जितनी चाबी भरी राम ने उतना चले खिलौना / जयप्रकाश चौकसे

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जितनी चाबी भरी राम ने उतना चले खिलौना
प्रकाशन तिथि : 05 मार्च 2021


पुराने अखबारों को गुज़िश्ता दौर में पानी में डुबोकर रख दिया जाता था। फिर एक दिन बाद अखबारों की इस लुगदी से मां सुंदर-सुंदर खिलौने बनाया करती थी। उस दौर में कुछ पीढ़ियों का बचपन इसी तरह के खिलौनों से खेलते हुए बीता। घर के बाहर गिल्ली-डंडा, कंचे, कबड्डी खेली जाती थी। पतंग उड़ाने का शौक भी पाला जाता था। कालांतर में घटिया किताबों को लुगदी साहित्य कहा जाने लगा। समय के साथ फिर नए और आधुनिक खिलौने बाजार में आए। बैटरी से चलने वाले खिलौने भी आए। चाबी भरकर खिलौने चलाएमान बनाए गए। कहावत बनी कि उतना ही चला खिलौना जितनी चाबी भरी राम ने।

खिलौने का एक स्वरूप यह सामने आया कि टॉय गन बनी, बच्चे मशीन गन के खिलौने लेकर एक-दूसरे पर आक्रमण का खेल खेलने लगे। यह समाज में हिंसा के बढ़ते दौर के समय हुआ। खिलौनों के द्वारा बम विस्फोट भी कराए गए। चोर-पुलिस पर आधारित खिलौने तो अब मासूम लगने लगे हैं। रिमोट कंट्रोल से संचालित खिलौने बनने लगे। दुनियाभर में बच्चों की फिक्र करने वाली वैश्विक संस्था ने विश्व के 5 फ़िल्मकारों को बच्चों के खिलौने के विषय पर फिल्म बनाने के लिए पूंजी दी। सत्यजीत राय की बनाई फिल्म को इस लिहाज से श्रेष्ठ माना गया। फिल्म का कथासार यूं है कि एक अमीर दंपति के बच्चे के पास चाबी से चलने वाले ढेर सारे खिलौने हैं। माता-पिता अपने व्यापार में अपना अधिकतर समय लगाते हैं और घर में आया बच्चे को पाल रही है। बंगले के परिसर में उनका माली भी रहता है। माली के बच्चे के पास गिल्ली-डंडा है, कंचे हैं और मां द्वारा बनाए गए लुगदी के खिलौने हैं। दोनों बच्चों के बीच खिलौनों को लेकर एक प्रतिस्पर्धा चल रही है। अमीर बालक को अपने महंगे स्वचालित खिलौनों पर गर्व है, तो गरीब बालक अपनी अलग ही मन की मस्ती में लीन है। एक दिन बालकों की प्रतिस्पर्धा गंभीर रूप ले लेती है। गरीब बच्चे की पतंग उड़ती है और इसका जवाब देने लायक अमीर बालक के पास कोई स्वचालित खिलौना नहीं है। अपने को पराजित महसूस करने वाला अमीर बालक अपने सारे स्वचालित खिलौनों में चाबी भरकर उन्हें एक साथ चलाता है। अब उसके आस-पास सारे खिलौने मंडरा रहे हैं और उसका एकांकीपन और गहरा गया है। महान सत्यजीत राय ने बच्चों के खिलौने जैसे विषय पर एक फिल्म बना दी जो आर्थिक खाई को रेखांकित करती है।

राज कपूर और उनके कैमरामैन राधू करमरकर ने ग़रीबों की बस्ती का सेट स्टूडियो में लगाया यह बस्ती लोकल ट्रेन के निकट बसी प्रस्तुत की गई थी। पार्श्व में स्वचालित टॉय ट्रेन का उपयोग करके ऐसा प्रभाव पैदा किया गया मानो गरीबों की बस्ती, लोकल ट्रेन के करीब ही बनी है। कुछ फ़िल्मकार, कलाकारों को खिलौनों की तरह इस्तेमाल करते हैं। अमिय चक्रवर्ती की फिल्म ‘पतिता’ में शैलेंद्र रचित गीत है, ‘मिट्‌टी के खिलौनों से खेलते हो बार-बार किसलिए, इन टूटे हुए खिलौनों का श्रृंगार किसलिए।’ देव आनंद और ऊषा किरण अभिनीत भूमिका, सबसे अधिक भावना जगाने वाली साबित हुई।

विश्व के खिलौना व्यापार पर 70% अधिकार हमारे चीन का है। इस व्यवसाय में हमारे भारत की भागीदारी मात्र 1.5 % तक ही सीमित है, अब सरकार इस उद्योग को बढ़ावा देने का भरपूर प्रयास कर रही है। गोया की नए खिलौनों का डिज़ाइन बनाना कोई बच्चों का खेल नहीं है। दरअसल व्यवस्था अलग किस्म का खिलौना गढ़ रही है। ये स्वचालित खिलौने स्वतंत्र विचार रखने वालों को मोबाइल पर धमकियां देते हैं। गोलियां तो कभी-कभी चलती हैं, जैसे गौरी लंकेश के प्रकरण में हुआ था, परंतु मोबाइल पर गालियां दागी जाती हैं।