जिंदगी ख्वाब है, ख्वाब में सच है क्या..? / जयप्रकाश चौकसे

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जिंदगी ख्वाब है, ख्वाब में सच है क्या..?
प्रकाशन तिथि : 18 दिसम्बर 2019


सनी देओल, इरफान खान और कोंकणा सेन शर्मा अभिनीत फिल्म 'राइट या रांग' का मुख्य पात्र अपनी बेवफा पत्नी को रंगे हाथ पकड़ने के बाद सुधर जाने के दो अवसर देता है, परंतु तीसरी बार रंगे हाथ पकड़े जाते ही दोनों को गोली मार देता है। उसका बचपन का मित्र पुलिस ऑफिसर है और कुछ समय पहले तक दोनों ही पुलिस अफसर थे। अदालत में कुछ भी प्रमाणित नहीं हो पाता। यहां तक कि लाई डिटेक्टर टेस्ट से भी कुछ नहीं जान पाते। सनी देओल ने लाई डिटेक्ट मशीन के साथ झूठ बोलने का अभ्यास किया था। उसने अवचेतन के डिजाइन मेक को ही बदल डाला था। वह इतना प्रशिक्षित हो गया कि अपने अवचेतन के क्रिया-कलाप उसके मनसूबों के अनुरूप होने लगे थे। यह सारे परिश्रम उसने अपने अबोध बच्चे की परवरिश करने के लिए किया था।

उसका बचपन का मित्र अफसर अदालत में उसे चाकू मारता है कि यह अपाहिज बने रहने का स्वांग छोड़कर उठ खड़ा हो जाएगा, परंतु वह दर्द सहते हुए अपने अपाहिज बने रहने के झूठ पर ही कायम रहता है। इस तरह दो कत्ल करके भी वह निर्दोष पाया जाता है। अंतिम दृश्य में दिखाया है कि विदेश जाने के पूर्व वह अपने मित्र अफसर को सारा सच बता देता है। ज्ञातव्य है कि लाई डिक्टेटर मशीन अवचेतन में जतन से छिपाए हुए झूठ भी उजागर करती है, परंतु सारी मशीनें मनुष्य ने बनाई हैं और मनुष्य उनके साथ खिलौनों की तरह खेल सकता है। झूठ बोलने को कला और विज्ञान के उच्चतम पायदान तक ले जाया जा सकता है। संकीर्षणता की पक्षधर राजनीतिक विचारधारा में झूठ को मनुष्य के डीएनए में समावेश करा देने की क्षमता है। सामूहिक अवचेतन को इस तरह सम्मोहित कर देना आसान काम नहीं है। अगर राजा हरिश्चंद इसकी सदस्यता ग्रहण करें तो उनसे भी झूठ बुलवाया जा सकता है। अजय देवगन अभिनीत फिल्म दृश्यम में परिवार के सभी सदस्य झूठ का अभ्यास करते हैं। पुलिस विभाग सारे जतन करके भी उनसे सच नहीं उगलवा पाता। फिल्म के अंत में नायक अपनी पत्नी से कहता है कि उसका कर्तव्य है कि वह अपने परिवार की रक्षा करे और इस मामले में उसे कुछ भी गलत नहीं लगता। परिवार की रक्षा के परे उसके लिए किसी भी बात का कोई मतलब नहीं है।

सिनेमा यकीन दिलाने की कला है। पटकथा में रात के समय फिल्माने के दृश्य दिन में शूट किए जाते हैं, परंतु परदे पर वे रात के दृश्य ही दिखाई देते हैं, जिसे सिनेमाई भाषा में 'डे फॉर नाइट' कहा जाता है। फिल्म 'श्री 420' में एक सड़क, पुल और दूूर लोकल ट्रेनें चलती नजर आती हैं। स्टूडियो में सेट लगाया गया था और पृष्ठभूमि में चल रही लोकल ट्रेन दरअसल टॉय ट्रेन थी। बरसात फिल्माने के लिए रेन मशीन होती है। दर्शक यह सब जानता है, परंतु सिनेमाघर में वह अपने अविश्वास करने के भाव को निरस्त कर देता है। सिनेमा और रंगमंच का मजमा दर्शक के इसी 'विलिंग सस्पेंशन ऑफ डिसबिलीफ' पर निर्भर करता है। सिनेमा में सच और झूठ गलबहियां करते हुए अपना जादू बनाए रखते हैं। आजकल व्यवस्थाएं सिनेमाई जादू को अपनाकर आम आदमी को सरेआम ठग रही हैं और अवाम भी ठगे जाने के लिए तत्पर नजर आ रहा है। व्यवस्था अपने को शिक्षक मानते हुए देश को क्लास रूम समझती है और मास्टर साहब कक्षा में हाजिरी लेते हैं। छात्रों के राष्ट्रीय रजिस्टर का विरोध छात्र ही कर रहे हैं। मास्टर साहब बौखला गए हैं। सच और झूठ पर हॉलीवुड में बनी फिल्म का नाम है 'ट्रू लाइस'।

इस सच-झूठ से शैलेंद्र रचित जागते रहो के गीत की पंक्तियां याद आती हैं- जिंदगी ख्वाब है, ख्वाब में सच है क्या और भला झूठ है क्या, सब सच है। मय का एक कतरा पत्थर के होठों पर पड़ा और उसने भी कहा सब सच है। केंद्रीय सरकार के अधीन एक डिपार्टमेंट ऑफ स्टैटिस्टिक्स है, जहां से लगातार आंकड़े जारी होते हैं। सारे प्रयास करने के बावजूद इस तथ्य को ठुकराया नहीं जा रहा है कि ग्रोथ रेट घटकर मात्र पांच रह गया है। सत्ता में आते ही ग्रोथ रेट के मानदंड में यह सुविधाजनक परिवर्तन किया गया कि कारखाने के उत्पाद को बिका हुआ मान लिया जाता है। और एक काल्पनिक लाभ दर्ज भी कर देते हैं।