जापान के चार हाइकु सिद्ध:डॉ.कुँवर दिनेश सिंह / सुधा गुप्ता

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डॉ.कुँवर दिनेश सिंह, हिन्दी-अंग्रेजी के प्रख्यात् विद्वान् कवि-समीक्षक जिनके अब तक हिन्दी-अंग्रेजी में लगभग दो दर्जन काव्य संग्रह / समीक्षा-समालोचना ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं-हाइकुकार के रूप में भी प्रशंसित-स्थापित हैं। आपके तीन हाइकु संग्रह 'आँगन में गौरैया' (2013) 'पगडण्डी अकेली' (2013) 'बारह मासा हाइकु माला' (2014) आ चुके हैं। सन् 2015 में आपका नवीन प्रयोग जापान के चार प्रमुख हाइकुकार बाशो, बुसोन, इस्सा तथा शिकी-प्रत्येक के पचास हाइकु का हिन्दी में अनुवाद पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। शीर्षक 'जापान के चार हाइकु सिद्ध' पढ़कर उसकी अर्थवत्ता ने आकृष्ट किया। उक्त चारो हाइकुकार जापान की साहित्यिक-सांस्कृतिक धरोहर के गौरवशाली शिखर है, उनके लिए 'सिद्ध' विशेषण का प्रयोग सर्वथा मौलिक है, अनूठा है। सिद्ध कौन है? जिसने साधना करके सिद्धि प्राप्त कर ली हो। सर्वविदित एवं सर्वमान्य है कि उपर्युक्त चारो हाइकुकारों ने हाइकु-काव्य की साधना कि थी-प्रत्येक का प्रदेय अपने युग का अनुपम उपहार है, जापानी काव्य-इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ है, काव्य साधना के बल पर उन्होंने 'सिद्धि' प्राप्त की थी अतः उन्हें 'सिद्ध' कहना सर्वथा समीचीन है, गम्भीर अध्ययन-मनन का प्रतिफल है।

प्रस्तुति के विषय में दो शब्द: कुँवर दिनेश की हर पुस्तक ऐसी नेत्र-रंजक होती है, जो बरबस दृष्टि को बाँध कर रख लेती है। मन में पैठने का प्रथम माध्यम चाक्षुष है। किसी भी वस्तु / व्यक्ति का रूप-रंग नेत्रें को आकृष्ट करे, वही सीधा मन तक पहुँचता है। यह पुस्तक भी अपवाद नहीं-आकार, रंग-रूप, प्रकाशन (छपाई) हर दृष्टि से रचनाकार की सुरुचि झलकती है।

इस अनुवाद की 'नवीनता' यह है कि हिन्दी में अनुवाद पूरी तरह हाइकु के फ्रेम में है-पाँच-सात-पाँच का सार्थक क्रम-निर्वाह बहुत समय व श्रम माँगता है, जो उसे मिला है, अन्त्यानुप्रास, आन्तरिक लय, ललित पदावली-सब कुछ मिल कर प्रत्येक अनुवाद (हाइकु) पाठक को रसानुभूति कराने में समर्थ है।

इससे पूर्व अनेक प्रख्यात् रचनाकारों ने जापानी हाइकु के अनुवाद किए हैं , किन्तु हाइकु का फ्रेम कहीं उपलब्ध नहीं है, तीन पंक्तियों में वर्ण-सीमा को त्यागकर कहीं चार, तीन, पाँच, सात वर्ण भी प्रयोग में लाए गए हैं।

उदाहरण स्वरूप केवल एक हाइकु-

बाशो के यात्रा-विवरण में 'ताकायाची' दुर्ग के खण्डहरों में घूमते हुए, शत्रु-सेना से युद्ध में शहीद हुए महान योद्धाओं के अवशेष (स्मारक) देख कर एक हाइकु रचा गया था जो अत्यंत लोकप्रिय हुआ। अंग्रेजी, फ्रैंच, जर्मन, रूसी जैसी भाषाओं में अनूदित हुआ। अपने शोध प्रबन्ध 'जापानी हाइकु और आधुनिक हिन्दी कविता' (प्रथम संस्करण 1983) में डॉ.सत्यभूषण वर्मा ने इस हाइकु का शब्दार्थ यों दिया-

ग्रीष्म की घास / योद्धाओं के / स्वप्नों के अवशेष

अज्ञेय ने इसका अनुवाद किया-

यह सावन की दूब / हरे सपने ये / खेत रहे वीरों के (पृष्ठ 75) जैसा कि पाठक पाएंगे कि अनुवादकों ने वर्ण-क्रम का निर्वाह न करते हुए, 'कवि-स्वातन्=य' का अधिकार प्रयोग में लाकर कम या अधिक वर्णों का इस्तेमाल किया है। कुँवर दिनेश ने मूल भाव को क्षति न पहुँचाकर अनुवाद किया है-

ग्रीष्म घास में / पुराने योद्धाओं के / शाही सपने (पृष्ठ 19)

कुँवर दिनेश का प्रस्तुत संग्रह द्विभाषी नहीं-मूल अर्थात् अंग्रेज़ी अनुवाद जिससे आपने अनुवाद किया है, 'आमुख' में ईमानदार स्वीकार जो मुग्धकारी है, वह यहाँ उपलब्ध नहीं है अतः तुलनात्मक समीक्षा सम्भव नहीं है, फिर भी, अनेक जिज्ञासु हाइकु-प्रेमी जो अध्ययन प्रिय भी हैं और अनुवाद द्वारा जापानी हाइकुकारों के हाइकु से परिचित भी, इस अनुवाद को पढ़कर मूल हाइकु को पहचान सकते हैं। आरम्भ में जब मैंने यह प्रस्तुति पढ़नी शुरू की तो कुछ प्रयत्न और पूर्व अध्ययन के कारण अति चर्चित हाइकु पहचान भी लिये, किन्तु बाद में कुँवर दिनेश के अनुवाद इतने अच्छे लगे कि उन्हें उपर्युक्त चार 'सिद्ध' (हाइकुकारों) के मूल हाइकु मानकर पढ़ने लगी-सचमुच काव्यानन्द का निर्झर फूट पड़ा!

शब्द-सम्पदा का अकूत भण्डार

कुँवर दिनेश द्वारा सृजित काव्य में उनकी शब्द-सामर्थ्य, चयन-सुरुचि एवं गम्भीर अध्ययन द्वारा अर्जित भाषा पर अधिकार ने विशिष्ट सौन्दर्य की सृष्टि की है। बाशो का ही एक अति प्रसिद्ध हाइकु है जिसका अनुवाद उन्होंने यूँ किया है:

राह किनारे / वह जंगली गुलाब / घोटक चरे (पृष्ठ 19)

जिज्ञासु पाठक 'घोटक' पर थोड़ी देर को अटक सकता है, शब्दकोश की शरण में जाएगा (आजकल यह शब्द आम बोल-चाल की प्रतियोगिता में पीछे पड़ते-पड़ते प्रायः लुप्त ही हो गया है) अर्थ मिलते ही खिल उठेगा (घोटक = अश्व, घोड़ा) । हाइकु का पूरा बिम्ब साकार हो जाएगा। विचारणीय बिन्दु तो यह है कि तीसरी पंक्ति में पाँच वर्ण लाने के लिए अनुवादक ने कितना सोच विचार किया होगा, शब्द-सागर में डुबकी लगाकर 'घोटक' को पकड़कर ले आया होगा। वस्तुतः शब्दों के उपयुक्त चुनाव के प्रति उनका यह मोह उल्लेखनीय है। अनायास शब्दालंकारों की शृंखला इसी अध्यवयाय का सुपरिणाम है-

कोयल कूके / कांतार कानन में / चंदा चमके

कुँवर दिनेश द्वारा अनूदित चार 'सिद्ध' के हाइकु के अन्तरंग में प्रवेश करने हेतु कुछ हाइकु से साक्षात् करते हैं।

उदारमना संत, यायावर बाशो की प्राणिमात्र के प्रति सदाशयता, प्रकृति के प्रति अटूट लगाव, सीधा-सादा सरल जीवन और हाइकु-सृजन के प्रति गम्भीर साधना, जापानी हाइकु के उत्कर्ष का प्रथम सोपान है।

गौशाला पर / शिशिर की बारिश / कागा का स्वर

शीत-लहर / सारस भीगा-भीगा / पुलिन पर

मैं चाहता हूँ / संसार की धूल को / ओस में धो लूँ

मैं हूँ बटोही / हो मेरा नाम यही / शीत की झड़ी

बुसोन 'शब्द शिल्पी' के रूप में विख्यात थे। वस्तुतः वह प्रथमतः चित्रकार थे, द्वितीय स्थान पर उनका हाइकुकार था। कवि हो या चित्रकार, सूक्ष्म पर्यवेक्षण उसका प्रधान गुण है, बुसोन के हाइकु प्रत्यक्ष प्रमाण हैंः-

गाती गौरैया / नन्हा मुँह उसका / देखो है खुला (पृ-26)

ओस चमके / एक-एक बूँद है / हर काँटे पर (वही)

चेरियाँ झरें / अब देखो मन्दिर / डालियों में से (पृ-30)

घोंघा स्वच्छन्द / बरखा कि बूँद से / हो गया बंद (पृ-32)

कोबायासी इस्सा का दुर्दैव-मारा, अभागा, उपेक्षित शैशव एक दुःख भरे, सूने अकेलेपन से घिरा-भरा था अतः छोटे-छोटे जीव-मातृहीन गौरैया, मेंढक, टिड्डे, नन्हा झींगुर आदि उसकी करुणा भरी मैत्री के पात्र थेः-

है थकी-हारी / बच्चों के जुटाव में / चिड़ी बेचारी (पृ-39)

मेंढक व मैं / पुतलियों की बात / पुतलियों से (पृ-37)

अरे ओ टिड्डे / मत तोड़ मोती ये / ओस बूँदों के (पृ-41)

हम दोनों ही / काट रहे ज़िन्दगी / मैं और पॉपी (पृ-46)

शिकी तरुणाई में ही क्षय रोग ग्रस्त हो गए थे, रोगजन्य दौर्बल्य, शारीरिक क्षमताओं का चुकते जाना, गृहस्थी के कार्यों में माँ तथा छोटी बहन पर निर्भरता-उनका हाथ न बँटा पाना आदि क्लेश, अधूरी इच्छाएँ, आसन्न मृत्यु का अहसास उनके हाइकु इनके दर्पण बन गए हैंः-

मेरी ज़िन्दगी / अब कितनी बची / छोटी है निशि (पृ-49)

फैलाती जाल / चढ़ रही मकड़ी / गुलाब लाल (पृ-51)

बहन मेरी / काटती लकड़ियाँ / शीत सहे री (पृ-55)

मैं तो जा रहा / तुम रुक रहे हो / शरद दो का (पृ-54)

चम्मच भरी / आइसक्रीम लगे / संजीवनी-सी (पृ-52)

जापानी हाइकु का यह हिन्दी अनुवाद सराहनीय ही नहीं, अब तक मेरे पढ़े गए अनुवादों में अद्वितीय है, अनुवाद कर्त्ता साधुवाद के अधिकारी हैं।

सर्वांग सुन्दर इस साहित्यिक उपहार को 'नजर' से बचाने के लिए एक 'काला टीका' भी लगा दिया गया है-चाँद, चाँदनी, धुँआ, चाँदी, साँझ जैसे सर्वथा शुद्ध वर्तनी वाले प्रयोग तो ठीक, किन्तु चँदा, धुँन्ध, कुँज (पृ-18) जैसे अनेक प्रयोग चिन्त्य हैं, खटकते हैं। निश्चय ही यह प्रेस की भूल / असावधानी रही होगी, भाषा के धुरंधर विद्वान् को दोषी मानने की कल्पना ही नहीं की जा सकती।

समापन में दो शब्दः हिमाचल की रानी-राजधानी-प्रकृति-सौन्दर्य की साम्राज्ञी शिमला के स्थायी निवासी संवेदनशील भावुक रचनाकार की प्रखर मेधा, सौम्यशालीन अभिरुचि, अभिजात सृजनशील प्रतिभा का सर्वोत्तम उपयोग यह होगा कि स्वतंत्र मौलिक हाइकु सर्जना कि जाए (अनुवाद हो या समीक्षा, अन्ततः तो यह रचना कि पुनर्रचना ही है / यूँ अनुवाद विश्व-साहित्य का झरोखा भी खोलता है। कुँवर दिनेश की अनुभूति एवं शिल्प का संतुलन हिन्दी हाइकु-काव्य संसार को ऐसे हाइकु देने में समर्थ है कि जिनसे हाइकु काव्य-कोश समृद्धिवान एवं ऐश्वर्यवान् होगा। शेष रचनाकार की जैसी इच्छा।