जानकी पुल / प्रभात रंजन
ऐसा लगा जैसे कोई भूली कहानी याद आ गई हो...
सारा किस्सा नंदू भाई के ईमेल से शुरु हुआ। नंदू भाई पिछले कई वर्षों से इंडोनेशिया के रमणीक द्वीप सुमात्रा में रह रहे हैं। नंदू भाई वहां एक प्रसिद्ध कागज-निर्माण कंपनी में इंजीनियर हैं। सुमात्रा से नंदू भाई ई-मेल से ही रिश्तेदारी निभा लिया करते।
पिछली दीपावली पर जब नंदू भाई का हैप्पी दीपावली का मेल आया तो न जाने क्यों इस बार उनको बीस वर्ष पहले अपनी नानी और मेरी दादी के गांव में मनाई गई उस दीपावली का स्मरण हो आया जब हमने आखिरी बार दीपावली पर साथ-साथ पटाखे छोड़े थे। लगे हाथ नंदू भाई ने उस जानकी पुल का भी स्मरण कर लिया था, जो उसी साल बनना शुरु हुआ था या कह सकते हैं कि जिसका शिलान्यास हुआ था। वह जानकी पुल जो मेरे गांव मधुबन और शहर सीतामढ़ी के बीच की दूरी को मिटा देने वाला था...
बीस साल पहले उस गांव के सपने में एक पुल लहराया था...
नंदू भाई मेरे सगे भाई नहीं हैं। मेरी सगी बुआ के लड़के हैं। मैं उन दिनों अपने गांव में रहता था और अपनी साइकिल पर बैठकर दस किलोमीटर दूर शहर पढ़ने जाया करता। दरअसल मेरे गांव और शहर के बीच एक बाधा थी। नेपाल की नदी बागमती की एक धारा मेरे गांव और शहर को अलगाती थी। पुल बनते ही वह दूरी घटकर एकाध किलोमीटर रह जाने वाली थी। नदी होने के कारण षहर दूसरी तरफ से होकर जाना पड़ता। गर्मियों में जब नदी में पानी कुछ कम होता तो गांव के कुछ बहादुर नदी तैरकर पार कर जाते और उस पार सीतामढ़ी पहुंच जाते।
उसी साल देश में रंगीन टीवी का प्रसारण शुरु हुआ था और गांव के जो लोग शहरों में मारवाड़ी सेठों या साहबों के यहां काम करते थे वे बताया करते कि किस तरह रंगीन टीवी पर हमलोग देखना या चित्रहार देखना बिलकुल वैसे ही लगता है जैसे सेठ भागचंद-गोवर्धनमल के किरण टाकीज में सिनेमा देखना लगता है... सच कहता हूं तब मुझे अपना गांव में रहना बेहद सालता था।
बुआजी हर साल दीपावली में एक महीने की छुट्टी मनाने आया करतीं। साथ में नंदू भाई भी होते। जिस समय मुझे यह खबर मिली कि पुल बनने वाला है नवंबर की उस दोपहर बुआजी दादी के सफेद बालों को कंघी से सीधा करने में लगी थीं। माँ बुआजी के लिए तुलसी का काढ़ा बनाने में लगी थी और मैं नंदू भाई के लिए अमरूद तोड़ रहा था। तरह-तरह के अमरूदों के पेड़ थे- कोई ऊपर से हरा होता था और अंदर से उसका गूदा गुलाबी होता, किसी अमरूद में बीज ही बीज होते तो किसी में बीज ढूंढे नहीं मिलते...
मैं अमरूदों के उस विचित्र संसार की सैर कर नंदू भाई के साथ कच्चे-पक्के अमरूद जेबों में भरकर लौटा तो मैंने देखा दादाजी बुलाकी प्रसाद मिश्र, रिटायर्ड हेडमास्टर अपनी आरामकुर्सी पर अधलेटे हुए से बैठे थे। सामने की कुर्सी पर मुखियाजी बैठे हुए थे।
आज पुल का शिलान्यास हो गया।
मैंने सुना मुखियाजी कह रहे थे। दादाजी ने जवाब में कमरे में टंगी जवाहरलाल नेहरू की धुंधलायी-सी तसवीर की ओर देख भर लिया था। मानो उनके प्रति कृतज्ञताज्ञापन कर रहे हों। मैंने नंदू भाई की ओर देखा था, मेरे लिए तब जीवन की सबसे बड़ी खबर थी वह, उस पुल के बन जाने के बाद मुझे किसी से भी शरमाने की जरूरत नहीं पड़ती- यह बताने में कि भले मैं शहर के बेहतरीन स्कूल में पढ़ता था और दिन भर अपनी एटलस साइकिल से शहर की गलियों की ही खाक छानता रहता था, लेकिन मैं रहता मधुवन में था। मधुवन शहर का कोई मोहल्ला नहीं था नदी की दूसरी ओर बसा छोटा-सा एक गांव था।
मैं बेहद खुश हुआ था। उस रात सोते समय जब नंदू भाई टीवी धारावाहिक हमलोग के किस्से सुना रहे थे तो मैंने उस रात उनसे कहा था कि उस साल वे मेरे लिए जीवन की सबसे बड़ी खुशी लेकर आए थे। अगले दिन मैं नंदू भाई के साथ शिलान्यास का वह पत्थर भी देखने गया। उस पर लिखा था- माननीय सिंचाई मंत्री श्री अशफाक खां द्वारा जानकी पुल का शिलान्यास। हम दोनों काफी देर तक पत्थर छू-छूकर देखते रहे और यह अंदाजा लगाते रहे कि पुल कितने दिनों में बन जाएगा।
उन दिनों मैं यानी आदित्य मिश्रा शहर के प्रसिद्ध श्री राधाकृष्ण गोयनका कॉलेज में इंटर में पढ़ता था। उन दिनों मेरे कई छोटे-छोटे सपने होते थे। जैसे एक सपना था मेरे पास सीतामढ़ी में रहने के लिए घर हो जाए। एक सपना था मेरे पास न सही रंगीन, ब्लैक एंड व्हाइट टेलिविजन सेट हो जाए, ताकि मैं भी उस पर किरण टाकीज की तरह हमलोग और चित्रहार देख सकूं। मेरे इन सपनों में कुछ सपने अक्सर घटते-बढ़ते रहते थें उन दिनों जो सपना मेरे सपनों में आ जुड़ा था वह इला का सपना था- इला चतुर्वेदी।
इला मेरे ऐसे सपनों में रही जिसे मेरे सिवा सिर्फ नंदू भाई ही जानते थे। मैं राधाकृष्ण गोयनका महाविद्यालय में कला का छात्र था और मेरे ट्यूशन गुरु मुरली मनोहर झा की उन दिनों इतिहास, राजनीति विज्ञान, अंग्रेजी जैसे विषयों के पारंगत शिक्षक के रुप में धूम थी। उन्हीं दिनों जब शहर की मशहूर जच्चा-बच्चा विषेशज्ञ डॉ. मालिनी चतुर्वेदी ने प्रोफेसर साहब से अपनी ग्याहरवीं कक्षा में पढ़ने वाली लड़की इला को परीक्षाओं तक घर आकर इतिहास और राजनीति विज्ञान पढ़ा जाने का आग्रह किया तो प्रोफेसर साहब ने अपनी व्यस्तताओं का हवाला देते हुए उनके घर आने में अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी थी। लेकिन प्रोफेसर साहब ने उन्हें इस बात का पक्का भरोसा दिलाया कि वे गेस पेपर और नोट्स अपने किसी प्रतिभाशाली, योग्य शिष्य के हाथों भिजवा दिया करेंगे। प्रोफेसर साहब ने वह मौका मुझे यह कहते हुए दिया था कि तुम पर बड़ा विश्वास करता हूं।
सच कहता हूं मैंने उनका विश्वास कभी नहीं तोड़ा। मैं इला के घर कभी वीरेश्वर प्रसाद सिंह की राजनीतिशास्त्र के सिद्धांत या बी. एन. पांडे का भारत का इतिहास या राय रवीन्द्र प्रसाद सिन्हा की पुस्तक भारतीय शासन एवं राजनीति देने-लेने जाया करता या गेस पेपर और झा सर के नोट्स लेकर जाता। यहां मुझे शायद बताने की आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिए कि मैं जिस समय की बात कर रहा हूं उस वक्त तो फोटोस्टेट जैसी सुविधा दिल्ली जैसे शहर में भी इतनी आम नहीं हुआ करती थी। मैं जिस शहर सीतामढ़ी की बात कर रहा हूं साहब, उस समय पूरे शहर में कुल एक फोटोस्टेट मशीन हुआ करती थी और फोटोस्टेट करवाना तब इतना महंगा पड़ता था कि बड़े-बड़े मारवाड़ी सेठों के लड़के ही उसका लाभ उठाने की ऐयाशी कर सकते थे।
इला के घर आने-जाने का मेरा सिलसिला चल पड़ा। मैं एक बार उसके घर नोट्स देने जाता और एक बार नोट्स वापस लेने और फिर नए नोट्स या कोई पुस्तक देने जाता रहता।
इला ने शुरू में दो-एक बार ग्यारह से एक बजे के बीच आने की हिदायत दी लेकिन मैं समझ गया कि उसके घर जाने का सबसे मुफीद समय यही होता था। तब उसकी मां या तो क्लिनिक में होती थी या अपने पब्लिक प्रासीक्यूटर प्रेमी वाई. एन. निषाद के साथ होती जिसके बारे में षहर भर में शहर भर में अफवाह फैली रहती कि कल काले रंग की फिएट में सुरसंड रोड में देखी गई थी या परसों होटल सीतायन में, वगैरह, वगैरह। इस दौरान उसके वकील पापा विनोद चतुर्वेर्दी सिविल कोर्ट में मुवक्किल फंसाने में लगे रहते थे...
मैं उसी दरम्यान कभी राजनीति विज्ञान, कभी इतिहास के नोटस लेने-देने जाया करता। वह इसका एहतियात रखती कि चिट्ठी मेरे नोट्स के ही बचे पन्ने पर लिख दिया करती। कभी अलग से उसने कुछ नहीं लिखा।
वह आम तौर पर चिट्ठी-पत्री कुछ इस तरह से लिखती थी जैसे मेरे कपड़ों, मेरी चाल-ढाल, लिखने-पढ़ने आदि की तारीफ कर रही हो। वह इसी तरह के कुछ वाक्य अंग्रेजी में लिख दिया करती जो अक्सर अंग्रेजी के मुहावरे हुआ करते थे ताकि कोई अगर उसे पढ़ भी ले तो कुछ और न समझ ले। मैं ही उसे और-और समझता रहा... उसके उन मुहावरेनुमा पत्रों को पढ़ने के चक्कर में उन्हीं-उन्हीं नोटृस को बार-बार पढ़ता रहा मानो मुझे बारहवीं का नहीं ग्यारहवीं का पर्चा देना हो।
उन सारे सपनों में जुड़ा सबसे नया सपना था- जानकी पुल।
शहर के एस.डी.ओ. साहब के अर्दली रामप्रकाश, जो हमारे ही गांव का था, ने जो खबर दी थी उसके मुताबिक पुल का शिलान्यास भले ही सिंचाई मंत्री अशफाक खां के हाथों हुआ हो, लेकिन इस पुल के बनवाए जाने की असल जिद तो तो कलेक्टर साहब ए.के.सिन्हा की पत्नी डॉ. रेखा सिन्हा ने ठानी थी। रेखा सिन्हा असल में तो साहित्य की डाक्टर थीं यानी हिन्दी साहित्य की पी.एच.डी. थीं और स्त्रीवादी रूझानों के कारण मां जानकी की अनन्य भक्तिनी थीं। मां सीता की जन्मभूमि में ही अपने पति के पदस्थापन को वे मां जानकी की असीम अनुकंपा ही मानती थीं और इसलिए एक भी दिन वे बिना उनके दर्शन के नहीं बितानी चाहती थी। उन्होंने ही एक दिन अपने पति को नाश्ते के वक्त यह सुझाव दिया कि इस नदी पर अगर एक छोटा-सा पुल बन जाए तो मां सीता की जन्मभूमि जाकर दर्शन करने में बड़ी सुविधा हो जाएगी। मां जानकी की जन्मस्थली नदी की दूसरी ओर तो किलोमीटर ही थी, लेकिन दूसरी ओर से आने में लगभग एक घंटा लग जाता था और रोज-रोज जाना संभव नहीं हो पाता था...
कलेक्टर साहब को सुझाव पसंद आ गया था। उन्होंने आनन-फानन में शिलान्यास करवा दिया था। योजना थी अगले बजट तक पुल बनाने का काम शुरु हो जाएगा...
सारा मधुवन गांव जानकी पुल के सपने में जीने लगा था। पक्की सड़क कुछ साल पहले ही बन चुकी थी और तभी से गांव वालों की उम्मीद जगी थी कि अब उनके गांव और शहर की दूरी खत्म हो जाएगी...
पुल के शिलान्यास की खबर के बाद मेरे दादाजी बड़े आशावादी हो चले थे। सतहत्तर के चुनाव में वहां महंथ केशवानंद गिरि सांसद बने, जिनके बारे में बाद में यह कहा गया कि वे आंधी की तरह आए और तूफान की तरह चले गए। उन्हीं महंथजी ने और कुछ किया हो या न किया हो पर न जाने क्यों चुनाव प्रचार के दौरान मधुवन गांव के निवासियों से यह वादा कर आए थे कि अगर वे चुनाव जीत गए तो उस गांव में पक्की कोलतार की सड़क बनवा देंगे और सबसे आश्चर्यजनक रहा कि न जाने क्यों चुनाव जीतने के बाद उन्होंने जाते-जाते सड़क बनवाने का अपना वादा पूरा भी कर दिया। अगर वे कुछ दिन और सांसद रह गए होते उन्होंने वहां पुल भी बनवा दिया होता। लेकिन एक तो चुनाव जल्दी हो गए और दूसरे वे चुनाव भी नहीं जीत पाए।
जब तक पक्की सड़क नहीं बनी थी मधुवन गांव के लोग बड़े संतोषपूर्वक रहते। नदी के उस पार के जीवन को शहर का जीवन मानते, अपने जीवन को ग्रामीण और बड़े संतोषपूर्वक अपना सुख-दुख जीते। कोलतार की उस पक्की सड़क ने उनके मन को उम्मीदों से भर दिया था। दादाजी से मिलने कभी-कभी जब गांव के एकमात्र रायबहादुर अलख नारायण सिंह आते तो यह चर्चा उनके बीच होती कि अब बस पुल की कमी है और फिर हमारा गांव किस मामले में शहर सीतामढ़ी से कम रह जाएगा? राय साहब चाय की चुस्कियों के बीच कहते, मेरे जीते-जी बिजली आई। पानी पटाने का बोरिंग आया, अब सड़क आ गई है तो पुल भी बन ही जाएगा। दादाजी भी उनकी हां में हां मिलाते।
भले ही महंथजी संसद का चुनाव हार गए लेकिन मधुवन गांव वालों की आंखों में उम्मीद छोड़ गए थे। सपना छोड़ गए थे...
अब पुल का शिलान्यास तो जैसे उस सपने को सच में ही बदलने वाला था। मैंने पढ़ रखा था कि ऐसा सपना जिसे बहुत सारी आंखें एक साथ देखने लगें तो वह सपना नहीं रहता। वह सच हो जाता है...
जानकी पुल उस गांव का ऐसा सपना बन गया था जो बस सच होने ही वाला था।
गांव के बीचोबीच एक पीपल का पेड़ था- पक्की सड़क के ठीक किनारे। गांव वाले पीपल को पाकड़ कहते थे और भविष्य के शहर का ख्याल करके उस जगह को उन्होंने चौक बना डाला और उसका नाम रख दिया- पाकड़ चौक। वहां पर बरसों से गांव के रिक्शा चलाने वालों, बाजारों में दिहाड़ी कमाने वालों को काशी चायवाला चाय पिलाया करता था और चाय के साथ खाने के लिए बिस्कुट वगैरह भी रखा करता था। उसने अपनी बांस की खपच्चियों की जोड़ी हुई दुकान के बाहर शहर सीतामढ़ी के दुकानदारों की तर्ज पर टिन का साइनबोर्ड लगवा लिया था और उस पर लिखवा लिया था- काशी के प्रसिद्ध चाय की दुकान, मेन रोड, मधुवन। बस इंतजार इसी का था कि एक बार जानकी पुल बन जाए और मेन रोड, मधुवन मेन रोड, सीतामढ़ी का हिस्सा बन जाएगा।
गांव भर में पुल बन जाने के बाद के जीवन को लेकर चर्चा चलती रहती थी, योजनाएं बनती रहती थीं। कोई अपनी जमीन पर मार्केट बनवाना चाहता था, कोई अपने मकान के आगे पीछे दुकान बनवाना चाहता था। कभी खबर आती कि पटना के एक प्रसिद्ध स्कूल के मालिक आए थे, स्कूल के लिए जमीन खरीदने। कभी खबर आती कि शहर के एक प्रसिद्ध डाक्टर वहां जमीन देखने आए थे, शायद नर्सिंग होम खोलना चाहते हों।
कुल मिलाकर, यही लग रहा था कि बस पुल बन जाए उसके बाद देखिए क्या-क्या होता है मधुवन में। दादाजी बुलाकी प्रसाद मिश्र ने अपनी कुछ अलग ही योजना बना रखी थी। मेरे पशु-चिकित्सा अधिकारी पिता जब छुट्टियों में आते तो दादाजी समझाते कि एक एकड़ जमीन है नदी के पास सड़क किनारे अपनी। बेच कर बैंक में रख देंगे पैसा। दो-एक पीढ़ी तो बैठकर खाएगी ही।
मैं उस दरम्यान जब भी इला के यहां नोट्स लेने-देने जाता या डायमंड क्रिकेट क्लब के बाकायदा सदस्य की हैसियत से क्रिकेट खेलने जाता तो बात-बात में सबको अपने गांव में बन रहे पुल के बारे में बताता। इला अक्सर कहती कि अच्छा है एक बार पुल बन जाए तो मैं तुम्हारे गांव गन्ना खाने आउंगी या कभी आंवले का पेड़ देखने की बात करती। जवाब में मैं कहता तब हमारा गांव, गांव थोड़े ही रह जाएगा। इला आश्चर्य से पूछती, जब वह भी नहीं रह जाएगा तुम्हारे गांव में तो बाकी क्या रह जाएगा वहां? मैं सोचता रह जाता था।
मेरी बारहवीं की परीक्षा आ गई। इला की ग्यारहवीं की। दोनों ही अच्छे नंबरों से पास हुए। इला बारहवीं में आ गई, लेकिन उसको बारहवीं में नोट्स पहुंचाने, किताब पहुंचाने के लिए मैं सीतामढ़ी में नहीं रह पाया। मैं आगे की पढ़ाई करने के लिए दिल्ली आ गया।
यह बात बीस साल पहले की है।
अब मैं नंदू भाई को क्या बताता इन बीस सालों में क्या-क्या हुआ! पुल के बारे में तो मैं भी भूल चुका था। उनको पता नहीं कैसे सुमात्रा में बैठे-बैठे जानकी पुल की याद आ गई थी।
हुआ यह कि कलेक्टर ए. के. सिन्हा का तबादला हो गया और उनकी पत्नी पुल पार कर जानकी जन्मभूमि देखने का सपना संजोए ही रह गईं। उसके बाद जब भी मैं दीपावली के आसपास छुट्टियां बिताने गांव आता तो यही खबर सुनता कि अगले बजट में पुल जरूर बन जाएगा। हर साल जब बजट का पैसा आता तो नदी में बाढ़ आ जाती और जब बाढ़ का पानी उतरता तो बजट समाप्त हे चुका होता था। इस प्रकार, हर साल जानकी पुल का निर्माण-कार्य अगले बजट तक के लिए टल जाता।
छुट्टियों में जाता तो इला से मिलने का कोई बहाना नहीं रहता था। उसके पास तो फोन था लेकिन तब आज की तरह गली-गली पीसीओ बूथ नहीं खुले हुए थे कि आप गए दो रुपए दिए और फोन पर बात हो गई। तब फोन बड़े-बड़े लोगों के पास ही होता था। मैं गांव में रहता था और मेरे पास फोन होने का कोई सवाल ही नहीं उठता था। दिल्ली जाने के कुछ साल बाद जब मैंने अपने दोस्त श्रीवल्लभ के घर से पहली बार इला को फोन किया था तो उसने बताया कि उसकी शादी अमेरिका में रह रहे किसी साफ्टवेयर इंजीनियर से तय हो गई थी। उसने मुझे मिलने के लिए बुलाया।
समय तब भी ग्यारह से एक का रहा। उसे शायद अच्छा लगा हो कि इतने साल दिल्ली में रहने के बाद भी मैं उसे भूला नहीं था उसके एक बार कहने पर ही तत्काल उससे मिलने पहुंच गया। उस मुलाकात में मैंने उससे कुछ निशानी मांगी। आखिरी ताकि उसकी याद रहे। उसने अपनी तस्वीर के पीछे द बेस्ट विशेज लिखकर मुझे दिया। मैंने भी अपनी तस्वीर उसे देनी चाही उसने हँसते हुए कहा, इतना छोटा-सा तो तुम्हारा चेहरा है, हमेशा मेरे दिल में बसा रहेगा।
मैं जेब में उसकी तस्वीर संभाले लौट आया था।
वह इला से मेरी आखिरी मुलाकात थी। न मेरे गांव में पुल बना न वह उसे पारकर गन्ना खाने, आंवला खाने वहां आ पाई। वह अमेरिका चली गई। हडसन और मिसीसीपी नदी पर बने पुलों को पार करते हुए...
नंदू भाई हांगकांग चले गए थे। इसी बीच दादाजी का देहांत हो चुका था और मरते वक्त उन्होंने मेरे रिटायर्ड हो चुके पशु-चिकित्सक पिता की आंखों में अपना सपना दे दिया था। उन्होंने कहा था कि पुल बनेगा जरूर इसलिए जमीन बेचने में हड़बड़ी मत करना। इन दिनों पिताजी गांव में रहते हैं और आसपास के गांवों में पशुओं के अचूक चिकित्सक के रूप में जाने जाते हैं।
बुआजी नागपुर में बस गईं, चाचाजी लखनऊ में, मामा कोलकाता में, दीदी बिलासपुर में। सब टेलिफोन पर रिश्तेदारी निभाते रहते थे। नदी पर पुल नहीं बना तो क्या उन्होंने टेलिफोन के ही पुल बना लिए थे।
नंदू भाई से काफी दिनों तक कोई संपर्क नहीं रह गया था। भला हो इंटरनेट का, पिछले चार-पांच सालों में उसने हम भाई-बहनों को फिर से जोड़ दिया था। मैंने नंदू भाई को ईमेल किया था कि दिल्ली में पिछले चार-पांच सालों में इतने फ्लाइओवर बन चुके हैं कि पहचानना मुश्किल पड़ जाएगा।
ऐसा नहीं है कि इन बीस सालों में मधुवन गांव के लोग उस पुल को भूल गए हों। इस बीच गांव में हाथ-हाथ मोबाइल आ गया था, रंगीन टेलिविजन आ गया था, सामूहिक जेनरेटर आ गया था, स्कूल खुल चुका था।
और जानकी पुल...
कई साल बाद जब मैं पिछली बार दीपावली पर घर गया था तो पिताजी ने बताया था कि अगले बजट में पक्का बन जाएगा...
सोच रहा हूं नंदू भाई को यही ईमेल कर दूं। गांव में अब भी लोग जब पाकड़ चौक पर बैठते हैं तो जानकी पुल की चर्चा चल पड़ती है। भले ही उसका शिलान्यास का पत्थर अब पहचाना नहीं जाता और वह सड़क जिसने पुल का सपना गांव वालों की आंखों में भरा था, जगह-जगह से टूटकर बदशक्ल हो चुकी थी। गांववाले अब भी यही सोचते हैं कि एक बार पुल बन जाए तो सब ठीक हो जाएगा- जानकी पुल।