जापानी खोज / रामचन्द्र शुक्ल
जापानी बौध्दों के अधिष्ठाता काउंट ओटनी का सेक्रेटरी टाशिबाना नामक एक बीस वर्ष का युवा जापानी मध्य एशिया में पुरावृत्ता के अनुसंधन के लिए निकला। जून 1908 में वह चीन की राजधानी पेकिक्ष् से कुछ छकड़े और टट्टू लेकर मंगोलिया के प्रधान नगर उरना की ओर गया। वहाँ से रेल मार्ग से वह उलियस्तामी गया। राह में उसने ओरखन नगर के खँडहरों को देखा जो किसी समय मंगोलों की राजधानी थी। यहाँ उइगर्की खाँका स्मारक मिला जिसमें कई शिलालेख सातवीं शताब्दी से कुछ पीछे तक के थे। वहाँ से काब्दो नगर देखकर उसने अल्टाई पर्वत को पार किया और चीनी तुर्किस्तान की राजधानी उसम्टाई में आकर कुछ दिन रहा। जाड़े में वह टरफन पहुँचा जो सोलहवीं शताब्दी तक एक समृध्द नगर था। उसके आसपास बौध्द मन्दिरों के बहुत से खँडहर हैं। टाशिबाना यहाँ एक महीने रहकर स्थानों को खोदकर छानबीन करता रहा। उसका परिश्रम सफल हुआ और उसे वहाँ कई बहुत प्राचीन बौध्द सूत्र मिले। इनमें से कुछ तो चौथी शताब्दी के थे और बाकी सातवीं के। जनवरी 1909 में वह टरफन से चलकर कारशर और कुर्ला आया जहाँ पहले डॉक्टर स्टीन ने कुछ छानबीन की थी। कुर्ला से उसकी मंडली दो दलों में बँट गई। एक दल तो व्यापार मार्ग से सीधे कारशर की ओर गया और दूसरा टारिम नदी के कछारों से होता हुआ लाबनार की झील की ओर बढ़ा। टाशिबाना इसी दूसरे दल के साथ चला क्योंकि उसे लूनन नगर की जाँच करनी थी। यह लूनन नगर एक प्राचीन राजवंश की राजधानी थी जिसने 200 ई. पू. से लेकर छठवीं शताब्दी तक राज्य किया। यहाँ पर उसने बहुत सी अमूल्य पुस्तकों को खोजकर निकाला। इसके अनन्तर वह चर्चिन और निया में गया जहाँ से उसने टारिम के रेगिस्तान की ओर कई चढ़ाइयाँ की पर हर बार पानी के अभाव के कारण वह लौटलौट आया। 6 जुलाई को वह काशगर आया और फिर दूसरे दल को भी साथ लेकर 27 अक्टूबर को लेह पहुँचा। काउंट ओटनी भी उस समय भारत की सैर करते हुए काश्मीर के सोनामर्ग नामक स्थान में पहुँचे हुए थे। वहीं पर टाशिबाना आकर उनसे सातवीं नवम्बर को मिला। इस तरह इस अल्पवयस्क साहसी जापानी युवक ने मध्य एशिया की छानबीन की जहाँ न जाने कितने हस्तलिखित ग्रन्थ गड़े पड़े हैं।
टाशिबाना भारतवर्ष में भी आया था और अपने साथ तीस लम्बे लम्बे प्राचीन हस्तलिखित खर्रे लाया था जिनमें पूर्ण और अपूर्ण बहुत से बौध्द सूत्र हैं। इनमें से एक तो उर्गा का है जो बारह गज लम्बा है। दूसरा लम्बाई में तीन फुट है। इनमें एक तरफ तो चीनी भाषा में बौध्दसूत्र हैं और दूसरी तरफ मंगोल भाषा में मंजुश्री की वन्दना है। इनके सिवाय छोटे छोटे पत्रों का बड़ा भारी संग्रह है जिनमें चीनी उरगर, कोक तुर्की और काशगर ब्राह्मी के लेख हैं। कुछ काठ के टुकड़े भी हैं जिनमें तिब्बती ब्राह्मी और ख्रोष्ठी लिपियाँ अंकित हैं। सबसे अधिक ध्यान देने योग्य एक चीनी राजदूत का 'स्थानिक राजाओं' के नाम एक पत्र है जिसमें वह अपने को 'पश्चिमी देशों का कार्यनिरीक्षक' लिखता है। इस पद का उल्लेख चीनी इतिहास में नहीं मिलता। ऐसा अनुमान होता कि पत्र का लेखक हन राजवंश की उस पिछली शाखा का कर्मचारी था जिसका शासन पहली और दूसरी शताब्दियों में था। पत्र पर कोई तिथि नहीं है, पर वह दूसरी शताब्दी के इधर का नहीं हो सकता।
काउंट ओटनी और टाशिबाना इन सब चीजों को लेकर योरप गए हैं। वहाँ इनकी जाँच होगी। एक महीना हुआ कि इन खर्रों और पत्रों को 'कलकत्ता मदरसा' के मिस्टर रास ने देखा था और बहुतों को पढ़ा था क्योंकि उनके अक्षर बहुत ही दिव्य और स्पष्ट हैं।
(नागरीप्रचारिणी प्रत्रिका, 15 फरवरी, 1910 ई )
[ चिन्तामणि: भाग-4]