ति है। 1853 में इस टर्मिनस से जबकि यह आज के जैसा तैयार न था भाफ़ से चलने वाली पहली ट्रेन मुम्बई से ठाणे जिले तक गई थी। अब तो तीस लाख यात्री रोज़ यहाँ से सफ़र करते हैं। शायद 1853 में पूरे भारत की आबादी इतनी होगी। अब तो यहाँ भूमिगत मार्ग भी बन गया है जहाँ छोटा मोटा बाज़ार भी है। उस पार मराठी पत्रकार संघ की इमारत है जहाँ अक़्सर साहित्यकारों का जमावड़ा रहता है। मुम्बई का यह पूरा इलाका बहुत शान शौकत और व्यस्तता का आभास कराता है।

मराठी पत्रकार संघ की इमारत के सामने और छत्रपति शिवाजी टर्मिनस के इस तरफ़ से सामने की ओर हाईकोर्ट बिल्डिंग है जो गोथिक कला से सजी है। छत्रपति शिवाजी टर्मिनस के कॉर्नर पर व्ही शेप में गोथिक कला की म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन बिल्डिंग है जिसकी नींव दिसम्बर 1884 में लॉर्ड रिपन ने रखी थी और जो 1893 में बनकर तैयार हुई। इसकी ऊँचाई 235 फीट है। इसी एरिया में जनरल पोस्ट ऑफ़िस है जिसका गोल गुंबज बीजापुर के किले के गुंबज जैसा है। एशियाटिक सोसाइटी की देखरेख में हार्निमन सर्कल के खूबसूरत बगीचे में नायाब क्रोटन और फूल हैं जिनसे यह बगीचा महमहाता रहता है। यह सर्कल 1860 में बना था। यहीं सेंट थॉमस कैथेड्रल है। 1838 में बने गोथिक कला के इस कैथेड्रल की तारीख़ों का कुछ ऐसा करिश्मा है कि 25 दिसम्बर क्रिसमस के दिन यहाँ पहली प्रार्थना की गई। चैपल 1860 में बना। प्रवेश द्वार पर गोथिक कला का फव्वारा है जिसका डिज़ाइन इंग्लैंड में सर गिल्बर्ट स्कॉट ने तैयार किया।

हुतात्मा चौक जिसे बम्बई वासी केवल फाउंटेन कहते हैं 1864 में रोमन देवी फ्लोरा के नाम से फ्लोरा फाउंटेन कहलाया। यहाँ देवी फ्लोरा की मूर्ति दूर से ही आकर्षित करती है। बम्बई का यह बेहद व्यस्त इलाका है। सस्ते दामों में अंग्रेज़ी की किताबें यहाँ के फुटपाथों पर मिल जाएँगी। तमाम बैंक, बड़ी-बड़ी एजेंसियों के दफ़्तर यहाँ की शान हैं।

छत्रपति शिवाजी टर्मिनस के उत्तर में महात्मा ज्योति बा फुले मार्केट है जिसे क्रेफ़र्ड मार्केट कहते हैं। 72000 स्क्वेयर यार्ड्स में फैले इस बाज़ार का डिज़ाइन विलियम एमर्सन ने तैयार किया। 1869 में यह लोगों के लिए खोला गया था। इसका लम्बा चौड़ा इतिहास है। मुख्य बात यहाँ की यह है कि दुनिया की कोई चीज़ ऐसी नहीं है जो यहाँ न मिलती है।

शहीद भगतसिंह रोड पर बॉम्बे नेचरल हिस्ट्री सोसाइटी एक ऐसा ग़ैर सरकारी संस्थान (NGO) है जो वन्य जीवों की रक्षा के लिए कार्य करता है। काफी बड़ा पुस्तकालय है, शोध छात्रों को यहाँ की किताबों से बहुत मदद मिलती है। इसका हेड क्वार्टर हॉर्नबिल है। इसी की एक शाखा कन्वरसेशन एजुकेशन सेंटर है जहाँ ऑडियो विज़ुअल शो होते हैं।

पहले मैं समझती थी कि काला घोड़ा शायद घोड़ों का कोई बाज़ार होगा या अंग्रेज़ों के ज़माने का घुड़साल जहाँ काले घोड़े बहुतायत से होंगे पर काला घोड़ा तो विशाल क्षेत्र को समेटता एक ऐसा नाम है जहाँ की कई इमारतें बम्बई के लिए लैंडमार्क हैं। प्रिंस ऑफ़ वेल्स म्यूज़ियम, सर काउसजी जहाँगीर हॉल, एलफिंस्टन कॉलेज, डेविड ससून लाइब्रेरी, आर्मी नेव्ही बिल्डिंग, एलफिंस्टन मेनशन, सेंट एंड्रज़ चर्च, कोलंबाज़ चर्च और भी ढेरों इमारतें। काला घोड़ा में पहले काले पत्थर के घोड़े पर किंग एडवर्ड सप्तम की मूर्ति थी इसलिए इस जगह का नाम काला घोड़ा पड़ा।

मुंबई के दक्षिण में महात्मा गाँधी रोड पर प्रिंस ऑफ़ वेल्स म्यूज़ियम है जिसे छत्रपति शिवाजी महाराज वास्तु संग्रहालय कहते हैं। कोलकाता टैगोर मय है तो बम्बई शिवाजीमय। शायद ऐसे ही इतिहास रचा जाता है। संग्रहालय की नींव 1905 में किंग जॉर्ज पंचम ने रखी थी। संग्रहालय गोथिक और मूरिश कला का बेहतरीन नमूना है। इस भव्य संग्रहालय में दो हज़ार पेंटिंग्स और 500 साल पुरानी इजिप्ट की ममी है। संग्रहालय तीन विभागों में बँटा है। पुरातत्व, कला और नेचरल हिस्ट्री विभाग। इसी के बाजू में जहाँगीर आर्ट गैलरी है। यहाँ कई राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय कलाकारों की चित्रकला प्रदर्शनियाँ होती हैं।

रीगल सिनेमा के सामने अंग्रेज़ों के ज़माने का महाराष्ट्र स्टेट पुलिस हेडक्वार्टर है। यह पहले नेवल रॉयल अल्फ्रेड सेलर्स का घर था। यहीं विलिंगटन फाउंटेन है। 1865 में ड्यूक ऑफ़ विलिंग्टन जब बम्बई आया था तब यह फाउंटेन बना था। इन सभी बेहद खूबसूरत इमारतों, फव्वारों, हरे भरे विशाल दरख़्तों से घिरी सड़कें... यहाँ आकर ऐसा लगता है जैसे हम अंग्रेज़ों के ज़माने की सैर पर हों। इस जीवंत इतिहास को और भी जीवंत बनाती हैं यहाँ की गोथिक कला की इमारतें। पुरातत्व विभाग इनका संरक्षक है। जब रात की जगमगाती रोशनियों में बम्बई अपना हुस्न बिखेरती है तो इन इमारतों की ख़ास-ख़ास गोथिक कला की जगहों पर पीली रोशनियाँ फूटकर निकलती हैं। बम्बई के इस रूप सौंदर्य की कोई बराबरी नहीं।

संग्रहालय के पीछे की तरफ़ लायन गेट है और गेट पार करते ही समुद्र के विशाल हृदय पर तमाम जहाज खड़े रहते हैं। कुछ छूटने की तैयारी में कुछ आने की तैयारी में। यह एक बड़ा डॉकयार्ड है। जहाँ सबसे पहला एयरक्राफ़्ट केरियर Iएन एस विक्रांत अब तैरता संग्रहालय है जो इंडियन म्यूज़ियम शिप विक्रांत के नाम से प्रसिद्ध है। यह संग्रहालय अद्भुत मरीन वस्तुओं का संग्रह है।

डेविड ससून लाइब्रेरी बम्बई की विशाल लाइब्रेरी में से एक है। सबसे बड़ी सेंट्रल लाइब्रेरी है। बहुत अधिक विशाल और दुनियाभर की पुस्तकों का संग्रह। इसकी चौड़ाई में बनी बड़ी-बड़ी सीढ़ियाँ और उद्यान इसकी खूबसूरती में चार चाँद लगाते हैं। डेविड ससून लाइब्रेरी में भी पुस्तकों का विशाल भंडार है।

कोलाबा में ससून डॉक मछली मारने का एक बड़ा समुद्री हिस्सा है। सुबह-सुबह यहाँ का आलम यहाँ रहने वालों की नींद हराम किए है। मछुआरे अपनी छोटी-छोटी नावें जिनमें सफ़ेद पताकाएँ फहराती रहती हैं लेकर मछली पकड़ने निकलते हैं और ससून डॉक पर ही सौदा पटाया जाता है। हवाएँ मछली की बास और खरीदने बेचने वालों की आवाज़ें एक बड़े कोलाहल को लेकर दूर-दूर का माहौल अस्त व्यस्त किये रहती हैं जबकि कोलाबा बहुत सारे नज़रियों से महत्त्वपूर्ण है। यहाँ रीगल से शुरू हुई सड़क काफी लम्बाई में मीना बाज़ार कहलाती है। मुगलों के समय का मीना बाज़ार फुटपाथ से लेकर दुकानों तक उतर आता है। स्ट्रैंड सिनेमा के पीछे आर टी व्ही-सी (रेडियो एन्ड टी व्ही कमर्शियल) का बहुचर्चित ऑफ़िस अभिनय और आवाज़ की दुनिया के कलाकारों का जमघट लगाए रहता है। यहाँ मेरे बड़े भाई स्व। विजय वर्मा उन दिनों आवाज़ की दुनिया में अपनी पहचान बना चुके थे। मेरा भी वहाँ कॉपी राइटिंग के लिए जाना शुरू हुआ था। वह दुनिया ही अद्भुत थी। तबस्सुम, विजय गोविल, फारुख़ शेख़ जैसे कलाकारों के संग काम करने का अपना ही लुत्फ़ था। उन दिनों रेडियो पर विजय वर्मा की लिखी रामायण धारावाहिक प्रसारित होती थी। पत्थर बोल उठे, लाल किले की कहानी उसकी ज़ुबानी, एवरेडी के हमसफ़र आदि एक से एक लाजवाब रेडियो धारावाहिक विजय भाई के पास थे। लिंटाज़ में अमीन सयानी जी को देखते ही रेडियो सीलोन याद आ गया और सीलोन याद आया तो बिनाका गीतमाला भी और इत्तफाक ऐसा कि अमीन सयानी जी के अंडर काम करते हुए मुझे पहले टूथपेस्ट का ही जिंगल लिखने मिला।

कोलाबा में अफ़गान चर्च है जो गोथिक कला का बेहतरीन नमूना है। यह चर्च 1847 में उन ब्रिटिश सैनिकों की स्मृति में बना था जो 1434 के सिंध अफ़गान अभियानों में मारे गये थे। यह चर्च प्रोटेस्टेन्ट मतावलम्बियों का है। चर्च की मीनार इतनी ऊँची है कि देखते ही सिर चकरा जाए। यह मीनार बम्बई हार्बर जाने वाले जहाजों को रास्ता दिखाती है। चर्च के गलियारे को पार करते हैं जिन पर अफ़गान युद्ध में शहीद हुए सैनिकों के नाम लिखे हैं। डोरिक़ स्टाइल में बने स्तंभ मन मोह लेते हैं। चर्च की जादुई खूबसूरती देखते ही बनती है। प्रार्थना हॉल में प्रवेश करते ही ढेरों मोमबत्तियों की लौ देख प्रार्थना के लिए खुद ब खुद हाथ जुड़ जाते हैं।

पुर्तगालियों के शासनकाल में बैरक के लिए बनाई गई विशाल इमारत जो पूरी की पूरी पत्थरों से बनी थी। 1665 में ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों आई। अब यह इमारत ओल्ड कस्टम हाउस, से जानी जाती है और अब यहाँ कलेक्टर्स ऑफ़िस और लैंड रिकार्ड्स ऑफ़िस है।

बम्बई लम्बाई में बसा महानगर है। -सी एस टी से कुर्ला, कर्जत, नेरुल, वाशी, नवी मुंबई सब जगह ट्रेनें चलती हैं दूसरा बड़ा पश्चिमी रेलवे टर्मिनस चर्चगेट है। इसकी इमारत भी अंग्रेज़ी स्थापत्य की है। बल्कि चर्चगेट से मंत्रालय नरीमन पॉइंट यूनिवर्सिटी रोड में जितने भी स्थापत्य हैं, उन्हें देखकर लगता है जैसे हम लंदन आ गये हों। चर्चगेट के आसपास का एरिया बेहद साफ़ सुथरा, हरा भरा और सुंदर है। वानखेड़े स्टेडियम जहाँ राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैच होते हैं विशाल दर्शक दीर्घा वाला है। चर्चगेट स्टेशन के दाहिने तरफ़ के गेट से बाहर निकलने पर छोटे-छोटे कई रास्ते समंदर से लगी मुख्य सड़क पर जाकर खुलते हैं। यह सड़क सीधे वर्ल्ड ट्रेड सेंटर जाती है। छोटी-छोटी सड़कों पर इंडियन मर्चेंट चेम्बर है जो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक एवं कला गोष्ठियों, बिज़नेस मीटिंगों का केंद्र है। यहीं बने घरेलू आवासों में एक आवास इस्मत चुग़ताई का था। इस्मत आपा का घर लेखकों का अड्डा था जहाँ वे अपने शानदार सफ़ेद बालों वाले भव्य व्यक्तित्व के रूप में आपा नाम से पुकारी जाती थीं। उन दिनों बम्बई की हवाओं में कला और साहित्य का नशा था। निश्चय ही वह साहित्य का बम्बई के लिए स्वर्ण युग था।

चर्चगेट से नरीमन पॉइंट की ओर जाने पर सचिवालय, जिमखाना, बेक बे, हॉरिजन व्यू, महिला विकास मंडल, टाटा मेडिकल रिसर्च सेंटर, इंडियन कैंसर सोसाइटी आदि महत्त्वपूर्ण केन्द्र हैं। अपोलो मैदान से लगी बॉम्बे यूनिवर्सिटी की विशाल इमारत है जो 1857 में बनी थी। यह भारत के तीन महत्त्वपूर्ण विश्व विद्यालयों में से एक है। विश्वविद्यालय में पुस्तकालय कॉन्वर्सेशन हॉल, प्रिंटिंग प्रेस सहित बड़े-बड़े खूबसूरत उद्यान हैं जिनके बीच के मार्ग में चलते हुए कई गेट पार करने पड़ते हैं। लम्बे-लम्बे गलियारों को स्तंभों ने जोड़ा है। यहाँ 22000 वर्ग मीटर में विभिन्न शालाएँ हैं और 84000 वर्ग मीटर में प्रयोग शालाएँ हैं। दो पोस्ट ग्रेजुएट सेंटर, 354 एफ़िलेटेड कॉलेज और 36 डिपार्टमेंट हैं। कई प्रोफ़ेशनल कोर्स यहाँ चलाए जाते हैं। यहाँ सबसे अधिक आकर्षण का केन्द्र है लंदन के बिगबेन क्लॉक टॉवर से मिलता जुलता राजाबाई क्लॉक टॉवर जिसे ब्रिटिश सर गिल्बर्ट स्कॉट ने 1874 से 78 के बीच तैयार किया। यह यहाँ का लैंडमार्क है।

एशियाटिक बेहतरीन शॉपिंग दुकान मानी जाती है। इसे छोटा-सा मॉल कहें तो अन्यथा न होगा। सामने ही ईरोज़ थियेटर है। यह थियेटर आधुनिक साज सज्जा से लैस है पर है काफी पुराना। के. सी. कॉलेज, बॉम्बे कॉलेज ऑफ़ जर्नालिज़्म, के. सी. लॉ कॉलेज, मैनेजमेंट स्टडी कॉलेज, राम महल, मोतीमहल मंत्रालय, आकाशवाणी, आमदार निवास, एम एल ए क्वार्टर्स और इन सबके बीच भागती, दौड़ती बम्बई की ज़िन्दग़ी। बम्बई 'वर्किंग क्लास' का शहर माना जाता है। अपनी तमाम मुश्किलों को झेलते, फुटपाथ पर सोते जागते आख़िर हर तबके का आदमी इसमें समा ही जाता है। लंच का समय होते ही चर्चगेट से मंत्रालय तक की सड़कों पर जहाँ एक ओर रसना और सम्राट जैसे महँगे होटलों में एक कुर्सी तक ख़ाली नहीं मिलती वहीँ केले की टोकरियाँ मिनटों में खाली हो जाती हैं। यहाँ केले बेचने वाले लखपति होते देखे गये हैं।

गिरगाँव चौपाटी को महानगर का दिल कहा गया है। इसका धार्मिक और ऐतिहासिक महत्त्व है। गाँधी जी ने 'अंग्रेज़ों भारत छोड़ो' का नारा सर्वप्रथम ग्रांट रोड स्थित गवालिया टैंक से आरंभ किया था और क्रांतिकारियों का दल गिरगाँव चौपाटी समुद्रतट पर इकट्ठा हुआ था। उस वक़्त यह तट नारियल के वृक्षों से भरा था। अब इक्का दुक्का ही रह गये हैं नारियल के वृक्ष। अब यहाँ नाना नानी पार्क बन गया है जिसमें बुज़ुर्ग टहलते, बतियाते हैं। यहीं बाल उद्यान है जहाँ ठीक उस जगह बाल गंगाधर तिलक की प्रतिमा है जहाँ उनका अंतिम संस्कार किया गया था। एक गोल घेरा रेलिंग को जोड़कर बनाया गया है। बस उतने ही गोल दायरे में कबूतर मटरगश्ती करते और पर्यटकों द्वारा बिखेरे गये दाने चुगते हैं। परिंदे हैं पर अनुशासन बद्ध। यहाँ मानसून के दौरान विभिन्न प्रकार के वॉटर स्पोर्ट्स आयोजित किये जाते हैं। स्पीड बोट, जेट स्की, पेरासेलिंग आदि। गिरगाँव चौपाटी से बाईं ओर दूर तलक लम्बी दौड़ती मरीन ड्राइव की सड़क और दाहिनी ओर मलाबार हिल के कर्व तक बिल्कुल नेकलेस की शक्ल में सड़कों की बत्तियाँ जब जगमगाती हैं तो लगता है नेकलेस के हीरे दिपदिपा रहे हैं। इसलिए इसे क्वींस नेकलेस कहते हैं। डूबते सूरज के तमाम रंग चौपाटी के समंदर को रंगों से भर देते हैं। जब नारियल पूर्णिमा और अनन्त चतुर्दशी का त्यौहार गणपति विसर्जन के रूप में मनाया जाता है तो चौपाटी खिल उठती है। देवलोक जैसी नज़र आती है। यहाँ IAF एयर शो (भारतीय वायु सेना) और मेराथन दौड़ भी आयोजित होती है। आसमान में वायु सेना का करतब देखने समुद्र तट पर लाखों की भीड़ उमड़ पड़ती है। मरीन ड्राइव की समुद्र से लगी दीवार साक्षी है प्रेम कहानियों की। शाम होते ही यहाँ दीवार की रेलिंग पर प्रेमी जोड़े आ जुटते हैं और अगर समुद्र में ज्वार रहा तो लहरों की बौछारों में भीगते हैं। यहाँ तारा पोर वाला मत्स्यालय है। जो 1951 में खुला था। इस मत्स्यालय में समुद्री और मीठे पानी की मछलियाँ और अन्य जलचर हैं। विशेष बात ये है कि यहाँ समुद्र से सीधी पाइप लाइन आती है और समुद्री जीवों को फ्रेश वॉटर मिलता है। आयुर्वेद कॉलेज, महात्मा गाँधी रिसर्च सेंटर से सीधे नरीमन पॉइंट की ओर सड़क जाती है जहाँ बम्बई का समृद्धि शाली वर्ग निवास करता है।

चौपाटी से मलाबार हिल के रास्ते में बाबुलनाथ मंदिर है। यह भगवान शिव का उपासना स्थल है जो 1740 में बना था। फिर 1900 में इसका वर्तमान स्वरुप बनकर तैयार हुआ। इसका टेरेस और सभा भवन स्तंभों के आधार पर टिका है। शिवजी का विशाल लिंग यदि बरसात न हो तो पानी में डुबो दिया जाता है। ऐसी मान्यता है कि तब अवश्य बरसात होती है।

चौपाटी के सामने बम्बई का सबसे पुराना कॉलेज विल्सन कॉलेज है। इसकी विशाल इमारत का स्थापत्य देखते ही बनता है। अक़्सर फिल्मों के कॉलेज के दृश्य यहीं फिल्माए जाते हैं। जूनियर कॉलेज से बी. एस. सी. तक की पढ़ाई मेरे बेटे स्व। हेमंत ने यहीं से पूरी की थी। विल्सन कॉलेज मेरे लिए तीर्थ समान है।

मलाबार हिल की चढ़ाई बाबुलनाथ से शुरू हो जाती है। व्हाइट हाउस, वाल्केश्वर, बाणगंगा, राज भवन, जैसे मलाबार हिल का एक कोना यहाँ आकर समाप्त होता है। ऐसा विश्वास है कि सीताजी की खोज करते हुए भगवान राम यहाँ से गुज़रे थे और उन्होंने बालू के शिवजी बनाकर उनकी आराधना की थी। बालू के ईश्वर वाली यह जगह वाल्केश्वर कहलाई। एक हज़ार साल पहले यहाँ मंदिर बनाया गया था। इसी के पास बाणगंगा तीर्थ है। अपनी वनवास की अवधि में विचरण करते हुए जब पांडवों को प्यास लगी तो अर्जुन ने धरती में बाण मारकर गंगा की धारा प्रगट की थी। जल से भरे बाण गंगा कुंड के चारों ओर विभिन्न देवताओं के मंदिर हैं। लोग मोक्ष के लिए मृतात्मा के कर्मकांड के लिए यहाँ आते हैं।

आगे चलकर गवर्नर का निवास स्थान राज भवन है। जहाँ उनका प्राइवेट समुद्र तट और पर्सनल हेलीपेड है। यह राजभवन सफ़ेद चमकते स्फ़टिक के महल जैसा है। यहाँ बिना अनुमति के प्रवेश वर्जित है। राज भवन में मुझे गवर्नर एस. एम. कृष्णा के हाथों वसंतराव नाइक प्रतिष्ठान की ओर से वर्ष 2004 में साहित्य का लाइफ़ टाइम अचीव्हमेंट अवार्ड दिया गया था। तब मैंने राज भवन को अंदर से देखा था। उस जन विहीन प्राइवेट समुद्री तट पर भी गई थी जो राज भवन के उद्यान की सीढ़ियाँ उतरकर है। कुछ सफ़ेद परों वाले परिंदे किनारे लहरों पर कागज़ की नाव के समान तैर रहे थे। वह मेरे जीवन का अद्भुत क्षण था। बम्बई ने बहुत कुछ मुझसे छीना है तो बहुत कुछ दिया भी है।

राजभवन मलाबार हिल की उतराई पर है। चढ़ाई पर ऊँची बिल्डिंगें, बंगले, जिन्ना हाउस, मुख्य मंत्री निवास सहित बेहद पॉश इलाका नज़रों के सामने से गुज़रता है। पुर्तगालियों के शासनकाल में यह इलाक़ा गझिन हरियाली भरा था। धूप में चमकतीं, झिलमिलाती बालू वाले खूबसूरत समुद्र तट थे और उन पर नारियल, सीताफल के पेड़। इन पेड़ों के बीच से गुज़रती समुद्री हवा जैसे संगीत के सुरों से गुज़रती थी। तब यहाँ शेर भी थे और अन्य वन्य प्राणी भी। धीरे-धीरे मलाबार हिल के जंगल आबाद होते गये और एक समृद्धिशाली इलाका बसता गया। रेखा भवन के पास बना जैन मंदिर इस समृद्धि का पहला सोपान है। 1905 में संगमरमर से बना प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ का यह जैन मंदिर कला की अद्भुत मिसाल है। मंदिर की दीवारों पर रंगीन कलाकृतियाँ हैं जिसमें 24 तीर्थंकरों के जीवन की झलकियाँ हैं। पहली मंज़िल पर काले संगमरमर से निर्मित भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा है और हिन्दुओं के विभिन्न प्लेनेट भी दर्शाये गये हैं। जैन मंदिर से हैंगिंग गार्डन तक चढ़ाई है। हैंगिंग गार्डन का नाम बदलकर सर फिरोज़शाह मेहता उद्यान रख दिया गया है। यहाँ से बम्बई को पानी भी सप्लाई किया जाता है। इस उद्यान के पेड़, क्रोटन आदि जानवरों की शक्ल में ऐसे कटे हैं जैसे अधर लटके हों। यहाँ एक फ्लॉवर क्लॉक है और जूते के आकार का बच्चों के चढ़ने, उतरने, फिसलने वाला घर जिसे शू गार्डन कहते हैं। यहाँ खड़े होकर सामने सागर में डूबते सूरज को देखना अद्भुत मंज़र है। सूर्य के डूबते ही यू शेप में समंदर को घेरे हीरे-सी जगमगाती रोशनियों वाला क्वींस नेकलेस समंदर के काले दीखते पानी को स्वप्निल बनाता है। हैंगिंग गार्डन के सामने कमला नेहरु पार्क है। यह थोड़ा ढलान पर बना है जो 1952 में बना। यहाँ एक बाल उद्यान भी है। यहाँ से भी मरीन ड्राइव का शानदार व्यू दिखता है। पहले जब फ़िल्मी स्टूडियो में ही फ़िल्में शूट की जाती थीं तब हैंगिंग गार्डन और कमला नेहरु पार्क हीरोइन के गानों, दौड़भाग आदि के लिए काफ़ी महत्त्वपूर्ण थे। इसका सौ डेढ़ सौ बोन्साई पेड़ों का उद्यान भी दर्शनीय है।

हैंगिंग गार्डन की ऊँचाई से उतराई की सड़क पार करते ही सामने प्रियदर्शिनी पार्क है। सुंदर समुद्री तट नारियल, नीलगिरी आदि के वृक्ष और चट्टानों से टकराती समुद्री लहरों के सौंदर्य को विदेशी टकटकी बाँधे बस देखते ही रह जाते हैं।

प्रियदर्शिनी पार्क से महालक्ष्मी तक की सड़क महत्त्वपूर्ण इमारतों से युक्त है। मुकेश चौक में गायक मुकेश की स्मृति में-सी स्टोन से बनी दो मूर्तियाँ स्थापित हैं जो भारतीय संगीत का बेहतरीन नमूना हैं। पैडर रोड, भूलाभाई देसाई रोड, ब्रीच कैंडी अस्पताल जो फ़िल्मी हस्तियों के इलाज के लिए जाना जाता है और जहाँ भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के घुटनों का ऑपरेशन हुआ था, वार्डन रोड का प्रभुकुंज स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर का निवास स्थान हैं। मीना मंगेशकर, आशा भोसले भी इसी इलाक़े में रहती हैं। जसलोक अस्पताल उच्च तकनीकी इलाज के लिए प्रसिद्ध है। तमाम वीज़ा एम्बेसीज़ आदि के बाद महालक्ष्मी में समुद्र के किनारे धनधान्य की देवी लक्ष्मी का शिलाखंड पर निर्मित मंदिर है। मंदिर में देवी महालक्ष्मी महासरस्वती, महाकाली रूप की मनोहारी प्रतिमाएँ हैं। प्रतिमाओं का शृंगार रत्न जड़ित आभूषणों से किया जाता है। बम्बई में आतंकवादी हमलों के बाद यहाँ सुरक्षा के कड़े इंतज़ाम किये गये हैं। मंदिर के पीछे से उतरकर समंदर तक चट्टानें ही चट्टानें हैं। यहीं उतराई पर एक दुकान है जहाँ मूँग की दाल बेसन आदि के पकौड़े राई के तेल में तलकर दिये जाते हैं। इन स्वादिष्ट पकौड़ों को हर दर्शनार्थी अवश्य खाता है।

महालक्ष्मी से कुछ ही दूरी पर हाजी अली दरगाह है जो समुद्र के ऊपर बनी है। यहाँ पहुँचने के लिए जो रास्ता बनाया गया है वह सुबह से दोपहर तीन बजे तक पानी में डूबा रहता है। तीन बजे यह दर्शनार्थियों के लिए खुल जाता है। मुख्य सड़क से पाँच सौ मीटर का यह समुद्री मार्ग आसपास समुद्री चट्टानों से युक्त है जिन पर सफ़ेद पंखों वाले पक्षियों के झुंड बैठे रहते हैं। उड़ते हैं तो एक साथ, बैठते हैं तो एक साथ... मानो पक्षियों की क्लास लगी हो। मुस्लिम संत हाजी अली का निधन हज यात्रा के दौरान हुआ था। संत के अनुयायिओं ने उनके पार्थिव अवशेष यहाँ स्थापित कर दरगाह बना दी। दरगाह चारों कोनों पर बनी ऊँची मीनारों से सुशोभित है। इसी की एक मीनार पर चढ़कर अमिताभ बच्चन ने फिल्म कुली का सीन दिया था। दरगाह खूबसूरत कार्विंग वाली है।

महालक्ष्मी के चौराहे पर हीरा पन्ना शॉपिंग सेंटर है जहाँ अभिजात्य वर्ग और फ़िल्मी हस्तियाँ शॉपिंग करती हैं। सामने महालक्ष्मी रेस कोर्स है। घोड़ों पर करोड़ों का सट्टा लगाना अमीरों का शगल है। बाजू में पर्यावरण संरक्षण की बड़ी इमारत है। तुलसी के पौधे यहाँ मुफ़्त में मिलते हैं। महालक्ष्मी समंदर के उस पार वर्ली-सी फ़ेस है। वर्ली बम्बई का समृद्ध इलाका है। यहाँ की वर्ली दुग्ध डेयरी में प्रतिदिन लाखों लीटर दूध मशीनोंद्वारा छाना और प्लास्टिक की थैलियों में पैक किया जाता है। क्रीम, मक्खन आदि बड़ी-बड़ी मशीनों से ही निकाला जाता है।

महालक्ष्मी रोड पर ही आगे नेहरु साइंस सेंटर है। इसमें बच्चों का साइंस पार्क है और एक स्थाई आर्ट गैलरी है जिसमें ज़िन्दग़ी से जुड़ी बातों को समय-समय पर चित्रों द्वारा दर्शाया जाता है। एंटीक वस्तुओं की प्रदर्शनी में रेलवे एंजिन, ट्राम, सुपर सॉनिक हवाई जहाज और भाफ़ से चलने वाली ट्रेन विशेष दर्शनीय है। नेहरु सेंटर में नेहरू जी द्वारा लिखित पुस्तक डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया का चित्र रूप में प्रस्तुतीकरण किया गया है। यहाँ चौदह गैलरीज़ हैं और ऑडियो विज़ुअल शो भी होते हैं। नेहरु तारांगण एक भव्य तारांगण है जहाँ हिन्दी अंग्रेज़ी भाषा में अलग-अलग समय पर प्रतिदिन तारे, सूर्य, चंद्र, आकाशगंगा, ग्रह नक्षत्रों को बिल्कुल असली रूप में दिखाया जाता है। ऐसा लगता है जैसे हम कुर्सी पर बैठे आसमान की सैर कर रहे हों।

किसी ज़माने में वर्ली स्थित दूरदर्शन केन्द्र बहुत लुभाता था। मात्र दो चैनल... मेट्रो और दूरदर्शन। इन दो चैनलों ने रामायण, हम लोग, जैसे कई बेहतरीन धारावाहिक देकर लोगों को टी. वी. सैट का दीवाना बना दिया था। हम लोग में उषा रानी के लिए डॉन क्वीन सम्बोधन तब लोगों की ज़बान पर था। हर रविवार को बम्बई की सड़कें कर्फ्यू ग्रस्त नज़र आती थीं और लोग हाथ पाँव धोकर बाक़ायदा पालथी लगाकर टी. वी. के सामने बैठकर रामायण धारावाहिक देखते थे। अब सौ से अधिक चैनल होने के बावजूद धारावाहिक उतने नहीं लुभाते। हर जगह बाज़ारवाद छा गया है।

बम्बई गणेशमय है। गणपति का त्यौहार यहाँ जिस श्रद्धा भक्ति से मनाया जाता है वह बेमिसाल है। गणपति के अष्ट रूपों में से एक सिद्धिविनायक मंदिर प्रभादेवी में है। गणेशजी की दो पत्नियाँ रिद्धि सिद्धि भी यहाँ पूजी जाती हैं। भक्तों की कतार इतनी लम्बी होती है कि आठ घंटे अमिताभ बच्चन जैसी हस्ती तक को खड़ा रहना पड़ता है। यहाँ हर भक्त विशिष्ट है चाहे वह आम हो या ख़ास। किसी के लिए स्पेशल लाइन या स्पेशल पूजा का विधान नहीं है। तभी तो तमाम अवरोधों के बम्बई मंगलमय है।

दादर का पुर्तगाली चर्च अपनी विशेष बनावट और कबूतरखाना हज़ारों कबूतरों के ऐन चौराहे पर बने गोल निवास के लिए प्रसिद्ध है। कबूतर खाने के चारों रास्ते दिन भर बसों, टैक्सियों और पदयात्रियों के कारण भीड़ भरे रहते हैं पर ये कबूतर कभी किसी के लिए रूकावट नहीं बनते। दादर टर्मिनस तक बम्बई-बम्बई है फिर उप नगर शुरू हो जाते हैं। वृहत्तर बम्बई बोरीवली तक है। बोरीवली से आगे जिला ठाणे शुरू हो जाता है।

सातवें दशक तक माहिम से लेकर मस्जिद तक शहर के बीचोंबीच ऐसी कई कपड़ा मिलें थीं जिनकी चिमनियाँ भोर होते ही धुआँ उगलने लगती थीं। लाखों मज़दूरों का वर्ग यहाँ कार्यरत था। बम्बई का कपड़ा तब बेहतरीन कपड़ा माना जाता था। फिर ट्रेड यूनियन आंदोलन हुए हड़तालें हुईं। मज़दूरों की माँगें पूरी न हो सकीं और धीरे-धीरे मिलें बंद होकर कपड़ा उद्योग सूरत आदि शहरों में सरक आया। उसी ज़माने में यहाँ फिल्म उद्योग अपने चरम पर था। तीन-तीन शिफ़्टों में काम करने वाले फिल्मीवर्कर और फ़िल्मी स्टूडियो थे। रात भर बम्बई की सड़कों पर हीरो हीरोइन की लकदक गाड़ियाँ गुज़रती रहती थीं। तब विदेशों में शूटिंग बहुत कम होती थी। कश्मीर, शिमला, नैनीताल की वादियों में जाकर या इन वादियों, ऐतिहासिक महलों, इमारतों, झीलों, रेगिस्तानों के सैट्स स्टूडियो में ही लगाकर फ़िल्में शूट की जाती थीं। अब कुछ स्टूडियो बंद हो चुके हैं। गोरेगाँव में फिल्म सिटी खुल चुकी है। फिल्मों की शूटिंग अधिकतर विदेशों में होने लगी है। वहाँ की सुन्दरता, समृद्धि और रहन सहन आज आम आदमी को कुंठित कर रहे हैं और उसका पहला सपना हो गया है विदेश पलायन। फ़िल्में आम दर्शकों से हमेशा जुड़ी रही हैं। यही वजह है कि युवा पीढ़ी भी पुराने फ़िल्मी गानों की दीवानी है। वे फ़िल्मी गीत जो उस ज़माने में पूरे भारत के गली, कूचे, पान की दुकानों पर गूँजा करते थे। आज भी वे गीत सूनेपन को गुदगुदा देने में बड़े कामयाब सिद्ध होते हैं।

बम्बई द्वीपों का शहर है। इसका परिवर्तित नाम मुम्बई कोलियों की अधिष्ठात्री देवी मुंबा देवी के नाम से है। 1737 में बोरीबंदर में मुंबादेवी का मंदिर था। अब यह भूलेश्वर में स्थानांतरित कर दिया गया है। इस मंदिर के आसपास सोने, चाँदी, जवाहरात की दुकानें हैं। यह बाज़ार झवेरी बाज़ार के नाम से जाना जाता है। यहाँ किसी भी दुकान में आँख मूँदकर सौदा किया जा सकता है। सोने चाँदी में ज़रा भी मिलावट आज तक नहीं पकड़ी गई। जिनके पास दुकानें नहीं हैं वे हथेलियों में हीरा, मोती, पन्ना लिए खड़े रहते हैं और बिना किसी लिखित बिल के केवल ज़बान की शान में यह बिज़नेस चलता है। यहाँ मुस्लिम धर्म स्थल जामा मस्जिद भी है। यह टैंक के ऊपर बनी मेहराब पर अवलम्बित है।

सुनकर ताज्जुब होता है पर यह सच है कि बम्बई में चोर बाज़ार भी है। कहते हैं अगर आपका सामान चोरी हो गया है और आप उसे वापिस पाना चाहते हैं तो पुलिस चौकी न जाकर चोर बाज़ार चले जाइए। इस विशाल बाज़ार में एन्टीक वस्तुओं के साथ-साथ अंग्रेज़ों के ज़माने का फर्नीचर, विक्टोरियन टी सेट्स आदि सभी दुर्लभ वस्तुएँ सस्ते दामों में उपलब्ध हैं।

यूँ तो अब बम्बई में कुकरमुत्तों की तरह शॉपिंग मॉल, बिग बाज़ार, शॉपिंग सेंटर खुल गये हैं। जहाँ की सज धज जगमगाहट, ऑर्केस्ट्रा और विद्युत् चालित सीढ़ियों से मंज़िल दर मंज़िल पहुँचकर तमाम देशी विदेशी वस्तुएँ ख़रीदी जा सकती हैं। कई शॉपिंग मॉल मल्टीप्लेक्स थियेटरों के संग बने हैं जहाँ एक ही समय में तीन या चार फ़िल्में प्रदर्शित की जाती हैं।

एक ज़माना था जब फिल्मों के साथ-साथ सट्टे और मटके का क्रेज़ था। दिन भर खून पसीना एक कर कमाई हुई रक़म सट्टे या मटक़े में थोड़ी बहुत अवश्य लगाई जाती थी। रतन खत्री मटके के व्यापार का नामी नाम था। बेलार्ड स्टेट और चर्च गेट के कारोबारी इलाक़ों में देर रात तक काम करने वाले क्लर्क और अफ़सर भी मटके के क्रेज़ से अछूते नहीं थे। अब दलाल स्ट्रीट का शेयर मार्केट मटके की जगह ले चुका है। शेयर्स में भारी रक़म लगाकर मध्य वर्ग अपनी गाढ़ी कमाई स्वाहा करता जा रहा है पर लत है कि छूटती नहीं। आँखें सूचकांक के चढ़ते गिरते अंकों पर ही टिकी रहती है।

मुझे लगता है बम्बई ही एक ऐसी नगरी है जहाँ प्राकृतिक विविधता भरपूर है। बम्बई को तीन ओर से घेरे ठाठें मारता अरब सागर है, सह्याद्री पर्वत शृंखला है, सात द्वीप हैं और तीन नदियाँ जिनमें 2005 में 26 जुलाई की बाढ़ के बाद मीठी नदी महत्त्वपूर्ण हो उठी है। पवई, बिहार, तुलसी, तमसा और वेतरणा झीलें हैं। मानसून में से झीलें लबालब भर जाती हैं और पूरे वर्ष पेयजल के संकट से बम्बई मुक्त हो जाती है। मीरा रोड में नमक के खेत हैं। दरअसल मीरा रोड पश्चिम में बसा ही नहीं है। बहुत बड़े पैमाने पर नमक बनाया जाता है यहाँ। फिर नालासोपारा तक समुद्री खाड़ी के किनारे मैंग्रोव्ज़ के जंगल हैं। ये अपने आप उगे हैं अब पर्यावरण की रक्षा और समुद्र की सुनामी लहरों से नगर की रक्षा के लिए इन्हें तटों पर उगाया जा रहा है। कई राष्ट्रीय पक्षी विहार हैं। नेरल, करनाला तो विदेशी ओरियोल पक्षियों की आश्रय स्थली ही है। बोरीवली में संजय गाँधी राष्ट्रीय उद्यान सह्याद्री की घाटी में बसा ऐसा वन्य प्रदेश है जहाँ सभी प्रकार के जंगली जानवर जाली की ऊँची-ऊँची दीवारें बनाकर खुले में रखे गये हैं। लायन सफ़ारी में शेरों के झुंड देख मन खिल उठता है। मिनी ट्रेन पूरा जंगल घुमाती है। उद्यान के बीचोंबीच शीशे-सी चमकती झील पर पक्षियों के झुंड मँडराते हैं। इस राष्ट्रीय उद्यान के हरे भरे जंगल के बीच कान्हेरी गुफाएँ हैं जो पश्चिमी भारत में बौद्ध गुफाओं का सबसे बड़ा समूह हैं। कान्हेरी शब्द संस्कृत के कृष्णागिरी का अपभ्रंश है जिसका अर्थ है काले रंग का पर्वत। काली बेसाल्टिक चट्टानों से बनी ये गुफाएँ पहली शताब्दी से 9वीं शताब्दी तक के बौद्ध धर्म के उत्थान पतन को चित्रों में दर्शाती हैं। यह जगह मौर्य और कुशाण वंश के काल में बड़ा शिक्षा का केन्द्र थीं। ये गुफाएँ ऐसी टाइम मशीन हैं जिसमें पहुँचकर शताब्दियों पूर्व भारत की सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा बनने में देर नहीं लगती।

बम्बई में रहते कई वर्ष गुज़र गये थे पर चौपाटी, शिवाजी पार्क, प्रियदर्शिनी पार्क और विरार के अरनाला समुद्र तट के अलावा ढेर सारे तट देखे ही नहीं थे। क्रिसमस की छुट्टियाँ एक-एक दिन एक-एक समुद्र तट की सैर के लिए रख लीं। सबसे पहले जुहू का सूर्यास्त...सूर्यास्त होने में बस दस मिनट बाकी थे। हम टैक्सी लेकर तेज़ भागे। बीच पर पहुँचते ही सूरज ने डुबकी लगा ली। पलभर को सागर जल नारंगी रंग में रंग गया फिर धीरे-धीरे कालिमा गहराने लगी। लेकिन कालिमा गहराने से पहले हमने विक्टोरिया पर बैठकर सागर तट की सैर करते हुए उस सतरंगी आभा का वह सिरा पकड़ लिया था जो ऐसे ही तमाम सागर तटों तक हमें ले जाएगा। अनदेखे, अनछुए तट...

मालाड के क़रीब है आक़्सा बीच। पाम वृक्षों की यकसाँ क़तार को छू-छू कर हवा सन्नाटे को चीरती मुझे भी मानो संग-संग बहा ले जाने को आतुर थी। निर्जन तट पर सागर की गरजती लहरें टकरातीं तो लगता न जाने कौन-सा इतिहास सुना डालने को आतुर हैं। सैलानी सिर्फ़ तट पर चहलक़दमी कर रहे थे... कोई भी तैर नहीं रहा था। मनचली लहरों का आक्रामक रवैया तैराकों के क़दम वापिस लौटा रहा था। आक़्सा से मड आयलैंड की ओर चलने पर तीन चार कि। मी। के बाद एक छोटी-सी पहाड़ी है जिससे नीचे उतरते ही खूबसूरत एरंगल तट है। आक़्सा जैसा ही निर्जन। इक्का दुक्का सैलानियों के अलावा तट पर भागते केकड़ों और सागर लहरों की ही हलचल थी। यहाँ पाँच सौ वर्ष पुराने किले के खंडहर हैं जिनका इतिहास समय की परतों के नीचे दबा पड़ा है। बम्बई का हर तट दूसरे तट से मेल नहीं खाता। एरंगल तट से चार कि। मी। की दूरी पार कर मड जेट्टी की ओर चलने पर मड चर्च दिखाई देता है। चर्च के सामने ही मड बीच है। मड में हरियाली बहुत अधिक है। यहाँ पेड़ों के बीच टेन्ट बने हैं। मन तो था कि इन टेन्ट्स में एक दो रातें गुजारी जाएँ और अर्धरात्रि के समंदर का निराला रूप देखा जाए पर समय नहीं था। रहती तो एक अलग अनुभूति का आभास होता।

मालाड से ही मार्वे आकर और फिर फेरी से उस पार पहुँचकर तांगे से मनोरी और गोराई बीच तक की सैर एक अद्भुत सफ़र है। गोराई पहुँचकर लगा जैसे समय पीछे लौट गया हो जब नगर आबाद नहीं हुए थे और जब बम्बई सिर्फ़ मछुआरों की थी। मछली की तेज़ गंध ने आभास दिला दिया था कि यह सम्पूर्ण इलाका मात्र मछुआरों का है। रास्ते के दोनों ओर बाँस से बँधी रस्सियों पर कतार से सूखती मछलियाँ। आगे चलकर तट पर कैसुआरिना के लम्बे-लम्बे वृक्ष और पाम वृक्षों की सघनता मन मोह रही थी। यहाँ तैरना जोखिम भरा है। सागर काफी दूर तक सपाट दिखाई देता है। गहराई और उथलापन पता नहीं चलता।

मनोरी सागर तट मछुआरों की बस्ती से हटकर है। यहाँ बने कॉटेज मन मोह लेते हैं। सागर किनारे रात बिताने की चाह इन कॉटेजों में और भी रोमांटिक हो जाती है। निर्जन रात में सागर कुछ कहता-सा जान पड़ता है। सदियों से सागर अपने अंदर कितनी कहानियाँ समेटे बह रहा है, कितनी घटनाओं का साक्षी है वह।

अब बम्बई और भी विस्तृत होता जा रहा है। जो गाँव उपनगर पहले अपना अलग अस्तित्व रखते थे अब वे भी बम्बई में समाते जा रहे हैं। ऐसा ही खूबसूरत और अनछुआ सागर तट है दहावु। यहाँ आकर बुक शील्ड और क्रिस्टोफ़र एटकिन का ब्लू लैगन आँखों के सामने से फिल्म की रील की तरह गुज़र जाता है। गहरी भरी रेत पानी की सतह के क़रीब कुछ सख़्त-सी है। ऐसा लगता है जैसे रेत की घाटी पहाड़ से पानी तक उतर गई हो। रेतीला फिसलन जैसी आकृति का कटाव जिस पर समंदर की फेन भरी लहरें आकर टकरा-टकरा जाती हैं। पीछे की ओर कैसुआरिना और मैंग्रोव्ज़ की उठी हुई जड़ों वाले पेड़ों के झुरमुट से गुज़रती हवा समुद्री संगीत सुनाती है। बेहद खूबसूरत है दहाणु... विरार से कुछ ही दूरी पर स्थित दहाणु चीकुओं के लिए प्रसिद्ध है। चीकू के बड़े-बड़े बगीचे, आम और किवी के फार्म हाउस हैं। ये फार्म हाउस धनाढ्य वर्ग, उद्योगपति और फ़िल्मी हस्तियों के हैं। चीकू के विशाल उद्यान में टेंट हाउस में रात बिताना और डाक बंगले और रेस्टॉरेंट में जाकर ज़ायक़ेदार, लज़ीज़ भोजन करना कुछ देर के लिए भुला देता है कि बम्बई आपाधापी भरा शहर है। सुबह उठकर दूर-दूर तक फैले सफ़ेद बालू के सागर तट पर घूमना बहुत अच्छा लगता है। विण्ड सर्फिंग के लिए यह एक आदर्श स्थान है क्योंकि यहाँ हवा का बहाव पचास से साठ कि। मी। प्रति घण्टा रहता है। वैसे सर्फिंग के लिए अपना उपकरण हो तो यहीं उत्तर में घोलवाड़ तट तक मज़े से विण्ड सर्फिंग की जा सकती है।

दहाणु पारसियों की काफी पुरानी बस्ती के रूप में प्रसिद्ध है। 1400 वर्ष पहले जो सबसे पहला पारसी जोरस्टियुम परिवार यहाँ आकर बसा था उसके अवशेष अब भी वरासद हिल्स की गुफ़ा में पवित्र अग्नि के रूप में हैं।

अलीबाग, नाम सुनकर लगा था जैसे किसी मुस्लिम शासक द्वारा बनवाया कोई बाग़ होगा लेकिन यह भी एक समुद्र तट ही है। दूर-दूर तक फैले तट पर कैसुआरिना और नारियल के दरख़्त समुद्री हवाओं से अठखेलियाँ कर रहे थे। यहाँ अली बाग़ नामक एक किला है जिसके आसपास चट्टानें ही चट्टानें हैं। समुद्र के बीच में कोलाबा फोर्ट है। जब समुद्र में ज्वार रहता है तो कोलाबा फोर्ट पानी के बीच जहाज-सा तैरता नज़र आता है लेकिन हम तो पैदल चल कर गये थे क्योंकि तब समुद्र में भाटा था, लहरें पीछे लौट गई थीं। पिछले तीन सौ वर्षों से यह फोर्ट समुद्र की लहरों के नमकीन थपेड़े झेल रहा है फिर भी इसका आधार स्तंभ जैसे का तैसा है। अंदर मंदिर भी है जिसमें गणपति, महादेव और मारुति की मूर्तियाँ हैं। मुख्य भूमि पर हीरा कोट किला है इसे 1782 में मराठा सरदार आंग्रे ने बनवाया था। अब यहाँ कारावास है। जिसका ऐतिहासिक महत्त्व है।

अलीबाग से आठ कि। मी। उत्तर की ओर किहिम समुद्र तट है। यह समुद्र तट लम्बी समुद्र रेखा के लिए प्रसिद्ध है। सफ़ेद रेत और लाल मिट्टी के बीच कैसुआरिना के दरख़्त और मैंग्रोव्ज़ के झुरमुट मन मोह लेते हैं। किहिम आकर लगा जैसे यहाँ के माहौल में मंत्रमुग्ध करने और जीने के लिए भरपूर जोश भरने की अद्भुत कला है। समुद्र तट पर नारियल के पेड़ों के बीच टेन्ट बने हैं। लगता है जैसे सैनिकों ने पड़ाव डाला हो। आधुनिक सुविधाओं से युक्त इन टेन्टों में प्रकृति के नज़दीक खूबसूरत पलों को गुज़ारना अपने आप में एक बेहतरीन दिन रात होगी, निश्चय ही।

किहिम के समीप ही कणकेश्वर हिल है। पत्थर की 750 सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं, भगवान शिव के प्राचीन मंदिर तक जाने के लिए।

बम्बई तीन ओर से समुद्र तटों से घिरा महानगर है। मुख्य हिस्सों से थोड़ी अधिक दूरी पर है मुरुड़ का पाम वृक्षों से आच्छादित समुद्र तट... विशाल जलराशि के ऐन बीचोंबीच किला जो जंजीराकिला कहलाता है। यह 17वीं शताब्दी में बना था और अपराजेय रहा हमेशा। किले तक पहुँचने के लिए हमने राजपूरी से बोट ली थी। न जाने कैसे बनाया गया होगा समुद्र के बीच यह किला। मुरुड़ तट पर कहीं-कहीं बेतरतीब फैली चट्टानें भी हैं जो कुछ ही हिस्सों में है। बाकी जगहों से लोग आराम से तैराकी, गोताखोरी कर रहे थे। मुरुड़ के नज़दीक नवाब का महल, दत्त मंदिर, खासा किला देखते हुए हम लगभग दस कि। मी। दूर नागाँव पहुँच गये जहाँ सिद्धिविनायक और लक्ष्मी नारायण मंदिर हैं।

प्रकृति ने न केवल सुरम्य तटों की समृद्धि मुम्बई को दी है बल्कि अरब महासागर के साथ-साथ चली गई समुद्र रेखा के सामानांतर पश्चिमी घाट माथेरान, खंडाला, लोनावाला, अम्बोली और महाबलेश्वर जैसे हरे भरे पर्वतीय सैरगाह भी हैं जिन्हें बम्बईवासी हिल स्टेशन कहते हैं। महाबलेश्वर समुद्र तट से 1380 मीटर की ऊँचाई पर बेहद खूबसूरत हिल स्टेशन है। झील, हरे भरे जंगल और स्ट्रॉबेरी के बगीचों की शोभा देख कुछ पल के लिए बम्बई की उमस भूल गई थी मैं। महाबलेश्वर से आगे पंचगनी तो मानो बम्बई का शांति निकेतन ही है। तमाम शिक्षा केन्द्रों से युक्त है पंचगनी। दूर-दूर से विद्यार्थी वहाँ पढ़ने आते हैं। खंडाला, लोनावला खूबसूरत सूर्यास्त और छोटे-छोटे ढेरों जलप्रपातों के लिए प्रसिद्ध है। बारिश के मौसम में पर्वतों से निकलते जलप्रपात देखना बहुत मनमोहक लगता है। माथेरान समुद्र सतह से 800 मीटर ऊँचाई पर अंग्रेज़ों द्वारा बसाया हिल स्टेशन है जहाँ टॉय ट्रेन से जाते हुए तमाम वैलियों से गुज़रना पड़ता है। माथेरान यानी छोटी पर जंगल... माथेरान साल भर तो हरियाली से घिरा रहता ही है बारिश में यह अधिक सुन्दर हो जाता है। माथेरान तक तो अपनी प्राइवेट गाड़ियों से जाया जा सकता है लेकिन अंदर की खूबसूरती बची रहे इसलिए गाड़ियों को अंदर ले जाने पर प्रतिबंध है। लाल मुरम से बनी सड़कों पर घोड़ा, हाथ रिक्शा या पैदल ही भ्रमण किया जाता है। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने माथेरान को इको सेंसेटिव इलाका घोषित किया है।

हेमंत जब पहली बार माथेरान गया था तो उसका एक जूता पानी में बह गया था। उसने दूसरा जूता भी यह कहकर पानी में बहा दिया था कि जिसे पहला मिले उसे दूसरा भी तो मिले ताकि उसके पहनने के काम आए। मेरी कलम अब भीगने लगी है, हेमंत की कार माथेरान जाते हुए जुम्मापट्टी की वैली में गिरकर ही दुर्घटनाग्रस्त हुई थी।

बस अब इकलौता बैंड स्टैंड तट ही रह गया है देखने को। बैंड स्टैंड बांद्रा के पश्चिम में खूबसूरत समुद्री किनारा है। बैंड स्टैंड का पूरा इलाक़ा हिल स्टेशन जैसा दिखता है। वैसी ही चढ़ाई उतराई वाली हरियाली से पटी सड़कें आभिजात्य वर्ग और फ़िल्मी हस्तियों के बंगले रंग बिरंगे फूलों वाले बगीचों से भरे, खूबसूरत गेट वाले। ऊपर चढ़ाई पर माउंट मेरी चर्च है। मदर मेरी को समर्पित ईसाईयों का यह चर्च जाति पाति के बंधन तोड़ चुका है। सभी जाति के लोग यहाँ प्रार्थना के लिए आते हैं। यहाँ सितंबर में वर्जिन मेरी की स्मृति में मेला लगता है। चर्च का स्थापत्य सफ़ेद और भूरे चॉकलेटी पत्थरों से बना गोथिक शैली का है। चर्च के सामने कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर मदर मेरी की भव्य प्रतिमा और उसके आगे लपटों में जलती आँच और मोमबत्तियाँ जैसे हर राहगीर को दुखों से मुक्त कर शांति प्रदान करती हैं।

बम्बई मैं घूमने के लिए नहीं बल्कि रहने के लिए आई थी। इसलिए मेरा नज़रिया एक पर्यटक का नहीं बल्कि एक निवासी का है जिसके लिए उसका शहर सबसे अधिक सुंदर है पर मैं जानती हूँ बम्बई मेरे लिए वर्णन से भी अधिक सुंदर नगरी है। जबलपुर में शहीद स्मारक में हुए कई नाटकों की ताज़ा स्मृति लिए जब मैंने बम्बई के नाट्य मंच को नज़दीक से देखा तो पाया कि यहाँ तो नाटकों का एक पूरा बड़ा दर्शक वर्ग है। गवालिया टैंक स्थित तेजपाल थियेटर में ज़बरदस्त नाटक खेले जाते थे। मैंने गिरीश कर्नाड का तुग़लक और सत्यदेव दुबे का हयवदन सबसे पहले देखा। दोनों ही नाटक मेरे दिमाग़ पर छा गये। अमोल पालेकर और सुलभा देशपाण्डे की मैं दीवानी हो गई। तब पंद्रह बीस दिन में एक नाटक देखना मेरी ज़रुरत बन गया था। नाटकों ने ही रमेश को मुझ तक पहुँचाया जो दिल्ली से आख़िरी शमा और आगरा बाज़ार जैसे नाटकों की प्रस्तुति करके बम्बई भाग्य आज़माने आये थे। वे इप्टा से भी जुड़े रहे और दिल्ली में कई वर्षों तक रामलीला में राम की भूमिका निभाई थी। वे एक अच्छे गायक भी थे। उन्हीं दिनों हम दोनों परिणय सूत्र में बँध गये थे। उन दिनों नाटक आम दर्शकों की पहुँच में थे। अब नाटकों में रूचि लेने वाला दर्शक ख़ास हो गया है और उसे मंच पर आसीन करने वाले इलाके अभिजात्य वर्ग के हो गये हैं। जुहू में पृथ्वी थियेटर और बांद्रा में रंगशारदा का मंच नई-नई प्रतिभाओं को बाक़ायदा अपनी कला प्रदर्शित करने का मौका दे रहा है। नई प्रतिभाएँ पूरे जोश में अपने-अपने संगठन बना रही हैं नादिरा बब्बर की एकजुट संस्था कई अच्छे नाटक प्रस्तुत कर चुकी है। अब नुक्कड़ नाटक भी पूरे जोशोख़रोश से खेले जा रहे हैं। धीरे-धीरे स्टेटस सिंबल बनी नाटकों की दुनिया बम्बई में अँगड़ाई लेकर उठ खड़ी हुई है।

बम्बई में कई दशक पहले पारसी थियेटर भी हुआ करते थे। वहाँ उर्दू का ज़्यादा बोलबाला था क्योंकि पारसी अभिनेत्रियों को हिन्दी सिखाने वाले शिक्षक उर्दू मिश्रित हिन्दी बोलते थे। ऐसे संवाद सुनने वालों का मन मोह लेते थे। फिल्म कम्पनियों के पास भी उनके अपने लेखक हुआ करते थे जो उनके लिए पटकथा, संवाद आदि लिखा करते थे। यही वजह है कि हम जब भी राजकपूर को याद करते हैं तो नरगिस, शैलेन्द्र, मुकेश याद आ जाते हैं और याद आ जाती है आर. के. स्टूडियो की होली। राजकपूर दिल से होली का आयोजन करते थे। हर छोटा बड़ा कलाकार रंग भरी टंकी में डुबोया जाता था, जमकर भांग पी जाती थी और नाच गाना होता था। अब इस परम्परा को अमिताभ बच्चन अपने बंगले 'प्रतीक्षा' में निभाते हैं। भांग, खोवे की गुझिया, रंग गुलाल... पूरा का पूरा इलाहाबाद उतर आता है प्रतीक्षा में। वैसे बम्बई में हर त्यौहार धूमधाम से मनाया जाता है। होली, दीपावली, क्रिसमस, ईद, गणेशोत्सव बाजारों की सजधज से ही पता लग जाते हैं। रथयात्रा जुहू स्थित इस्कॉन मंदिर से शुरू होकर जब बम्बई की सड़कों पर निकलती है तो पूरा बम्बई कृष्णमय हो जाता है। बिहार की छठ पूजा गिरगाँव चौपाटी और जुहू के तट पर हज़ारों की भीड़ में सम्पन्न होती है लेकिन छठपूजा ने राजनीतिक रूप ले लिया है। वर्ली का बौद्ध मंदिर, यहूदियों के नेसेथ इलोहो, मागेन डेविड, मागेन हसीदिन, तिफरेथ इसराइल, शार हारमिन पूजा स्थल, पारसियों के अंजुमन बाबाजी, वाडिया जी अग्नि मंदिर, दहाणु की प्राचीन अग्यारी, ईसाईयों का सेंट माइकल चर्च, बसीन के पुर्तगाली चर्च, विभिन्न धर्मावलम्बियों के प्रार्थना स्थल हैं जहाँ हर कोई बे रोक टोक जा सकता है। धार्मिक एकता का ऐसा स्वरुप कहीं देखने नहीं मिलता। यह बात गाँधीजी भाँप चुके थे इसीलिए सभी धर्मों के लोगों को जोड़कर उन्होंने 'अंग्रेज़ों भारत छोड़ो' का पहला नारा बम्बई में ही बुलंद किया। वे जब भी बम्बई आते ग्रांट रोड स्थित मणिभवन में रुकते। 1917 से 1934 तक गाँधी जी बार-बार बम्बई आये और यहाँ रुके। अब यह भवन राष्ट्रपिता को समर्पित गाँधी संग्रहालय का रूप ले चुका है। इसमें गाँधीजी के जीवन की झाँकी, 2000 पुस्तकों की लाइब्रेरी, फ़िल्में, रिकार्ड्स और उनकी व्यक्तिगत उपयोग में लाई गई वस्तुएँ हैं।

भायखला में भी 1872 में बना अलबर्ट संग्रहालय है। यह बम्बई के पुराने संग्रहालयों में से एक है। अब इसका नाम भाऊ दाजी लाड संग्रहालय रख दिया गया है।

भायखला में ही वीरमाता जीजाबाई भोंसले उद्यान है। पहले यह विक्टोरिया गार्डन के नाम से पुकारा जाता था। बम्बई वह जगह है जो अंग्रेज़ों के शासन का केन्द्र स्थल थी। इसीलिए अंग्रेज़ी नाम, अंग्रेज़ी स्थापत्य का यहाँ ज़्यादा असर देखने मिलता है। इसमें दो राय नहीं कि अंग्रेज़ों ने इसे लंदन जैसा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बम्बई में या तो अमीर बसे हैं या ग़रीब। इसीलिए यहाँ गगनचुम्बी इमारतों के साथ ही झोपड़पट्टी भी दिखाई देती हैं। धारावी तो भारत का सबसे बड़ा झोपड़पट्टी क्षेत्र है। अब धारावी को पूरा विश्व जानने लगा है क्योंकि धारावी में बनी फिल्म 'स्लमडॉग मिलेनियर' ने कई ऑस्कर अवार्ड जीते हैं। माहिम के पश्चिम से सायन के पूर्व तक का 175 हेक्टेयर क्षेत्र धारावी के अंतर्गत आता है। आतंक, सौदेबाज़ी, सेक्स वर्कर्स, हिजड़े, गंदी बदबूदार गलियाँ, कचरे, शौच से ठसाठस नाला, इस खुले नाले के दोनों ओर लाइन से झुग्गियाँ... धारावी में अगर यह सब कुछ है तो ऐसे लघु उद्योग और उद्योग संगठन हैं जहाँ निर्यात स्तर की कई वस्तुएँ बनाकर पूरे विश्व के बाज़ारों में भेजते हैं। 650 मिलियन डॉलर की वस्तुएँ धारावी से प्रतिवर्ष निर्यात की जाती हैं। यहाँ एक महाराष्ट्र नेचर पार्क भी है। विशाल क्षेत्र में फैले इस पार्क में कई प्रकार के पेड़ पौधे, तितलियाँ और रेंगने वाले प्राणी हैं। यहाँ स्लाइड शो और नेचर वॉक भी आयोजित किये जाते हैं।

यह शहर सभी को बहुत लुभाता है। कई लेखक और कवि यहाँ फ़िल्मी लेखक और फ़िल्मी गीतकार बनने के लिए आए। प्रेमचंद, अमृतलाल नागर, ख़्वाजा अहमद अब्बास, राही मासूम रज़ा से लेकर आज की युवा पीढ़ी तक इसी आकर्षण में बँधी चली आ रही है। हर साल पाँच छै: हज़ार लड़के, तीन चार हज़ार लड़कियाँ मॉडलिंग, टी. वी. सीरियल और फिल्मों में अपना भाग्य आज़माने आते हैं। कुछ को ब्रेक मिलता है कुछ को नहीं। अब यादगार फ़िल्में भी नहीं बनतीं। आवारा, शहर और सपना, सात हिन्दुस्तानी, श्री चार सौ बीस, मुग़ले आज़म, पाकीज़ा जैसी फ़िल्में तमाम तकनीकी सहूलियत और नए-नए फ़िल्मी आविष्कारों के बावजूद फिल्म इंडस्ट्री नहीं बना पा रही है। लेकिन युवा पीढ़ी में जोश वही पुराना है, वही कुछ कर गुज़रने का। जब आठ आने की चार रोटियाँ और उसके साथ दाल फ्री मिलती थी और लगन ऐसी कि स्टूडियो के बंद शटर के सामने ही लम्बी तानकर सो जाते थे... ऐसे समर्पित कलाकार इस समय फिल्म इंडस्ट्री की शान हैं।

बम्बई में तरह-तरह के व्यवसाय, पेशे, शेयर बाज़ार, फ़िल्में, संगीत, लोकल रेल, थियेटर, होटल, मॉडलिंग, अंडरवर्ल्ड, मल्टीनेशनल्स, डिज़ाइनिंग, एक्सपोर्ट्स, सॉफ्टवेयर एनीमेशन, हेल्थकेयर, स्किन क्लीनिक, कॉल सेंटर जैसे क्षेत्र तेज़ी से उभरे हैं जिन्होनें बम्बई को बदल डाला है। फिर भी संघर्ष करने वालों के लिए बम्बई की रहमदिली में फ़र्क़ नहीं आया है। आज भी जेब में चंद पैसे खनखनाते, संघर्ष करने वाले वडा पाव या ऊसल पाव से पेट भर फुटपाथ पर ही बसेरा कर लेते हैं। फास्टफूड संस्कृति बम्बई की ही देन है। बस काम में डूबे रहो... काम, काम और काम... लेकिन लंच का समय होते ही ऑफिसों से निकलकर पूरी बम्बई फास्ट फूड स्टॉलों को घेर लेती है। चायनीज़ भोजन जहाँ ज़रुरत बनता जा रहा है वहीँ मज़दूरों के लिए झुणका भाखर केवल दो रुपए में उपलब्ध कराना बम्बई की ही औक़ात है। बम्बई हर प्रांत के ज़ायकेदार खाने के लिए प्रसिद्ध है। पारसी धानशाक, गुजराती थाली, मुस्लिम कबाब, राजस्थानी दाल बाटी चूरमा, गोआनी विंडालू, पंजाबी तंदूरी स्पेशल, मुग़लई स्पेशल, इटालियन, मैक्सिकन, थाई फूड, ओरियंटल फूड, सब कुछ सड़क के किनारे लगे स्टॉल्स से लेकर पंच सितारा होटल तक हर जगह मिलता है। हर बजट के लोगों को ज़ायकेदार पसंदीदा खाना खिलाना मुम्बई की जिद्द है। वैसे मुम्बई के स्ट्रीट फूड में भेलपूरी सबसे अधिक प्रसिद्ध है। कुछ रेस्तरां तो अपनी ख़ास डिशेज़ के लिए ही जाने जाते हैं। दादर का इन्डस किचन गोवानी और तंदूरी भोजन के लिए प्रसिद्ध है तो चर्नी रोड का गोल्डन स्टार गुजराती और राजस्थानी स्पेशल थाली के लिए अँधेरी लोखंडवाला का ताल ग्रास स्पेशल मुग़लई लंच डिनर के लिए, नाना चौक का गोल्डन क्राउन-सी फूड के लिए, चौपाटी का क्रीम सेंटर छोले भटूरे और हरी मटर की ज़ायकेदार गुझिया के लिए चर्चगेट का स्टार्टर्स एंड मोर बुफ़े लंच के लिए, ताड़देव का स्वाति स्नैक्स दाल ढोकली के लिए, कोलाबा का तेंदुलकर्स बैंगन के भरते के लिए, बाबुलनाथ का सोम पूरन पोली, कढ़ी और गट्टे की सब्ज़ी के लिए, गिरगाँव चौपाटी का क्रिस्टल राजमा, चावल और खीर के लिए और चर्नी रोड का आइस्क्रीम सेंटर हाथ से बनी (हैंड मेड) कुल्फ़ी और अदरक की आइस्क्रीम के लिए लोगों की ज़ुबान पर चढ़ा है। आइस्क्रीम सेंटर का तो ये हाल है कि आभिजात्य वर्ग की कारें रात के एक बजे तक आइस्क्रीम के लिए लाइन लगाए रहती हैं। तभी तो कहते हैं बम्बई कभी सोती नहीं। रात में बम्बई के नूर के क्या कहने।

बम्बई में परिवर्तन के इस दौर ने समुद्र को पीछे ढकेल दिया है। खाड़ी पाटकर बिल्डर गगनचुम्बी इमारतें बना रहे हैं। कंकरीट का जंगल उग आया है यहाँ। वसई, विरार जैसे सुदूर इलाक़ों में चार-चार रेलवे ट्रेक बन चुके हैं। हर दूसरे मिनट इन पर लोकल ट्रेन दौड़ती है पर भीड़ है कि कम होती नहीं। चौबीस घंटों में से किसी भी समय लोकल खाली नहीं मिलती। दरवाजों, खिड़कियों से लटका आदमी, छतों पर बैठा आदमी फिर भी बेफ़िक्र... बम्बई की जीवन रेखा कही जाने वाली लोकल से कभी कोई आतंकित नहीं हुआ। घंटे भर की दूरी तमाख़ू मलते, ब्रीफ़केस आमने सामने रख ताश के पत्ते फेंटते या मंजीरे बजा-बजा कर भजन गाते तय हो जाती है। इसी भीड़ में किसी अँधे भिखारी की गले से टँगे हारमोनियम पर तान भी सुनाई देती है। हारमोनियम पर रखे कटोरे में सिक्के भी टन-टन आ गिरते हैं। औरतों के डिब्बों में पूरा बाज़ार साथ चलता है। चूड़ी, बिंदी, मैक्सी, चादर, चॉकलेट, फल, नमकीन हर चीज़ बिकती है। खिड़की से चिपकी युवा पीढ़ी पुराने फ़िल्मी गानों पर अन्त्याक्षरी खेलती है। गृहणियाँ सब्ज़ी तोड़ छीलकर प्लास्टिक में भर लेती हैं ताकि समय की बचत हो। दरवाज़े पर भीड़ का आलम ये है कि अगर शरीर में कहीं खुजली हो रही है तो कर्ण की तरह दम साधकर अपने स्टेशन आने का इंतज़ार करना पड़ता है वरना हमारी चप्पल किसी और की पिंडली को अपनी समझ खुजा सकती है और लेने के देने पड़ सकते हैं। इसी भीड़ में कई बार औरतों की डिलीवरी तक हो जाती है और पूरा डिब्बा उसकी तीमारदारी में जुट जाता है। वट सावित्री का त्यौहार ट्रेन में ही बरगद की डाल की पूजा कर मना लिया जाता है। महिला दिवस पर विभिन्न संस्थाएँ लेडीज़ स्पेशल ट्रेन में गिफ़्ट बाँटती हैं। स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर भी मुफ़्त उपहार बाँटे जाते हैं। जहाँ एक ओर प्लेटफ़ॉर्म पर तीस सेकंड के लिए रुकी ट्रेन में चढ़ने उतरने वाले न बच्चे देखते न बुज़ुर्ग, ज़ोरदार धक्का देकर चढ़ते हैं, उतरते हैं वहीँ मुसीबत पड़ने पर सब एक हो जाते हैं। यही बम्बई की संस्कृति है।

बांद्रा वर्ली-सी लिंक का रोमांचकारी सफ़र, सोप ऑपेरा, सिंथेटिक, हीरा और सराफ़ा बाज़ार, रिलायन्स की व्यापारी दौड़, मोबाइल क्रांति और पूरे भारत से आये लोगों मारवाड़ी, सिंधी, पंजाबी, गुजराती, बिहारी, उत्तरप्रदेशीय संस्कृति में डूबी बम्बई एक नगर नहीं एक पूरी की पूरी सभ्यता है। बम्बई सबको अपने दिल में जगह देती है। राजनीतिक दाँव पेंच, भाषा और प्रांत की दुहाई देकर खुद को बम्बई के असली वासी कहने वाले लोग कुछ भी कहते रहें पर यह हक़ीक़त है जो एक बार मुम्बई आ गया बस वह मुम्बई का ही होकर रह जाता है।