जिन्दगी की भागम-भाग / अंजू खरबंदा

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आयुष के एडमिशन के लिए उसके साथ द्वारका स्थित इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी आई हूँ।

12वीं की परीक्षाएँ ख़त्म होते ही ज़िन्दगी की असली परीक्षा शुरू हो जाती है। स्कूल लाइफ तक तो सिर्फ़ अच्छे अंक लाने की चिंता होती है उसके बाद शुरु होती है असली जद्दोजहद!

जो बच्चे रेगुलर कॉलेज में एडमिशन लेना चाहते हैं उनके लिए "कौन-सा कॉलेज सबसे बेस्ट" की होड़ लगी रहती है! उस समय माता पिता और बच्चों के सिर पर स्ट्रेस लेवल बहुत अधिक होता है, मानो रिप्युटेड कॉलेज में एडमिशन न मिला तो आन-बान-शान में कोई कमी आ जाएगी।

कुछ बच्चे कॉलेज की बजाय प्रोफेशनल कोर्सेस को महत्त्व देते हैं। कम्पीटेटिव एग्जाम्स का स्ट्रेस पूरे जोरो-शोरों से सबके सिर चढ़कर बोलता है। एक के बाद एक न जाने कितने एग्जाम... बढ़िया से बढ़िया संस्थान में एडमिशन के लिए भागदौड़!

कुल मिलाकर जब तक अच्छी जगह एडमिशन नहीं हो जाता, रातों की नींद और दिन का चैन गायब ही रहता है। कल बातों ही बातों से बच्चों से पता चला कि कोई-कोई बच्चे तो मनपसंद संस्थान में एडमिशन न मिलने से इतने क्षुब्ध होते हैं कि एक जगह एडमिशन हो जाने के बावजूद भी इससे अच्छी जगह एडमिशन के लिये ट्राई करते रहते हैं और-और अवसर मिलते ही शिफ्ट हो जाते हैं जबकि उनके दो सेमेस्टर भी हो चुके होते हैं परंतु अपनी पसंद का कॉलेज या संस्थान पाने के लिये वे एक वर्ष की बलि खुशी-खुशी चढ़ा देते हैं।

पढ़ाई या कोर्स को लेकर इतना स्ट्रेस बड़ा भयावह है! बच्चे कैरियर के पीछे भागते-भागते अपना बालपन और मासूमियत ही खो देते हैं। वक़्त से पहले बड़े बड़े निर्णय लेने की क्षमता भले ही विकसित हो जाती हैं पर अकेलापन व डिप्रेशन कहीं गहरे तक पैठ जाता है।

और फिर बढ़िया नौकरी की अंधी दौड़! कम्पीटिशन, टारगेट, पाँच अंको में सैलरी, स्टेटस...!

उस समय सबसे ज़्यादा कुछ याद आता है तो वह है स्कूल के खुशहाल और मस्ती भरे दिन!