जिंदगी से लिपटकर खुशियाँ समेटूँगी / सुरेश कुमार मिश्रा
अस्पताल के बरामदे में मात्र 6 कुर्सियाँ थीं और वहाँ आए रोगियों की संख्या आठ। कुर्सी न होने के कारण खड़े दो रोगियों में राधा एक थी। वह रह-रहकर बेचैन हो रही थी। अस्पताल के बरामदे में इधर-उधर चक्कर काट रही थी। थोड़ी-थोड़ी देर में व्हाट्सएप चेक करना, कभी नीचे देखना, कभी ऊपर देखना उसकी झुंझलाहट को दर्शा रहा था। अपने मामा कि सलाह पर वह अस्पताल आयी थी। शहर के पहुँचे हुए डॉक्टर होने के कारण दूर-दूर से रोगी उनके पास आते थे। राधा के अलावा एक और महिला बड़ी शांत अपने में गुमसुम दीवार से सटकर खड़ी थी। उसकी आँखों में कई सारे प्रश्न चिह्न थे। उसे देखकर राधा से रहा नहीं गया। वह उसके पास गयी। पूछने पर अपना नाम सीता बताया। थोड़ी ही देर में दोनों एक-दूसरे से घुलमिल गए। पहले तो लगा उनका यह घुलना-मिलना कुर्सियों की कमी के कारण हुआ। बाद में पता चला कुर्सियाँ न भी होती तो वे एक-दूसरे से ज़रूर घुलमिल जातीं।
राधा के पूछने पर सीता ने अपने बारे में बताना आरंभ किया। वह जब 9वीं में पढ़ रही थी, तभी उसे अपने सहपाठी से प्यार हो गया। प्यार का यह चक्कर उसकी पढ़ाई पर बन आया। पढ़ाई छुड़वा दी गयी। सहपाठी भी कोई और नहीं उसी के रिश्तेदार का लड़का था। पढ़ाई छूटने के बाद भी यह किस्सा थमा नहीं। दोनों का प्यार छिपते-छिपाते चलता रहा। आख़िर वह दिन आ ही गया जब लड़के के कहने पर घरवालों ने लड़की का हाथ मांग लिया। पहले तो बहुत आनाकानी हुई लेकिन बाद में विवाह के लिए मान लिया गया। प्रेम विवाह होने के कारण सीता के घरवालों ने लड़के को कुछ ख़ास दिया नहीं। वैसे वह सीता को इतना चाहता था कि उसे किसी चीज़ की इच्छा हुई नहीं। वह उसे बहुत प्यार करता है। वह चाय की डबरी चलाता है। इसी डबरी से उसने थोड़े-थोड़े पैसे जमाकर सीता के लिए कान, नाक और गले के ज़ेवर बनवाये। सीता भी अपने पति से प्यार बहुत प्यार करती है। जब-तब पति के जेब से मिले, घर में इधर-उधर रखे रुपए-पैसों को अलमारी के एक कोने में छिपा-छिपाकर रखती थी। वह उसके लिए स्मार्ट फ़ोन खरीदना चाहती थी। दोनों का प्यार इतना गहरा था कि वह बिना थके एक टूक बताते चली जा रही थी।
राधा को लगा सीता झूठ बोल रही है। उसके बदन पर एक गहना न था। उसके झूठ को पकड़ने के लिए जब गहनों के बारे में पूछा तब वह अवाक् रह गयी। उसने बताया कि उसका पति चाय की डबरी पर दिन भर खड़े-खड़े काम करने से उसे रीढ़ की हड्डी में टी.बी. हो गया है। पिछले दो महीनों से इलाज़ चल रहा है। इलाज़ के चक्कर में सारे गहने अस्पताल की भेट चढ़ गए। लेकिन उसे इस बात का दुख नहीं है। वह अपने पति को अपना गहना मानती है। इसलिए गहनों का उसे रत्तीभर दुख नहीं है। उसका मानना है ज़िन्दगी रुपये-पैसों में नहीं प्यार में बसती है। प्यार है तो रुपया-पैसा फिर आ जाएगा। नहीं भी आएगा तो जैसे-तैसे बचे-खुचे में ज़िन्दगी गुजार सकते हैं।
डेढ़ घंटे बाद कंपाउंडर ने राधा को आवाज़ दी। पता नहीं उसे क्या हुआ? वह अपने पर्स से दस हज़ार रुपए और अपना विजिटिंग कार्ड निकालकर सीता के हाथ में रखते हुए बोली–मैं यहाँ पर अपने तनाव का इलाज़ करवाने आयी थी। मैं ब्यूटी पार्लर चलाती हूँ। हर दिन बड़े आराम से तीस-चालीस हज़ार कमा लेती हूँ। मेरे पति का बहुत बड़ा व्यापार है। वह भी हर दिन लाख-डेढ़ लाख कमा लेते हैं। लेकिन हम दोनों में छोटी-मोटी बातों के लिए आए दिन बहस और झगड़े होते रहते हैं। कभी खाने में नमक-मिर्च के स्वाद को लेकर, कभी घूमने को लेकर तो कभी एक-दूसरे को विश न करने को लेकर। ऐसी ज़िन्दगी से परेशान हो गयी हूँ। कभी बहस-बहस में झगड़ा इतना बढ़ जाता कि छुड़ाने के लिए आसपास के लोगों को आना पड़ता था। कुछ दिन पहले मैंने आत्महत्या करने की कोशिश भी की। जैसे-तैसे मुझे बचाया गया। यह सब देखकर ही मामा ने मुझे यहाँ भेजा है। लेकिन तुमसे मिलने के बाद लगा कि मुझे किसी डॉक्टर की ज़रूरत नहीं है। ज़िन्दगी दौड़-धूप में नहीं बल्कि एक-दूसरे के लिए समय निकालने, छोटी-छोटी खुशियों को थामने और प्यार को बाँटने से गुजरती है। सच तो यह है कि ज़िन्दगी हाथों की लकीरों में नहीं सामने वाले की ख़ुशी में होती है। अब मुझे लबों पर बनावटी मुस्कान की ज़रूरत नहीं है। अब मैं ज़िन्दगी से लिपटकर खुशियाँ समेटूँगी। शायद आज मैं डॉक्टर से मिलती भी तो वह मेरा इलाज़ नहीं कर पाते। थैंक यू सीता! तुमने मुझे ज़िन्दगी जीने का सही सलीक़ा सिखाया। तुम्हें और रुपयों की ज़रूरत हो तो बेझिझक मेरे घर आ जाना।
इतना कहते हुए राधा अपनी बड़ी-सी कार में चढ़कर पल भर में ओझल हो गयी। सीता कृतज्ञता भरी नज़र से उसे एक टूक देखती रह गयी