जिंदा हैं आंखें अभी / जय चक्रवर्ती / सत्यम भारती

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोई भी लेखक तब बड़ा बनता है जब उसे अपने युग की पहचान और साहित्य को जीने की कला जानता हो। जब हम जीवन में सहित्य और साहित्य में जीवन को देखते हैं तो वह साहित्य लोकोन्मुख, युगीन और आत्मपरक हो जाता है। कविता भावों की क्षणिकता का बिंबात्मक प्रतिरूप है। मन में कुछ समय के लिए रचनात्मक प्रकाश उभरता है जिसे "काव्य समय" कहते हैं, कोई भी रचनाकार हमेशा काव्य नहीं रच सकता है, उसका एक समय होता है जो निर्धारित नहीं होता; जब लेखक उस क्षण और भावों के समय को शब्दबद्ध करने की क्षमता विकसित कर लेता है तब वह महान साहित्य रच पाता है। जिस विधा में रचना हम कर रहे हैं वह हमारे रक्त की धमनियों में प्रवाहित होने लगे तो उस साहित्य को लोकप्रिय होने से कोई नहीं रोक सकता; दुष्यंत कुमार इस कला पर एक शेर लिखते हैं-

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ,

वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ।

कवि जय चक्रवर्ती का व्यक्तित्व कुछ इसी तरह का है, वह दोहा लिखने से पहले उसे जीते हैं तथा खुद को दोहे में और दोहे में खुद को देखते हैं-

दोहा मुझ में और मैं हूँ, दोहों का दास।

दोहे मेरे पास हैं, मैं दोहों के पास॥

पुस्तक "जिंदा हैं आंखें अभी" कवि जय चक्रवर्ती द्वारा लिखित एक दोहों का काव्य संग्रह है जो उन्होंने विषय के आधार पर अध्यायों में व्यक्त किया है। शीर्षक में "जिंदा आँख" आम आदमी की है जिसके लिए उन्होंने "जन-गण" शब्द का इस्तेमाल किया है। आम आदमी की असहाय आंखें भले तटस्थ हो, मुकाबले योग्य न हो लेकिन देखती सब कुछ है; आंखों में उमड़ने वाला यह असंतोष जब एकत्रित होकर भयावह रूप ले लेता है तब क्रांति की उदय होता है। क्रांति आम आदमी की कोख से उत्पन्न होने वाली वह हिंसात्मक प्रक्रिया है जिससे समाज और युग दोनों लाभान्वित होते हैं। चक्रवर्ती जी के दोहे जनता कि जागृति तथा शक्ति को पहचान कर हूँकार भरने की कविता है-

जागो जन-गण देश के, उठो मचाओ शोर।

लिए तुम्हारी रोटियाँ, भाग रहे हैं चोर॥

सियासत को ललकारने की क्षमता भी उनके दोहों में है-

सुनो मान्यवर! ध्यान से पद दलितों की आह।

धूल अगर आंधी बनी, नहीं मिलेगी राह॥

इस पुस्तक की विषय-वस्तु की अगर बात करें तो तीन चीज प्रमुख रूप से मिलती है-कविधर्म निभाने की चिंता, सत्ता कि स्वार्थपूर्ण रवैया तथा आम आदमी का दर्द। सबसे पहले बात करते हैं-कविधर्म की; लेखक कम शब्दों में गूढ़ भावों को व्यक्त कर देना चाहता है तथा मानव के संघर्ष एवं कष्टों को प्रतिरोधात्मक स्वर देना चाहता है; वह युगीन सच्चाई तथा यथार्थ की कटुता को व्यक्त करने के लिए किसी भी प्रकार का समझौता नहीं करना चाहता है। कविता आम आदमी की वह जुबान है जिसकी सहायता से वह न केवल जीवित रहता है बल्कि जिंदा होने का समय-समय पर आभास भी दिलाता है। कविता समाज बदलने, जागृति लाने तथा नए मूल्यों का भविष्य क्या होगा उसको भी आइना दिखाती है; वर्तमान समय की कविता और मंच दोनों मनोरंजन प्रधान तथा चुटकुला प्रधान हो गए है; कवि सत्ताधीशों की चरण वंदना में लगे हुए हैं तो कविता लिफाफा उठाने पर। दोहाकार मंचों पर कविताओं के गिरते स्तर से आहत है-

कविता कि नौका लगे, पता नहीं किस घाट।

मंचों के नायक हुए चारण, जोकर, भाट॥

एक ही भाव को भी विविध शब्द एवं शिल्प में ढालकर खुद को कवि साबित करने वाले कठघोड़ों की कमी नहीं है इस देश में; आजकल दर्शकों से ज़्यादा तो कवि हो गए हैं, जो रीतिकालीन कवियों की तरह कविता के सौदागर बन चुके हैं। दोहाकार नवसृजन के लिए पुराने रास्ते को छोड़कर नया रास्ता ढूँढने को कहते हैं-

एक फर्श पर कब तलक, बदलोगे कालीन।

नए सर्जन के वास्ते, ढूँढो नई जमीन॥

सत्ता और कुर्सी का खेल इस दौर में भयावह हो चुका है इस खेल का आयोजन कराने वाले पूंजीपति और उनका साथ देने वाले चाटुकार लोग और मीडिया है, ये सब दोहाकार के दोहों की केंद्रीय विषय वस्तु है। सत्ता और पूंजी के खेल में न्याय व्यवस्था का गिरता स्तर, सिस्टम में भ्रष्टाचार, महंगाई की मार, किसानी समस्या, कालाबाजारी तथा आम आदमी की त्रासदी की घटना जन्म ले रही है। सत्ता का संविधान में हस्तक्षेप तथा खुद के स्वार्थ और वोट बैंक के लिए इसमें होने वाले समय-समय पर संशोधन से दोहाकार क्षुब्ध है-

संविधान की देह पर, झपट रहे हैं चील।

मुर्दाघर में हो गया, लोकतंत्र तब्दील॥

सियासत में एक चीज और देखा जाता है-दल-बदल। हवा कि रुख तथा स्वार्थ देखकर पार्टी बदलने वालों के लिए अपने देश में कोई कानून नहीं है यह सोचनीय है। जिसके चरित्र स्वार्थ की नींव पर हो उससे हम अपने विकास का ख्वाब कैसे देख सकते हैं, दोहाकार की दृष्टि इस तरफ भी गई है-

शुरू दल-बदल का हुआ, फिर मायावी दौर।

क्या जाने अब कौन, कब गिरे कहाँ किस ठौर॥

सत्ता के लिए जाति, धर्म का उन्माद फैलाकर अपने करतूतों को ढकना तथा एक नई घटना को अंजाम देकर जनता को मुख्य मुद्दे से भटकाना वर्तमान सियासत की कूटनीति बन गई है। जुमले और भाषणबाजी से सिर्फ़ कागजों पर विकास दिखाने वाले लोगों से कवि सवाल करता है-

जाति, धर्म के सामने, था विकास असहाय।

भरमाने को थे बहुत, गंगा, गोबर, गाय ।॥

एक दोहा और देखें-

चर्चित होने के लिए, नित्य उगलते आग।

संसद तेरी गोद में, कैसे-कैसे नाग॥

न्यायपालिका जिस पर लोगों को विश्वास था अब उसमें भी सियासत का हस्तक्षेप देखी जा सकता है, जो भारतीय लोकतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं है। न्यायपालिका जो तटस्थ रहा करती थी अब सत्ता के दबाव में बिल्कुल पस्त हो गई है, अब उसी मुद्दे का निपटारा होता है जिस पार्टी के पास रकम मोटी हो; आम आदमी तो बस कोर्ट कचहरी में चक्कर लगाने के लिए ही पैदा हुआ है; कवि न्यायव्यवस्था कि विद्रूपता तथा न्याय मिलने की देरी से परेशान है-

पांव धरे जिस रोज से, पल भर नहीं सुकून।

एक कचहरी ने पिया, दस पीढ़ी का खून॥

महंगाई वर्तमान समय की प्रधान समस्या है जिसका प्रमुख कारण-खेती योग्य भूमि की कमी, उन्नत किस्म के कृषि संयंत्रों की कमी, कालाबाजारी, शोषण एवं कर्ज तथा फसलों का उचित मूल्य न मिल पाना है। जब पैदावार सही से नहीं होगा और बिचौलिया बीच में यूं ही खाते रहेंगे तब तक महंगाई का तमाशा चलता रहेगा। सत्ता और पूंजी का गठजोड़ तथा दुकान से मॉल की तरफ बढ़ता बाज़ार भी इसका प्रमुख कारण है-

कपड़े रूठे देह से, मुंह से रूठा कौर।

क्या खाएँ, क्या पहन ले, महंगाई का दौर॥

सत्ताधीशों का साथ देने वाले चाटुकार तथा चरण वंदना करने वाली मीडिया से कवि व्यंगात्मक तेवर में खबर लेता है, कवि ने इस तरह के चरित्र के लिए 'कुत्ता' शब्द का इस्तेमाल कर "कुत्तानामा" नाम से दोहे लिखें हैं। वर्तमान समय में उत्पन्न होने वाले अधिकांश समस्याओं का कारण यह चाटुकार ही हैं जो थोड़े से स्वार्थ के लिए ईमान बेच रहे हैं जो अपने समाज के लिए खतरनाक हैं, लेखक इन चरित्रों से खुद को बचाने को कहता है-

चमचा कुत्ता एक सी, दोनों की तकदीर।

दोनों चाटें जूतियाँ, दोनों खाएँ खीर॥

और देखें-

कुर्सी ने जब-जब किया, कुत्तों पर विश्वास।

न्याय, नियम, कानून ने निगल लिया सल्फास॥

आम आदमी का जीवन तो वर्तमान समय में सर्कस के कठपुतली जैसा हो गया है; उसे जो चाहे, जब चाहे, जहाँ चाहे नचा लेता है। हर कोई उसके जज्बात और भविष्य दोनों से खेलना चाहता है, आम आदमी की स्थिति दुष्यंत के शब्दों में कहें-"हम नहीं हैं आदमी हम झुंनझुना हैं" जैसी हो गई है, ऐसा ही भाव दोहाकार के यहाँ भी मिल जाता है-

कभी बजे इस हाथ हम, कभी बजे उस हाथ।

एक झुनझुने—सी रही, यह अपनी औकात॥

इसके अतिरिक्त उन्होंने भूख और रोटी की समस्या, किसानी समस्या, पाखंड आदि पर भी दोहे लिखे हैं; मजदूरों की स्थिति से आहत होकर वे लिखते हैं-

रोज लड़ाई भूख से, रोज दुखों से प्यार।

हिस्से में मजदूर के, कब आया इतवार॥

वहीं बलात्कार और दरिंदगी जैसी घटनाओं पर सियासत करने वालों के लिए लिखते हैं-

दिल्ली हो, उन्नाव हो, कठुआ या मंदसौर।

फिर-फिर वही दरिंदगी, वही सियासी दौर॥

जल संकट वर्तमान समय की प्रधान समस्या है जिस पर अब खूब सियासत गर्म रहती है; पानी दैनिक जीवन की मूलभूत चीज है इस पर बाजारीकरण और सियासत मानवीय मूल्यों के पतन का द्योतक है। ऐसा कहा जाता है कि तृतीय विश्वयुद्ध भविष्य में जल संकट के कारण ही होगा ऐसे में लेखक जल संग्रहण तथा जल की बर्बादी रोकने के लिए भी तत्पर नजर आता है; पानी के बजारीकरण पर लिखते हैं-

पानी कैसे लांघता, पानी की प्राचीर।

बाजारों के हाथ थी, पानी की तकदीर॥

इसके अतिरिक्त आधुनिकता से उत्पन्न हुई समस्याएँ तथा सोशल मीडिया, मोबाइल, इंटरनेट आदि के अधिक प्रयोग से भी वे आहत हैं। मोबाइल लोगों से दूरी बनाने, रिश्तों के बिखरने तथा खुद में मशगूल होने की वृृृत्ति मानवों में विकसित कर रहा है जो राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा है। परिवार का टूटन, तलाक, आत्महत्या, प्रतिस्पर्धा तथा आत्ममुग्धता इंटरनेट का साइड इफेक्ट कहा जा सकता है-

मोबाइल युग में करें, कौन किसी की खोज।

अपनी अपनी सेल्फी, अपने-अपने पोज॥

एक दोहा और देखें कि-

पांच साल की उम्र में, बंटी हुआ जवान।

जोड़े इंटरनेट पर, बबली से पहचान॥

अगर शिल्प की बात करें तो यह पुस्तक भाव पक्ष की ही तरह सशक्त है। भाषा का सरल होना तथा व्यंगात्मक तेवर उनकी भाषा को मारक बना देती है तो वहीं बीच-बीच में लोक में प्रचलित मुहावरों का प्रयोग उसे लोकप्रिय और जन-जन के काफी करीब पहुँचा देता है; दोहा व्यंग के लिए जाना जाता है और दोहाकार ने इसका प्रयोग समस्याओं को उजागर करने तथा सवाल पूछने के लिए किया है। वह समाज में पाखंड फैलाने वालों तथा परहित को सिर्फ़ उपदेश देने वालों के लिए लिखते हैं-

जीवन भर करते रहे, रामायण का पाठ।

स्नेह, शील, संवेदना, रहे काठ के काठ॥

लोक मुहावरों का एक सुंदर प्रयोग देखें-

तुम क्या जानो मान्यव! भूख प्यास का पाठ।

तुमने तो हर पल जपा, सोलह दूनी आठ॥

वाक्य विन्यास काफी सरल है तथा भाषा में अभिधा, लक्षणा तथा व्यंजना जैसी शब्द शक्तियों का भरपूर प्रयोग मिलता है तो वही प्रतीक एवं बिंबों के सहारे इन शब्द शक्तियों का सुंदर प्रयोग मिलता हैं तथा भावों को व्यंजित करने के लिए कई तरीके निकाल लिये गए हैं। व्यंजना का एक उदाहरण देखें-

प्यासे पनघट ने लिखा, जब पानी का नाम।

पानी पानी में हुआ, पानी पर संग्राम॥

प्रतीक का एक सुंदर उदाहरण देखें-

कौन बुझाता फिर रहा, जलते हुए चिराग।

कौन हवाओं में यहाँ, घोल रहा है आग॥

चिराग, हवा, आग आदि प्रतीक हैं जो भावों की अभिव्यक्ति तथा बिंबों के निर्माण हेतु प्रयुक्त किए गए हैं; अंततः कहा जा सकता है कि पुस्तक "जिंदा है आंखें अभी" जनता के जीवन की तपिश है।