जिंदगी मुशायरा नहीं रमजान है/ जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 09 अगस्त 2013
यह बात संभवत: 1922-24 की है, जब शेयर बाजार के प्रवीण खिलाड़ी सेठ चंदूलाल शाह को अपने बीमार भाई की फिल्म निर्माण कंपनी संभालनी पड़ी। उन दिनों सिनेमा मालिक सीधे निर्माता से फिल्म लेता था। एक मुस्लिम बहुल क्षेत्र के सिनेमा मालिक ने उन्हें ईद के अवसर पर प्रदर्शन करने के लिए इस्लाम आधारित फिल्म बनाने की पेशगी रकम दी, परंतु चंदूलाल शाह की संस्था में किसी को इस्लाम का इल्म नहीं था और शाह ने गुजरात की एक लोकप्रिय किवदंती पर सामाजिक फिल्म 'गुण सुंदरी' बना दी। सिनेमा मालिक ने अदालत जाने की धमकी दी, परंतु ईद अगले ही दिन थी, अत: यह फिल्म प्रदर्शित की गई और वह बहुत कामयाब रही। प्रदर्शक अदालत जाने के बदले अगली फिल्म की पेशगी दे गया। इसके कुछ ही समय पहले मुस्लिम लोगों द्वारा खिलाफत के आंदोलन से प्रभावित गांधीजी ने उसके ही विराट स्वरूप को उनके सहयोग से असहयोग आंदोलन का स्वरूप दिया। इन दो विभिन्न घटनाओं में समान चीज इस्लाम रही।
बहरहाल, पारसी सेठ अरदेशर ईरानी ने पहली सवाक् फिल्म 'आलमआरा' रची, जो इस्लामी साहित्य से जुड़ी एक कथा थी। 'आलमआरा' में जूनियर कलाकार रहे मेहबूब खान ने 'अलहिलाल' से अपनी निर्माण संस्था शुरू की और 'मदर इंडिया' तक पहुंचे। दूसरे विश्वयुद्ध के समय मेहबूब खान ने ही परदा व्यवस्था के खिलाफ 'नजमा' बनाई थी, जिसे फेरबदल के साथ कई दशक बाद ऋषिकेश मुखर्जी ने बनाया, जिसमें श्वसुर गांव की अनपढ़ बहू की कामना करता है और उसके घर पढ़ी-लिखी शहरी लड़की बहू बनकर आती है।
दूसरे विश्वयुद्ध के प्रथम चरण में वी. शांताराम ने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर 'पड़ोसी' नामक फिल्म में हिन्दू कलाकार से मुसलमान तथा मुसलमान कलाकार से हिन्दू पड़ोसी की भूमिकाएं कराईं। उसी कालखंड में हरिकृष्ण 'प्रेमी' के नाटक के आधार पर 'चित्तौड़ विजय' नामक फिल्म बनी, जिसमें मुगल बादशाह अपनी राखी बहन राजपूत-राजकन्या की रक्षा के लिए सेना सहित आता है और उसकी असुरक्षित राजधानी में शत्रु घुस आते हैं।
सारांश यह कि हिंदुस्तानी सिनेमा हमेशा धर्मनिरपेक्ष रहा है और दोनों धर्मों के आख्यानों पर फिल्में बनी हैं। साथ ही, मुस्लिम परिवारों की पृष्ठभूमि पर भी अनेक सफल फिल्में बनी हैं, जैसे एचएस रवैल की 'मेरे मेहबूब' गुरुदत्त की 'चौदहवीं का चांद' और भारत भूषण द्वारा बनाई 'बरसात की रात' जिसकी साहिर-रोशन टीम द्वारा रची कव्वाली 'ये इश्क इश्क है' आज तक की सबसे सफल और मधुर कव्वाली है। यह सिलसिला कभी रुका नहीं है। मात्र कुछ वर्ष पूर्व ही एक फिल्म में पंकज कपूर बनारस के श्रेष्ठ पंडित हैं और उनकी बेटी दंगे के समय तन्हा छूटे एक शिशु को अपने घर ले आती है, जहां उसे प्यार से पाला जाता है और कुछ समय बाद जब दंगाई लोग बच्चे को मारने आते हैं तो पंडित उसकी रक्षा के लिए सीना तानकर खड़ा हो जाता है। ख्वाजा अहमद अब्बास का उपन्यास 'इन्कलाब' भी कुछ इसी थीम पर लिखा गया है, जबकि रवीन्द्रनाथ टैगोर इस विचार को दूसरे स्वरूप में पहले ही अपने उपन्यास 'गोरा' में लिख चुके थे। 'शोले' से मिली लोकप्रियता के घोड़े पर सवार गब्बर अमजद खान ने पंद्रह असफल फिल्में रचने वाले जुगल किशोर की मुस्लिम पृष्ठभूमि पर बनी 'दादा' में अभिनय किया, जिसमें रोजा रखे बीमार बच्चे की जान बचाने के लिए एक व्यवसायी गुंडा अपनी जान पर खेल जाता है और यह फिल्म बहुत ही सफल रही।
ऐसा नहीं है कि सिनेमा में मुस्लिम समाज को एक मुशायरे की तरह पेश किया गया है, वरन उनकी समस्याओं पर यथार्थवादी फिल्में भी बनी हैं, जैसे 'निकाह', 'बाजार' और एमएस सथ्यू ने सर्वकालिक महान कृति 'गरम हवा' रची थी। हिंदुस्तानी सिनेमा का यह धर्मनिरपेक्ष रूप समाज की धर्मनिरपेक्ष संर चना से ही बना है। पाकिस्तान धर्मनिरपेक्ष नहीं था, इसलिए भीतर से टूट रहा है