जान्हवी, जैनेंद्र और प्रेम / रोहिणी अग्रवाल
'जान्हवी' कहानी पढ़ने के बाद एक गहरा अवसाद मन पर तिर आया है। लोकगीत शोकधुन की तरह बार-बार कान में बज रहा है - “कागा चुन-चुन सब खाइयो... / दो नैना मत खाइयो, मत खाइयो / पिउ मिलन की आस।” कौओं के कर्कश शोर के बीच अपने जीवन में गुंथी वर्जना की कर्कश स्वरलहरियों को घुला देने के प्रयास में तिल-तिल घुलती यह युवती लेखक की तरह मुझे कौतूहल की वस्तु दिखाई नहीं पड़ती। संवेदना के अनगिन तारों को झंकृत करते हुए वह पीड़ा के साम्राज्य का विस्तार करने लगती है और मुझे अनायास पत्थर की मूर्ति में तब्दील हो गई उन अभिशप्त राजकुमारियों की याद दिलाने लगती है जो अपने एकमात्र जीवित अंग - दो नैना - के द्वारा अपने उद्धारकर्ता हातिमताई की राह तक रही हैं।
अरे, यह क्या! मैं चिंहुक कर अपने आप को बरज देती हूँ। अवसादग्रस्त मानसिकता अक्सर बिंबों और रूपकों को गड्डमड्ड कर देती है। इतनी सीधी सी बात भी भला मैं क्यों देख नहीं पा रही कि अभिशप्त राजकुमारियों की लाचार प्रतीक्षा में जीवन को लौटा लाने की विकलता है। जान्हवी की तरह उनके पास इतना 'ऐश्वर्य' कहाँ कि वे जीवन के राग-रंग, केंद्र-परिधि के बारे में सोच कर अपनी या दूसरों की भूमिका और संवेदनात्मक रिश्ते तय करें। जान्हवी के पास एक सबसे अमूल्य निधि है - जीवित होने का सुख; जीवन को सर्जित करने का अवसर। मैं उन पत्थर की मूर्तियों के धड़कते हृदयों के बीच पैठ कर जान्हवी के 'ठाठ' को जाँच लेना चाहती हूँ कि प्रेम और पिउ ने उसे संवेगों और संबंधों को समझने के कितनी गहरी दृष्टि दी? कि प्रेम की डोर थाम अपनी भौतिक सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए कितने उन्नत व्योम की उड़ान भर पाई है वह? कि पिउ के साथ मिल जिस सृष्टि की संरचना की (या करने का स्वप्न देखा) उसने, वहाँ त्रास, आतंक, संताप और लोभ जैसी लौकिक संकीर्णताओं को तिरोहित करना कैसे संभव हुआ उसके लिए? हाँ, मैं जानती हूँ जान्हवी से मेरी अपेक्षाएँ विराट हैं। लैला, शीरीं, जूलियट वगैरह से मैं सवाल करने को 'उन्मत्त' नहीं होती। वे लोकरंजन के लिए लोकमानस की अभिव्यक्तियाँ हैं जहाँ 'लोक' शब्द अपने तद्भव रूप 'लोग' के जरिए 'पुरुष' (हमारे हरियाणा में 'लोग' का स्त्रीलिंग 'लुगाई' 'स्त्री' है) की सत्ता और कामना को केंद्र में रखता है। जान्हवी जैनेंद्र की मानस-पुत्री है और जैनेंद्र स्त्री मानस के भाष्यकार। उनके बारे में प्रसिद्ध है कि वे रीतिकवियों की तरह स्त्री को लेकर नखशिख वर्णन, बारहमासा या नायिका-भेद की बात कर उसे 'देह' में रिड्यूस करने की लोलुपता से लपलपाते नहीं। वे फिल्लौरीनुमा नवजागरणकालीन समाजसुधारकों की तरह 'शिक्षिता' (?) स्त्री की वंदना करते हुए उसे पुरुष-शासित अंतःपुर की पट्टरानी बनाने की नसीहत भी नहीं देते। दरअसल जान्हवी से नहीं, जैनेंद्र से मेरी अपेक्षाएँ हैं, लेकिन मैं पाती हूँ कि ऐन संवाद का क्षण आते ही वे चकमा देकर वहाँ से नौ दो ग्यारह हो गए हैं। सटे-सटे मकानों की सट कर विस्तीर्ण हुई छतों वाली मुहल्लानुमा मायावी बस्ती में कौओं के झुरमुट के बीच ओझल हो गई उस आत्ममुग्धा जान्हवी को तलाशती मैं न वहाँ से निकलने का मार्ग ढूँढ़ पा रही हूँ, न ठहरने का कोई ठौर। यहाँ से वहाँ पूरे दिक्-काल में गूँजता बस एक ही आग्रह - “कागा चुन-चुन सब खाइयो... / दो नैना मत खाइयो, मत खाइयो / पिउ मिलन की आस।” मानो साँसों का आरोह-अवरोह हो। खीझ कर मैं जान्हवी को नहीं, समूची स्त्री जाति को कोसने लगी हूँ कि प्रेम-विरहिणी की भंगिमा ओढ़ कर ये आत्म-प्रवंचिता स्त्रियाँ सदियों से आदमी (पुरुष?) को पूजती रहेंगी क्या? क्या ठाली बैठी जमात के बतरस या बुद्धिरस में पहेली बन कर वे एकपक्षीय मनमानी व्याख्याओं के लिए अपने को बार-बार प्रस्तुत करती रहेंगी? जीवन को मृत्यु के आवरण में लपेट कर जीने का ढोंग क्या उनका सबसे बड़ा गुनाह नहीं जिसके लिए उन्हें रहमदिल हामितताई के पुरसुकून स्पर्श की नहीं, अपने अधिकार, आत्मसम्मान और मानवीय गरिमा के लिए लड़ती द्रौपदी की कठोर फटकार की दरकार है?
मैं जानती हूँ क्रोध की क्षणभंगुरता खीझ और झुँझलाहट में उमड़ कर बह जाने के बाद विवेकशीलता को कुछ ज्यादा ही सक्रिय कर देती है। इसलिए अब मैं अपनी उस कमजोरी पर विजय पा सकी हूँ कि चीख-चीख कर जैनेंद्र (पुरुष समाज) पर आरोप लगाऊँ कि प्रेम को गँवा कर विरहिणी और कलंकिनी बनने का दर्द स्त्री ही क्यों भोगे? कि प्रेम क्या सिर्फ स्त्री की जरूरत है, पुरुष की नहीं? या कि यह सवाल ही गलत है क्योंकि आखेटक की नाईं नए शिकार की टोह में आगे बढ़ते पुरुष को 'प्रिय' के चले जाने का भान ही नहीं होता? मैं इस सवाल को भी मुल्तवी कर रही हूँ कि स्त्री को स्वतंत्र और 'मनुष्य' होने का भ्रम देकर प्रेम क्या उसे अधिक परतंत्र और 'स्त्री' (भोग्या और हीन) नहीं बनाता? मेरे सामने सिर्फ दो बिंब हैं। एक, 'लीन भाव से' 'आनंद में चीखती हुई सी आवाज में' गा-गा कर दो नैनों के अतिरिक्त अपने शरीर के एक-एक अंग को नुचवा लेने को तत्पर स्त्री जो रंगभूमि के केंद्र में होते हुए भी न सक्रिय है, न दृश्यमान। वह बुत है, कलाकार की रचना! दूसरा बिंब नहीं, स्टेटमेंट है क्योंकि उसे दर्ज करने के लिए स्वयं वक्ता वहाँ मौजूद है - कथा परिदृश्य से अदृश्य होते हुए भी रंगभूमि का केंद्रबिंदु, संचालक और सर्जक एक साथ। यह स्टेटमेंट लेखक की है, या यों कहें कि हर जागरूक इंसान की - “कौए मुझे मूर्ख और घिनौने मालूम हुए। उनकी काली देह और काली चोंच मन को बुरी लगी। मैंने सोचा कि नहीं, अपनी देह मैं कौओं से नहीं चुनवाऊँगा। छिः, चुन-चुन कर इन्हीं के खाने के लिए क्या मेरी देह है? मेरी देह और कौए, छिः!” कितनी गहरी घृणा! और कितना ठोस इनकार! अपनी इयत्ता और अस्मिता केा आक्रांत कर देने वाली हर ताकत के प्रतिरोध का संकल्प! जान्हवी के आँसुओं की सीलन और आत्मदमन की घुन से मुक्त यह प्रदेश संघर्ष की सुनहरी धूप से चमचमा रहा है। स्त्रियाँ इस प्रदेश की वासी क्यों नहीं? वे प्रेम करती हैं, प्रेम करना और निभाना जानती हैं, क्या इसलिए? या प्रेम और प्रजनन जैसे कामों को अंजाम देने की व्याकुलता में अपने दड़बे के भीतर सृष्टि की विराटता और जीवन की अनंतता को चीन्ह-चुन लेती हैं? यदि ऐसा है तो तमाम तरह के रोगाणुओं और विषाणुओं को मार डालने वाली कड़ी धूप की उन्हें और अधिक जरूरत है।
मैं सोचती हूँ साहित्य में (और जीवन में भी) प्रेम भोग और विरह की बार-बार दोहराई जाने वाली दृष्टिहीन परिणतियों में बँध कर क्यों दम तोड़ देता है? प्रेम यदि स्त्री द्वारा ही चिह्नित होता है तो क्यों रुक्मिणी और संयोगिता के रूप में उसका हर उच्छ्ल आवेग प्रिय के अंतःपुर में चौपड़ और स्वर्णाभूषणें के मोह में ढल कर स्वयं एक 'वस्तु' बन जाता है? या राधा की जीवंतता किसी दूसरे की गृहस्थी की जमीन और आसमान को नापते-नापते एक कसक और अपराध बोध में तब्दील होने लगती है? क्या प्रेम आत्मसाक्षात्कार का बिंदु नहीं जो कबीर की तरह 'मैं' को 'तूँ' की उदात्तता तक ले आता है, और फिर एक अद्वैत स्थिति की रचना करता है? लेकिन यह अद्वैत भाव किसी अमूर्त अध्यात्म के प्रति नपुंसक समपर्ण नहीं, समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व के संगुंफित राग का नाम है जिसे हर प्राणी के भीतर आत्म-चेतस गरिमा के रूप में प्रतिष्ठापित करना है।
दाअसल दृष्टि के बिना दर्शन संभव नहीं। इसलिए अकारण नहीं कि ठोक-बजा कर अपनी स्टेटमेंट दर्ज कराने वाला लेखक जान्हवी (स्त्री) के साथ ब्रजनंदन (पुरुष) को भी बुत बना डालता है। विवाह संबंध की वैचारिक शुचिता बनाए रखने के लिए स्त्री द्वारा भावी पति को पत्र लिख कर अपने पूर्व प्रेम संबंध को स्वीकार करने की ईमानदारी समाज की नजर में उसकी बेहयाई है। इसलिए ब्रजनंदन-जान्हवी की सगाई टूट जाती है, लेकिन उस ईमानदार 'गुड़िया' को पाने का मोह नहीं। ब्रजनंदन कैकेयी की तरह कोप भवन में बैठ नहीं सकता (पुरुष 'जनाना' काम करके अपनी हेठी नहीं कराते), कोपभवन साथ-साथ लिए घूमता है, जहाँ 'त्याग' ने उसे लूजर नहीं बनाया, 'शहादत' के गौरव से ऊँचा उठा दिया है (विजेता) बना दिया है - “उसने दृढ़ता के साथ कह दिया कि मैं यह शादी नहीं करूँगा। लेकिन उसने मुझसे अकेले में यह भी कहा कि चाचा जी, मैं और विवाह करूँगा ही नहीं, करूँगा तो उसी से करूँगा। उस पत्र को वह अपने से अलहदा नहीं करता है। और मैं देखता हूँ के उस ब्रजनंदन का ठाठ-बाठ आप ही कम होता जा रहा है। सादा रहने लगा है और अपने प्रति सगर्व बिल्कुल भी नहीं दीखता है। पहले विजेता बनना चाहता था, अब विनयावनत दीखता है और आवश्यक से अधिक बात नहीं करता।” हठात् मेरी भौंहों पर बल पड़ जाते हैं - अब जब बोलने (स्टैंड लेने) का समय आया तो क्यों 'आवश्यक से अधिक बात' नहीं करता? सिर्फ बिरजू ही क्यों, उसके चाचा - लेखक - भी मूक दर्शक की तरह निःसंग भाव से जान्हवी के प्रति समाज (साहित्यिक रचनाओं में यह समाज हाथ चमका-चमका कर जली-कटी सुनाने और अकरणीय कर डालने वाली स्त्रियों या अपवादस्वरूप दलित/धोबी के रूप में चिह्नित किया जाता है) की कटुता और कठोरता को सुन-सह रहा है; एक दब्बूनुमा शरत्चंद्रीय प्रेमी की सृष्टि कर कृत्कृत्य हो रहा है, लेकिन कहीं उसमें वह आत्मबल पैदा नहीं करता कि अपनी तरह मिमियाते चाचा की बजाय शेरनी की तरह दहाड़ती चाची के सामने जान्हवी के प्रति प्रेम को कबूल सके, और समझा सके कि विवाह कोई सामाजिक-सांस्कृतिक बाध्यकारी अनुष्ठान नहीं, एक हार्दिक पारस्परिकता की स्वीकृति है जहाँ जेंडर से जुड़े सोशल कंस्ट्रक्ट्स निहायत बेमानी हो जाते हैं। ब्रजनंदन, और लेखक भी, यदि ऐसा कह पाते तो शायद जान्हवी भी पितृसत्तात्मक व्यवस्था के प्रतिनिधि कौओं से अपना पिंड नुचवाने की यंत्रणा झेलते रहने को बाध्य न होती।
लेकिन जैनेंद्र वह सब क्यों सोचते जो मैं उनसे चाहती हूँ? वे स्रष्टा हैं। पात्र और प्लॉट के संग-संग दृष्टि भी उनकी अपनी है। इसलिए वे चाहे जैसा उन्हें नचाने को स्वतंत्र हैं। एक दीर्घजीवी शिष्ट संयत भाव के साथ जैनेंद्र अपनी स्वतंत्रता का उपयोग करना जानते हैं। जान्हवी को वे सिर्फ 'जान्हवी' कहानी तक सीमित नहीं रखते, कहानी की छोटी सी दुनिया से बाहर उपन्यासों के विशाल संसार में प्रविष्ट करा लेते हैं। कारण? यही कि बुत की तरह तिल-तिल घुलने में आत्मपीड़न का आनंद लेती रमणी की आँखों में उन्हें रमण के लिए पुकारती रमणीक उत्तेजना नहीं दीखी, दिखाई पड़ी डिफाएंस की ठंडी आग; अपने हक के लिए अड़े रहने की जिद; अपने आत्मसम्मान के लिए मिट जाने की ललक। (लेकिन यह आखिरी बात क्या ज्यादा रोमानी नहीं हो गई जो पद्मिनी वगैरह को जौहर करने और बतर्ज 'तमस' सिख स्त्रियों को कुएँ में कूद कर जान देने के महिमामंडन में यथास्थितिवाद को ही प्रश्रय देने लगती है?) याज्ञवल्क्य हमेशा शास्त्रार्थ करने वाली गार्गी से ही नहीं घबराता, अपने सीने में सारे ज्वालामुखियों का लावा समेट कर ठंडी बने रहने वाली शख्सियतों से भी भयभीत रहता है। इसलिए जान्हवी जब अपने प्रेम को कबूलते हुए (जिसके लिए पोर-पोर ईमानदारी की जरूरत होती है) ब्रजनंदन से कहती है - “आप जब विवाह के लिए यहाँ पहुँचेंगे तो मुझे प्रस्तुत भी पाएँगे। लेकिन मेरे चित्त की हालत इस समय ठीक नहीं है और विवाह जैसे धार्मिक अनुष्ठान की पात्रता मुझमें नहीं है। एक अनुगता विवाह द्वारा आपको मिलनी चाहिए। वह जीवन-संगिनी भी हो। वह मैं हूँ या हो सकती हूँ, इसमें मुझे बहुत संदेह है। फिर भी अगर आप चाहें तो प्रस्तुत मैं अवश्य हूँ। विवाह में आप मुझे लेंगे और स्वीकार करेंगे तो अपने को दे ही दूँगी, आपके चरणों की धूलि माथे से लगाऊँगी। आपकी कृपा मानूँगी। कृतज्ञ होऊँगी। पर निवेदन है कि यदि आप मुझ पर से अपनी माँग उठा लेंगे, मुझे छोड़ देंगे, तो भी मैं कृतज्ञ होऊँगी। निर्णय आपके हाथ है। जो चाहे, करें।” तब वह इस विवाह संबंध के लिए अपनी अस्वीकृति को ही मुखर नहीं करती, बल्कि विवाह संस्था के स्वरूप, स्त्री-पुरुष संबंधों की संरचना और प्रेम के मर्म पर भी पुनर्विचार करने को कहती है। ऐसी एक भी डिफाएंट स्त्री यदि मुहल्ले-समाज में बनी रहे तो क्या समाज की चूलें नहीं हिल जाएँगी? बेशक! इसीलिए तो समाज के ढाँचे को यथावत बनाए रखने के लिए जैनेंद्र अपने तथाकथित विद्रोही पात्रों को भी मंच पर ले आते हैं। क्या 'त्यागपत्र' की मृणाल की आत्मपीड़न में घुटती उक्ति में दंभ की टंकार नहीं सुनाई पड़ती कि 'जो समाज में हैं, समाज की प्रतिष्ठा कायम रखने का जिम्मा भी उन पर है। उनका कर्त्तव्य है कि जो उसके उच्छिष्ट हैं या उच्छिष्ट बनना पसंद करते हैं, उन्हीं को जीवन के साथ नए प्रयोग करने की छूट हो सकती है। यह बात तो ठीक है कि सत्य को सदा नए प्रयोगों की अपेक्षा है, लेकिन उन प्रयोगों में उन्हीं को पड़ना और डालना चाहिए जिनकी जान की अधिक समाज दर नहीं रह गई है।” बेशक परिवार की धुरी कही जाने वाली स्त्री ही एकमात्र ऐसा जीव है जिसकी जान की समाज-दर कभी किसी देश-काल में आँकी ही नहीं गई। सुनिश्चित हुए हैं आचार-संहिता और वर्जना-शास्त्र जिन्हें पाँचों ज्ञानेंद्रियों को मूँद कर ढोए चलना है; सतीत्व और पत्नीत्व की जरीदार भड़कीली पोशाक पहन कर भीतर तक रिसते घावों और रोग-जर्जर काया को ढाँपे रखना है। मैं भय से सिहर उठी हूँ। प्रेम के नाम पर प्रवंचना को मूल्य बना कर और आत्मप्रवंचिता स्त्रियों को नायिका का दर्जा देकर साहित्य आज तक पाठक को ठगता ही तो रहा है। आत्मप्रवंचिता को जगाना क्या संभव है? आत्मप्रवंचिता न होती जान्हवी, तो क्या दूसरे (भगोड़े और वंचक) के 'दर्शन' में अपने समूचे जीवन की सार्थकता केा अनूदित करने का जतन करती? आत्मप्रवंचिता न होती तो अपनी ईमानदारी, निर्भीकता और विद्रोह की कांति को गूँथ कर 'मृणाल' बन जाने को तत्पर होती? मृणाल की विडंबना है कि वह स्वयं अपने विद्रोह की दिशा और मकसद नहीं जानती। जिस साँस में वह पति और विवाह संस्था के प्रति अनास्थावान है, उसी साँस में सतीत्व को पुनर्परिभाषित कर यथास्थितिवाद को पोसने लगती है। वह समाज की रूढ़-जर्जर मान्यताओं को बदलना चाहती है, लेकिन समाज को तोड़ना-फोड़ना भी नहीं चाहती। भयभीत है, और शायद उससे ज्यादा उसका सर्जक, कि समाज टूटा तो फिर “हम किसके भीतर बनेंगे? या कि किसके भीतर बिगड़ेंगे?”इसलिए दोनों के पास एक ही विकल्प है कि समाज से अलग होकर, समाज का उच्छिष्ट बन कर, समाज की मंगलाकांक्षा में वह खुद टूटती रहे। पलट कर अपने रचयिता से सवाल नहीं करती मृणाल कि पुराने भग्नावशेषों को ध्वस्त किए बिना उसी जमीन पर नई इमारत बनाना कैसे संभव होगा? नए का सृजन करने के लिए यदि एक अंतर्दृष्टि जरूरी है तो पुराने को ढहाने के लिए अंधमोह से मुक्ति भी। तब क्यों नहीं समझता सर्जक, समाज कि अंधमोह सृजनशीलता का घोर शत्रु है और जड़ता का पोषक। क्यों नहीं जानती जान्हवी कि निष्क्रिय प्रतीक्षा और दिशाहीन गति अंततः गतिहीनता का दुष्चक्र ही रचती है जिसे तोड़ने के लिए पहले अपने आपको मुक्त करना जरूरी है - अनंत अश्रुकोश से, वर्जना शास्त्र से, अंधमोह के कुटिल तर्कशास्त्र से। कि नए का निर्माण शून्य में नहीं होता, जड़-जर्जर व्यवस्था की दरारों से होता है। उन दरारों को आँख की किरकिरी बना कर प्रत्येक प्राणी की आँख में रोपा नहीं गया तो उन्हें भरने का प्रयास आखिर कौन करेगा? नींव का पत्थर अकेले धरा जा सकता है, लेकिन पहला कदम सामूहिक चेतना के आह्वान का शंखनाद भी होना चाहिए। 'एकला चलो रे' में अंत तक 'अकेले' रहने का भाव कभी अनुस्यूत नहीं होता।
जान्हवी का भगोड़ा प्रेमी कहानी में कभी किसी जवाबदेही के लिए हाजिर नहीं होता। मानो प्रेमी हवा की तरह कोई शै है जिसका 'होना' प्राणी को जीवन (स्त्री के संदर्भ में सम्मान) से स्पंदित करता है, और 'न होना' प्राणहीन (सम्मानहीन)। 'त्यागपत्र' में यह प्रेमी शीला का सर्जन भाई बन कर एक दिपदिपाते अभिमान के साथ परित्यक्ता प्रेयसी के विवाहित जीवन में तूफान लाने के लिए नमूदार हुआ है। सशरीर नहीं, पत्र द्वारा। मैं आशाओं से हरी-भरी होने लगी हूँ। कहानी की तिल भर जगह में लेखक के पास दूसरे पात्रों से बतियाने का स्पेस नहीं होता। अब उपन्यास की अट्टालिका में पसरे इतने-इतने खाली स्पेस में वे जरूर शीला के भाई को इंटेरोगेट करेंगे कि निर्णय लेने के क्षण में रणक्षेत्र से पीठ दिखा कर क्यों भागा वह? और एक ओहदेदार पद पर प्रतिष्ठित वह समृद्ध-सुशिक्षित-संभ्रांत युवक कोयलेवाले की फटकार और सामाजिक अवमानना की मार से दुहरी हो गई 'बहादुर' प्रेयसी को गले लगा लेगा। आखिर पत्र लिख कर उसने अपने अटूट-अखंड प्रेम और प्रेम संबंध का कितना-कितना दावा ठोंका है। प्रेयसी का सुख और कल्याण की चिंता उसका अपना कुल जीवन है। अहा! अंततः बाबू ब्रजनंदन अपनी जान्हवी का उद्धार करने राम-पगडंडी पर कूच कर गए हैं। लेकिन यह क्या? भगोड़ा प्रेमी सिर पर पैर रख कर सरपट दौड़ा ही जा रहा है - दूर-दूर, और दूर। बेचारे दुष्यंत के स्कूल का प्रेमी समुदाय! एक बार जो शकुंतला को चीन्हना भूल गया तो तब तक दुनियावी मसरूफियत में डूब कर चीन्हने की जरूरत नहीं उठाई जब तक कमजोर शरीर और खिसकती गद्दी को थामने के लिए किसी 'भरत' की जरूरत महसूस नहीं हुई। तो क्या पुरुष के लिए प्रेम एक चुनौती भरा खेल है (प्राइज्ड ट्रॉफी) कि जीता, खेला और उकता कर छोड़ दिया? तो फिर स्त्री ही सिरफिरी है कि जन्म-जन्म का बंधन मान उसे सामाजिक स्वीकृति दिलाने के लिए मरी जा रही है? विश्व प्रसिद्ध प्रेमी युगल अन्ना करेनिना और व्रोन्स्की दो अलग-अलग मिजाज और परिणतियाँ लेकर मेरे सामने मौजूद हैं। और मैं हूँ कि प्रेम के उच्छ्ल आवेग को महसूस ही नहीं कर पा रही हूँ जो दुनिया की ताकतवर हस्ती को यूँ चुटकियों में उड़ा दे। व्रोन्स्की और अन्ना इस प्रेम-परीक्षा में शत-प्रतिशत अंक पाकर सामने खड़े हैं, लेकिन चेहरे पर पाने के आह्लाद से ज्यादा खोने का अवसाद है। भीगी आँखें, रीती झोली, धुआँता मन - प्रेम का कुल हासिल क्या यही है? या फिर ईर्ष्या और असुरक्षा से सुलगते वजूद का रेल की पटरियों पर कटी-फटी लाश बन कर बिछ जाना?
शायद सदियों की उम्र पाकर भी हम प्रेम को लेकर अनजान हैं। इसलिए कभी उसे किशोर उत्तेजना में रिड्यूस कर देते हैं और कभी रीतिकालीन दैहिक अनुष्ठान में; कभी वह नक्षत्रों के पार संवाद का सेतु बनता है तो कभी एक गाली, कसक या अपराध बोध। स्वामित्व के विरोध में उठी एक स्वायत्त आवाज का नाम है प्रेम, लेकिन प्रिय को सामने पाते ही उस पर काबिज होने की तानाशाही उसमें भी है। इसलिए वह खूँखार शेर (गोदान) के रूपक में अपने को व्यक्त करता है जिसे आजकल चेहरे पर तेजाब वगैरह फेंकने या तंदूर में भूनने की 'प्रेमिल हरकतों' के जरिए ज्यादा सटीक अर्थ में समझा जा सकता है। और जब समाज में नाक ज्यादा बड़ी हो जाए और कुर्सी ऊँची तो कारोकारी, संगसार और खाप पंचायतों का विधान एक गहरी आश्वस्ति के साथ प्रेम को परिभाषित, निर्देशित और संचालित करने लगते हैं।
भीतर ही भीतर झल्ला भी रही हूँ कि हर प्रेम कहानी में प्रवेश करते ही मुझे चोंच से चोंच मिला कर गुटरगूँ करता कबूतर का जोड़ा क्यों नही मिलता? व्यवस्था के दमन से आर्तनाद करते स्वर ही क्यों सुनाई पड़ते हैं? क्या प्रेम को समझने की मेरी संवेदनशीलता क्षीणतर होते-होते शून्य हो गई है? लेकिन सच में, मैं एक प्रेम कहानी पढ़ना चाहती हूँ जो मेरे भीतर के सारे कलुष, भय, सिकुड़न, असंतोष धो-पोंछ कर मेरी आँखों में प्रेम का समंदर लहरा दे और उस समंदर की हरहराहट को सामने वाले की आँख में देख कर मैं दूर तक तिरती चलूँ। नहीं, आत्मविस्मृति नहीं। न ही लोक और काल को भूलने की ललक। विस्मृति पलायन का मार्ग प्रशस्त करती है और प्रेम जीवन से मुठभेड़ करके बेहतर जीवन के अभिषेक का। इन गरजती-उफनती लहरों में जाने क्या जुनून है कि शीरीं की तरह मैं भी घड़ा लेकर पार उतरने को मचल उठती हूँ, लेकिन वक्त, तालीम और शीरीं के हादसे ने मुझे शीरीं से ज्यादा अनुभवी और समझदार बना दिया है। इसलिए उद्दीपन-आलंबन के आँचल में दुबके किशोर-जनून को वहीं छोड़ मैं व्यवस्था की चीरफाड़ का बौद्धिक खेल खेलने लगती हूँ। तो क्या इसीलिए सयाने कह गए हैं कि प्रेम हृदय से किया जाता है, बुद्धि से नहीं। और मैं हूँ कि इसी बात पर बर्राने लगी हूँ कि हृदय और बुद्धि एक-दूसरे से विच्छिन्न रहे तो लिजलिजी भावुकता और संवेगहीन यांत्रिकता में तब्दील होकर स्वयं ही विघटित हो जाएँगे। दोनों को परस्पर गूँथ कर विवेक को बुने बिना एक भी सही कदम भला कैसे चल पाएँगे हम?
जान्हवी में इसी विवेकशीलता का अभाव है, अन्यथा जीवन के सारे सूत्र हाथ में लेकर वह भगोड़े प्रेमी की राह न तकती रहती। कॉलेज जाना छोड़ कर, आत्मपीड़न में एक सैडिस्टक प्लेजर खोज कर वह सिर्फ रुग्ण मानसिकता को ही अपनी पहचान बना रही है। जान्हवी की परिणति को लेकर जैनेंद्र पसोपेश में हो सकते हैं, लेकिन मृणाल को लेकर वे क्यों ढुलमुल बन रहे हैं? और क्यों मृणाल ही उनकी कठपुतली बन कर इशारों पर नाचने लगी है? पति का घर त्याग कर और मायके के बंद द्वार पर दस्तक देने की अवमानना का मोह छोड़ कर वह जीवन के उद्दाम प्रवाह के सामने अकेले आ खड़ी हुई है तो क्यों अपने पैरों में दृढ़ता और हाथों में आकाश थामने की ताकत नहीं बटोर पाई? शिक्षिता, स्वतंत्र निर्णय संपन्न इस स्त्री को क्या सिर्फ आर्थिक परनिर्भरता ने मारा है? न! कोयलेवाले के यहाँ से आने के बाद ट्यूशन वगैरह करके अपना पेट आप पालती रही है वह। तो फिर कोयलेवाले के साथ रहने, बदनाम होने और उसे उसकी गृहस्थी में बाइज्जत लौटा लाने के प्रकरण की अर्थवत्ता? क्या यही कि स्त्री अपना प्रेम निवेदित और समर्पित कर कड़े से कड़े पुरुष के भीतर फैली ग्रंथियों के मकड़जाल को सुलझा सकती है; कि स्त्री का प्रेम पुरुष के भावनात्मक और नैतिक स्वास्थ्य का रामबाण उपचार है? और फिर मृणाल को क्रमशः रंजना (दशार्क, जैनेंद्र) में ढाल कर लेखक पुरुष का रंजन करने को स्त्री का एकमात्र 'धर्म' साबित कर सके? जान्हवी और मृणाल की विवेकहीनता के लिए क्या अब भी मैं सिर्फ उन्हें ही दोष दूँ?
मैं जैनेंद्र को कठघरे में खींच लाती हूँ। 'सुनीता' उपन्यास के अति संक्षिप्त आमुख में वे साहित्य के उद्देश्य की बात करते हैं कि वही साहित्य सार्थक है जो “हमारी कमजोरियों की दीवार में झरोखे पैदा कर दे जिसमें शुद्ध हवा आने-जाने लग जाय... मनुष्य-मनुष्य के बीच में जो दीवारें खड़ी कर दी गई हैं, साहित्य उनमें खिड़कियाँ खोल देगा। ...सब मनुष्य हैं, सब एक हैं।” मैं अवाक हूँ। मनुष्य-मनुष्य के बीच खड़ी दीवारें तोड़ने की बजाय उनमें हवा (संवाद यानी उदारतावादी मुखौटा?) की आवाजाही के लिए खिड़कियाँ खोलने का विकल्प क्या यथास्थितिवाद को बनाए रखने का जतन नहीं? 'विवाह के लिए प्रस्तुत पाओगे?' ब्रजनंदन को पत्र में लिखी जान्हवी की यह पंक्ति रुदन बन कर मेरे कानों में अब भी गूँज रही है। लेकिन उसी ताकत और इंटेसिटी के साथ भला कोई कब तक रो सकता है? धीरे-धीरे क्षीण होकर वह स्वर लहरी डूब रही है और उसके भीतर से उमड़ रही है एक पतिपरायणा स्त्री - घर की बंद चारदीवारी में दुनिया की तरफ पीठ करके बैठी, घुटी साँसों, सपाट चेहरे और सिकुड़े व्यक्तित्व की स्वामिनी सुनीता। मैं कल्पना करती हूँ कि मेरी ही तरह जैनेंद्र ने भी कल्पना में आकार लेती ब्रजनंदन की परिणीता जान्हवी को 'सुनीता' उपन्यास में पुनर्प्रस्तुत किया है। पति के हृदय की अधिष्ठात्री (?) यह स्त्री पति की आज्ञा को शिरोधार्य कर उसके मित्र हरिप्रसन्न के प्रति अपना सर्वस्व समर्पित करने को तत्पर है। न अपमान का बोध, न नापसंदगी का इजहार - निर्द्वंद्व, निस्पंद, निरुद्वेग प्लास्टिक की गुड़िया सरीखी सुनीता - मानो खाना बनाने, घर बुहारने की तरह पति के मित्र को 'स्त्री' के प्रति आकर्षित करने के लिए अपने आप को देह के रूप में बिछा देना एक रूटीन यांत्रिक दिनचर्या हो। जाने क्यों सुनीता के चेहरे को अपदस्थ कर मुझे पाकिस्तानी लेखिका तहमीना दुर्रानी की हीर (कुफ्र) याद आने लगी है। पति (धर्माधिकारी पीर साईं) द्वारा उसके मित्रों को 'परोसी' जाती हीर की बिलबिलाती व्यथा और विवशता के बरक्स सुनीता की ठंडी कर्त्तव्यपरायणता है। दोनों कठपुतलियाँ हैं, लेकिन फिर भी अलग-अलग व्यक्तित्वों की स्वामिनियाँ। हीर की बिलबिलाहट में अपनी अस्मिता और आत्मसम्मान के रौंदे जाने, अपमान से सुलग उठने और अवसर मिलते ही प्रतिशोध लेने का जो प्रचंड भाव है, वह उसे 'मनुष्य' बनाता है। सुनीता की जड़ स्वीकृति में छिपी हिमशीतल कर्त्तव्यनिष्ठा उसे 'अहल्या' बनने का संस्कार देती है। वह न स्त्री है, न मनुष्य। सिर्फ एक माध्यम, एक वस्तु। ये दोनों स्त्रियाँ क्या इसलिए इतनी अलग-अलग हैं कि अपने-अपने सर्जक के वैचारिक व्यक्तित्वों को प्रतिबिंबित करती हैं? हीर के आक्रोश में तहमीना दुर्रानी के कन्सर्न हैं जो उन्हें समूची स्त्री जाति के आँसुओं और अपमान को प्रतिशोध की लहर में बहा ले जाने की प्रेरणा देते हैं। प्रेम करना जानती है हीर और प्रेम को दीए की लौ की तरह अपने हृदय में प्रतिष्ठापित करना भी। इसलिए वह स्निग्ध है, तरल-संवेगी-स्वप्नजीवी और स्रष्टा है। प्रतिशोध को जलजला बना कर सृष्टि को तहा-नहस करना नहीं चाहती वह। प्रतिशोध को हथियार बना कर स्त्री की अस्मिता और सत्ता का दमन करती स्त्रीविरोधी समाज व्यवस्था को नष्ट करना चाहती है। प्रतिशोध को दीपक बना कर वह अँधेरे में डूबी-ऊँघती हर चेतना को आलोकित कर देना चाहती है। प्रेम प्रिय (व्यक्ति/वस्तु?) को पाकर अघा जाना नहीं, जन-जन और कण-कण में हार्दिकता के भाव का स्फुरण करना है।
हीर की भास्वरता के बरक्स सुनीता की सुदृढ़ और अविचल भंगिमा मुझे बेहद लिजलिजी और भुरभुरी दिखाई पड़ती है। आत्मप्रवंचना का महोत्सव! मैं पूछती ही रह जाती हूँ कि जैनेंद्र और सुनीता यदि दोनों यथास्थितिवादी हैं तो परवर्ती आलोचना को क्या हुआ कि वह प्रेम के नाम पर पत्नियों से 'धंधा' कराने वाले रैकेट का पर्दाफाश नहीं कर सकी? वह तो आज भी सुनीता की इस प्राणहीन यांत्रिकता को दांपत्येतर प्रेम के संवेग में गूँथ कर हाय-हाय कर रही है। तो क्या मैं ही सुनीता की दुर्दशा को लेकर इतनी चिंतित हूँ कि स्थितियों को बुनते स्पेस में वे सब अंतर्सूत्र/अंतर्ध्वनियाँ नहीं देख/सुन पाई जो उसे संवेदनशील प्रेयसी बनाते हैं। यदि वह प्रेमिका है भी (यूँ सारा तामझाम लेखक ने रीतिकालीन अभिसारिका के बिंब को ताजा करने के लिए किया है), तो कैसी निर्लज्ज? मदन के पुरुष-धनु से विहीन प्रिय के हृदय को पुष्प-शर से बींध कर मदनोत्सव मनाए बिना सीधी-सीधी निर्वस्त्र खड़ी हो गई है! इस 'साड़ी-जंपर उतार प्रेम' की निर्लज्जता पर सिर धुनता पाठक वर्ग आज तीन-चौथाई सदी के अंतराल के बावजूद उसी शैली में स्यापा कर रहा है। अलबत्ता विद्यापति-बिहारी की 'शीलवती-लजीली' नायिकाओं के साथ मनोविहार करते हुए नैतिकता का संकट उसके सामने नहीं आता। इसलिए पद्मावती के प्रेम (या सौंदर्य?) में पगलाए रतनसेन को क्लीन चिट देने के लिए नागमती (रतनसेन की पूर्व पत्नी) को ईर्ष्यालु और कलहिणी दिखाना अनिवार्य हो जाता है। इस हड़बड़ी में वह भूल जाता है कि कभी नागमती के प्रेम में इतना ही बौराया घूमता था रतनसेन। तो क्या प्रेम कामनाओं के समंदर के ज्वार की एक लहर भर है? सचमुच, स्त्री को जानने का धीरज किसी के पास नहीं। प्रेम के बहाने भोग की मांसलता तक ले जाने वाली अनिवार्य कड़ी के रूप में चिह्नित कर दी जाती है स्त्री जो या तो भाई-भाई के बीच रार कराने वाली घटक बन जाती है ('जर जोरू और जमीन' के मुहावरे में बँध कर) या 'साधु' पुरुषों की साधना भंग करने का सबब (उर्वशी-मेनका बन कर)।
मैं कागज-पत्तर समेट कर उठने को होती हूँ कि 'लैला-लैला' का मंत्रोच्चार करता मजनूँ प्रकट हो जाता है। धल धूसरित तन, खाली-प्यासी आँखें! बेबस-बेसुध दिशाहीन युवक! बेहद क्षीण स्वर में एक सवाल पूछता है मुझसे - जान्हवी की बात करते हुए क्या तुम्हें मैं एक पल के लिए भी याद नहीं आया? मेरा मन गहरी करुणा से भर गया। मन किया इस पगले प्रेमी के उलझे रूखे बालों को तेल डाल कर सँवार दूँ। धूल और सूखे घावों से गंधाती देह को परफ्यूम्ड साबुन से नहला दूँ। अनिद्रा से भीतर तक रीत गई आँखों को मुलायम तकिए की ओट में सपनों की जीवनदायी दुनिया की सैर करा दूँ। और जब बरसों की नींद पूरी कर, पौष्टिक खाना खा कर ताजा दम हो जाए यह पगला तो समझाऊँ कि अनवरत भागते चलने से प्रेम कण-कण झरता चलता है। प्रेम को बचाना है तो हृदय और बुद्धि - विवेक - को मजबूत कर समाज से दो-दो हाथ करे जो वर्जनाओं और परंपराओं की दुहाई देकर प्रेम को पनपने का अवसर ही नहीं देता। क्या वह नहीं देख पाता कि लैला को लील जाने वाली ताकतें आज खाप पंचायतों का नाम पाकर और भी ताकतवर हो गई हैं? क्या वह समझ नहीं पाता कि यदि उस जैसा हर संवेदनशील युवक पराजित होकर 'वन-वन डोलता' फिरा तो उसी का प्रतिद्वंद्वी अपराजेय मुद्रा में अपनी शठ व्यावहारिक बुद्धि के साथ प्रौढ़ होते-होते इन्हीं खाप पंचायतों पर कब्जा जमा कर उन्हें और प्रेमविरोधी-मनुष्यविरोधी बना देगा? कामू ने कहा भी है कि 'प्रेम का अर्थ है साथ-साथ बूढ़े होना'। 'साथ-साथ' यानी सह-अस्तित्व का भाव! क्या प्रेम की इससे बेहतर कोई और परिभाषा हो सकती है जो अपने साथ कबीर के औदात्य भाव - 'तूँ तूँ करता तूँ भया, मुझमें रही न हूँ' - को भी ले आती है। प्रेम बृहत्तर समाज के साथ मनुष्य मात्र को जोड़ता है, इसलिए आश्चर्य नहीं कि 14 फरवरी 2013 को वेलेंटाइन डे पर ही दुनिया भर के जागरूक लोग स्त्रियों (आधी दुनिया) पर की जाने वाली हिंसा के खिलाफ एकजुट हो रहे हैं। प्रेम-दिवस की इससे बड़ी सार्थकता और हो भी क्या सकती है भला?