जिनगी रेलगाड़ी की तरह है साब! / रवीन्द्र प्रभात

Gadya Kosh से
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हवा को चीरती हुयी तेज़ गति से काठगोदाम -हावड़ा एक्सप्रेस अपने गंतव्य की ओर बढ़ रही थी। कम्पार्टमेंट में सन्नाटा पसरा हुआ था। स्लीपर कलास में सबसे ऊपर के बर्थ पर गहरी नींद में सोते हुये भी मेरी आँखें अचानक खुल जाती, क्षण-भर को सिर उठाता, कंपार्टमेंट में नज़रें घुमाता और सचेत हुये बिना क्षण भर बाद, फिर से हवा वाली तकिये पर अपना सिर टिकाकर सो जाता। सामने वाले वर्थ पर सोये व्यक्ति ने कहा " सामान की चिंता सोने नहीं दे रही है क्या ?" मैंने जबाब में सहमति दिखते हुये अपना सिर हिला दिया, फिर उधर से आवाज़ आई कि पिछले साल इसी ट्रेन में किसी ने मेरा भी सारा सामान लूट लिया, हाथ में कुछ भी नहीं बचा। तब से ट्रेन में मुझे भी नींद नहीं आती।

उसकी उम्र पचास के आसपास थी। बाल उलझे, चेहरे पर दयनीयता के भाव और आँखों में नमी। उसकी बातों को सुनकर मेरी नींद उड़ चुकी थी और अंतर में भय की परछाइयाँ गहराती जा रही थी। पहली बार चढ़ा था इस ट्रेन में। उस व्यक्ति की बातों से भीतर ही भीतर एक असीम वेदना की टीस हुयी और मैंने अपनी इच्छा के विरुद्ध सहसा आँखें खोल ली। एक भयानक स्मृति...वह उत्तेजना....वह खौफ....महज एक संयोग था।

ट्रेन के साथ-साथ समय अपनी रफ्तार से आगे बढ़ रहा था और मैं कुछ गुनते-सोचते करवटें बदलता जा रहा था। इसी बीच न जाने कब नींद लग गयी। जब नींद खुली तो कानों में कई आवाज़ें आती-जाती टकराने लगी ....ओएड गरम सिंघाड़ा...आड खास्ता समोसा खाइये .....एड झाल मूढ़ी....एड मैदा वाला केक.....दानेदार मूँगफली बोलिएगा........केक बोलिएगा साब..... चना ज़ोर गरम बहुते मजेदार है बाबू, चख के देखिये....... सेंडविच और पापड़ कड़ाकड़......धड़ाधड़ भागती ट्रेन में कई आवाज़ें एक साथ टकराने लगी। यह सुबह होने का संकेत था। मेरी नींद पूरी तरह खुल चुकी थी और मैं अपने वर्थ पर बैठे-बैठे चाय वाले को अपने पास बुलाया, उससे चाय ली और धीरे-धीरे चुस्की लेने लगा।

जसीडीह से जैसे ही ट्रेन आगे बढ़ी कम्पार्टमेंट में कुछ लड़कियों की आवाज़ें दस्तक देने लगी। उन आवाज़ों में खनक थी। ऐसे लगा जैसे कम्पार्टमेंट में रौनकें लौट आई हो .....कोरस में आती हुयी आवाज़ जैसे कानों में मिस्री घोल गयी। वर्थ के ऊपर बैठे-बैठे सारा नज़ारा दृश्यमान हो रहा था। नीचे वर्थ पर बैठे कुछ मनचले उन लड़कियों पर फब्तियाँ भी कस रहे थे, मगर उन सब से बेखबर वे निर्द्वंद गाये जा रही थी ....."दुनिया वजूद तेरा बड़ा बाँकपन लगे .......!"

मेरी कौतूहल निगाहें एकटक उन लड़कियों को देख रही थी। इसके पहले कभी यह दृश्य देखा नहीं था। "सामने वाले भाई साहब ने बताया कि ये सभी बंगलादेशी लड़कियां हैं। सुबह होते ही इन लड़कियों का एक पूरा जत्था ट्रेन मे पूरी तरह फैल जाता है। इन सबकी जीविका का यही साधन है। काफी बोल्ड होती है ये लड़कियां, नहीं डरती किसी से। "

जैसे ही ट्रेन मधुपुर रुकी। गेट पर चढ़ने और उतरने वालों की ज़ोर आजमाइश शुरू हो गयी। आरोप-प्रत्यारोप वाली आवाज़ें गूंजने लगी। कम्पार्टमेंट शोर-शराबे से भर गया। उनही शोर-शराबों के बीच लड़कियों की सुरीली आवाज़ भी गूंज रही थी ....."ये देहिया है कागज का पुतला हवा लगत उडी जाना .....। " धक्कम-धुक्की के बीच लड़कियों के हाथ कुछ मांगने के अंदाज़ मे मेरे सामने वाले वर्थ की ओर बढ़े। सामने वाले सज्जन ने पर्स को टटोला और दस के नोट निकाले। उसने तपाक से कहा " रक्खे रहो साब अपने हाथ में हम्म आपके पास आकार ले लेंगे। " इतना कहकर उसने अपने कदम उसकी ओर बढ़ाए। ऊपर के बर्थ से पैसे लेने के लिए उसने जैसे ही हाथ ऊपर किए उसकी ढीली समीज और फिसलते दुपट्टे ने बेइंसाफ़ी की। उस व्यक्ति ने उसके बक्ष के आसपास का सारा हिस्सा अपनी आँखों में भरकर मंद-मंद मुस्कुराया। उस लड़की ने अपने दुपट्टे को संभालती नज़रें नीची करके आगे बढ़ गयी और अपनी सहेलियों के सुर में सुर मिलती हुयी ज़ोर-ज़ोर से गाने लगी -"बाँकेपियाs कहो हाँ दगाबाज हो ......।

कौन क्या सोच रहा है, कौन क्या कह रहा है इन सब से बेपरवाह उन लड़कियों के रहने-पहनने और गाने का अपना एक अलग अंदाज़ था। वे इतनी भयमुक्त और आश्वस्त दिख रही थी कि इस लाइन में कहीं तक जा सकती थी। खोमचे वाले सहकर्मियों के भद्दे मज़ाक या घूर रहे बर्दीधारी सिपाहियों के डंडे का कोई डर नहीं था उसको और ना ही फब्तियाँ कसने वाले मनचले की परवाह। उसकी आवाज़ उसकी जीविका थी, उसके दोनों हाथ और मर्दों को मात देने वाली उसकी हिम्मत हमेशा उसकी मुस्कुराहट के आवरण से ढकी रहती थी। यानि कवच बनाकर उसकी सहायता करती थी। मुझे नारीशक्ति की असली पहचान उस दिन उन लड़कियों में दिखी।

गाड़ी चितरंजन पहुँच चुकी थी। मैं नीचे के बर्थ पर आकर बैठ गया। इंडिया टुडे के पन्ने पलटते हुये समय के सदुपयोग का यत्न करने लगा। तभी देखा कि एक महिला, गोद में एक बच्चे को लिए खजूर के झाड़ू से पूरे कम्पार्टमेंट को बुहार रही थी। पैंतीस के आस-पास की वह महिला थी, बुहारते हुये सबको आतुर निगाहों से देख रही थी। सभ्य ढंग से पहने वस्त्र, जो लड़के के अश्रु जल और असमंजसता के कारण अव्यवस्थित हो चले थे। जैसे ही मेरे पास आयी, मुझसे रहा नहीं गया। मैंने कहा -"अच्छी भली हो कोई काम क्यों नहीं करती ?"

महिला तो पहले सकपकाई फिर बड़ी मासूमियत से बोली। "इहों तs कामे है नs......सरकार का काम है.....शरम कईसन साब....?" इतना कहकर वह अपने काम में मशगूल हो गयी। जिसे जितना बन पड़ा उस महिला को लोग देते गए और वह मुस्कुराकर उनके पैसे को माथे से लगाकर अपनी कृतज्ञता अर्पित करती रही। थोड़ी देर के बाद वह इतमीनान होकर गेट के पास पालथी मारके बैठ गयी और अपने अँचरा की गांठ खोलके चिउरा- चीनी फाँकने लगी देश-दुनिया से बेखबर पूरी तरह इतमीनान होकर।

मुझसे रहा नहीं गया, मैंने पूछा -"क्या नाम है तुम्हारा ?"

"फूलमती ......फुलिया-फुलिया क़हत हैं लोग। "

"कहाँ रहती है ?"

"स्टेशन पर"

"डर नहीं लगता ?"

"डर काहे का साब ....माल बाबू, बड़े बाबू,छोटे बाबू, दरोगा-पूलिस सब हमके पहचानत हैं !"

"मरद का करत हैं तोरे ?"

"पलदारी करत हैं माल गोदाम में ....दिन-भर जे कमात हैं राति में पी के टून होई जात हैं....बाकी घर संभाले के लेल त हम हईहें हैं साब !"

"अपनी इस जिंदगी से संतुष्ट हो ?"

इतना सुनते ही वह महिला गंभीर हो गयी। मन ही मन लगी बुदबुदाने, फिर सहज होते हुये बोली- "साब जी छोड़ो न अईसन बतकही त रोज लोग करत हैं। हमदर्दी दिखाके अगिला टीशन पर उतरि जात हैं। जिनगी रेलगाड़ी की तरह है साब, सबको देर-सवेर उतर जाना है। "

उसकी बातों को सुनकर मैं हतप्रभ रह गया। सही ही तो कहा उसने कि यह जीवन एक रेलगाड़ी है, जो एक स्टेशन से चलकर गंतव्य तक जाती है। न जाने कितने स्टेशनों से होकर गुज़रती है। मार्ग में अगणित पथिक आपके साथ हो लेंगे और अगणित सहयात्री आपसे अलग हो जाएँगे.........। यही सोच रहा था कि कंपार्टमेंट में चहल-पहल बढ़ गयी, बगल वाले ने बताया कि हावड़ा स्टेशन पहुँचने को है। मैंने बैग उठाया और एक नज़र उस महिला को आखिरी बार देखते हुये मैं ट्रेन से नीचे उतर गया.....पूरी तरह उस महिला के सवालों से निरुत्तर होकर।