जिजीविषा / पद्मा राय
अजीब इत्तेफाक है। आज हर चौराहे पर लाल बत्ती ही मिली। रूकते रूकाते दो किलामीटर की दूरी पूरे पन्द्रह मिनट में तय करने के बाद जाकर यह अहसास हुआ कि आज बैठी भी ग़लत जगह पर हूँ। स्कूल की इमारत दाहिनी तरफ है और मैं आदतन बांयीं ओर बैठ गयीं थी। अब या तो अपनी तरफ का गेट खोलकर चलते हुये ट्रैफिक के बीच नीचे उतरने का खतरा मोल लूं या फिर पति परमेश्वर को कष्ट दूं कि पहले वे बाहर निकलें फिर मैं अपनी जगह से खिसकते हुये उसी तरफ से गाडी से बाहर आऊं। लेकिन न तो खतरा मोल लेने की ज़रूरत पडी अौर न ही पति देवता को कष्ट ही झेलना पडा। ड्राइवर समझदार निकला। उसने गाडी घुमाकर रोकी।
हमेशा की तरह स्कूल का विशाल लोहे का गेट आधा खुला था। गेटकीपर धूप सेंक रहा था। उसने एक बार मेरी तरफ देखा ज़रूर लेकिन कुछ भी पूछने की जहमत नहीं उठायी। पैर फैलाकर और ज़्यादा इत्मीनान से बैठ गया। सामने स्कूल की पीले रंग की बसें एक कतार में खडी थीं। जो इस बात की गवाही दे रहीं थीं कि सभी बच्चे स्कूल पहुंच चुकें हैं।
बांयीं तरफ लॉन में माली अपनी खुरपी के साथ व्यस्त था। क्यारियों में गुडायी चल रही थी। उसके बगल में करीब आधा बोरी खाद रखी हुयी थी। पौधों में देना होगा। पौधे काफी स्वस्थ दिखायी दे रहें हैं। खासकर डहेलियों के. उसमें अलग-अलग रंगों की कलियां आने लगीं हैं। गुलदाऊदी भी खूब खिली है। आज हवा कुछ तेज है और ठंडी भी। लॉन की हरी-हरी दूब पर यहाँ वहाँ कुछ सूखे बदरंग पत्ते गिरे हुयें हैं। पतझड क़ा मौसम शुरू हो चुका है।
हमेशा की तरह रिसेप्शन पर अपनी कुर्सी पर निवाड से बंधा-पंकज बैठा है। एकदम एलर्ट, अपने रजिस्टर पर झुका हुआ। सबसे पहले उसी से सामना होगा। उसने मुझे देखा, चौंका और फिर मुस्कुराया। कई महीनों बाद मुझे एकाएक अपने सामने देखकर अचम्भित भी हुआ। करीब-करीब पूरी बत्तीसी बाहर दिखायी देने लगी उसकी। मुंह बंद करके मुस्कुराते हुये उसे मैंने कभी भी नहीं देखा। मैं भी मुस्कुरायी।
"नमस्ते पंकज, आप कैसें हैं?"
"मैं, मैं ठीक हूँ दीदी और आप?" अपना माथा दाहिनी ओर कुछ ज़्यादा झुकााकर उसने जवाब दिया और मेरी खैरियत भी पूछी। उसकी ऊंगलियों के बीच एक डॉटपेन फंसा हुआ था। वह कुछ लिख रहा था। मुझे देखा तो लिखना भूल कर मुझसे बात करने लगा। उसके काम का हर्ज न हो इसलिये मैं वहाँ से जल्दी ही आगे बढ ग़यी। किन्तु अपनी पीठ पर उसकी आंखों को दूर तक महसूस करती रही। कंप्यूटर रूम में ताला बन्द था किन्तु उसके बगल वाले कमरे में पढायी जारी थी। पढाने वाला चेहरा अपरिचित था मेरे लिये। अभी तक कई अनजाने चेहरे दिखायी पड चुके थे। इन अपरिचित चेहरों के बीच जो एक दो चेहरे परिचित दिखायी भी दिये उनके नाम दिमाग से लापता थे। दिमाग पर जोर भी डाला लेकिन बेकार। अब अपनी याददाश्त को क्या कहूँ? लगता है कि बुढापे का अटैक सबसे पहले इसी पर हुआ है।
गलियारा काफी लम्बा है और इस लम्बे गलियारे के दूसरे छोर पर निर्मल दी का आफिस है। अर्चना-निर्मल दी की असिस्टेंट-वहीं बैठती है। उससे पहली बार वहीं पर मिली थी। व्हील चेयर पर बैठे-बैठे ही अपने सारे काम जिस तत्तपरता और तल्लीनता से वह करती रहती है वह अच्छों-अच्छों में भी बडी मुस्किल से ही दिखायी देती है। स्पाइन में प्राब्लम होने की वजह से उसके धड क़ा विकास सही तरीके से नहीं हो पाया है। पीठ सीधी नहीं हो सकती। गर्दन के पास कूबड ज़ैसा आभास होता है। किन्तु इससे क्या? निर्मल दी के उस बडे क़मरे में चकरघिन्नी की तरह कभी इस कोने में तो कभी उस कोने में नाचते हुये उसे कभी भी देखा जा सकता है। निर्मल दी को अपने काम से कम ही फुर्सत मिल पाती है। अपने आफिस में एक दो घंटे से ज़्यादा नहीं बैठ पातीं हैं। लेकिन उनका टेलीफोन-वहीं उसी कमरे में उनके आफिस टेबल पर होता है चौबीसों घंटे। उसकी घंटी अक्सर बजती ही रहती है। निर्मल दी नहीं हैं तब? उनके न रहने पर उनके लिये आये सारे फोन कॉल रिसीव करती है अर्चना। कम्प्यूटर पर सधे हाथों से टाइप करती अर्चना की ऊंगलियां कितनी फुर्ति से जगह बदल कर व्हीलचेयर की व्हील घूमाने लगतीं हैं यह देखते ही बनता है। कुछ ही पल में अर्चना निर्मल दी के मेज के पास रिसीवर कान से लगाये किसी से बात करती दिखायी देती है।
पहली बार जब उससे मिली थी, उसके लिये दुख हुआ था। तब उसके विषय में जानती ही कितना थी? केवल उसके अविकसित बेडौल शरीर को ही देख पायी थी। चार पांच दिन पहले ही उसका फोन आया था-मुझसे मिलना चाहती थी। मैं तो वहाँ जाने का मौका तलाश रही थी जो अब मिल गया। इसीलिये आते समय घर में पडी तमाम पत्र-पत्रिकायें भी अपने साथ लेती आयी थी। अर्चना को इस समय यहीं होना चाहिए. आफिस के बाहर स्टूल पर सीधा बैठा हुआ चपरासी उठ कर खडा हो गया। पूछने का मौका दिये बिना ही उसने कहा-
"अर्चना दी तो इस समय यहाँ नहीं हैं।"
"क्या आज नहीं आयेंगी?"
"वे आ चुकीं हैं। अभी यहीं कहीं गयीं हैं। थोडी देर में वापस आ जायेंगीं।"
"ठीक है वे जब आयें तब उन्हें ये किताबें ध्यान से दे देना और बता देना कि मैं आयी थी।"
कह कर वापस मुडी ही थी कि याद आया-मैंने अपना नाम तो उसे बताया नहीं, तब भला ये क्या बतायेगा कि कौन आकर किताबें दे गया।
"कहना पद्मा दी आयीं थीं।"
"जी मुझे मालूम है।"
मैंने उसकी तरफ कृतज्ञता से देखा और पीछे मुड ग़यी।
अब यहाँ तक आयीं हूँ और बच्चों से न मिलूं यह कैसे हो सकता है। उनकी सूरतें एक-एक करके आंखों के सामने घूमने लगीं। अब तक तो वे थोडे अौर बडे हो गये होंगे। अनजाने में चाल तेज हो गयी। पुरानी क्लास में कोई भी नहीं था। वहां सिर्फ़ कुर्सियां और मेजें थीं जिनपर बच्चों के नामो की चिट चिपकी हुयी थीं। सब नाम पढ ग़यी। एक भी परिचित नाम नहीं था। बच्चों का इस समय ग्रासमोटर सेशन चल रहा होगा शायद। पास वाला हाल नुमा कमरा उसी का है। वहां झांक कर देखा, मेरा अनुमान सही निकला। अंजना के साथ-साथ सारे बच्चे भी वहीं मौजूद थे। बच्चे फर्श पर इधर उधर कोई चित तो कोई पट लेटे थे। सभी रोंलिग कर रहे थे यानी कि जमीन पर सिर के बल लगातार पलटते हुये तीनो दिशाओं में से किसी एक की तरफ बढ रहे थे। रंजना ताली बजाकर गाती हुयी सबके पास से गुजर रही थी। गाने में उसका साथ वहाँ उपस्थित अन्य टीचर, वालण्टियर एवं हेल्परस सभी दे रहे थे।
" वेन यू हैप्पी ऐन्ड यू नो,
ऐन्ड यू रियली वान्ट टू शो।
से हैलो। "
वहां उपस्थित सभी अपने-अपने काम में मशरूफ थे। तीन कुर्सियां तीन अलग-अलग दिशाओं में रखीं थीं। एक पर वाटर कलर से बनी हुयी एक रंगबिरंगी खूबसूरत परों वाली तितली चिपकायी गयी थी दूसरी पर टाईगर और तीसरी पर कमल के फूल का चित्र दिखायी दे रहा था। बच्चों को यह निर्णय स्वयं करना था कि उन्हें किस कुर्सी के पास पहुंचना है। वे सब जी तोड क़ोशिश कर रहे थे। इस समय उन्हें सिर्फ़ अपना लक्ष्य दिखायी दे रहा था। वे लुढक़ रहे हैं। कभी किसी का सिर बेकाबू हो रहा है तो कभी एक दूसरे के रास्ते में आकर टकराने को होतें है-तभी उनके आस पास मौजूद कोई दीदी या वालण्टियर इनकी मदद कर देतें हैं। उन्हें जल्दी है। वे नहीं चाहते कि अपने गन्तव्य तक वे पोयम समाप्त होने तक न पहुंच पायें। उनकी तन्मयता और कोशिशें देखकर कहीं से यह आभास भी नहीं हो रहा था कि वे सभी विकलांग हैं। अभी तो इस शब्द का अर्थ भी ये नहीं जानते होंगे। गजब की इच्छा शक्ति है इनकी। अपनी सारी बुद्धि, विवेक एवं क्षमता के साथ ये सब अपने द्वारा तय किये हुये लक्ष्य की तरफ बढ रहें हैं। अभी शायद यह सेशन देर तक चलेगा। मैं वहाँ से बाहर निकल आयी। मेरे पीछे-पीछे अंजना भी बाहर आ गयी।
"मैं अब चलतीं हूँ।"
"जायेंगी आप?"
"हां चलूं, जरा अर्चना से मिलना था।"
आते समय गलियारे के अंतिम छोर पर पडने वाला निर्मल दी का आफिस अब सबसे पहले पडा। अर्चना अब तक ज़रूर आ गयी होगी। वह मुझसे मिलना चाहती थी इसलिये उससे मिलकर ही जाना चाहिये।
अर्चना आ चुकी है। उसकी आवाज बाहर गलियारे तक सुनायी दे रही थी। बाहर स्टूल पर चपरासी नहीं था। अंदर चली गयी। टेलीफोन रिसीवर अर्चना के हाथ में था, वह किसी से बात कर रही थी। उसकी पीठ दरवाजे की तरफ होने के कारण मैं उसका चेहरा नहीं देख पायी। वहीं खडी होकर बात समाप्त होने का इंतजार करने लगी। कुछ क्षणों के इंतजार के बाद अर्चना ने रिसीवर रखा ओर अपनी व्हील चेयर घुमायी। उसे देखकर मैं चौंकी। कुछ अलग लग रही थी।
"नमस्ते।"
"नमस्ते पद्मा दी। मैं आपका ही इंतजार कर रही थी। सुबह आप आयीं थीं, मुझे मालूम हुआ था। किन्तु उस समय मैं ऊपर गयी हुयी थी, आपको दिक्कत तो ज़रूर हुयी होगी। सॉरी पद्मा दी।"
"कैसी बातें कर रही हो। मुझे कोई दिक्कत विक्कत नहीं हुयी। बल्कि इस बीच जाकर मैं अपनी पुरानी क्लास देख आयी। हां यह बताओ कैसे याद किया?" उससे बात करते समय भी मैं उसके चेहरे पर आये बदलाव के बारे में सोच रही थी।
"आप हमारे लिये पहले ट्रांसलेशन किया करतीं थीं न?"
"हां, क्यों?"
"कुछ और ट्रांसलेशन आप कर सकेंगी?"
"क्यों नहीं। बल्कि मुझे बहुत अच्छा लगेगा। कहां है वह आर्टिकल जिसका ट्रांसलेशन करना है?"
उसने जल्दी-जल्दी अपनी व्हील चेयर आगे बढ़ायी। चार चक्कर व्हील घूमी होगी कि उसने अपनी दिशा बदल दी। यह कमरा काफी बडा है कमरे की पिछली दीवार के पास एक बडी-सी लोहे की आलमारी रखी है। उसके नजदीक पहुंचकर उसने उसका हैन्डल घुमाया और आलमारी खोलकर उसमें से कुछ फुलस्केप पेपरस निकाल लिये। उन्हें देखा और उसमे से कुछ पन्ने छांट कर मेरे पास ले आयी। यही वे आर्टिकल थे जिनका मुझे ट्रांसलेशन करना है।
"आप मेरे लिये इतनी सारी पत्रिकायें ले आयीं। थैंक्स पद्मा दी। मुझे अब कई दिनो तक पढने के लिये सामग्री उपलब्ध हो गयी।"
"यू आर वेलकम।" मुस्कुराते हुये मैंने कहा।
"आपको शायद पता नहीं, मैं जब दिल्ली यूनिवर्सिटी में थी तब मैंने यूनिवर्सिटी की मैगजीन के लिये एक आर्टिकल लिखा था। उसको फर्स्ट प्राइज मिला था।"
"अच्छा।" मेरे लिये यह खबर नयी थी। इसका मतलब अर्चना यूनिवर्सिटी गयी है।
"रेगुलर स्टूडेन्ट की तरह?"
"नहीं, प्राइवेट।"
"बी. ए. में क्या-क्या सबजेक्ट थे?"
"बी. ए. आनर्स इंग्लिश।"
" ये तो बहुत अच्छा सबजेक्ट है।
"हां मैंने उस वर्ष टॉप भी किया था।"
"कितनी अच्छी बात है।"
"छोडिये इन बातों को, मैं भी आपको क्या बताने लगी। असली बात तो यह है कि मुझे फिक्शन पढने का बहुत शौक है लेकिन किताबें बहुत मंहगीं मिलतीं हैं। एक दो से ज़्यादा खरीदना मुश्किल है। इसलिये जब आपने उस दिन बताया कि आपके यहाँ अच्छी खासी लाइब्रेरी है तो मैंने सोचा कि क्यों न उसका फायदा उठाया जाये।" शालीनता से उसने अपनी तारीफ वाले प्रसंग को महत्त्व न देते हुये मुझे उसके पढने के लिये किताबें लाने की खुशी जतायी।
"अच्छा लग रहा है सुनकर। आजकल कौन किताबों से दोस्ती रखता है। मैं अपने यहाँ मौजूद किताबों की पूरी लिस्ट तुम्हारे पास भेज दूंगी। उसमें से तुम्हें जो भी किताब चाहिए-मुझे बता देना, मैं भेजती रहूँगी। ठीक है न।"
"ओह, थैंक्यू पद्मा दी। आप सोच नहीं सकतीं कि मुझे कितना अच्छा लग रहा है। इन्टरटेनमेन्ट के लिये सिवाय किताबों के और है ही क्या हम जैसे लोगों के लिये। बाहर आना जाना मुश्किल होता है। इसलिये मुझे किताबों की बहुत ज़रूररत पडती है। अब आप मिल गयीं हैं तो अच्छा है। एक बार फिर से कहूँगी, थैंक्स।" मुस्कुराते हुये अर्चना ने कहा।
मैं सिर्फ़ मुस्कुराई.
"अच्छा अब मैं चलतीं हूँ।"
"आती रहियेगा।"
"बिल्कुल और कुछ?"
"नो थैंक्स।" कहकर वह विनम्रता से मुस्कुरायी।
उसने अपना कम्प्यूटर संभाल लिया और मैं उसके उज्ज्वल भविष्य की कामना करती हुयी लौट रही थी।
वहां से चलने के एक मिनट बाद ही अचानक मुझे उसके चेहरे में हुये परिवर्तन का रहस्य समझ में आ गया। पिछली बार जब उससे मिली थी तब उसने किसी तरह का मेकप नहीं किया था। लेकिन आज उसने बहुत सलीके के साथ अपने चेहरे से मेल खाता फाउन्डेशन और हल्की-सी लिपिस्टिक लगा रखी थी। सिर्फ़ इतने भर से एक दम बदली हुयी नजर आ रही थी। उसमें मौजूद जीजिविषा मुझे गहरे तक छू गयी। वापस लौटकर उसे काम्पलीमेन्ट देने का मन किया। किन्तु ऐसा नहीं कर पाई. अपने जीवन से कोई शिकायत नहीं है अर्चना को, बल्कि जिस बहादुरी और सकारात्मक तरीके से प्रकृति के चैलंज को स्वीकार करते हुये ऐसी सफलता इसने अर्जित की है-अच्छों अच्छों को उससे ईर्ष्या हो सकती है। मुझे पूरी उम्मीद है कि आगे अभी और तमाम उपलब्धियां अर्चना का इंतजार कर रहीं होंगी। बाहर हवा अब भी चल रही थी किन्तु अब उतनी ठंडी नहीं थी। उसमें बसन्त की भीनी-भीनी खुशबू कुछ ज़्यादा ही घुल गयी थी।