जा य ते वर्णसंकर: / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती
गीता के पहले अध्याशय के 'अधर्माभिवात् कृष्ण' (1। 41) श्लोक में वर्णसंकर के मानी में भी अकसर गड़बड़ हो जाती है। वर्णसंकर का शब्दार्थ है वर्णों का संकीर्ण हो जाना या मिल जाना। जब वर्णों की कोई व्यवस्था न रह जाए तो उसी हालत को वर्णसंकर कहा जाता है। बात असल यह है कि हिंदुओं ने जो वर्णों की व्यवस्था बनाई थी वह उस समय के समाज की परिस्थिति और प्रगति के अनुकूल ही थी। उनने यह अच्छी तरह देख लिया था कि समाज कहाँ तक उन्नति कर गया, आगे बढ़ गया और किस हालत में है - उसकी प्रगति वैसी ही तेज है, रुक गई है या बहुत ही धीरे-धीरे चींटी की-सी चाल से चल रही है। बस, यही बातें देख के इन्हीं के अनुकूल वर्णों की व्यवस्था उस समय बनी थी और यह बनी थी जीवन-संग्राम (Struggle for existence) का खयाल करके ही।
पुराने जमाने में युद्ध करने वाली सेना के चार विभाग होते थे, जिन्हें पैदल, रथवाले, घुड़सवार और हाथीसवार कहते थे। तोपखाना आज की तरह अलग न था; किंतु इन्हीं चारों के साथ आवश्यकतानुसार जुटता था। उनका रथ बहुत व्यापक अर्थ में बोला जाता था। इसीलिए कहा जाता है कि राम-रावण के युद्ध में राम के पास रथ न होने के कारण देवताओं ने भेजा था। वह रथ तो कोई हवाई जहाज जैसी ही चीज होगी। यह भी मिलता है कि वैसे ही रथ से राम जंगल से अयोध्या वापस आए थे। इसीलिए आज का हवाई जहाज भी उसी में आ जाता है। समुद्री जहाजों की लड़ाई तब तो थी नहीं। फिर भी वे तो रथ के भीतर ही आ जाते हैं। अंतर यही है कि वह रथ पानी में चलने वाला होता है। पनडुब्बी जहाज पानी के भीतर ही चलते हैं। इसीलिए आज भी पैदल (Infantry), घुड़सवार (Cavalry), तोपखाना (Artillery) जहाजी बेड़ा (Navy) और हवाई सेना (Airforce) इन पाँच विभागों के बावजूद हवाई जहाज की स्वतंत्र हस्ती नहीं है। वह चारों का ही साथी जरूरत के अनुसार बन जाता है, जैसे पहले तोपखाने की बात थी। इससे यह बात निकलती है कि युद्ध के लिए सेना के साधारणत: चार विभाग जरूरी होते हैं।
इसी दृष्टि से प्राचीनों ने जीवन संघर्ष को ठीक-ठीक चलाने और मानव समाज को उसमें विजयी बनाने के लिए उसके भी चार विभाग किए थे - समाज - को चार हिस्सों में बाँटा था; जिन्हें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र कहते थे और अब भी कहते हैं। उनने अध्यासत्मवाद, पुनर्जन्म और परलोक का भी सिद्धांत स्वीकार किया था इसीलिए वर्णों के ही कार्यों की पुष्टि एवं सहायता के लिए चार आश्रम भी बनाए गए थे। ये आश्रम विद्यार्जन, तप, समाधि आदि के जरिए चारों वर्णों के लौकिक-पारलौकिक हित साधन में ही मदद करते थे। गृहस्थ आश्रम तो साफ ही है। मगर ब्रह्मचर्य का काम था सभी विद्याएँ पढ़ना तथा वानप्रस्थ का था तप और सरदी-गरमी को सहन करके समाधि के लिए अपने को तैयार करना। संन्यासी का काम था ध्याऔन और समाधि के द्वारा आत्मज्ञान को पूर्ण बनाना। यही लोग गृहस्थों और दूसरों को भी ज्ञानोपदेश के द्वारा कर्मयोगी बनाते थे।
वर्णों की हालत यह थी कि ब्राह्मण का काम था सभी प्रकार के ज्ञानों को पूर-पूरा हासिल करना। यहाँ तक कि गृहस्थ लोग ही ज्येष्ठ आश्रमी माने जाते थे। ब्राह्मण का ज्ञान पूर्ण होने पर वही सभी में - शेष क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तीनों में - उसका पूरा प्रसार करते थे। इसीलिए सभी वर्णों के गृहस्थ ज्ञान दाता माने जाते थे। अंबरीष ने क्षत्रिय हो के भी दुर्वासा जैसे ब्राह्मण ऋषि को ज्ञान दिया था। जनक की भी यही बात थी। उपनिषदों में प्रतर्दन आदि राजाओं के बारे में तो यहाँ तक लिखा है कि पंचाग्नि विद्या जैसी चीजें वही जानते थे आरुणि जैसे प्रगाढ़ विद्वान ब्राह्मणों को भी मालूम न थीं। इसी प्रकार तुलाधार वणिक और जाजलि ब्राह्मण का संवाद महाभारत के शांतिपर्व में आता है जिसमें ब्राह्मण को बनिये ने ज्ञानोपदेश किया है। शूद्र की बात तो इतनी बड़ी है कि साक्षात धर्म व्याध की ही कथा महाभारत में है जहाँ संन्यासी तक ज्ञान सीखने जाते थे। इसीलिए मनु ने तीसरे अध्यातय में कहा है कि 'गृहस्थ ही तो शेष तीन आश्रमवालों को अन्न और ज्ञान देकर कायम रखता है। इसीलिए वही चारों में बड़ा आश्रम हैं' - "अस्मात्रयोऽप्याश्रमिणो ज्ञानेनान्ननेनचान्वहम्। गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्जयेष्ठाश्रमोगृही" फिर भी ब्राह्मणों का ही प्रधान काम रखा गया था कि विद्या देना और ज्ञान का प्रचार करना।
असल में जब तक एक दल समाज में ऐसा न हो जिसका काम ही हो अंवेषण, जाँच-पड़ताल, प्रयोग और सोचना-विचारना तब तक ज्ञान का विकास असंभव है। खासकर उस जमाने में जब आज की तरह ज्ञान के साधनों का विकास हो पाया न था और न ऐसे यंत्र ही बन पाए थे जो आज पाए जाते हैं। यातायात के साधन भी ऐसे न थे कि दुर्गम से भी दुर्गम स्थानों में जाया जा सके। उस दशा में सभी प्रकार की शोध और अंवेषण वगैरह की प्रगति के लिए यह जरूरी था कि समाज का एक भाग हर तरह से निश्चिंत करके इसी काम के लिए छोड़ दिया जाए। उपनिषदों और दूसरे ग्रंथों में जो ऋषियों एवं विद्वानों की गोष्ठियों तथा सभाओं के बार-बार वर्णन पाए जाते हैं। वह उन्हीं ब्राह्मणों की वैसी ही कान्फ्रेंसें थीं। जैसी आजकल दर्शन, विज्ञान आदि की कान्फ्रेंसें हुआ करती हैं। अपने-अपने अनुभवों को वहाँ प्रकट करके मिलान की जाती थी और कोई न कोई निष्कर्ष निकाला जाता था।
इसी प्रकार शासन और व्यवस्था के लिए भी समाज का एक विभाग अलग कर दिया गया था जिसे क्षत्रिय नाम दिया गया। इसमें भी वह बात है जो ब्राह्मण के सिलसिले में कही गई है। शासन का काम बड़ा ही पेचीदा है। अमन एवं शांति बराबर बनाए रखना ताकि समाज ठीक-ठीक प्रगति कर सके, मामूली काम नहीं है। युद्ध विद्या को व्यावहारिक रूप देना और उसे पूर्णता को पहुँचाना असंभव-सी चीज है। सभी दिमागी कामों के बीच में ब्राह्मणों के लिए गैरमुमकिन था कि युद्ध विद्या को अमली रूप में शिखर पर पहुँचा दें। द्रोण या कृप की तरह कोई-कोई ऐसा करें भी तो सभी ब्राह्मणों के लिए यह असंभव बात थी। और जब तक सामूहिक रूप से लाखों लोग यह काम न करें शत्रुओं से सफलतापूर्वक लोहा लेना असंभव था। द्रोण वगैरह इस काम में पड़े तो दूसरी विद्याओं की उतनी जानकारी उन्हें भी नहीं रही। इसीलिए क्षत्रिय नाम का एक जुदा वर्ण शासन और युद्ध के विज्ञान में पारंगत होने के ही लिए बनाया गया।
मगर जब तक खेती-बारी और रोजगार-व्यापार अच्छी तरह से न हो न तो ब्राह्मण का ही काम चल सकता है और न क्षत्रिय का ही । जैसे फौज के कमिसरियट विभाग के बगैर सभी सेना, अन्न, वस्त्रादि जरूरी चीजों के बिना ही खत्म हो जाए। ठीक वही बात वर्णों के बारे में भी समझना चाहिए। इसीलिए तो वैश्य नामक तीसरा वर्ण बनाया गया जो खेती-बारी के द्वारा अन्न, दूध, घी आदि उपजाए और व्यापार के जरिए वस्त्रादि दूसरी जरूरी चीजें मुहैया करे। अधिकांश व्यापार तो पहले जमीन से उत्पन्न चीजों का ही होता था। आज के कारखाने तो पहले थे नहीं। इसीलिए वैश्य का ही काम खेती और व्यापार दोनों ही रखा गया। फौज आदि के लिए सामूहिक रूप से भी अन्न-वस्त्र और अस्त्र-शस्त्रादि वही जमा कर सकता था। इसीलिए व्यापार भी उसी के हाथ में था।
अब समाजोपयोगी एक ही तरह का काम बच जाता है जिसे कारीगरी कहते हैं। इसमें दिमाग और शरीर दोनों के ही पूरे-पूरे सहयोग का सवाल आता है। पहले के तीनो वर्ण यह कर न सकते थे। उनके काम ऐसे हो गए कि दूसरी बात में पड़ने पर उनसे वह काम भी पूरे न हो पाते। एक बात यह भी है कि कारीगरी में हजारों बातें हैं। अस्त्र-शस्त्र बनाना, कपड़ा बनाना, यंत्रादि बनाना वगैरह। फिर इनमें भी कितने ही विभाग हो जाते हैं। इसीलिए इन सभी के लिए एक दल ऐसा ही चाहिए जो बाँट के एक-एक काम ले और उसे न सिर्फ पूरा करे, किंतु उसमें पूर्ण प्रगति करे, नए-नए आविष्कार करे। इसी के साथ मौके-बे-मौके ब्राह्मणादि तीनों वर्णों के भी काम कर सके। जरूरत आने पर ब्राह्मण का काम करे और आवश्यकता होने पर क्षत्रिय या वैश्य का। सारांश यह कि उक्त तीनों वर्णों के लिए संरक्षित शक्ति (Reserve Force) का काम दे। इसीलिए चौथा वर्ण बना जिसे शूद्र कहते हैं और उसमें भी लुहार, बढ़ई आदि सैकड़ों छोटे-छोटे विभाग हो गए। हमने सभी पुरानी पोथियों को देखा है। उनमें सभी तरह के दस्तकारों और कारीगरों को शूद्र ही कहा है।
शूद्र सभी वर्णों की कमी को भी पूरा (Supplement) करता था यह बात भी माननी ही होगी। इसीलिए तो ऐसे अनेक आख्यान पुराने ग्रंथों में मिलते हैं जिनसे पता चलता है कि ब्राह्मण और क्षत्रिय को भी कभी-कभी शूद्र कह देते थे। छांदोग्य-उपनिषद के चौथे अध्या्य के पहले दो ब्राह्मणों में जानश्रुति राजा और रैक्व ऋषि का आख्यान आया है और चौथे में सत्यकाम जाबाल ऋषि का। रैक्व ने जानश्रुति को दो बार शूद्र कहा है - 'तमुह पर: प्रत्युवाचाह हारेत्वा शूद्र तवैव सहगोभिरस्तु' (4। 2। 3) तथा 'तस्याह मुखमुपोद्गृह्वन्नु वाचाजहारेमा: शूद्रानेनैव मुखेन्त लापयिष्यथा: (4। 2। 4)। रैक्व ने दोनों जगह जानश्रुति राजा को शूद्र कह के पुकारा है। सत्यकाम की बात ऐसी है कि जब अपनी माता जाबाला से आज्ञा लेने लगे कि मैं कहीं ब्रह्मचारी बन के पढूँगा-लिखूँगा तो उनने पूछा कि मेरा गोत्र तो बता दे, ताकि पूछने पर कह सकूँगा। इस पर माता ने कहा कि मैं भी नहीं जानती। मैं तो नौजवानी में इधर-उधर भटकती थी। उसी बीच तेरा जन्म हुआ और मेरा नाम जाबाला होने से तेरा नाम सत्यकाम जाबाल रखा गया। पीछे जब सत्यकाम हारिद्रुमत गौतम के पास गए और उनके पूछने पर अपने गोत्र के बारे में सारा हाल कह सुनाया तो गौतम ने कहा कि तुम जरूर ब्राह्मण हो। क्योंकि जो ब्राह्मण न हो वह ऐसी साफ बात बोल नहीं सकता - 'नैतद ब्राह्मणो विवक्तुमर्हति' (4। 4। 5)। जिसके बाप का ठिकाना हो उसे तो वर्णसंकर और ज्यादे से ज्यादा शूद्र ही कहते हैं। मगर उनने ब्राह्मण मान लिया। और कारण भी कितना सुंदर है कि उसने अपना कच्चा चिट्ठा जो कह दिया! ऐसा तो शूद्र या दूसरे वर्णवाले भी कर सकते हैं। करते हैं! इसी से मानना पड़ता है कि शूद्र सभी वर्णों का रिजर्व भी माना जाता था।
इस प्रकार समाज के कार्य-संचालन के लिए और उसकी पूर्ण प्रगति के खयाल से भी समाज को चार दलों में बाँटा गया। ऐसा करने में, जैसा कि गीता ने कहा है (4। 13, 18-41-44), आदमियों की स्वाभाविक प्रवृत्तियों और सत्त्वादि गुणों का भी शुरू-शुरू में खयाल किया गया। नहीं तो यों ही कैसे किसी को ब्राह्मण बना देते तो किसी को शूद्र? यही काम करने में उनके शरीरों के रंग (वर्ण) से भी मदद ली गई। तीनों गुणों के रंगों की कल्पना तो उन लोगों ने की थी ही। इसीलिए आदमियों के शरीर के रंगों या वर्णों को देखने के बाद उनके गुणों और तदनुसार स्वभावों का निश्चय करके ही उन्हें काम बाँटे गए। फिर वे अलग-अलग कर दिए गए। यदि स्वभाव एवं रुचि के अनुसार काम न दिया जाता तो सब गुड़ गोबर जो हो जाता। कोई भी वर्ण अपना काम ठीक-ठीक पूरा न कर पाता। इसी वर्ण या रंग का खयाल करके ही चारों को वर्ण कहा। वर्ण विभाग शब्द का भी यही मतलब है। इसीलिए महाभारत के शांतिपर्व के मोक्ष धर्म के 188वें अध्या य में भृगु का वचन इस प्रकार लिखा गया है, 'न विशेषोऽस्तिवर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत। ब्रह्मणापूर्व सृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम॥10॥ कामभोग प्रियास्तीक्ष्णा: क्रोधना: प्रियसाहसा:। त्यक्तस्वधर्मा रक्तांगास्ते द्विजा: क्षत्रतां गता:॥11॥ गोभ्यो वृत्तिं समास्थाय पीता: कृष्युपजीविन:। स्वधर्मान्नानुतिष्ठन्तितेद्विजावैश्यतां गता:॥12॥ हिंसानृतप्रिया लुब्धा: सर्वकर्मोपजीविन:। कृष्णा: शौचपरिभ्रष्टा स्तेद्विजा शूद्रतां गता:॥13॥ इत्येनै: कर्मभिर्व्यस्ता द्विजावर्णान्तरं गता:। धर्मो यज्ञक्रियातेषां नित्यं न प्रतिषिध्यते'॥14॥ इन श्लोकों का आशय यह है - 'शुरू शुरू में तो वर्णों का विभेद था ही नहीं, संसार में सभी ब्राह्मण ही थे। क्योंकि ब्रह्मा ने ही तो सबको पैदा किया था। मगर पीछे विभिन्न कामों के करते अनेक वर्ण हो गए। जिन ब्राह्मणों (ब्रह्मा के पुत्रों) को पदार्थों के भोग में ज्यादा प्रेम था, जो रूखे स्वभाव के और क्रोधी थे और जो बहादुरी की ओर बहुत ज्यादा झुकते थे ऐसे रक्त वर्णवाले ब्राह्मण ही जो अपना कर्तव्य छोड़ देने के कारण क्षत्रिय हो गए। जो पोले शरीरवाले गौ आदि पशुओं को पालते और खेती से जीविका करने लगे थे, साथ ही जो अपना (ब्राह्मण का) धर्म करते न थे वही वैश्य हुए। जो हिंसा और असत्य की ओर अधिक झुकते थे, लोभी थे, काले वर्ण के थे, सफाई से नहीं रहते थे और सभी काम करते थे वही ब्राह्मण शूद्र हो गए। इस प्रकार अलग-अलग कर्मों के चलते एक ब्राह्मण समाज ही अनेक वर्णों में बँट गया। इसीलिए तो सभी के पहचान स्वरूप यज्ञ की क्रिया सभी के लिए जरूरी बताई गई है। किसी के लिए उस यज्ञ की मनाही नहीं है।'
इन श्लोकों से कई बातें साफ होती हैं। एक तो यह कि एक समय ऐसा भी था जब वर्ण विभाग बिलकुल था ही नहीं। सभी एक ही थे। पीछे वर्णों का विभाग बना। दूसरी चीज यह कि पहले सभी ब्राह्मण ही थे। क्योंकि सभी ब्रह्मा के पुत्र थे। ब्रह्मन शब्द से ब्रह्मा बनता है और ब्राह्मण भी। ब्राह्मण का अर्थ ही ब्रह्मा का पुत्र। द्विज तो उन्हें इसीलिए कहते हैं कि उनके दो जन्म (द्वि+ज) होते हैं। एक माता-पिता वाला और दूसरा गायत्री संस्कारवाला। तीसरी बात यह कि ये जो वर्ण-भेद हुए वह स्वभाव तथा क्रिया (काम) की विभिन्नता एवं शरीर के रंग (वर्ण) की विभिन्नता से ही। इस तरह जो अनेक वर्ण बने उन्हें अपनी असली हालत (ब्राह्मणता) से पतन माना गया यह चौथी बात है। इससे पता लगता है कि एक समय ऐसा जरूर था जब किसी भी प्रकार के विभाग की जरूरत न थी इसे ही प्रारंभिक साम्यवादी अवस्था (Primitive communism) कहते हैं। पाँचवीं बात यह है कि शूद्रों के बारे में लिखा है कि वे सभी काम करने लगे 'सर्वकर्मोपजीविन:'। इससे दो बातें सिद्ध हो जाती हैं, एक तो यह कि शूद्र सभी वर्णों के रिजर्व का काम करते थे। दूसरी यह कि उन्हें कला-कौशल और दस्तकारी वगैरह के हजारों काम करने पड़ते थे। छठी बात यह कि सभी को जो यज्ञ करने की छुट्टी है और इसकी रोक न हो के करने पर ही जोर दिया गया है उससे पता लगता है कि फिर उसी ओर इन्हें जाना है जहाँ से आए थे। इन्हें यह यज्ञ याद दिलाता है कि पुनरपि उसी साम्यवादी अवस्था को प्राप्त करना है। यज्ञ का अर्थ है भी बहुत व्यापक, जैसा कि पहले ही भाग में लिखा जा चुका है। इन श्लोकों ने सभी वर्णों के स्वभावों का अच्छा चित्र खींचा है।
यहीं पर एक बात और जानने की है जिसका ताल्लुक वर्णसंकर से है। जब एक बार वर्णों का विभाग हो गया तो इस बात की पूरी व्यवस्था कर दी गई कि फिर खिचड़ी होने न पाए - फिर ऐसा न हो कि वर्णों की खिल्लत-मिल्लत हो जाए। चाहे इस बात पर कितने ही आक्षेप किए जाए - और दुनिया में निर्दोष तो कुछ भी नहीं है - लेकिन ऐसा करने में उनका एक खास मतलब था। वे यह मानते थे और आज के अंवेषण तथा विज्ञान से भी यह बात सिद्ध हो चुकी है कि जो काम पुश्त दर पुश्त से होता रह जाए वह एक प्रकार का स्वभाव बन जाता है। फलत: पीछे चल के जो लोग उस वंश में पैदा होते हैं वह उस काम में क्रमश: ज्यादे से ज्यादा विशेषज्ञ होते जाते हैं। बढ़ई का पेशा जिन वंशों में होता हो उनके बच्चे स्वभावत: उस कार्य में कुशल होते हैं। वे उसके संबंध में नए-नए आविष्कार आसानी से कर लेते हैं। कर सकते हैं। यही बात दूसरे पेशों, दूसरे कामों की भी है।
यही कारण है कि वर्णों के लिए जो व्यवस्था बनी उसमें विवाह-शादी और खान-पान की बड़ी सख्ती रखी गई। असल चीज है रक्त की शुद्धि जिसका मतलब यही है कि यदि उसी पेशे या काम के माँ-बाप होंगे और उनमें जरा भी गड़बड़ी न होगी, जैसी कि पशु-पक्षियों में पाई जाती है कि एक ही ढंग के पशु-पक्षियों के जोड़े लगते हैं, तो उनसे जो बच्चा होगा उसका संस्कार उस पेशे के बारे में और भी तेज होगा। वह उस काम में साधारणत: और भी कुशल होगा - कम से कम उसकी कुशलता का सामान तैयार तो होगा ही। विभिन्न वर्णों की परस्पर विवाह-शादी को सख्ती से रोकने का यही अभिप्राय था। जब कहीं उस रोक में कुछ ढिलाई भी की तो उसे ठीक न कह के वासनायुक्त शादी - कामतस्तु प्रवृत्तानां - कह दी। आखिर ब्राह्मण पिता और क्षत्रिय माता या विपरीत माता-पिता से जो संतान होगी वह किसका संस्कार रखेगी? दोनों के तो संस्कार दो ढंग के ठहरे जो मेल खाते नहीं। अब अगर परस्पर विरोध हो गया तो दोनों ही एक दूसरे को खत्म ही कर देंगे। खान-पान वगैरह की सख्ती भी इसी संस्कार की ही मजबूती और रक्षा से ताल्लुक रखती है और स्वास्थ्य से भी। उस स्वास्थ्य का आखिरी असर भी संस्कारों की ही मजबूती पर पड़ता है।
जिस प्रकार चित्र में तीन चीजें होती हैं। एक तो आधारभूत कागज, दीवार या कपड़ा वगैरह। दूसरा उसी पर रंग भरना। तीसरा किसी ढाँचे (Frame) के भीतर लगा के रखना। इनमें फ्रेम या ढाँचे तो सिर्फ रक्षार्थ है। ताकि बाहरी हवा-पानी से रंग फीका न पड़े या घिस न जाए। आधारवाले कागज वगैरह भी जरूरी हैं। अगर वे ठीक न हों तो न रंग ठीक भरेगा और न चित्र ठीक उतरेगा। मगर रंग भरना यही असली चित्रकारी है, चित्र है। फिर भी आधार भी जरूरी है और किसी हद तक बाहरी शीशे आदि का ढाँचा या फ्रेम भी।
यही बात वर्णों की भी समझिए। एक ही काम या पेशेवाले माँ-बाप का होना आधार स्वरूप कागज या दीवार की तरह है। आखिर छायाचित्र या फोटो सभी शीशों पर नहीं उतरता। उसके लिए खास ढंग की शीशे वाली पटरी (Plate) चाहिए। संस्कार की बात भी कुछ उसी से मिलती-जुलती है। उसके बाद जो संतान हो उसे उचित शिक्षा आदि देना यही रंग भरना है और यही असल चीज है, असल चित्र है। खान-पान आदि का संयम और विवाह-शादी की सख्ती तीसरी चीज है जो ढाँचे या फ्रेम का काम देती है। इसीलिए प्राचीन स्मृतिकारों ने लिखा है कि 'तप: श्रुतं च योनिश्च एतद् ब्राह्मण कारणम्। तप: श्रुताभ्यां मोहीनो जाति ब्राह्मण एव स:' (पातंजल महाभाष्य: 5। 1। 115) 'संयम, सदाचार आदि तप, विद्या और ब्राह्मणी ब्राह्मण से जन्म ये तीनों मिलके ब्राह्मण बनाते या पक्की ब्राह्मणता लाते हैं। इसीलिए जिनमें तप और विद्या न हो वह नाममात्र के - कहने के ही लिए - ब्राह्मण हैं।' यही बात क्षत्रियादि के संबंध में भी है। महाभाष्य के शुरू में ही पतंजलि ने जो कहा है कि ब्राह्मण का तो बिना किसी कारण या प्रयोजन के ही वेद-वेदांग को पढ़ना और जानना कर्तव्य है - 'ब्राह्मणेन हि अकारणो धर्म: षडगोवेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च' उसका भी यही मतलब है। बिना ऐसा किए वह ब्राह्मण हो ही नहीं सकता।
इससे वर्णों के निर्माण की बुनियादी बात का पता चल गया और मालूम हो गया कि उनकी क्या जरूरत थी। आज तो ऐसा पतन हो गया है कि सारी चीजें धोखे की टट्टी और मौरूसी बन गई हैं। ब्राह्मणादि बनने का दावा तो अंध परंपरा की चीज हो गई है। वर्णों में छोटे-बड़ेपन का भूत ऐसा घुस गया है और नीच-ऊँच की बात हमारे दिमाग में इस कदर घर कर गई है कि कुछ कहा नहीं जाता। ये निराधार बातें कहाँ से कैसे घुस गईं यह कहना मुश्किल है। मगर पतन के साथ ऐसा होता ही है यह निर्विवाद है। पहले तो विश्वामित्रादि के संबंध में इस नियम का अपवाद भी होता था। मगर अब तो नियम का मूल मिट्टी में मिलाकर जब सारी बातें अंध परंपरा एवं मूर्खता के ही आधार पर बनी हैं तो वह अपवाद भी जाता रहा! जैसा कि पहले कहा जा चुका है और अभी-अभी कहा है, वर्ण विभाग के भीतर नीच-ऊँच या छोटे-बड़े की तो बात कभी आई ही नहीं। यह तो दिल-दिमाग की बनावट के अनुसार स्वाभाविक प्रवृत्ति देख के ही सामाजिक कामों का बँटवारा मात्र था, जिसने समाज की रक्षा और प्रगति निराबाध रूप से उस जमाने में हो सके जब आज जैसी परिस्थिति न थी।
यही कारण है कि वर्णसंकर को उस समय बहुत बुरा मानते थे। क्योंकि किसी पेशे या वर्ण की माँ और किसी के बाप के संयोग से जो संतान होगी वह साधारणत: समाज की प्रगति में सहायक हो सकती नहीं। अपवाद स्वरूप कुछ लोगों में भले ही कुछ खास बातें हो जाए। मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह व्यवस्था लक्ष-लक्ष लोगों के लिए आम तौर से थी और यह बात दूसरे ढंग से हो सकती न थी। सभी लोगों के लिए खास ढंग की व्यवस्था का प्रबंध होना असंभव था। क्योंकि विभिन्न वर्गों की जोड़ी (Cross breeding) बड़ी ही कठिन चीज है यदि सफलता लानी हो। इसीलिए आम तौर से उसे चला नहीं सकते। मगर जब सभी क्षत्रिय मर्द मर जाएँ तो आखिर होगा क्या? वर्णसंकर तो होगा ही या ज्यादे से ज्यादा गए गुजरों से संतानें होंगी जो वर्णसंकर से भी बुरी चीज होगी। यही कारण है कि अगले श्लोक में इस वर्णसंकर का नतीजा बताया है कि कुल के नाशक और समस्त कुल - दोनों ही - नरक में जाते हैं। इसका सीधा मतलब यही है कि सभी का पतन हो जाता है। नरक तो पतन, नीचे गिरने अवनति या फजीती और कष्ट की दशा को ही कहते हैं और यही बात वर्णसंकर के करने से होती है। जब सारा समाज ही पतित हो जाएगा, नीचे जा गिरेगा तो अकेला आदमी, जिसने कुल क्षय के द्वारा यह दशा ला दी, कहाँ जाएगा, कैसे रहेगा? उसे भी तो आखिर पतितों एवं गिरे हुओं के साथ ही रहना और व्यवहार करना होगा। समाज में अकेला तो कोई कुछ कर नहीं सकता। यह तो लंबी शृंखला है जिसकी एक-एक लड़ी हरेक व्यक्ति है। नतीजा यह होगा कि उन्नति के सभी मार्गों के अवरुद्ध होने से वह भी नीचे जा गिरेगा। पुरानी कहानी है कि किसी राजा का बच्चा दिन-रात किरातों में रहने से पूरा किरात ही बन गया था।
यही वजह है कि आगे जातिधर्म और कुलधर्मों का नाश लिखा है। वह रहने कैसे पाएँगे। उनकी तो बुनियाद ही जाती रही। एक तो उनके जाननेवाले ही नहीं रहे। और अगर कोई किसी प्रकार बचे भी तो जब समाज का समाज पथभ्रष्ट हो गया, तो वह भी उसी गढ़े में लाचार गिरेंगे ही। ऐसी हालत में कला, कौशल, कारीगरी, हुनर, हिकमत का पता कहाँ होगा? इन चीजों की विशेषज्ञता कैसे रह सकेगी और कहाँ?
जो पुरानी पोथियों में पिंडदान और तर्पण की बात कही गई है और जिसका उल्लेख आगे गीता में भी इसी सिलसिले में आया है कि वह भी चीज़ें चौपट हो जाएँगी। वह भी ठीक ही है। ये चीजें तो व्यष्टि का समष्टि के साथ - व्यक्ति का समाज के साथ - होने वाली एकता की सूचक हैं। इसीलिए साँप, बिच्छू, अनाथ, अनजान में मरे आदि का भी तर्पण-श्राद्ध करते हैं। मंत्रों में ऐसा ही लिखा है। इस तरह भूत, भविष्य, वर्तमान सभी के साथ हम अपनी तन्मयता और एकता का अनुभव करते हैं, अभ्यास करते हैं। यही है गीताधर्म जैसा कि कह चुके हैं। मगर जब अवनति के गर्त्त में जा गिरेंगे तो यह बात कैसे होगी। फलत: समाज विशृंखलित हो के नीचे गिरेगा। फिर तो ऊपर वाले लोग या पितर भी गिरेंगे ही। वे अलग कैसे रहेंगे? देव-पितर हमसे जुदा तो हैं नहीं।