जिंगाट जाह्नवी की किस्सागोई / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
जिंगाट जाह्नवी की किस्सागोई
प्रकाशन तिथि : 19 जुलाई 2018


जाह्नवी कपूर 'धड़क' की प्रचार यात्रा कर रही है। शूटिंग के समय सेट पर उसे महसूस हुआ मानो उसकी मां श्रीदेवी वहां मौजूद है और उसे यह भी लगा कि मां वहां न हो तो बेहतर हो। उसके मन में जिस तरह की भावना संचारित हो रही होगी, उसे हम ज़ाहिरा निगाह की कविता से बेहतर समझ सकते हैं, 'मैं बच गई मां, मैं बच गई/मेरे कच्चे खून की स्याही तेरे पोर-पोर में बस गई।'

ये पंक्तियां उस समय को संभवत: ठीक तरह बयां नहीं करतीं परंतु उस समय जाह्नवी के अवचेतन में क्या कुछ चल रहा था, यह बयां भी नहीं किया जा सकता। अपने सारे प्रयास करने पर भी श्रीदेवी पूरे परिवार को एकजुट नहीं कर पाई। बोनी कपूर की पहली पत्नी मोना से जन्मे अर्जुन और अंशुला दूर-दूर ही रहे परंतु श्रीदेवी के गुजर जाने के बाद सारा परिवार एकजुट हो गया। अब सभी एक-दूसरे की चिंता करते हैं, एक-दूसरे से प्रेम करते हैं। यह संभव है कि श्रीदेवी जिस ढंग से गईं वह कुछ ऐसा था कि अब परिवार के हर सदस्य को लगता है कि आपसी मतभेद और छोटी-छोटी बातों पर बिफर जाना कितना खोखला व बेमानी है। कुछ लोगों के सपने उनके गुजर जाने के बाद साकार होते हैं। मौत एक जुदाई है परंतु श्रीदेवी जुदा होकर भी जुदा नहीं हुई, इस मायने में कि सबको जोड़ गईं। वे इस तरह 'श्रीमती इंडिया' हो गईं।

श्रीदेवी ने एक साक्षात्कार में कहा था कि उनकी और जाह्नवी की तुलना करना अनुचित होगा। श्रीदेवी ने तीन सौ फिल्मों में काम किया था। हर कलाकार के अपने अनुभव होते हैं और सभी की यात्राएं जुटा-जुदा होती हैं। सभी इन बारीकियों में नहीं पड़ते। वे जाह्नवी को श्रीदेवी की बेटी होने के कारण ही देखने जाएंगे। याद आता है कि श्रीदेवी को मुआवजे के रूप में अमेरिका से बड़ी रकम मिली थी। आज जाह्नवी को भी अपनी मां की ख्याति का लाभ मिल रहा है। कुछ विरासतें ऐसी भी होती हैं।

जाह्नवी कहती हैं कि उनकी मां और बहन खुशी को एनिमेशन फिल्म देखना अच्छा लगता था परंतु जाह्नवी की रुचि भारतीय सिनेमा के क्लासिक्स में भी है। उस दौर के फिल्मकारों के सामाजिक सरोकार कितना दिल को छूते हैं और उनके विचार आधुनिक थे। जाह्नवी ने कुछ समय पूर्व ही गुरुदत्त की फिल्म 'मि. एंड मिसेस 55' देखी। नारी को समान अधिकार मिले यह बात उस फिल्म में कही गई है। मधुबाला का सौंदर्य जादू-सा असर रखता है।

जाह्नवी आश्चर्य करती है कि मदर इंडिया और पाकीजा को उस दौर में नारी केंद्रित नहीं कहा गया। इस तरह का वर्गीकरण आज बहुत किया जाता है। उस दौर में मनोरंजन और सामाजिक सौद्‌देश्य आज की तरह दो खांचों में नहीं बंटे थे वरन वे एक-दूसरे के अविभाज्य अंग थे।

जाह्नवी को किस्सागोई अपने बचपन से ही पसंद थी और वह मनगढंत किस्से अपने मित्रों को सुनाती भी थी। उस वक्त उसने अभिनय क्षेत्र में जाने के बारे में नहीं सोचा परंतु किस्से गढ़ते और सुनाते समय अभिनय तो करना ही होता है। हमारा सारा सामाजिक व्यवहार अभिनय ही है। हम कभी पूरी तरह उजागर नहीं होते। संगीतकार रवींद्र जैन ने राज कपूर की 'घूंघट के पट खोल' के लिए एक गीत की पंक्ति लिखी थी, 'यह डर भय कैसा, जाहिर हो भीतर तू है जैसा'। उस कथा को राज कपूर धीरे-धीरे पका रहे थे। उनकी सृजन प्रक्रिया ऐसी ही थी। उन्होंने 1946 में आकल्पन किया 'घरौंदा' का जिसे 1964 में 'संगम' के नाम से बनाया। दरअसल इंदरराज आनंद ने उन्हें टैनीसन की एक कविता सुनाई थी और 'घरौंदा' उसकी प्रेरणा से सोची गई थी।

बहरहाल, जाह्नवी का कहना है कि उसके पिता बोनी कपूर अधिक नहीं बोलते परंतु वे बड़े से बड़े संकट में भी शांत बने रहते हैं। एक फिल्म निर्माता को कितना कुछ करना होता है यह जाह्नवी ने अपने पिता से सीखा। अब एक कलाकार होते हुए वह निर्माता की जद्‌दोज़हद को बखूबी समझती हैं। फिल्मकार यह उम्मीद कर सकते हैं कि जाह्नवी सफल सितारा होते हुए फिल्मकार की समस्याओं के प्रति संवेदनशील बनी रहेगी। निदा फाज़ली ने जो बात अपने पिता के लिए लिखी थी, उसे ही हम जाह्नवी के लिए कह सकते हैं : कोई मां कभी मरती नहीं, वह अपनी बेटी की सांसों में ज़िंदा रहती है।