जितेन्द्र : वानप्रस्थ नहीं मस्ती-युग / जयप्रकाश चौकसे

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जितेन्द्र : वानप्रस्थ नहीं मस्ती-युग
प्रकाशन तिथि :08 अप्रैल 2017


जितेन्द्र का 75वां जन्मदिवस तीन दिवसीय समारोह के तहत जयपुर में मनाया जा रहा है और इसमें फिल्मोद्योग के लगभग सभी सितारे शिरकत कर रहे हैं। मुंबई के गिरगांव के गरीब परिवार के जितेन्द्र घर-घर जाकर ज्वेलरी बेचते थे। वह असल दिखने वाली ज्वेलरी होती थी। शांताराम ने उन्हें 'गीत गाया पत्थरों ने' में नायक की भूमिका दी। रवि नगाइच की जेम्स बॉन्डनुमा 'फर्ज' ने उन्हें सितारा हैसियत दिलाई। इसके बाद की मसाला फिल्मों में जितेन्द्र ने जमकर उछल-कूद की और शम्मी कपूर अभिनीत फिल्मों की परम्परा को आगे बढ़ाया। उनका जन्म नाम रवि कपूर है और उस दौर में फिल्मोद्योग के प्रथम कपूर घराने के सभी सदस्य सक्रिय थे, अत: उन्हें जितेन्द्र के नाम से प्रस्तुत किया गया। फिल्मोद्योग में अत्यंत साधारण प्रतिभा वाले लोगों के सफल सितारा बनने की लंबी परम्परा है जैसे शेख मुख्तार, प्रदीप कुमार। इसी परम्परा के राजेन्द्र कुमार को लगातार सफल फिल्मों में काम करने के कारण जुबली कुमार जाता था!

बहरहाल जितेन्द्र अत्यंत ईमानदार व्यक्ति हैं और स्वयं वे कई बार अपनी अभिनय लघुता की बात करते रहे हैं। जैसे उन्होंने इमिटेशन ज्वेलरी को हमेशा असल की नकल कहकर बेचा था, वैसे ही उन्होंने अपनी अभिनय क्षमता को उसकी लघुता के साथ स्वीकार किया। एक दौर में उन्होंने भव्य पैमाने पर 'दीदार-ए-यार' बनाई, जिसकी असफलता ने उन्हें लाखों का कर्ज दिया। इसे चुकाने के लिए उन्होंने दक्षिण में बनी अनेक हिंदी फिल्मों में अभिनय किया। दक्षिण का फिल्मकार सीमित बजट में कम समय में फिल्म बनाता है, क्योंकि उन्होंने मुंबई उद्योग से बहुत पहले यह तथ्य जान लिया था कि फिल्म नहीं वरन् बजट सफल या असफल होता है। भारत के मध्यम वर्ग की महिलाओं की किफायत की शैली के कारण ही आर्थिक मंदी के दो दौरों का भारत पर गहरा प्रभाव नहीं हुआ। कंजूसी एवं किफायत में अंतर होता है। दक्षिण की फिल्म शैली में प्रतिभा नहीं वरन् अनुशासन का महत्व है।

जितेन्द्र ने दक्षिण भारत में बनी फिल्मों के निर्माण के 15 वर्षों में कभी रोटी, चावल, मक्खन और मलाई नहीं खाई। उनका स्वभाव तो लज़ीज खाने वाले एक कपूर का है परंतु उन्होंने अपनी पसंद पर पत्थर रखकर हंसते-गाते, फल खाते हुए वर्षों बिताए। उस दौर के अंत में जब पहली बार उन्होंने घी चुपड़ी रोटी खाई तो वह दिन उनके लिए उत्सव का दिन था। एक तरह से दक्षिण में सफलता का वह दौर जितेन्द्र के लिए उपवास का दौर था। किसी भी अभिनेता ने इतना लंबा उपवास नहीं किया। अपनी इच्छाओं पर अंकुश रखने के काम को तपस्या मानना चाहिए। आज जितेन्द्र का परिवार जिस राजसी वैभव से जीवन जी राह है, उसकी आधारशिला जितेन्द्र के अनुशासन और उपवास ने रखी है। उन्होंने अपने स्वाभाविक कपूर मिज़ाज को लंबे समय तक दबाए रखा। संतान की चैन की नींद के पीछे उनके माता-पिता के अनगिनत रतजगों का हिसाब तो चित्रगुप्त भी नहीं रख पाते।

कुछ लोग अध्यात्म की तलाश में वन-वन भटकते हैं, कांटों की शय्या पर लेटते हैं। एक पैर पर खड़े होकर सूर्य को नमन करते हैं। अपने काम को निष्ठा से करते रहना ही अध्यात्मिक शांति देता है। जितेन्द्र ने यह जानते हुए कि फिल्म में उसकी भूमिका तर्क प्रेरित नहीं है,वरन वह कोरी उछल-कूद मात्र है, उन्होंने उसे पूरी निष्ठा व संजीदगी से निभाया गोयाकि तर्कहीनता व मूर्खता को भी विश्वसनीयता देने का असाध्य काम किया। उन्होंने किस कदर अपनी स्वाभाविक इच्छाओं को मारा है, यह केवल उनका दिल जानता है।

जितेन्द्र उस अरबी नस्ल के शानदार घोड़े की तरह हैं, जो किसी युद्ध में चेतक-सा काम कर गुजरता है परंतु इस बेचारे को बारात का घोड़ा बनना पड़ा, जिस पर एक गधे जैसा दुल्हा सवार है। राकेश रोशन, ऋषि कपूर और जितेन्द्र समकालीन हैं। राकेश रोशन ने अपनी अभिनय सीमा जानते हुए फिल्म निर्माण-निर्देशन का रास्ता पकड़ा और कमाल की फिल्में बनाईं। मित्रों की इस तिकड़ी में केवल ऋषि कपूर प्रतिभाशाली अभिनेता थे और उन्होंने अमिताभ बच्चन की सफलता के अंधड़ में भी एकल नायक अनेक फिल्मों में काम किया और उम्रदराज होने पर 'दो दुनी चार,' 'अग्निपथ (2),'और 'कपूर एंड सन्स' में अपनी अभिनय प्रतिभा की विलक्षण प्रस्तुति दी। जितेन्द्र ने अनुशासन व संयम से वह आधारशिला रखी, जिस पर उनकी पुत्री ने परिश्रम करके छोटे परदे की महारानी का सिंहासन पाया।

आज जयपुर में ये सारे मित्र एकत्रित हुए हैं। पुरानी मान्यता के अनुसार यह संन्यास का दौर है परंतु सच तो यह है कि इन तीनों को अब जी खोलकर मस्ती करनी चाहिए। इस आनंद के वे हकदार हैं। यह उनका जन्मसिद्ध नहीं वरन् कर्मसिद्ध अधिकार है। जयपुर पिंक सिटी है और इन तीनों को इसे लाल करने का अधिकार है, वह भी महज तीन दिन। ये मस्ती के तीन दिन ही उनका पुरस्कार है।