जाने भी दो यारों, जीने भी दो / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 06 जुलाई 2020
फिल्मकार कुंदन शाह ने ‘जाने भी दो यारों’ नामक फिल्म का निर्माण किया जिसे समालोचकों ने भारत में बनी पहली ब्लैक कॉमेडी कहा। इस फिल्म में काम करने वाले सारे कलाकारों ने लंबी पारी खेली और नाम कमाया। नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, सतीश शाह, सतीश कौशिक, नीना गुप्ता, पंकज कपूर, रवि वासवानी, भक्ति बर्वे। कथासार यूं था कि दो युवा पत्रकार एक घपले की जांच-पड़ताल करते हैं और बगीचे में एक अनजान, आदमी की लाश दिख जाती है। पश्चिम की फिल्म ‘ब्लो-अप’ से यह प्रेरित है। ज्ञातव्य है कि कुंदन शाह ने पूना फिल्म संस्थान में पढ़ाई की थी जहां क्यूरेटर पी.के.नायर देश-विदेश की फिल्में छात्रों को दिखाते थे।
इस फिल्म में पात्र रंगमंच पर प्रस्तुत किए जा रहे द्रौपदी चीरहरण प्रकरण में पहुंच जाते हैं। इस मनोरंजक दृश्य की नकल के कई प्रयास हुए, परंतु कुंदन शाह का दृष्टिकोण ही अनोखा था। भ्रष्टाचार की तह तक पहुंचने में सफल होने के बाद भी उनकी रपट और प्रमाण नष्ट कर दिए जाते हैं। हमारे यहां हुए तमाम घपलों में दोषी साफ बच जाते हैं। भ्रष्ट व्यक्ति कांड करने के पहले ही गड़बड़ हो जाने पर भाग निकलने की पतली गली सबसे पहले खोज लेते हैं। भ्रष्टाचार की जमीन के नीचे तहखाने होते हैं, जिनमें सुरंगें होती हैं।
‘किंडल’ पर ‘जाने भी दो यारों’ पर हाल ही में बनाई ई. बुक जारी हुई है, जिसे प्रसिद्ध पत्रकार जय अर्जुन सिंह ने लिखा है। यह फिल्म अत्यंत अल्प बजट की थी। यह कुंदनशाह का जीनियस है कि सीमित साधनों में भी वे अपनी गुणवत्ता बनाए रखते थे। कुंदन शाह के साथी अजीज मिर्जा थे और इसी टीम ने ‘नुक्कड़’ नामक हास्य-व्यंग्य सीरियल बनाया था। अजीज ने शाहरुख खान को उसके प्रारंभिक दौर में सहायता दी, यहां तक कि अपने ही घर में आश्रय दिया और ‘राजू बन गया जेन्टलमैन’ में अवसर भी दिया। ज्ञातव्य है कि अजीज मिर्जा, जूही चावला और शाहरुख ने भागीदारी में ड्रीम्स अनलिमिटेड नामक फिल्म निर्माण संस्था भी स्थापित की थी। कुछ सार्थक फिल्मों का निर्माण भी हुआ परंतु बाद में शाहरुख ने अपनी अलग संस्था बना ली। भव्य सफलता का राजमार्ग मिलते ही व्यक्ति आंकी-बांकी पगडंडियों को छोड़ देता है। कभी-कभी नतीजा जीरो भी होता है। मेहमूद की ‘पड़ोसन’, श्रीधर की ‘प्यार किए जा’ और गुलजार की ‘अंगूर’ विशुद्ध हास्य फिल्में हैं, जो दर्शक को निर्मल आनंद देती हैं, परंतु ‘जाने भी दो यारों’ हमें आईना दिखाती है, जिसमें अपना असली रूप देखकर हम डर जाते हैं। याद आता है फिल्म ‘जागते रहो’ में चोर की तलाश में स्वयंभू समाज सुधारक अंधेरे कमरे में प्रवेश करता है और आईने में अपनी छवि देखकर डर से चीख पड़ता है।
पत्रकार जय अर्जुन सिंह ने इस फिल्म के निर्माण का पूरा ब्यौरा दिया है। कलाकार और तकनीशियन इस तरह काम करते रहे माने एक मिशन पर निकले हैं- यह कमोबेश उनकी भारत एक खोज की तरह रहा। सार्थक मनोरंजन गढ़ना एक मिशन की तरह ही होता है। एक तरह से लेखक जय अर्जुन सिंह की किताब को फिल्म की तरह देखा जा सकता है, जैसे कुछ फिल्मों को पढ़ा जाता है। किताब देखना व फिल्म पढ़ना हर पाठक और दर्शक का जुनून रहता है। किताब व फिल्म देखना -पढ़ना बादलों से गुजरने की तरह होता है और बादलों की ठंडक के साथ उसमें छुपी बिजली को भी अनुभव किया जा सकता है। संवेदनाओं को समाप्त किए जाने वाले कालखंड में इसे संजोए रखना बड़ा आवश्यक है। ‘जाने भी दो यारों’ का गीत ‘हम होंगे कामयाब’ वर्तमान में खोखला नारा बना दिया गया है।
ज्ञातव्य है कि जाने भी दो यारों के संपूर्ण अधिकार जयंतीलाल गढ़ा के पास हैं और वे इसके नए संस्करण बनाने के बारे में विचार भी कर रहे हैं। पहली परेशानी तो कुंदन शाह जैसा निर्देशक खोजना है। कलाकार और धन तो जुटाया जा सकता है, परंतु प्रतिभा का अकाल सा पड़ा है। इसलिए व्यक्ति हताश होकर कहता है, जाने भी दो यारों।