जिज्ञासा / गिरिराजशरण अग्रवाल
जो भी सुनता था अस्पताल की तरफ़ दौड़ा चला आता था। हर एक की जुबान पर एक ही चर्चा थी। कैसे हुआ, कहाँ हुआ और फिर किस-किस के चोट लगी? सब लोग इंमरजेंसी वार्ड की ओर दौड़ते हुए। अंदर घुसकर अथवा झाँककर देखने की धुन। डॉक्टरों की भागदौड़ और लोगों के चेहरों पर आते-जाते भावों का संगम। बढ़ती हुई भीड़ और भीड़ में अपने-अपनों को ढूँढ़ने की सहज जिज्ञासा। पुलिस द्वारा डाँट-फटकार, लेकिन उपस्थित समुदाय पर उसका कोई असर नहीं। एक-दूसरे से किए जाते सवाल और उनके अधूरे उत्तर। ‘शायद बस टकरा गई।’ ‘यह पता चला, कहाँ?’ ‘पेड़ से, नगीना रोड पर।’ ‘यह पता चला किस-किस के चोट लगी है?’ ‘अमुक अधिक घायल हुआ है।’ ‘नहीं, शर्मा के अधिक चोट लगी है। उसका तो सिर खील-खील हो गया है।’ ‘बेचारा---।’ ‘सुना है, ख़ून बहुत निकल गया।’ ‘हाँ, फौरन ख़ून चढ़ाना जरूरी है।’ ‘तब तो जान ख़तरे में ही समझो।’ ‘और क्या?’ ‘ख़ून तो यहाँ मिल ही जाएगा?’ ‘नहीं मिल रहा है, तभी तो।’ ‘क्या कहा? अस्पताल में ख़ून नहीं है?’ ‘आख़िर यह अस्पताल है या---’ ‘साले सारे अस्पतालों की यही हालत है।’ ‘पैसे दो तो सब-कुछ मिल जाता है, बिना दक्षिणा कोई किसी की बात नहीं पूछता।’ ‘अस्पताल ही क्या, यह तो सब जगह हो रहा है।’ ‘किसी की जान पर बीत रही है और इन सालों को पैसे चाहिए।’ ‘कौन माँग रहा है रुपये ?’ ‘हमें नहीं पता, ये सज्जन कह रहे थे।’ ‘आप लोग ऐसे ही बकवास करते रहेंगे!’ ‘क्या कहा? हम बकवास कर रहे हैं? लो और सुनो।’ ‘सहानुभूति प्रकट करना भी बकवास करना लग रहा है।’ ‘आई एम सॉरी, आप सहानुभूति प्रकट कीजिए।’ ‘अरे आप तो बेकार नाराज हो गए!’ ‘आप अंदर से आ रहे हैं?’ ‘हाँ, क्यों?’ ‘उसकी तबीयत कैसी है?’ ‘किसकी?’ ‘अरे भाई, शर्मा की।’ ‘मुझे नहीं पता।’ ‘क्यों नहीं पता? फिर किसे पता है?’ ‘डॉक्टर से पूछिए, रास्ता छोड़िए मुझे जरूरी काम है।’ ‘कैसा अकड़कर चल रहा है!’ ‘जैसे सारा काम इसे ही करना हो।’ ‘वह मौत से जूझ रहा है और इन्हें अपने काम की जल्दी है।’ ‘छोड़ो भाई, चलो वहाँ चलकर पूछते हैं।’ ‘हाँ, हाँ, आओ।’ ‘क्यों, आपको पता है, ख़ून मिल गया क्या?’ ‘नहीं, अभी इंतजाम नहीं हुआ।’ ‘क्यों नहीं हुआ?’ ‘यहाँ रक्त बैंक नहीं है।’ ‘फिर तो कहीं से मँगाना पड़ेगा!’ ‘क्यों, यहाँ तो इतनी बोतलें हैं, किसी से भी मिल सकता है।’ ‘कहाँ हैं? जल्दी बताओ।’ ‘अभी लाते हैं, कहीं भी रखा हो।’ ‘एक बोतल तो तुम भी हो।’ ‘क्या कहा, सँभालकर बोलिए। आप मुझे बोतल बता रहे हैं।’ ‘क्या ख़ून तुम्हारे अंदर नहीं है? दे दो न जाकर।’ ‘वाह साहब, पूछना भी गुनाह हो गया।’ ‘क्या हमारा ख़ून फ़ालतू है?’ ‘यह भी ख़ूब रही।’ भीड़ बढ़ती जा रही है और उतनी ही संख्या में सवाल भी। हर जवाब एक सवाल बनकर सामने आ जाता है। सबको यह जानने की चिता है कि आख़िर शर्मा की हालत कैसी है। पर इस चिता ने सवाल ही पैदा किए हैं। जवाब के लिए सब एक-दूसरे की तरफ़ देख रहे हैं। ‘आपमें से किसी का ख़ून बी ग्रुप का है?’ ‘हमें तो नहीं पता।’ ‘यह किसलिए पूछ रहा है?’ ‘उसी शर्मा के लिए।’ ‘देखिए मरीज का ख़ून बहुत ज्यादा निकल गया है, उसे ख़ून की तुरंत जरूरत है। आपमें से जिसका ग्रुप बी हो वो पैथोलाजी रूम में आ जाए।’ ‘चलो, अपना ख़ून भी टैस्ट करा लें।’ ‘क्यों?’ ‘शायद अपना बी ग्रुप हो।’ ‘अपना तो नहीं है।’ ‘तुम्हें पता है?’ ‘हाँ।’ ‘फिर तुम तो छूटे।’ ‘देखें कौन वहाँ पहुँचा है?’ ‘क्यों, तुम्हारा क्या इरादा है?’ ‘वैसे ही जानकारी के लिए।’ ‘पर अभी तो सभी यहीं खड़े हैं।’ ‘खड़े तो हैं।’ ‘फिर हम ही क्यों चलें?’ ‘किसी से पूछें तो।’ ‘क्यों भाई, ख़ून मिला?’ ‘मिल गया है।’ ‘किसने दिया?’ ‘पता नहीं।’ ‘अजीब आदमी हो।’ ‘यहाँ खड़े हो फिर भी इतनी-सी बात पता नहीं?’ ‘अच्छा ही हुआ।’ ‘क्या?’ ‘ख़ून मिल गया।’ ‘हाँ, अब बेचारे की जान बच जाएगी।’ ‘बड़ा अच्छा आदमी है।’ ‘कौन?’ ‘अरे वही शर्मा।’ ‘जिसके चोट लगी है?’ ‘हाँ।’ ‘तुम भी तो उसे देखने आए हो।’ ‘नहीं तो।’ ‘फिर क्यों?’ ‘वैसे ही ख़बर सुनी तो हम चले आए।’ ‘अजीब आदमी हो।’ ‘क्या कहा?’ ‘बेकार भीड़ जोड़ने चले आए।’ ‘क्यां तमाशा तुम नहीं देख रहे?’ ‘छोड़ो इन बातों को।’ ‘ख़ून किसने दिया?’ ‘कोई अच्छा आदमी होगा।’ ‘रिश्तेदार होगा, रिश्तेदार। हर आदमी क्यों अपना ख़ून निकलवाएगा?’ ‘कोई जरूरी थोड़े ही है कि रिश्तेदार ही हो।’ ‘फिर कौन है?’ ‘पता चलाया तो था।’ ‘पर पता चला भी तो नहीं।’ ‘क्यों, ख़ून देनेवाला नौजवान होगा?’ ‘और क्या?’ ‘हर आदमी तो ख़ून दे भी नहीं सकता।’ ‘दे सकता है।’ ‘कोई भी!’ ‘हाँ।’ ‘फिर इतने लोग चुपचाप क्यों खड़े रहे?’ ‘जैसे हम खड़े रहे।’ ‘फिर वही बात!’ ‘चलो कहीं बैठते हैं।’ ‘थक गए!’ ‘इतनी देर से खड़े हैं।’ ‘कहाँ बैठोगे?’ ‘कहीं भी।’ ‘वहाँ घास में बैठेंगे।’ ‘वो तो गीली है, कपड़े ख़राब हो जाएँगे।’ ‘फिर!’ ‘उस बेंच पर बैठते हैं।’ ‘चलो।’ ‘यार इतनी भीड़ में भी परेशानी है।’ ‘कितनी कम बेंचें हैं यहाँ?’ ‘तुम देख रहे हो?’ ‘क्या?’ ‘यह आदमी बेंच पर सो रहा है।’ ‘और इतने लोग खड़े हुए हैं।’ ‘आओ उसे उठाएँ।’ ‘छोड़ो भी।’ ‘क्यों छोड़ें आख़िर , बेंच सोने के लिए डाली गई हैं?’ ‘बात तो ठीक है।’ ‘---’ ‘ऐ मिस्टर’ ‘तुम्हें क्या हुआ?’ ‘उठकर बैठो।’ ‘अजीब आदमी हो।’ ‘यहाँ इतनी भीड़ जुड़ी है, इसे जैसे कुछ पता ही नहीं।’ ‘उठो, उठो, बेंच बैठने के लिए है।’ ‘यह तो बोलता ही नहीं।’ ‘अरे, यह तो वही है।’ ‘कौन?’ ‘जो हमसे झगड़ रहा था।’ ‘हाँ, है तो वही।’ ‘वहाँ तो इसे काम की जल्दी थी।’ ‘यहाँ मस्ती से आँखें बंद किए पड़ा है।’ ‘क्यों जबरदस्ती उठोगे?’ ‘हाँ, अब आँखें खोलो।’ ‘देखो न, लातों के भूत बातों से मानते ही नहीं।’ ‘उठकर बैठो।’ ‘क्यों?’ ‘हम भी बैठेंगे।’ ‘मैं थोड़ा थक गया हूँ।’ ‘तो क्या हम आपके पैर दबाएँ?’ ‘शुक्रिया, एक गिलास पानी ला दीजिए।’ ‘क्या कहा?’ ‘बस एक गिलास पानी।’ ‘यह आपकी कमीज पर ख़ून कहाँ से लगा है?’ ‘वैसे ही।’ ‘नहीं।’ ‘फिर?’ ‘डॉक्टर जल्दी में था।’ ‘क्या तुम्हारे ख़ून चढ़ाया गया है?’ ‘नहीं।’ ‘तुम भी उस बस में थे?’ ‘नहीं।’ ‘तो फिर ख़ून कहाँ से आया?’ ‘ख़ून लेने के बाद डॉक्टर ने सिरिज--- ‘क्या मतलब?’ ‘झटके से निकाल लिया और कुछ बूँदें मेरे कपड़ों पर आ गईं।’ ‘तो क्या---’ ‘ख़ून तुमने दिया है?’ ‘नहीं।’ ‘बताते क्यों नहीं, हम इतनी देर से परेशान हैं।’ ‘ख़ून किसने दिया है?’ ‘उसको जरूरत थी, मेरे पास ज्यादा था।’ ‘और तुमने दे दिया।’ ‘हाँ।’ ‘तुम लेटो।’ ‘हम दूसरी बेंच पर बैठ जाते हैं।’ ‘एक गिलास पानी, लाएँगे न?’