जिंदा का बोझ / सुषमा गुप्ता
वो शराब के नशे में धुत जब भी घर आता ज़ोर से चिल्लाता
"अरी कहाँ मर गई?"
भागती-सी गुलाबो जाती और कमरे का दरवाजा बंद हो जाता।
बहुत बड़ा नाम था पीर साहब का पूरे इलाके में। लोग ने अल्लाह का दर्ज़ा तक दे डाला था। गुलाबो को पीर रानी का। पीर साहब वैसे तो डेरे पर ही रहते थे। पर महीने में दो चार बार घर भी आ जाते। जिस रात वह घर आते, बच्चियों को रात भर, रह-रह के कमरे से माँ की दर्दनाक चीखें सुनाई देती। अगले दिन माँ के शरीर पर ज़ख्म दिखते तो बच्चियाँ अपनी उम्र के हिसाब से सवाल पूछती और गुलाबो उनकी उम्र के हिसाब से ही जवाब दे कर उन्हें समझा भी देती।
आज गुलाबो को सुबह से ही तेज़ बुखार था। रात गए फिर पीर साहब की गरज सुनाई दी
"गुलाबो..."
तेरह साल की जूही भाग कर गई
"जी बाबा"
पीर साहब ने उस पर ऊपर से नीचे तक भरपूर नज़र डाली फिर बेहद प्यार से बोले।
"अरे तू इतनी बड़ी कब हो गई? आ ...अंदर आ... बैठ मेरे पास।"
दरवाजा फिर बंद होने ही वाला था कि गुलाबो दौड़ती हाँफती पहुँची। पल भर में सब समझ गई, खींच कर जूही को कमरे से बाहर कर दिया और ख़ुद अंदर होकर दरवाजा बंद कर लिया। पीर साहब का चिल्लाना और गुलाबो की दर्दनाक चीखें बाहर तक सुनाई देने लगी। अचानक चीखों का स्वर बदल गया। दालान में ज़माने भर का मजमा लगा था। पीर साहब नहीं रहे। पीर रानी की सबसे विश्वस्त नौकरानी ने सबको खबर पहुँचाई, कोई लूट के इरादे से घर में घुसा और हाथापाई में पीर साहब का गला रेत गया।
लोगों ने ख़ूब कोसा उस अनजान लुटेरे को। दोज़ख रसीद करने की बद्दूआएँ दे डाली। औरतों के झुंड के झुंड आ रहे थे। खूब प्रलाप हो रहा था। छाती पीटती अम्मा बोली
"हाय गुलाबो कैसे उठाऐगी तू बेवा होने का बोझ।"
गुलाबो मन ही मन बुदबुदाई...
"इसके तो जिंदा का बोझ ज़्यादा था अम्मा। इसकी लाश में बोझ कहाँ ..."