जाने किस वेश में / चित्तरंजन गोप 'लुकाठी'

Gadya Kosh से
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आज टीवी देखते-देखते उसका स्मरण हो आया। उसकी आंखों से मासूमियत झलक रही थी। चेहरे पर उदारता और निष्कपटता झलक रही थी तथा बदन से दरिद्रता और विवशता दिख रही थी।

मैंने पूछा नाम क्या है?

"जी, के... के... केदार।" उसने हकलाते हुए कहा।

"इस बैग को लेकर पहाड़ पर चढ़-उतर सकोगे?"

"क्यों नहीं? इससे बड़ा बैग लेकर रोज़ पहाड़ पर चढ़ता-उतरता हूँ।"

"ठीक है, चलो।"

हमलोग पहाड़ पर चढ़ने लगे। केदार आगे-आगे चल रहा था। मेरे दोस्त ने कहा, "इसपर नज़र रखना अन्यथा जाने किस वेश में...।" और हमलोग उसका अनुसरण करते हुए पहाड़ पर चढ़ गये।

उतरते वक़्त भी केदार आगे-आगे था। घुमावदार रास्ता... लोगों का हुजूम...और नीचे गिरने का डर। बस, केदार ग़ायब हो गया। हमलोग ऊपर-नीचे होते रहे। पर वह नहीं मिला। मैं रोने-रोने को हो गया। बैग में बीस हज़ार रुपए, कुछ कपड़े, खाने की चीजें और कुछ महत्त्वपूर्ण काग़ज़ात थे। दोस्त बोला-- देखा, मैंने कहा था न? चलो, थाने में एफ. आई. आर. दर्ज करना होगा।

हमलोग मायूस होकर अपने लॉज में लौटे। हमारी प्रतीक्षा में बैठे-बैठे केदार वहाँ उंघ रहा था। मैंने उसे छाती से लगा लिया।

टीवी में केदारनाथ धाम की तबाही देख-देखकर सिहर उठता हूँ मैं। महाप्रलय आया हुआ है। धन-जन की अपार हानि। मन रो उठता है यह जानने के लिए कि केदारनाथ का वह मासूम केदार और उसकी बूढ़ी माँ कैसी हैं? जाने किस वेश में होगा होगा वह... होगा भी कि नहीं !