जिजीविषा / अज्ञेय
'जिजीविषा' नामक यह कहानी सबसे पहले ‘जीवन शक्ति’ के नाम से छपी थी । बाद में अज्ञेय जी ने इसका नाम बदल दिया ।
कलकत्ता, सेंट्रल एवेन्यू, गिरीश पार्क से कुछ आगे दक्खिन की ओर सडक़ किनारे की चौड़ी पटरी।
बातरा अपनी घुटनों तक ऊँची, कमके पास फटी हुई और छाती के सिर्फ बाएँ भाग को मुश्किल से ढाँपने में समर्थ मैली धोती का छोर पकडक़र उसे बदन से सटाती हुई चल रही है। वह चलना निरुद्देश्य है, लेकिन रस की अनुपस्थिति के कारण उसे टहलना नहीं कहा जा सकता। वह यों ही वहाँ चल रही है; क्योंकि उसे भूख तो लगी है, लेकिन भीख माँगने का उसका मन नहीं होता है। उसमें आत्माभिमान अभी तक थोड़ा-थोड़ा बाकी है, और उसे यह भी दीखता है कि इस इतने बड़े बहुत यथार्थ और बहुत यथार्थवादी शहर कलकत्ते में आकर भी वह यथार्थता को ठीक-ठीक समझ नहीं पायी है, उसके हृदय में कुछ रस की माँग रहती है। जैसे अब वह भूखी भी है तो सिर्फ रोटी पाना ही नहीं चाहती, पाने में कुछ मिठास भी चाहती है। भूखे कुत्ते को रोटी मिलती है, तो लार तो उसके मुँह से टपक ही आती है, फिर भी वह (हो सके तो) किसी घर से खास अपने लिए आयी हुई रोटी को पसन्द करेगा, गली में माँगने नहीं जाएगा...
बातरा सन्थाल है। बच्ची थी, तभी उसके माँ-बाप इधर चले आये थे और इसाई हो गये थे। पादरी ने ईसाइयत के पानी से लडक़ी की खोपड़ी सींचते हुए जब उसका नाम बीएट्रिस रख दिया था, तब माता-पिता भी बड़े चाव से उसे ‘बातरा! बातरा!’ कहकर पुकारने लगे थे।
लेकिन वे मर गये। बातरा ने चाहा, मिशन में जाकर नौकरी कर ले; लेकिन मिशन के भीतर पंजाब से आये हुए ईसाई खानसामों का जो अलग मिशन था, उसकी नौकरी उसे मंजूर न हुई और वह भाग आयी।
बातरा जानती थी कि वह कुत्तों से अच्छी है। उसने मेमों के चिकने-चुपड़े मखमल में लिपटे और प्लेट में ‘सामन’ मच्छी खानेवाले कुत्ते देखे थे और इस समय अपने बिखरे और उलझे हुए जूँ-भरे केश, बवाइयों वाले नंगे पैर, और कलकत्ते की धूप, बारिश और मैल से बिलकुल काला पड़ गया अपना पहले ही साँवला शरीर, यह बस भी वह देख रही थी; फिर भी वह जानती थी कि वह कुत्तों से अच्छी है। वह चाहती थी, अच्छी तरह साफ-सुथरे इनसान की तरह जीवन बिताये, चाहती थी कि उसका अपना घर हो, जिसके बाहर गमले में दो फूल लगाये और भीतर पालने में दो छोटे-छोटे बच्चों को झुलाये, और चाहती थी कि कोई और उस पालने के पास खड़ा हुआ करे, जिसके साथ वह उन बच्चों कोदेखने का सुख और अपने हाथ का सेका हुआ टुक्कड़ बाँटकर भोगा करे-कोई और जो उसका अपना हो-वैसे नहीं जैसे मालिक कुत्ते का अपना होता है, वैसे जैसे फूल खुशबू का अपना होता है। अब तक यह सब हुआ नहीं था; लेकिन बातरा जानती थी कि वह होगा, क्योंकि बातरा अभी जवान है, और उस कीच-कादों में पल रही है, जिससे जीवन मिलता है, जीवन-शक्ति मिलती है।
बातरा एवेन्यू की पटरी पर टहलती जाती है और यह सब सोचती जाती है, और बीच-बीच में सिर उठाकर इधर-उधर आने-जानेवाले लोगों की ओर भी देखती जाती है, आसपास के भिखमंगों-आवारों-बेघरों की ओर भी।
उसकी आँखें एक आदमी की आँखों से मिलती हैं जो उसकी ओर जाने कब से देख रहा है, अटकती हैं, हट जाती हैं और फिर मिल जाती है। अबकी बार उनमें एक उद्दंडता-सी है,मानो कह रही हों, तुम नहीं हटाते, तो मैं ही क्या हटाऊँ? मुझे काहे की लज्जा?
वह आदमी मुस्करा देता है,फिर उठकर गिरीश पार्क की ओर चल देता है। थोड़ी देर बाद बातरा उसी के पीछे चल देती है। वह नहीं जानती कि क्यों उसे इस आधे से अधिक नंगे गठे हुए बदनवाले गन्दे आदमी के बारे में कुतूहल हो आया है।
वह गिरीश पार्क की दीवार पर बैठा हुआ आगे जानेवालों से भीख माँग रहा था। उसे कुछ खास मिलता नहीं था; लेकिन माँगते वक्त वह एक विचित्र ढंग से मुस्करा देता था, जिसमें कुछ बेबसी थी और कुछ बेशर्मी, और उसने अनुभव से जान लिया था कि विशुद्ध गिडगिड़ाहट से यह ढंग अधिक फलदायक होता है, क्योंकि गिड़गिड़ाने से करुणा तो जाग उठती है, पर अहंकार झुँझलाता है, लेकिन इस बेशर्मी से अहंकार भी चुप होकर पैसा-दो पैसे कुर्बान कर ही देता है। बातरा ने पूछा, ‘‘ऐसे कुछ मिलता भी है?’’ वह एक हाथ से अपने पेट के पास टटोलते हुए बोला, ‘‘तुमको आज कुछ मिला?’’ ‘‘मैंने तो छुट्टी कर दी।’’ ‘‘कुछ खाया? तुम्हारा नाम क्या है? कहाँ की हो?’’ ‘‘बातरा।’’ कहकर बातरा चुप हो गयी, और उसकी चुप्पी में बाकी दोनों प्रश्नों का उत्तर हो गया। ‘‘मेरा नाम दामू है।’’ कहकर उसने दूर पर बैठे हुए एक छाबड़ीवाले को बुलाकर कहा, ‘‘ओ बे, दो अमरूद दे जा!’’ छाबड़ीवाले ने उपेक्षा से कहा, ‘‘आव ले जाव!’’ ‘‘अबे पैसे मिलेंगे, दे जा!’’ ‘‘वाह रे तेरे नखरे, भिखमंगे!’’ कहता हुआ छाबड़ीवाला मुस्कराता हुआ उठा और दो अमरूद दे गया और पैसे ले गया। ‘‘खा।’’ कहकर दामू ने बड़ा अमरूद बातरा को दिया और दूसरा स्वयं खाने लगा। बातरा भी खाने लगी। और ज्यों-ज्यों वह खाती जाती थी, उसके भीतर जीवन-शक्तिजाग्रत होती जाती थी...
[2]
बातरा के अट्ठारह सालों की संचित लालसा ने मानो एक आधार पाया। गिरीश पार्क में कुछ आगे एक छोटा किन्तु घना अशोक का पेड़ था, उसी के नीचे उसने अपना करीब-करीब स्थायी अड्डा जमा लिया और उसी पेड़ के नीचे दूसरी तरफ़ दामू ने अपना अँगोछा डालकर माँगने की और रहने की जगह बना ली। किसी दिन वह भीख माँगता, यदि कभी चार पैसे मिल जाते, तो उसके अमरूद खरीदकर अपने अँगोछे पर सजाकर दुकान कर लेता।
आसपास के दुकानदार जो उससे परिचित थे-मजाक बनाते, लेकिन फिर अमरूद महँगे दामों खरीद भी लेते। इसी प्रकार कभी दिन में चार-छ: पैसों का नफा हो जाता, तो दामू बातरा के लिए तरबूज की एक फाँक ख़रीद लेता, या पकौडिय़ाँ ले आता और उसे कहता, ‘‘देख, आज तू किसी से मत माँगना।’’- वह हँसकर कहती, ‘‘और कोई दे जाए तो?’’ ‘‘तो कहना, ले जा, हम कोई भिखमंगे हैं?’’ और दोनों हँस पड़ते। लेकिन इस लापरवाही से और कभी दैवात् बिक्री न होने से उसकी शाम इतनी सुखद न होती और बातरा थके हुए स्वर में कहती, ‘‘भूख लग आयी...’’ तब दामू एकाएक दुकान उठा लेता और दोनों जने फल बाँटकर खा जाते। अगले दिन सवेरे ही दामू कहीं कहीं चल देता, गली-गली में भटककर और कचरा-पेटियाँ देखकर पुराने टीन, बोतलें, टूटे पुर्जे बटोरकर लाता और एक कबाडिय़े के पास दो-तीन पैसे में बेच लेता... एक दिन से दूसरा दिन हो जाता, लेकिन कुछ जुटने की नौबत न आती और बातरा की संचित लालसा उस कभी न फूलनेवाले अशोक के आस-पास चक्कर काटकर रह जाती...लेकिन जैसे उसने हारना सीखा ही नहीं था, लालसा को कम उग्र करना भी नहीं सीखा था।
साल-भर होने को आया। गर्मियाँ फिर चुक चलीं, आकाश में बादल घिरने लगे। वे आते, घिरकर बिना बरसे ही फिर बिखर जाते और बातरा को लगता, दुनिया गलत हो गयी है। वह अशोक के दूसरी ओर बैठे हुए दामू की ओर देखती और न जाने क्यों उसका हृदय उमड़ आता, उसमें खलबली-सी मच जाती, उसकी आँखों को धुँधला-सा कुहरा-सा दीखने लगता और उन दोनों के बीच में खड़ा वह अशोक वृक्ष का तना उसकी दृष्टि में काँप-सा उठता... वह आकाश की ओर मुँह उठाकर कहती, ‘‘अब तो बारिश होनी ही चाहिए!’’ और दामू भी आकाश की ओर देखता हुआ ही उत्तर देता- ‘‘हाँ, अब तो मेरा जी भी तरस गया।’’
बातरा का हृदय मानो उछल पड़ता, और वह जैसे पूछने को ही उठती, ‘‘किस चीज़ के लिए तरस गया है?’’ पर साहस न होता और दिल फिर बैठ जाता... और आस-पास के लोग भी देखने लगे कि उस अशोक वृक्ष के नीचे कुछ बदल गया है। वे लोग बीच-बीच में कभी एक तीखी दृष्टि से बातरा की ओर देखते, उस दृष्टि में थोड़ा-सा उपहास और थोड़ी-सी लोलुप-सी प्रशंसा भी होगी। बातरा उस दृष्टि को देखती, तो सिमट-सी जाकर अपने से पूछ उठती, ‘‘क्या मेरी सूरत अच्छी है?’’ फिर उसका ध्यान अपने साँवले बदन की और अपने सूखे बालों की ओर जाता और प्रश्न मानो मूक होकर बैठ जाता।
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‘‘आज तो होकर रहेगी।’’ दामू ने बातरा की ओर देखा, फिर उसकी दृष्टि का अनुसरण करते हुए आकाश की ओर, और बैठते हुए बोला, ‘‘हाँ, लो यह लाया हूँ।’’
रात को बातरा ने गली में कचरा-पेटी के पीछे छिपकर यह दूसरी धोती लपेटी, जो पुरानी और कुछ मैली तो थी, पर फटी कहीं से नहीं थी और मोटी भी खूब थी। अपनी जगह लौटकर उसने पुरानी धोती नीचे बिछायी, कुछ दिन पहले लाये गये बोरिये के टुकड़े को ऊपर ओढऩे के लिए रखा और पेड़ की आड़ में दामू की ओर देखने लगी।
रात को बारिश शुरू हुई। लेकिन बातरा को लगा कि वह जैसे भीग ही नहीं रही है, उस बोरिये के टुकड़े से इतना काफ़ी बचाव हो रहा था। लेकिन हवा के झोंकों से जब वह बोरिया बार-बार उडऩे लगा और साथ ही धोती को भी उड़ाने लगा, तब बातरा पेड़ की आड़ लेने के लिए बिलकुल उसके तने से सट गयी।
दूसरी ओर सटे हुए दामू ने पूछा, ‘‘क्यों भीग रही हो?’’ और बोरिये का छोर पकडक़र बातरा के बदन के नीचे दाब दिया। तब आधी रात थी। वक्तवैसे बहुत नहीं हुआ था, फिर भी बारिश की वजह से एवेन्यू सुनसान पड़ा था। बिजली की गडग़ड़ाहट सभ्यता की नीरवता को और भी स्पष्ट कर रही थी। बातरा को लगा, वह अकेली है, और उसे कुछ ठंड-सी भी लगी। उसने पेड़ के और निकट सिमटते हुए कहा, ‘‘नहीं...’’ दामू ने उसकी ओर हाथ बढ़ाकर बाल छूते हुए कहा, ‘‘भीग तो गयी...’’ बातरा के भीतर उसका एकान्त सहसा उमड़-उमड़ आया, उसकी पुरानी लालसा तड़प उठी.. दामू का कोमल स्वर सुनकर उसके भीतर न जाने क्या हुआ, वह एकाएक हतप्रभ, शून्य-सी होकर अपने ऊपर छाये हुए और कभी-कभी चमक जानेवाले अशोक के गीले पत्तों की ओर देखने लगी... दामू ने फिर बुलाया, ‘‘क्या हुआ, बातरा?’’ ‘‘कुछ नहीं।’’ ‘‘कुछ कैसे नहीं? बताओ न? कोई तकलीफ है?’’ बातरा से सहा नहीं गया। उसका बदन जैसे एकदम तप उठा। वह उठकर बैठ गयी, बोरिया उसने उतार फेंका, अशोक के तने की छाल में एक हाथ के नाखून जोर से गड़ाकर, आँखें फाड़-फाडक़र सडक़ की धुली हुई कालिख की ओर देखने लगी... दामू ने उसका हाथ धीरे-धीरे पेड़ से अलग कर अपने दोनों हाथों में ले लिया। बातरा ने छुड़ाया नहीं-उसे जैसे पता नहीं था कि वह कहाँ है... दामू ने पुकारा, ‘‘बातरा!’’ वह चौंकी। उसने दामू का हाथ झटक दिया, पेड़ से कुछ हटकर बैठ गयी। बोली, ‘‘मुझे मत बुलाओ!’’ ‘‘क्यों?’’ अचम्भे के स्वर में पूछता हुआ दामू उठा और पेड़ के इधर बैठ गया। ‘‘मुझे माँ की याद आ गयी, वह ऐसे बुलाती थी।’’ कहकर बातरा एकाएक रो उठी और थोड़ी देर में उसकी हिचकी बँध गयी... दामू ने कहा, ‘‘लेट जाओ!’’ वह बिना विरोध किये लेट गयी। दामू उसका सिर थपकने लगा और वह सो गयी। सवेरा होने को हुआ, तब भी अभी दामू वहीं बैठा था। बातरा एकदम हड़बड़ाकर उठी और बोली, ‘‘अरे-’’ दामू ने जल्दी से टोकते हुए पूछा, ‘‘क्यों, फिर भी याद आयी?’’ बातरा को अपनी रात में कही हुई बात याद आ गयी। वह झूठ नहीं बोली थी; लेकिन अब उसे लगा कि वह सच नहीं था... उसने दामू से कहा, ‘‘तुम सोये नहीं? जाओ सोओ।’’ लेकिन दामू पेड़ के दूसरी तरफ़ नहीं लौटा। उसे लगा कि पेड़ के एक तरफ से दूसरी तरफ़ आने का पड़ाव डेढ़ वर्ष में तय कर पाया है, तो एक बार कहने से नहीं लौटेगा। और एक बार से अधिक बातरा ने कहा भी नहीं। आस-पास के दुकानदारों ने यह नयी व्यवस्था देखी तो एक-दूसरे को बुलाकर उन पर फबतियाँ कसने लगे; एक ने सुनाकर कहा, ‘‘आखिर खुल ही गयी हकीकत राँड़ की!’’ लेकिन बातरा ने जब उद्दंड रोष से कहा, ‘‘चुप रहो, लाला!’’ तब वह वीभत्स हँसी हँसकर चुप हो गया। और बातरा को पैसे अधिक मिलने लगे। लोगों के भीतर छिपा हुआ शैतान जब समझता है कि दूसरों के भीतर भी शैतान बसा है, तब उसकी उस कल्पित मूर्ति को सिर झुकाये बिना नहीं रहता, फिर बाहर से चाहे जो कहे! और बातरा के भीतर जीवन-शक्ति उमडऩे लगी, उसकी वह उत्कंठा घनी होने लगी- कभी-कभी रात में वह न जाने कैसा स्वप्न देखकर चौंक उठती और अपना भीगा हुआ सिर दामू के कन्धे में छिपाकर अपना बोरिया का टुकड़ा कुछ दामू के ऊपर भी खींचकर जरा-सा काँपकर फिर सो जाती...
[4]
सर्दियाँ आयीं, तो बातरा के ऊपर एक जेल से नीलाम हुए काले कम्बल का आधा हिस्सा था, दामू के सिर पर एक पुरानी खाकी पगड़ी। और जब बसन्त के दिनों एक शाम को गिरीश पार्क के पिछवाड़े से मधुमालती की एक बेल में से कुछ फूल तोडक़र उन्हें दामू के पास डालते हुए बातरा ने अपनी पीड़ा को दबाते हुए लज्जित स्वर में कहा था, ‘‘मैं अभी आती हूँ, तुम यहीं रहना।’’ और एक ओर को चल दी थी, तब अशोक के पड़ के नीचे एक अलमोनियम का गिलास पड़ा था, एक लिपटी हुई छोटी चटाई, एक टूटी कंघी, एक पीतल की डिबिया, एक पेड़ की शाख में एक पीले कपड़े की पोटली भी टँगी हुई थी। बात जब इन दो बरसों में इकठ्ठी हुई चीज़ों को देखती थी, तब उसका जी भर आता था, उसे लगता था कि उसकी लालसा अब फलने के निकट है, क्योंकि अब तो-अब तो... और वह लज्जा में सिमट जाती थी, चोरी से दामू की तरफ देखती थी कि कहीं उसने यह देख तो नहीं लिया, उसके स्वप्न पढ़ तो नहीं लिए...
तो उस दिन साँझ को वह दामू को मधुमालती के फूल देकर चल दी, और रात नहीं लौटी। दामू को प्रतीक्षा में बैठे-बैठे भोर हो आया, तब वह आयी, अपनी लालसा के स्वर्ग की एक ओर सीढ़ी चढक़र-गोद में एक गुदड़ी में लिपटा हुआ शिशु लिये हुए। दामू ने उसके पीले मुँह की ओर देखा, फिर उसकी एक विचित्र स्निग्ध प्रकाश से भरी हुई आँखों की ओर, और मौन स्वीकृति में सब-कुछ अपनाकर कहा, ‘‘अरे, हम तो कुनबा हो गये!’’ कितना मधुर था वह एक शब्द ‘कुनबा’-एक सिहरन-सी बातरा के शरीर में दौड़ गयी। वह खड़ी न रह सकी, धम से बैठ गयी- दामू ने कहा, ‘‘अब धूप तो नहीं लगा करेगी?’’ धीरे-धीरे टीन की चादर का एक टुकड़ा आया जो पेड़ के साथ बँध गया और छतरी का काम देने लगा, फिर एक बहुत छोटी-सी खाट जिसकी रस्सियाँ धुएँ से काली पड़ी हुई थीं और जिस पर बातरा के बहुत सँभलकर बैठने पर भी रोज एक-न-एक रस्सी टूट ही जाती थी, फिर एक छाबड़ी जिसमें चकोतरे की फाँकें और पान के बीड़े तक सजने लगे। कभी-कभी कोई आकर दामू के पास बैठता, तो एक बोतल सोडे की भी आ जाती...
बातरा अपने सब ओर फैलते हुए परिग्रह की ओर देखती, फिर ऊपर टीन की छत की ओर और फिर अनदेखती-सी दृष्टि से दूर की उस मधुमालती लता के फूलों की ओर देखकर सोचती, कभी गमले भी आ जाएँगे-मेरे फूल... फिर बरसात आयी, तब बच्चे ने चिल्ला-चिल्लाकर नाक में दम कर दिया। तब अशोक की शाखा में एक पालना भी बँधा और टीन की छत के साथ बाँधकर बोरिये के टुकड़े आड़ के लिए लटक गये।
एक आदमी के भीतर जो शैतान होता है, वह तब एक दूसरे आदमी के भीतर के शैतान का पक्ष लेता है, जब तक कि उसका स्वार्थ न बिगड़े। पास-पड़ोस के दुकानदार दामू को बदमाश और बातरा को राँड़ से कम कभी कुछ नहीं कहते थे, फिर भी उनके प्र्रति काफ़ी सहनशील रहते थे, अपने गन्दे मजाक के भाईचारे में उन्हें खींच लिया करते थे। लेकिन अब पेड़ के बने इस घोंसले को देखकर कुछ को लगा कि उनकी दुकान के आगे की जगह घिर रही है और ग्राहक की दृष्टि से वह छिप गयी है। दामू और बातरा के प्रति उनकी उदारता मिटने लगी, और अब उन्हें यह सोचकर दुगुना क्रोध आने लगा कि इस परिवार पर उन्होंने इतनी मेहरबानी क्यों दिखायी...
लेकिन दिन बीतते गये, और बातरा स्वप्न देखती आयी... उसके भीतर जो शक्ति थी, जिसने हारना नहीं जाना था, आगे देखना ही जाना था, वह भोजन पकाकर बढऩे लगी।
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और फिर सर्दियाँ आयीं, फिर ग्रीष्म। फिर बारिश हुई, ख़ूब हुई और चुक चली। शरद के मधुर दिन आये, दीवाली के आलोक से कलकत्ता जगमगा उठा, उस बोरिये कसे घिरे हुए और टीन से छाये हुए थोड़े-से स्थान में भी दो मोमबत्तियों के आलोक ने काँपकर कहा, अरे, मुझे इससे अधिक आड़ नहीं मिलेगी? और निराश होकर बुझ गया फिर धीरे-धीरे ठंड बढऩे लगी और रातों में ओस भी पडऩे लगी... दिन अच्छे थे; बातरा को कभी बचपन में देखे हुए अपने ऊबड़-खाबड़ प्यारे देश की याद आ जाती; लेकिन वह कुछ अस्वस्थ रहने लगी। उसकी आँखें भर-भर-सी जाती और दूर कहीं के ध्यान में-अनुभूति में खो जातीं; कभी उसे लगता, उसके भीतर न जाने क्या काँप-सा रहा है, कभी उसके जी मिचला उठता, उसे लगा कि उसका शरीर एकदम से शिथिल हो गया, आँखें भारी होकर निकम्मी हो गयी हैं। वह घबराकर बैठ जाती... तब एक दिन एकाएक वह जान गयी कि उसे क्या हुआ हैं, और लज्जा से भरकर उसने दामू से कहा, ‘‘मैं भीतर ही रहूँगी’’ दामू पहले समझा नहीं, फिर गम्भीर हो गया, फिर कुछ चिन्तित-सा होकर बातरा के कन्धे पर हाथ रखकर थोड़ी देर खड़ा रहा, और तब बाहर चला गया... महीने-भर के अन्दर ही बातरा ने देखा, उस अशोक के नीचे बँधे हुए टीन के चारों और बोरिये की बजाय टीन की चादरें लग गयी हैं, जिसे उसका छोटा-सा बच्चा हाथ से पकडक़र हिलाता है, और खनखन ध्वनि होने पर जरा रुककर माँ की ओर देखता हुआ अपनी चालाक आँखों से मुस्कुरा देता है। बातरा कहती है, ‘‘चल बदमाश!’’ तब खिलखिलाकर हँस पड़ता है। जिस दिन सामने की ओर टीन की कटी हुई चादर बाँधकर बन्द हो सकने वाला किवाड़ बन गया, उस दिन भीतर आकर दामू ने झूठमूठ की कठोरता से कहा, ‘‘अब तो झूठ बोलकर नहीं भागेगी, बाती?’’ बातरा कुछ न बोल सकी। उसकी आँखें, उसका हृदय, उसका मन एकाएक उस स्वप्न से पुलक उठा-दो बच्चे, दो गमले, दो-एक फूल, और-और...
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लेकिन सवेरे पिछवाड़े के दुकानदार ने कहा, ‘‘क्यों बे दामू के बच्चे, यहाँ हवेली खड़ी करेगा क्या?’’ दामू ने कहा, ‘‘लाला, हमें भी तो रहने को जगह चाहिए, तुम तो-’’ ‘‘ऐंहें! बड़ा आया घर में रहनेवाला! और जब यहीं नंगा पड़ा रहता था और कुत्ते बदन चाटते थे तब?’’ फिर तीखे वीभत्स व्यंग्य से, ‘‘अब वह आ गयी है न लुगाई, तभी तो घर चाहिए उसके...’’ दामू ने उद्धत होकर कहा, ‘‘लाला, आबरू रखनी है, तो जबान सँभालकर बात कहो!’’ लाला चुप हो गया। पर शाम को कॉरपोरेशन के इन्स्पेक्टर ने आकर अपनी छड़ी बातरा की पीठ में गड़ाते हुए कर्कश स्वर में पूछा, ‘‘क्यों री, यह सब क्या है?’’
बातरा लेटी थी। दामू कहीं गया हुआ था। उठकर बच्चे को गोद से उतारती हुई बोली, ‘‘क्यों? मेरा घर।’’ ‘‘तेरे बाप की खरीदी हुई जमीन थी, जो घर बनाया? बनी है नवाबजादी टके-टके के लिए गलियों में ऐसी-तैसी कराती है, यहाँ सेंट्रल एवेन्यू पर घर चाहिए?’’
बरस-भर से बातरा ने किसी को गाली नहीं दी थी, न दुकानदारों के तकियाकलाम ‘राँड़’ शब्द के अतिरिक्त कोई गाली सुनी ही थी। अब इंस्पेक्टर के मुँह से यह पुण्यसलिता फूटती देखकर वह एकाएक कुछ कह न सकी, उससे हुआ तो सिर्फ इतना कि उसने खींचकर एक थप्पड़ इंस्पेक्टर के मुँह पर मार दिया!
इंस्पेक्टर एक क्षण भौंचक रह गया, फिर उसने अपनी छड़ी से बातरा की छाती में, कमर में, टाँगों में प्रहार करना आरम्भ किया और जबान से इंस्पेक्शन के दौरे करते-करते दिमाग में भरकर सड़ाँध पैदा करती हुई तमाम कलकत्ते की गन्दगी उगलने लगा। और आखिर में बच्चे को एक ठोकर मारकर आगे बढ़ा और पुकारने लगा- ‘‘पुलिस! पुलिस!’’
पुलिस आयी। बातरा के हथकड़ी लग गयी। सहमे हुए बच्चे को अपनी नंगी छाती से चिपटाये उसने देखा, उसकी पोटली, चटाई, चारपाई, गिलास सब पुलिस ने जब्त कर लिये, और उसकी स्थिर अनझिप आँखों के आगे टीन की चादरें भी उतर आयीं और अशोक का पेड़ वैसा ही नंगा हो गया, जैसा तीन वर्ष पहले था-नशे-में ही बातरा घिसटती हुई थाने की अेार चली, उसे होश तक नहीं आया, जबकि हिरासत में बन्द होकर वह बच्चे को नीचे बिठाने लगी-तक उसने देखा कि बच्चे की गर्दन एक ओर लटक रही है और मुँह से लार में मिला हुआ खून बह रहा है।
सिपाही ने आकर उसकी फटी धोती का छोर खींचते हुए कहा, ‘‘इसे निकालो, तलाशी ली जाएगी।’’ लेकिन बातरा को होश नहीं था। सिपाही उसका बहुत बढ़ा हुआ और कुरूप पेट देखकर धोती वहीं फेंककर झेंपा हुआ-सा बाहर निकल गया है, वह उसे भी नहीं मालूम हुआ; बाहर दो-तीन कांस्टेबलों की वीभत्स हँसी भी उसने नहीं सुनी उसने यन्त्रवत् धोती में बच्चे को लपेटा, उसे गोद में लेकर धोती के छोर से उसका मुँह पोंछा, फिर उठकर कोठरी के कोने के अँधेरे में सिमटकर बैठ गयी।
सवेरे चार बजे उसे कोठरी से निकाल दिया गया। बच्चा उसे नहीं दिया गया-साधनहीन लोगों के मुर्दे जलाने का पुण्यकार्य कारपोरेशन कर देता है।
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गिरीश पार्क से पूर्व की ओर मुडक़र विवेकानन्द रोड पर कोयले की दुकान के हाते को घेरेनेवाली टीन की चादरों की दीवार की आड़ में दामू और बातरा।
दामू कुछ पुराने अख़बारों के गट्ठर में से अखबार निकालकर एक के ऊपर एक बिछाता जा रहा है, कि बैठने लायक जगह बन जाए; बातरा टीन की चादर को सँभालने वाले खम्भों के सहारे खड़ी प्रतीक्षा कर रही है। मदद उससे की नहीं जाती, उसकी टाँगें काँप रही हैं। वह फटी-फटी-सी दृष्टिहीन-सी आँखों से बिछते हुए कागजों की ओर देखती जाती है, ऐसे मानो आँखें बाहर की ओर नहीं, भीतर की ओर देख रही हों, जहाँ उसमें दुर्बल, असहाय, लेकिन नया जीवन छटपटा रहा है; जहाँ एक अदम्य जीवन-शक्ति नींद में भी तड़प उठती है अकथनीय सपने देखकर-दरवाजे के आगे दो छोटे-छोटे फूल-भरे गमले, भीतर पालने में दो छोटे-छोटे बच्चे, और बातरा के पास एक और-कोई एक और...