जिजीविषा / सुशील कुमार फुल्ल

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उठते-बैठते चलते-फिरते हर समय उसे यह महसूस होता रहता कि वह मर रहा है, मरता ही जा रहा है, परन्तु उसे अचम्भा होता है कि मरने की प्रक्रिया का अन्तहीन अन्त निरन्तर बना रह सकता है। उसका मन होता है कि वह अपनी अनुभूति अपनी पत्नी से बताये, अपने मित्रों से कहे परन्तु उनकी प्रतिक्रिया शायद ही सहानुभूति हो, ऐसी सम्भावना की कल्पना-मात्र से वह चुप रह जाता है।

आज जब वह घर पहुंचा तो बिल्कुल सहज जान पड़ता था। आते ही उसने एक प्याला चाय लिया परन्तु चाय ठण्डी होने के कारण उसका मन नहीं भरा। न चाहते हुए भी उसने ऐसा व्यक्त कर दिया परन्तु पत्नी के चेहरे से साफ झलकता था....... क्या साफ झलकता था, यह वह महसूस करता है परन्तु अनुभूति को शब्द नहीं देता। व्यर्थ का बवंडर खड़ा हो जाएगा। एक बार तर्क-वितर्क शुरू हो गया, फिर शीघ्र अन्त होने का नहीं। कई बार तो अपने आपको रोकते हुए भी वह कहीं आगे तक उलझता ही चला जाता है। तब उसे ‘मर रहे होने’ का अहसास और भी गहराई से होता तथा वह दिल की धड़कन को हाथ से महसूस करता हुआ सोचता कि वह मर नहीं रहा बल्कि घुल-घुल कर मर रहा है।

वह कुछ देर तक इधर-उधर टहलता रहा। खाने के लिए कुछ ढूंढ़ता रहा। उसके हाथ थोड़ी-सी मूंगफली लगी। वह मूंगफली ही खाने लगा। मेज पर पड़े अखबार पर वह छिलके रखने लगा। पत्नी ने उसे घूर कर देखते हुए कहा- ‘‘कभी सफाई का ध्यान भी रख लिया करो।’’ यहां दिन भर नौकरी करो और सुबह शाम सफाइयाँ करो। कभी यह करो, कभी वह करो।

उसने सिर्फ अपनी पत्नी की ओर देखा, बोला नहीं। ‘‘अखबार अगर कूड़ा-कर्कट रखने के लिए ही लेते हो तो बन्द ही क्यों नहीं कर देते?’’ वह फिर भी नहीं बोला। ‘‘मैं नौकरी इसलिए तो नहीं करती कि तुम सब गुलछर्रे उड़ाओ और मैं कलपती रहूं।’’ ‘‘तुम्हें किसी ने कहा था नौकरी करो।’’ वह कुछ और बोलता- बोलता रूक गया।

‘‘मैं नौकरी न करूं तो तुम्हारा दिवाला पिट जाए। तुम्हारे तीन-चार सौ रुपये से क्या बनता है। यह तो मेरे पांच सौ रुपये आ जाते हैं, तो घिसटते-पिसटते निर्वाह हो जाता है अन्यथा......’’ उसकी पत्नी ने थोड़े में ही बहुत कुछ कह दिया था। कहे से अनकहा कहीं अधिक पीड़ादायक था, कहीं अधिक मारक। वह चुप हो गया। कहीं बहुत गहरे धंस गया, जहां उसे अपने दिल की धड़कन भी सुनाई नहीं दे रही थी। ‘‘आप ही सुरेश्वर जी हैं?’’ उसने घर के अन्दर प्रवेश करते हुए पूछा था। ‘‘जी।’’ वह किसी अपरिचित युवती के इस प्रकार के सम्बोधन से खिल उठा था। ‘‘मुझे आपकी कहानी ‘एक सन्यासी और’ बहुत पसन्द आई।’’

‘‘जो ‘कल्पवृक्ष’ में छपी है?’’ ‘‘जी।’’ वह बहुत प्रसन्न था। उसकी पहली ही कहानी छपी थी परन्तु जिस पत्रिका में वह छपी थी उसमें एक ही कहानी का प्रकाशित होना क्षणभर में लेखक को प्रसिद्ध कर देने का पर्याय था। कहानियां तो उसने पहले भी लिखी थीं परन्तु उसका कभी साहस नहीं हुआ था कि वह उन्हें प्रकाश-नार्थ किसी बड़ी पत्रिका में भेजे। यह तो भला हो उसके मित्र का जिसने उसका हाथ देखकर कहा था- तुम्हें तो बहुत ही कल्पनाशील होना चाहिए। क्या कभी कुछ लिखते भी हो? ‘‘हां।’’ सुरेश्वर के हर्ष की सीमा नहीं थी।

‘‘तुम्हें प्रयत्न करना चाहिए। लेखन में तुम्हारी सफलता निश्चित है।’’ और हुआ भी वैसा ही। उसकी पहली कहानी ही देश की सबसे बड़ी कहानी पत्रिका में प्रकाशित हो गयी। वह एकाएक अपने-आप को कहानीकार महसूस करने लगा।

वे दोनों बैठक में कुर्सियों पर आमने-सामने जा बैठे थे। ‘‘आपका शुभनाम?’’ ‘‘करूणा।’’ ‘‘आप कहां से आई हैं?’’ ‘‘मैं इसी मोहल्ले में रहती हूं। पत्रिका में कहानी के साथ आपका पता पढ़ा तो सोचा इतना निकट होते हुए भी एक महान कहानीकार से न मिलना मूर्खता होगी।’’ अब वह खुलकर हंसने लगी थी।

सुरेश्वर ने सोचा था वह कहीं दूर से, किसी दूसरे नगर से उसी मोहल्ले में उससे मिलने आई होगी परन्तु जब यह पता चला कि वह उसी मोहल्ले में रहती थी, तो उसका सारा उत्साह जाता रहा। वह एकाएक अपने-आप को बहुत ही छोटा कहानीकार महसूस करने लगा। करूणा द्वारा उसके प्रयुक्त ‘महान कहानीकार’ शब्द भी उसे बांध नहीं पाए।

दोनों लगभग एक घण्टे तक बैठे रहे परन्तु बातचीत औपचारिकता सीमा में सिमट आई थी। ‘‘आप क्या करती हैं।’’ ‘‘बी. एड. में हूं।’’ ‘‘क्या बी. एड. जरूरी है?’’ ‘‘हां।’’ ‘‘क्यों?’’ ‘‘शादी के लिए पासपोर्ट है।’’ ‘‘दोनों भरपूर हंसी हंसे थे।’’

सुरेश्वर के चेहरे पर एक अपरिचित मुस्कान फैल गई। उसकी पत्नी ने तुरन्त उसे पकड़ लिया। बोली- ‘‘कल्पना की दुनियां में ही खोये रहते हो। कभी घर का भी किया है। आज किस कल्पना सुन्दरी की याद में मुस्कराहटें फैला रहे हो?’’

‘‘तुम्हारी ही।’’ वह गम्भीरता से बोला।

‘‘बिल्कुल झूठ। मेरे सिवाय तुम्हें दुनिया की सभी औरतें सुन्दर लग सकती हैं।’’ ‘‘सच।’’ ‘‘तो और झूठ।’’ वह अपनी पत्नी के अविश्वास के आगे टुकड़े-टुकड़े हो गया। थोड़ी देर के लिए मौन। फिर बोला- ‘‘अच्छा, आज जल्दी खाना बना लो, कुछ लिखने का विचार है।’’ ‘‘लिखना न हुआ पागलपन हो गया। कभी साल में सौ-पचास रुपये आ गये, उससे क्या होता है।’’ कुछ सोचते हुए पत्नी ने फिर कहा- ‘‘और जो सौ-पचास आते भी हैं, वे कहानियों के आने-जाने पर डाक टिकट लगते हैं, उसी में निकल जाते हैं। छोड़ो कहानियों का चक्कर और कोई कम्पीटीटिव परीक्षा दे डालो। बत्रा कब का सुपरिटेंडेंट बन गया और तुम क्लर्क के क्लर्क बैठे हो।’’

‘‘अरे भाग्यवान! देखना तो मेरे दिल की धड़कन रूकती जान पड़ती है। सच! मैं मर रहा हूं।’’ ‘‘बहुत देखे हैं ऐसे मरने वाले। पता नहीं कहां से सीख आये हो, बार-बार यही रट ‘मैं मर रहा हूं।’ मरने वाले कभी ऐसे नहीं कहते। और फिर मरना सभी को है। तुम्हारे मरने में विशेष क्या है?’’ उसकी पत्नी सच ही तो कहती है। वह चौबीसों घण्टे मरने की बात कहता है..... कोई तुक है। वह उठकर टहलने लगा है। वर्ष का अन्त चल रहा था। इन दिनों में दफ्तरों में काम की रफ्तार बढ़ जाती है। दफ्तर के बाबू फिर कई-कई घण्टे अतिरिक्त समय भी काम में लगे रहते हैं। सुरेश्वर इस दफ्तर में अभी नया-नया बदल कर आया था। वह अपना इंप्रेशन बनाना चाहता है। उसने बहुत-सा बकाया काम निपटाने का दायित्व भी ले लिया था।

अब उसे न दिन में फुर्सत, न सुबह-शाम। इन दिनों वह कहानियां लिखना भी भूल गया। रात को बहुत देर तक वह दफ्तर में बैठा काम करता रहता। बहुत थक जाता। कभी-कभी तो वह वहीं सो लेता और फिर शाम काम करने बैठ जाता लेकिन फिर लगता था निश्चित समय में वह काम निपटा नहीं पाएगा। अचानक उसे डॉ. सुमनवीर की याद आयी। वह प्राइवेट तौर पर एम. एस. डिग्री के लिए पेपरों की तैयारी कर रहा था। सारी-सारी रात को पढ़ता रहता। दिन में अस्पताल में भी पूरी ड्यूटी देता। सुरेश्वर पड़ोस में ही रहता था। उसने जिज्ञासावश डॉ. सुमनवीर से रहस्य जानना चाहा था। उसके रहस्य पूछने पर डॉ. सुमनवीर ने हंसते हुए कहा था- मेरे पास एक ‘ड्रग ऑफ कान्फिडेन्स’ है (विश्वासोत्पादिनी दवा) जिसे खाने से न नींद उड़ जाती है बल्कि पढ़ने से मन मरने लगता है। उसका नाम है- मैथाड्रीन ‘अलादीन का चिराग’ के समतुल्य है मेरी यह संजीवनी।’’

सुरेश्वर उस समय तो अविश्वास से मुस्करा दिया था परन्तु अब उसे रहस्य समझ में आया। वह बाजार से दस-बीस गोलियां मैथाड्रीन की ले आया। सांय खाना खाने के बाद एक गोली खाकर वह दफ्तर में जाकर काम करने लगा। रात चार बजे तक वह बड़े आराम से बैठा रहा। फिर एक-आध घण्टा लेट लिया। फिर नहा-धोकर दफ्तर में जा बैठा।

वह संजीवनी के सहारे कई दिन तक लगातार दफ्तर का काम निपटाता रहा। उसे अफसोस था कि उसने पहले ही संजीवनी बूटी का प्रयोग क्यों नहीं किया। नहीं, तो आज तक काम ही समाप्त हो गया होता।

अब काम समाप्त करने की सीमा-रेखा आ ही पहुंची थी लेकिन उसमें भी काम होता दिखाई नहीं देता था। संजीवनी के सहारे लगभग अड़तालीस घण्टे लगातार बैठा रहा। सुबह के नौ बज चुके थे। वह अपने काम की समाप्ति पर था तभी मि. हाण्डा आते दिखाई दिए। उसने गर्दन उठाकर उनकी ओर देखा। वह देखता ही रह गया। उसे लगा मानो उसके सिर में लहरियां चलने लगी हों...लहरियां जो बढ़ती ही जा रही थीं।

‘‘अच्छा, भाई सुरेश्वर! आप तो काम कर रहे हैं। मैं तो यों ही इधर निकल आया था। अभी दफ्तर लगने में एक घण्टा है।’’ कहकर मि. हाण्डा जाने लगे। सुरेश्वर के मस्तिष्क में लहरियां धूम-धड़ाका करने पर तुली हुई थीं। उसने मि. हाण्डा से कहा- ‘‘मुझे अजीब-सा महसूस हो रहा है। सिर में अजीब-सी सरसराहट है।’’ ‘‘चलो, डॉक्टर के पास चलते हैं।’’ मि. हाण्डा ने परामर्श दिया।

दोनों डॉक्टर के पास पहुंचे। मि. हाण्डा प्रतीक्षालय में बैठे रहे और सुरेश्वर की जांच अन्दर हो रही थी। उसने जाते ही डॉक्टर से बता दिया था- डॉक्टर साहब मैंने मैथाड्रीन खाई थी...कई महीनों से लगातार खाता आ रहा हूं।

डॉक्टर ने घूर कर उसे देखा था। फिर रक्तचाप की जांच की थी। सुरेश्वर की भुजा पर रक्तचाप यंत्र पहली बार लगा था। वह चौंक गया था। पारे के चढ़ने उतरने की प्रक्रिया को देखकर वह सहम गया था। मैथड्रीन का भला रक्तचाप से क्या सम्बन्ध? रक्तचाप तो बड़ा बुरा होता है। कहीं वह..... वह दिल का मरीज तो नहीं बन जाएगा। लेकिन नहीं...तीस-बत्तीस की आयु में ये बिमारियां नहीं होती- उसने मन-ही-मन सोचा था। फिर डरते-डरते डॉक्टर से पूछ ही लिया था- ‘‘रक्तचाप तो ठीक है न।’’

‘‘नहीं। नार्मल से बहुत ऊंचा उठ गया है। तुम्हें मैथाड्रीन नहीं खानी चाहिए थी। इससे गुर्दे एवं दिल खराब हो सकता है।’’ डॉक्टर ने सहज स्वभाव से कहा था। ‘‘हाण्डा साहब! आप इन्हें ले जाइये तथा पूरा आराम करवाइए। यह दवाई दो-दोे घण्टे बाद देते रहें। कल फिर चेक करवाना।’’ डॉक्टर ने हाण्डा साहब को अन्दर बुलाकर सब कुछ समझा दिया था।

‘‘सुरेश्वर जब डॉक्टर के पास आया था, तो स्थिति उसे इतनी गम्भीर नहीं लग रही थी। सोचा था कि सोने-न-सोने के कारण ही मस्तिष्क में लहरियां दौड़ती महसूस हो रही हांेगी। लेकिन क्लिनिक से बाहर निकलते ही उसे लगा मानो वह गिरा कि अब गिरा। उसे अपने दिल की धड़कन बहुत तेज लगी। उसे याद है वह हाण्डा साहब की साहयता से घर पहुंच गया था। फिर उसे कुछ नहीं पता था। जब वह लगभग छः घण्टे बाद होश में आया तो काफी स्वस्थ लग रहा था। हाण्डा साहब सारा दिन उसक पास बैठे रहे थे। दफ्तर के बाकी लोग नहीं आ सके थे। काम का निपटारा बहुत जरूरी था।

वह भौचक्का रह गया जब मि. हाण्डा ने उसे बताया कि इन छः घण्टों में दो बार डॉक्टर को बुलाना पड़ा। ‘‘लेकिन ऐसी बात क्या थी?’’ सुरेश्वर ने पूछा। मि. हाण्डा ने बताया, ‘‘बात तो कुछ भी नहीं थी और देखा जाए तो थी भी। तुम बिल्कुल अचेत पड़े थे। बीच-बीच में कुछ बोलते जाते थे।’’ ‘‘क्या?’’ ‘‘यही कि मैं मर रहा हूं। अब नहीं बचूंगा। देखो, मेरे हाथ-पांव एकदम ठण्डे हो गये हैं। ओह! मैं नहीं जानता था कि इतनी जल्दी मर जाऊंगा लेकिन...’’ ‘‘और भी कुछ कहा?’’ ‘‘चलो छोड़ो। परमात्मा की कृपा से समय टल गया।’’ ‘‘मैंने कुछ करूणा तथा बच्चों के बारे में भी सुनायी नहीं दिया।’’ ‘‘कहा तो था लेकिन हमें साफ-साफ सुनायी नहीं दिया।’’ सुरेश्वर समझ गया कि मि. हाण्डा जान-बूझकर उसे नहीं बता रहे हैं ताकि फिर उस पर कोई प्रभाव न हो जाए। परन्तु उसे याद है कि बेहोशी में भी बार-बार करूणा तथा बच्चों के प्रति चिन्तित दिखाई देता था। वह बुदबुदाया था- करूणा से कहना वह दूसरी शादी जरूर कर ले। दो बच्चे हैं वे भी पल जायेंगे। मैं उसे क्षणभर का सुख भी नहीं दे पाया। अभी जाने की योजना बन रही थी कि बुलावा आ गया। करूणा से अवश्य कहना कि वह विवाह कर ले।

दोपहर में ही उसकी पत्नी को स्कूल से बुला लिया गया था परन्तुउस समय सुरेश्वर गहरी नींद में सोया था। डॉक्टर ने इंजेक्शन दे दिया था। सांय उठा तो उसका चेहरा अजीब-अजीब लग रहा था। उसकी पत्नी ने बड़े प्रेम से उसे देखा था... प्रेम नहीं, शायद उसमे दया की भावना अधिक थी।

उसे अब आराम की आवश्यकता थी। जो भी मित्र आदि उससे मिलने आते- बराबर परामर्श देते रहते। देखो अ बनमक बिल्कुल नहीं खाना। घी बहुत बुरा है। बड़ी नामुराद बीमारी है। बचकर चलो तो शायद ठीक हो जाओ। कभी हो सकने वाले खतरे से वह प्रायः शंकित रहता। मित्रों की सावधानी के परामर्श से वह और भयभीत हो जाता। ऐसी स्थिति में उसकी पत्नी ने उसे पूरी तरह से सम्भाला था। उसी के परामर्श से वह कुछ दिन बच्चों सहित घर से बाहर चला गया था। वे दिन उसके अच्छे, शान्तिपूर्ण ढ़ंग से निकल गए थे, हालांकि उसे कई बार अचानक लगता कि पता नहीं कौन-सा पल आखिरी पल साबित हो। वह कभी अकेले में अपनी पत्नी को अपना भय बताता- करूणा! मैं मर रहा हूं। मरना कितना अनिश्चित एवं कितना अवश होता है।

‘‘जो हो चुका है, उसे भूल जाओ। और फिर तुम्हारा रक्तचाप तो गोलियां खाने से हुआ था, वैसे नहीं, अब गोलियां खाना छोड़ दी हैं, तो कुछ नहीं होगा। सब ठीक हो जाएगा।’’ वह उसे समझाती। वह ध्यान से उसे सुनता परन्तु बोलता कुछ नहीं। हां, मन में एक बंवडर अवश्य उठ जाता है। शायद करूणा उसका मन रखने के लिए कहती है। पता नहीं वह कब आर-पार हो जाए। उसका मन कहता- मुझे अभी बहुत कुछ करना है, बहुत कुछ लिखना है। अभी नहीं...फिर उसकी पत्नी ने अपने पति का हाथ एक ज्योतिषी को दिखाया था। हस्तरेखाओं को देखते हुए उसने कहा था- तुम मर सकते थे परन्तु वह समय निकल गया है। तुम्हारी जीवन रेखा बड़ी लम्बी है।

सुरेश्वर ने हस्तरेखा विशेषज्ञ को बड़ी कृतज्ञता से देखा था... फिर एक विचार कौंध गया था...शायद उसकी पत्नी ने हस्तरेखा विशेषज्ञ को ऐसा कहने के लिए पहले ही कह दिया हो। उसे लगता- डॉ. सुमनवीर झूठ कहता था कि संजीवनी खाकर सफलता की सीढ़िया चढ़ते जाना चाहिए। अजीब आदमी था। कहता था- ‘‘भले ही संजीवनी खाने से दस-पन्द्रह वर्ष आयु कम हो जाए परन्तु महत्वकांक्षांए तो पूरी हो जाएंगी।’’ सब गलत- सुरेश्वर ने सोचा। जब सचमुच मरण की स्थिति आ जाती है, तो कितनी तिलमिलाहट होती है। विवशता की चरम-स्थिति मृत्यु-बोध का अद्भुत अनुभव। ऐसा सोचकर कांप उठता है।

उसने कई महीनों बाद अपनी पत्नी को बताया था, ‘‘अजीब बात है, जीने के लिए भी संजीवनी बूटी की आवश्यकता है और मरने के लिए भी...मैं जीवन चाहता हूं परन्तु अनिश्चितता में जीना मरने जैसा ही लगता है।’’

‘‘जीना कौन नहीं चाहता?’’ उसकी पत्नी ने फिर कहा- ‘‘लेकिन तुम्हारा यह उलट-पुलट सोचना और अंट-संट बोलना मुझे अच्छा नहीं लगता। अब स्वस्थ्य हो गए हो। क्यों हमारा जीवन भी दूभर करते हो।’’ वह चुप हो गया था।

‘‘पापा! खाना खा लो।’’ मनु ने आकर कहा। सुरेश्वर एकाएक अपने खोल से बाहर आ गया। बोला, ‘‘बन गया?’’ ‘‘हां’’ अनु ने कहा। खाना खाकर वह उठा। कुल्ला करने के लिए पानी का गिलास लिया। अरे! अचानक गिलास छूट का फर्श पर गिर गया तथा चूर-चूर हो गया। सुरेश्वर तुरन्त बोला, ‘‘करूणा, मुझे जीवन बिल्कुल ऐसा ही लगता है, कांच के गिलास-सा। जो कभी भी फर्श पर पड़ कर टूट सकता है, चकनाचूर हो सकता है।’’ ‘‘तुम्हारे मुख से कभी अच्छी बात निकलेगी। सदा मरी-झुलसी बातें ही सोचते हो। पता नहीं एक बार क्या बीमार हो गए कि बस वही रोना लगाए रहते हो। और दुनियां भी तो बीमार होती है। मैं कितनी बार मरती-मरती बची हूं परन्तु कभी मैंने आप जैसी बेसिर-पैर की बातें की हैं।’’ करूणा ने थोड़ा डांटने के स्वर में अपने पति से कहा। सुरेश्वर उठकर चला गया था। वह कुछ लिखना चाहता था, कुछ तनाव ढीला करना चाहता था। उसका विचार था कि कोई संजीवनी कहानी लिख डाले। कई बार उसने यह कहानी शुरू की परन्तु पूरी नहीं हो पा रही थी। कहीं-न-कहीं व्यवधान हो जाता था। वह अपने आपको आस्थावादी लेखक कहता था परन्तु कहानी का अन्त नायक की मृत्यु की ओर बढ़ रहा था। वह बलात् इस विचार को झटक देता परन्तु कोई अन्त भी नहीं सूझता था।

आहट से ही उसने जान लिया था कि उसकी पत्नी खाना खाने के बाद दूसरे कमरे में सोने चली गयी थी। वह अपनी लिखने की मेज पर बैठ गया। बड़ा उतावलापन था कुछ लिखने के लिए परन्तु ज्यों ही उसने लिखने के लिए कलम खोला, वह ठिठक गया। अचानक यशंवत सिंह की धुंधली-सी तस्वीर उभर आई। यशंवत ही उसका खास मित्र था। हनीमून के लिए वह पहाड़ों पर गया था। कहते हैं एक दिन बड़ी खड्ड में नहाने उतरा। लोगों ने रोका भी कि बारिश के दिनों में नहाना बुद्धिमत्ता नहीं। वह नहीं माना था। जैसे संयोग की ही बात थी...खड्ड में अचानक पानी आ गया था इसी के साथ कांच का गिलास टूट गया था। सुरेश्वर को पता चला था तो उसे बड़ा अजीब-सा लगा था। लगा था मानो उसकी मृत्यु हो गयी हो।

सुरेश्वर कोहनियों के बल मेज पर बैठ गया है। वह उस बार गांव गया था, कई वर्षों के बाद। वहां वह जिस भी बड़े-बूढ़े के बारे में पूछें, उसी के विषय में पता चलता- वह तो तीन वर्ष पहले चल बसा या चार वर्ष पहले। वह कारण पूछता रहा था परन्तु मृत्यु का कोई विशेष कारण उसे नहीं मिल रहा था। उसे सग से ज्यादा दुख उस लड़की की मृत्यु के समाचार से मिला था, जो सत्रह-अठारह वर्ष से अधिक नहीं जा सकी थी। कई वर्ष पहले उस लड़की के सिर पर ऊपर से गिरती हुई ईंट लगी थी। उसके बाद वह लड़की सीधे दिमाग वाली हो गई थी। जब कभी सुरेश्वर गांव गया, वह उससे अवश्य मिलता था। पिछली बार प्रेमलता अधिक व्याकुल दिखाई देती थी। बोली, ‘‘बीर जी! मैं जीना नहीं चाहती।’’ ‘‘क्यों?’’ उसने पूछा था।

‘‘कहते हैं मैं अब जवान हो गई हूं। मुझे अब लड़कों में नहीं घूमना-फिरना चाहिए।’’ कहकर वह चुप हो गयी थी। फिर बोली थी, ‘‘बीर जी! मैं सारा दिन एक ही स्थान पर कैसे बैठी रहूं। मेरी मां कहती है- तू बड़ी सीधी है। कहीं लड़कों की बातों में न फंस जाना। मेरी मां बड़ी चतुर बनती हैं। होंगी ही। लेकिन मैं क्या करूं, कहां जाऊं? सुरेश बीर जी! क्या मुझे तुम्हीं शहर नहीं ले जा सकते? मैं भाभी के पास रहूंगी। बिल्कुल तंग नहीं करूंगी।’’

सुरेश्वर उसके प्रस्ताव से चौंक गया था परन्तु उसने सांत्वना देते हुए कहा था, ‘‘कोई बात नहीं। निराश नहीं होना। मैं तुझे अगली बार शहर अवश्य दिखाऊंगा।’’ और इस बार वह गांव आया था, तो उसकी मृत्यु का समाचार सुनकर निराश हो गया था। उसे लगा था- मानो संजीवनी के अभाव में वह स्वयं मर गया था। शहर लौटने पर उसकी इच्छा थी कि प्रेमलता की मृत्यु का दुखद समाचार वह अपनी पत्नी को सुनाये परन्तु उसने नहीं सुनाया था। करूणा को ऐसी खबरें व्यर्थ की लगती थीं लेकिन सह समाचार सुरेश्वर के लिए मात्र समाचार नहीं था, एक अदृश्य मानवीय सम्पर्क एवं सम्वेदना के चटक जाने का पर्याय था।

उसने मस्तिष्क में अचानक लहरियां उठने लगीं। वह अब अपनी कहानी को पूरा करने में जुट गया। उसे भय था कि कहीं कहानी अधूरी न रह जाए। वह रात भर बैठा लिखता रहा...... लिखता रहा।

रात की मैं-मैं तू-तू बहुत पीछे छूट गई। प्रातः होने पर करुणा ने चाय बनाई तथा सुरेश्वर के कमरे में पहुंची। सुरेश्वर अपनी कोहनियां मेज पर टिकाये कहानी के कागजों पर ही झुका हुआ सो रहा था। करूणा बोली, ‘‘अब उठो भी। सारी रात भी यों ही काट दी। भला कहानी फिर नहीं लिख सकते थे।’’ लेकिन सुरेश्वर नहीं बोला।

करुणा ने सोचा शायद वह अभी भी उससे नाराज है। अतः उसने चाय मेज पर रखकर सुरेश्वर को गुदगुदी की, परन्तु सुरेश्वर नहीं हिला...गुदगुदी उसे भाव-विभोर नहीं कर पायी। करुणा ने फिर गुदगुदी की परन्तु नहीं...... कोई प्रतिक्रिया नहीं। ‘‘नहीं। नहीं।’’ करुणा चिल्लाई और अचानक गिर पड़ी। सुरेश्वर अब भी कुर्सी पर बैठा था, बिना किसी प्रतिक्रिया के।